सोमवार, 17 अप्रैल 2017

👉 विदाई वेला का मार्मिक प्रसंग

🔵 जून १९७१ का माह था मथुरा में पूज्यवर के विदाई समारोह का आयोजन था। यद्यपि उस वर्ष के अन्दर पूज्यवर ने प्रत्येक बच्चे को किसी न किसी शिविर के बहाने बुला कर भेंट मुलाकात की थी। फिर भी जिन्हें अपने सगे बच्चों से अधिक स्नेह दिया हो, ऐसे पिता को अपने बच्चों से जाते- जाते एक बार मिल लेने की व्याकुलता एवं छटपटाहट हुई और विदाई समारोह का आयोजन उसी की परिणति थी।

🔴 ऐसी ही लगन दूसरी ओर भी लगी थी, बालकों के मन में भी पिता से मिलने की व्याकुलता बढ़ी थी। किन्तु वे पिता के निर्देश के अनुशासन में बँधे थे। एक ओर निश्चल प्यार दूसरी ओर अपना सब कुछ न्यौछावर कर असीम सन्तोष पाने की व्याकुलता, यही था विदाई समारोह का सार।

🔵 विदाई समारोह का आमंत्रण पहुँचने पर बिलासपुर के सभी प्रमुख परिजन सर्व श्री रामाधार विश्वकर्मा, उमाशंकर चतुर्वेदी, बी. के. श्रीवास्तव, रामनाथ श्रीवत्स, हरिहर प्रसाद श्रीवास्तव आदि कार्यक्रम में शामिल हुए। अतिशय व्यस्तता के बावजूद गुरु देव कुशलक्षेम पूछ लेते थे। पहले दिन कलश यात्रा के बाद दूसरे दिन देव आह्वान में हल्की बूँदा- बाँदी हुई। लगा कि इन्द्रदेव ने भी पूज्यवर का विदाई निमंत्रण स्वीकार कर लिया हो। तीसरे दिन चालीस विवाहों का भव्य मण्डप लग रहा था।

🔴 विवाह समाप्त होते- होते इन्द्रदेव खुश होकर अपनी पूर्ण शक्ति से बरस जाना चाह रहे थे किन्तु स्वयं परमात्मा जिनके पुरोहित बने हों ऐसे उन चालीस जोड़ों के भाग्य से किसे ईर्ष्या न हो! पूरे समारोह भर पूज्यवर विभिन्न कर्मकाण्डों की व्याख्या कर सभी चालीस हजार से अधिक परिजनों को भी हँसाते- हँसाते लोट- पोट कर रहे थे। किसी को सुध भी नहीं रही कि कल के बाद हमारे पूज्यवर हमारे बीच से विदा होकर चले जाएँगे। जयमाल से लेकर पूर्णाहुति तक यज्ञ सम्पन्न कर अपने आवास पर लौटे। विवाह सम्पन्न होने के बाद रात ग्यारह बारह बजे मूसलाधार बारिश हुई। आँधी और पानी के बेग से सारे तम्बू की बल्लियाँ गिरने लगीं। कुछ साहसी कार्यकर्ता बल्लियों को पकड़े रहे ताकि तम्बू किसी तरह गिरने से बचें। पूरी रात सभी ने अँधेरे में गुजारी।

🔵 दूसरे दिन ब्रह्ममुहूर्त में अचानक गुरु देव आकर खड़े हो गए और हँसने लगे। मन में सोचा हमने रात भर कैसे गुजारी हम ही जानते हैं और गुरु देव हँस रहे हैं। एक क्षण में जाने क्या- क्या सोचने लगा। उसके बाद जब उन्होंने बड़े प्यार से पूछा बेटा ज्यादा परेशानी तो नहीं हुई? हम सभी ने एक स्वर में कहा- नहीं गुरू जी कोई परेशानी नहीं हुई। मन में यही सोचा कि अगर आँधी न आती तो गुरु देव प्रत्यक्ष एक- एक परिजन से मिलने न आते। हमें लगा कि शायद गुरुदेव ने इन्द्रदेव को न्योता देकर बुलाया हो कि तुम जाओ और बच्चों की परीक्षा लो, फिर सहलाने जाएँगे।

