गुरुवार, 7 दिसंबर 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 7 Dec 2023

आत्म निरीक्षण और विचार पद्धति का कार्य उसी प्रकार चलाना चाहिए जिस प्रकार साहूकार अपनी आय और व्यय का ठीक-ठीक खाता रखते हैं। हमारी दुर्बलताओं और कुचेष्टाओं का खर्च-खाता भी हो और विवेक सत्याचरण तथा आत्म परिष्कार का जमा-खाता भी होना चाहिये। बचत का ठीक-ठीक अनुमान तभी लग सकता है। यदि अपनी जमा अधिक है तो आप सुसंस्कार बढ़ा रहे है। खर्च की अधिकता आप के संस्कारों का दीवालियापन प्रकट करती है। संस्कारों रुची धन एकत्रित करने के लिये सदाचरण की पूँजी बढ़ाना नितान्त आवश्यक है।

जिसमें पूरी शक्ति से काम करने की दृढ़ लगन है उसके मार्ग में चाहे कितना प्रबल विरोध का प्रवाह आये, वह उसकी गति को अवरुद्ध नहीं कर सकता, पीछे नहीं हटा सकता। आप आगे बढ़ने का प्रयत्न जितनी दृढ़ता के साथ करेंगे। सफलता उतनी ही आपके समीप आती जायगी। पुरुषार्थ सब अभावों की पूर्ति करता है। इसीलिए कहा है- “उद्योगे नास्ति दारिद्रयम्” पुरुषार्थ करने पर दरिद्रता नहीं रहती।

आप में योग्यता की कितनी ही कमी हो, यदि आप में वह शक्ति है जो किसी भी निर्दिष्ट लक्ष्य से हटना नहीं जानती, जो कार्य आपने शुरू किया है उसे छोड़ना नहीं जानती तो आप एक दिन सफलता की मंजिल तक पहुँच ही जाएँगे। इसके विपरीत काफी योग्यता रखते हुए भी शिथिल प्रयत्न, अधूरे मन से काम में लगने वाले, असफल हों तो इसमें किसी का क्या दोष।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 शक्ति-स्रोत की सच्ची शोध

अष्ट सिद्धियाँ तो उन छोटे-छोटे कीड़ों में भी वर्तमान है, जो चलते समय पैरों के नीचे दबकर मर जाते हैं। मनुष्य यदि सिद्धियाँ प्राप्त करने की बात सोचे तो असामान्य नहीं मानेंगे। वास्तव में सिद्धियाँ प्राप्त करने की नहीं, वह तो स्वभाविक गुण के रूप में आत्मा में सदैव ही विद्यमान हैं। परमात्मा ने हमें शरीर रूपी यंत्र दिया है, वह उसी की अनुभूति में प्रयुक्त होना चाहिए था पर आधार के अनुपयुक्त प्रयोग के कारण हम आत्मा के उन दिव्य गुणों के प्रकाश से वंचित रह जाते हैं। सिद्धियों की खोज में उचित साधन को भूल जाने के कारण न तो सिद्धियाँ मिल पाती हैं और न शाँति। मनुष्य बीच में ही लड़खड़ाता रहता है।

पातंजल योगसूत्र में एक जगह कहा है- ‘निमित्तमप्रयोजंक प्रकृतीनाँ वरणभेदस्तु ततः क्षेत्रिकवत्।’ अर्थात् जिस प्रकार खेत में पानी लाने के लिये केवल मात्र मेंड़ काट कर उसका जल-स्रोत से संबंध जोड़ देने से खेत में पानी प्रवाहित होने लगता है, उसी प्रकार जीवात्मा में पूर्णता, पवित्रता और सारी शक्तियाँ पहले से ही विद्यमान हैं। हमें शरीर और मन के भौतिक बंधनों की मेंड़ काटकर उसका संबंध भर आत्मा से जोड़ने की आवश्यकता है। एक बार यदि शरीर और मन के सुखों की ओर से ध्यान हटकर आत्मा में केन्द्रित हो जाये, तो आत्मा की संपूर्ण शक्तियाँ और विभूतियाँ जीव को एक स्वाभाविक धर्म की तरह उपलब्ध हो जाती हैं। ऐसा न करने तक उसके और सामान्य कीड़े-मकोड़ों के जीवन में किसी प्रकार का भी अन्तर नहीं।

 स्वामी विवेकानन्द
📖 अखण्ड ज्योति, अक्टूबर १९७० पृष्ठ १


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👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...