🔴 बरबस रामायण की चौपाइयाँ याद आ गईं। ‘‘छन महिं सबहिं मिले भगवाना। उमा मरम यह काहु न जाना।’’ गुरु देव सभी परिजनों से मिलने के बाद यज्ञशाला की ओर चल दिए। सभी परिजन यज्ञ हेतु तैयार होकर आए थे। गिरे हुए शामियाने चारों तरफ फैले हुए थे, किसी को समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे टेण्ट को व्यवस्थित किया जाए।

🔵 इसी बीच गुरु जी आए और बोले- सभी मिलकर प्रयास करो तो टेण्ट खड़ा हो सकता है। इतना कहने के बाद गुरुदेव ने स्वयं अपना हाथ आगे बढ़ाया। फिर क्या था हजारों हाथ उठ गए। गायत्री माता की जय, यज्ञ भगवान की जय के नारों से आसमान गूँज उठा और टेण्ट खड़ा हो गया। सभी आश्चर्यचकित थे कि इतना विशाल टेण्ट कैसे उठा। गुरु देव ने कहा, आप सबके सम्मिलित प्रयास से यह कार्य संभव हो सका। ऐसे थे हमारे गुरु देव।                    
  
🌹 माखन लाल ,बिलासपुर (छत्तीसगढ़)
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
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👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 84)

🌹 जीवन साधना जो कभी असफल नहीं जाती

🔴 देखा गया है कि अपराध प्रायः आर्थिक प्रलोभनों या आवश्यकताओं के कारण होते हैं। इसलिए उनकी जड़ें काटने के लिए औसत भारतीय स्तर का जीवन-यापन अपनाने का व्रत लिया गया। अपनी निज की कमाई कितनी ही क्यों न हो, भले ही वह ईमानदारी या परिश्रम की क्यों न हो, पर उसमें से अपने लिए परिवार के लिए खर्च देशी हिसाब से किया जाए, जिससे कि औसत भारतीय गुजारा करना सम्भव हो। यह सादा जीवन-उच्च विचार का व्यावहारिक निर्धारण है। सिद्धान्ततः कई लोग इसे पसंद करते हैं और उसका समर्थन भी, पर अपने निज के जीवन में इसका प्रयोग करने का प्रश्न आता है तो उसे असम्भव कहने लगते हैं। ऐसा निर्वाह व्रतशील होकर ही निबाहा जा सकता है। साथ ही परिवार वालों को इसके लिए सिद्धान्ततः व्यवहारतः तैयार करना पड़ता है।

🔵  इस संदर्भ में सबसे बड़ी कठिनाई लोक प्रचलन की आती है। जब सभी लोग ईमानदारी-बेईमानी की कमाई से गुलछर्रे उड़ाते हैं, तो हम लोग ही अपने ऊपर ऐसा अंकुश क्यों लगाएँ? इस प्रश्न पर परिजनों और उनके पक्षधर रिश्तेदारों को सहमत करना बहुत कठिन पड़ता है। फिर भी यदि अपनी बात तर्क, तथ्य और परिणामों के सबूत देते हुए ठीक तरह प्रस्तुत की जा सके और अपने निज का मन दृढ़ हो तो फिर अपने समीपवर्ती लोगों पर कुछ भी असर न पड़े, ऐसा नहीं हो सकता। आर्थिक अनाचारों की जड़ काटनी है, तो वह कार्य इसी स्तर के लोक शिक्षण एवं प्रचलन से सम्भव होगा।

🔴 उस विश्वास के साथ अपनी बात पर दृढ़ रहा गया। घीया मण्डी मथुरा में अपना परिवार पाँच सदस्यों का था। तब उसका औसत खर्च १९७१ हरिद्वार जाने तक २०० रु. मासिक नियमित रूप से बनाए रखा गया। मिल-जुलकर, मितव्ययितापूर्वक लोगों से भिन्न अपना अलग स्तर बना लेने के कारण यह सब मजे से चलता रहा। यों आजीविका अधिक थी। पैतृक संपत्ति से पैसा आता था, पर उसका व्यय घर में अन्य सम्बन्धी परिजनों के बच्चे बुलाकर उन्हें पढ़ाते रहने का नया दायित्व ओढ़कर पूरा किया जाता रहा। दुर्गुणों-दुर्व्यसनों के पनपने लायक पैसा बचने ही नहीं दिया गया और जीवन साधना का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष सरलतापूर्वक निभता रहा।

🔵 मोह परिवार को सजाने, सुसम्पन्न बनाने, उत्तराधिकार में सम्पदा छोड़कर मरने का होता है। लोग स्वयं विलासी जीवन जीते हैं और वैसी ही आदतें बच्चों को भी डालते हैं। फलतः अपव्यय का सिलसिला चल पड़ता है और अनीति की कमाई के लिए अनाचारों के विषय में सोचना और प्रयास करना होता है। दूसरों के पतन व अनुभवों से लाभ उठाया गया और उस चिंतन तथा प्रचलन का घर में प्रवेश नहीं होने दिया गया। इस प्रकार अपव्यय भी नहीं हुआ, दुर्गुण भी नहीं बढ़े, कुप्रचलन भी नहीं चला, सुसंस्कारी परिवार विकसित होता चला गया।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 "सुनसान के सहचर" (भाग 85)

🌹 हमारे दृश्य जीवन की अदृश्य अनुभूतियाँ

🔴 पुण्य परोपकार की दृष्टि से कभी कुछ करते बन पड़ा हो सो याद नहीं आता। ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए कोई साधन बन पड़ा हो, ऐसा स्मरण नहीं। आत्मवत सर्व भूतेषु के आत्म- विस्तार ने सर्वत्र अपना ही आपा बिखरा दिखलाया तो वह मात्र दृष्टि दर्शन न रह गया। दूसरों की व्यथा वेदनाएँ भी देखी गयीं और वे इतनी अधिक चुभन, कसक पैदा करती रहीं कि उन पर मरहम लगाने के अतिरिक्त और कुछ सूझा ही को प्रसन्न करके स्वर्ग, मुक्ति का आनन्द लेना आया किसे ?? विश्व -मानव की तड़पन बन रही थी, सो पहले उसी से जूझना था। अन्य बातें तो ऐसी थीं जिनके लिए अवकाश और अवसर की प्रतीक्षा की जा सकती थी।            

🔵 हमारे जीवन के क्रिया- कलापों के पीछे उसके प्रयोजन को कभी कोई ढूँढ़ना चाहे, तो उसे इतना ही जान लेना पर्याप्त है कि सन्त और सज्जनों की सद्भावना और सत्प्रवृत्तियों का जितने क्षण स्मरण दर्शन होता रहा उतने समय चैन की साँस ली और जब जन- मानव की व्यथा वेदनाओं को सामने खड़ा पाया, तो अपनी निज की पीड़ा से अधिक कष्ट अनुभव हुआ। लोक मंगल, परमार्थ, सुधार, सेवा आदि के प्रयास कुछ  यदि हमसे बन पड़े, तो उस सन्दर्भ में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि हमारी विवशता भर थी। दर्द और जलन ने क्षण भर चैन से न बैठने दिया, तो हम करते भी क्या ?? जो दर्द से ऐंठा जा रहा है वह हाथ- पैर न पटके तो क्या करे ?? हमारे अब तक के समस्त प्रयत्नों को लोग कुछ भी नाम दें, किसी रंग में रंगें, असलियत धारण यह है कि विश्व की आन्तरिक अनुभूति ने करूणा और सम्वेदना का रूप कर लिया और हम विश्ववेदना को आत्म वेदना मानकर उससे छुटकारा पाने के लिए बेचैन घायल की तरह प्रयत्न करते रहे।

🔴 भावनाएँ इतनी उग्र रहीं कि अपना आपा तो भूल ही गया। त्याग, संयम, सादगी अपरिग्रह आदि की दृष्टि से कोई हमारे कार्यों पर नजर डाले तो उसे उतना भर समझ लेना चाहिए कि जिस ढाँचे में अपना अन्त:करण ढल गया उसमें यह नितान्त स्वाभाविक था। अपनी समृद्धि, प्रगति, सुविंधा, वाहवाही हमें नापसन्द हो ऐसा कुछ निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता, उन्हें हमने जानबूझ कर त्यागा, सो बात नहीं है। वस्तुत: विश्व- मानव की व्यथा अपनी वेदना बनकर इस बुरी तरह अन्त:करण पर छाई रही कि अपने बारे में कुछ सोचने करने की फुरसत ही न मिली। वह प्रसंग सर्वथा विस्मृत ही बना रहा। इस विस्मृति को कोई तपस्या, संयम कहे, तो उसकी मर्जी पर जब स्वपनों को अपनी जीवन पुस्तिका के सभी उपयोगी पृष्ठ खोलकर पढ़ा रहे हैं, तो वस्तु स्थिति बता ही देनी उचित है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 आज का सद्चिंतन 17 April 2017


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 17 April 2017


👉 गुरु नानक की ईश्वर निष्ठा

🔵 भौतिक अथवा आध्यात्मिक कोई भी क्षेत्र क्यों न हो, उसमें उन्नति करने के लिए लगन और एकाग्रता के साथ निष्ठा की आवश्यकता होती है। बिना सच्ची लगन और एकनिष्ठा के सिद्धि पा लेना संभव नही होता। गुरुनानक ने अपने लिये भक्ति का मार्ग चुना और अपनी निष्ठा के बल पर वे एक महान् संत बने और समाज में उनकी पूजा-प्रतिष्ठा हुई। उनके जीवन की तमाम घटनाएं उनकी इस निष्ठ की साक्षी हुई है।

🔴 नानक जब किशोरावस्था में थे, तभी से वे अपने उद्देश्य की पूर्ति में लग गये थे। यह आयु खेलने-खाने की होती है। नानक भी खेला करते थे, पर उनके खेल दूसरों से भिन्न होते थे। जहाँ और लडके गुल्लीडंडा, गेंद बल्ला, कबड्डी आदि का खेल खेला करते थे, वहाँ नानक भगवान् की पूजा, उपासना का खेल और साथियों को प्रसाद बाँटते थे।

🔵 एक बार वे इस प्रकार के खेल मे संलग्न थे। भोजन का समय हो गया था। कई बार बुलावा आया, लेकिन वे खेल अधूरा छोड्कर नहीं गए। अंत मे उनके पिता उन्हें जबरदस्ती उठा ले गए। भोग लगाकर प्रसाद बाँटने का खेल बाकी रह गया। नानक को खेल में विघ्न पड़ने का बडा दुःख हुआ, लेकिन उन्होंने न तो किसी से कुछ कहा और न रोए-धोए ही, तथापि वे गंभीरतापूर्वक मौन हो गये और भोजन न किया। बहुत कुछ मनाने, कहने और कारण पूछने पर भी जब नानक ने कुछ उत्तर नहीं दिया और खिलाने पर भी जब ग्रास नहीं निगला तो उनके पिता को चिंता हुई कि बालक को कहीं कोइ बीमारी तो नहीं हो गई।

🔴 वैद्य बुलाकर नानक को दिखलाया गया। वैद्य आया और उसने भी जब पूछताछ करने पर कोई उत्तर न पाया और खिलाने से ग्रास स्वीकार नहीं किया तो उसने उनके मुँह में उँगली डालकर यह परीक्षा करनी चाही कि लडके का गला तो कहीं बंद नहीं हो गया है। इस पर नानक से न रहा गया। वे बोले वैद्य जी, आप अपनी बीमारी का उपचार करिए। मेरी बीमारी तो यही ठीक करेगा जिसने लगाई है। नानक की गूढ़ बात सुनकर उनके पिता ने उनकी मानसिक स्थिति समझ ली और फिर उन्हें उनके प्रिय खेल से कभी नहीं उठाया।

🔵 इस प्रकार जब वे पाठशाला में पढ़ने के लिए भेजे गए, तब अध्यापक ने उन्हें तख्ती पर लिखकर वर्णमाला पढा़नी शुरू की। उन्होंने 'अ' लिखा और नानक से कहा-कहो 'अ'। नानक ने कहा 'अ'। उसके बाद अध्यापक ने 'अ' लिखा और कहा- कहो 'अ'। नानक ने कहा-'अ' नाम भगवान् का रूप। जब यही पढ़ लिया तो अब आगे पढ़कर क्या करूँगा?''

🔴 अध्यापक ने समझाया तुम मेरे पास पढ़ने और ज्ञान सीखने आए हो। बिना विद्या पढे ज्ञानी कैसे बनोगे ? नानक ने कहा कि आप तो मुझे समझ में आने वाली विद्या पढाइए, जिससे परमात्मा का ज्ञान हो, उसके दर्शन मिलें। आपकी यह शिक्षा मेरे लाभ की नहीं है। अध्यापक ने फिर कहा- यह विद्या यदि तुम नही पढो़गे तो संसार मै खा-कमा किस तरह सकोगे ? खाने कमाने के लिए तो यह विद्या पडनी जरूरी है।' नानक ने उत्तर दिया-'गुरुजी! आदमी को खाने के लिए चाहिए ही कितना "एक मुट्ठी अन्न। वह तो सभी आसानी से कमा सकते ही हैं, उसकी चिंता में भगवान् को पाने की विद्या छोडकर और विद्याएँ पढने की क्या आवश्यकता", "मुझे तो वह विद्या सिखाइए, जिससे मै मूल तत्व परमात्मा के पाकर सच्ची शांति पा सकूं।"

🔵 गुरु नानक की बातों में उनका हृदय, उनकी आत्मा और भगवान् के प्रति उनकी सच्ची निष्ठा बोल रही थी। उनकी बातों का प्रभाव अध्यापक पर पडा़ जिससे कि वे दुनियादारी से विरत होकर भगवान के सच्चे भक्त बन गए। ऐसी थी नानक की निष्ठा और परमात्मा को प्राप्त करने की लगन। इसी आधार पर उनकी उपासना और साधना सफल हुई। वे एक उच्चकोटि के महात्मा बने। उनकी वाणी बोलती थी और उनका हृदय उसका मंदिर बन गया था। वे दिन-रात भगवान् की भक्ति में तन्मय रहकर लोक-कल्याण के लिए उपदेश करते और लोगों को सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते थे। उन्होंने अपना पूरा जीवन भगवान् की भक्ति और संसार का कल्याण करने में लगा दिया। हजारों-लाखों लोग उनके शिष्य बने। आज जो सिक्ख संप्रदाय दिखलाई देता है, वह गुरुनानक के शिष्यो द्वारा ही बना है। निष्ठा और लगन में बडी शक्ति होती है। उसके बल पर सांसारिक उन्नति तो क्या भगवान् तक को पाया जा सकता है।

🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 137, 138

👉 जीवन एक कलाकार की तरह जीना सीखें

🔵 प्रतिकूलताएँ प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में आती हैं। इस जीवन-समर में कोई भी व्यक्ति सदा अपने साथ अनुकूलताएँ बनी रहने का वरदान लेकर नहीं आया। बच्चा जब जन्म लेता है, माँ के गर्भ से बाहर आते ही उसे अनगिनत अवरोधों का सामना करना पड़ता है। जो सम्बन्ध गर्भ-रज्जु के माध्यम से विगत नौ माह के साथ बना हुआ था, वह एकाएक तोड़ दिया जाता है। गर्भ रज्जु के कटते ही बच्चे में अपने बलबूते जीवन जीने का, संघर्ष करने की स्थिति आ जाती है। वह छटपटाता है, चिल्लाता है व इसी क्रिया में उसके फेफड़े खुल जाते हैं, रक्त परिवहन सारे शरीर में सुनियोजित ढंग से होने लगता है। प्रकृति का यह पाठ बच्चे के लिए है कि, उसे स्वतन्त्र होकर कैसे जीना चाहिए? यह न कोई दण्ड है, न कोई कर्म का भाग्य-विधान।

🔴 इस धरती पर आने वाले हर व्यक्ति को एक नहीं, अनेकानेक अवरोधों से गुजरना पड़ता है। परब्रह्म की यह एक सुनियोजित व्यवस्था है और यह हर किसी के लिये है, कोई भी अपवाद नहीं। व्याधियाँ, मानसिक संताप, रोग, शोक, आर्थिक हानि, रिश्तेदारों का बिछोह, विभिन्न रूपों में असफलताएँ मनुष्य की परीक्षा लेने के लिए आने वाले अवरोध मात्र हैं। इन बाधाओं को हँसकर पार कर लेना, दुःखों-कष्टों को तप बना कर जीना ही मनुष्य के लिये उचित है। 

🔵 जो ऐसा करता है, वह जीवन समर को हँसते-हँसते पार कर जाता है। जो रोते-कलपते, देवी-देवताओं को दोष देते, अपने भाग्य को दोष देते, किसी तरह घिसट-घिसट कर अपनी जीवन-यात्रा पूरी करता है, वह न केवल एक असफल व्यक्ति सिद्ध होता है, वरन् वह मनोरोगों-मनोविकारों से ग्रस्त होकर अल्पकाल में ही इस सुरदुर्लभ मानव तन को गवाँ बैठता है। कई व्यक्ति तो निराश होकर आत्महत्या तक कर बैठते हैं। यह मानवीय काया रूपी देवालय की अवमानना है एवं उस स्रष्टा के अस्तित्व को नकारना भी।

🔴 अच्छा हो हम इस जीवन को एक कलाकार की तरह जियें। हँसती-हँसाती, हलकी-फुलकी जिन्दगी जीते हुए औरों को अधिकाधिक सुख बाँटते चलें। दुःखों, कष्टों को तप मानकर चलें और अपना एक सौभाग्य भी। यही है जीवन जीने की सही रीति-नीति।

🌹 डॉ प्रणव पंड्या
🌹 जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ 30

👉 Amrit Chintan 17 April

🔴 In our manifesto of Gayatri Pariwar “Yug Nirman Satsankalp”, it is mentioned that self interest must be sacrificed for the interest of masses. This ideality is essential for the holistic growth of the individual. If people live in harmony with others and with mutual co-operation and help, the process of sharing and caring of others will soon bring a new era of bright future, for which we are committed.  

🔵 Reading good books for self introspection is known as ‘Swadhyay’, which is penance and austerity. Concentration and contemplation also help to solve the problems of life. Our company with saints and sages also help us. These are the different ways that we develop our emotions for the spiritual growth in life. One have all these choices for his growth. 

🔴 The base for soul realization is shraddha i.e. devotion to ideality. It is this factor of Shraddha, which devotee achieves for success or failure in Sadhana. Initiation by a realized Guru, Shaktipat and different technique of penance and austerity is to develop Shraddha for realization of the power of soul. 

🌹 ~Pandit Shriram Sharma Acharya

👉 समय का सदुपयोग करें (भाग 10)

🌹 समय जो गुजर गया, फिर न मिलेगा

🔴 समर्थ स्वामी रामदास वक्त के सदुपयोग के बारे में बड़े महत्त्वपूर्ण शब्द कहा करते थे—
एक सदैव पणाचैं लक्षण।
रिकामा जाऊँ ने दो एक क्षण।।
(दासबोध—11—24)

🔵 अर्थात्— ‘‘जो मनुष्य वक्त का सदुपयोग करता है, एक क्षण भी बरबाद नहीं करता, वह बड़ा सौभाग्यवान् होता है।’’ धन और रुपये-पैसे के मामले में यह कहा जाता है कि जिसका खर्च व्यवस्थित और मितव्ययी होता है, वही जीवन पर्यन्त धन का सुख लाभ प्राप्त करता है, उसके खजाने में किसी प्रकार की कमी नहीं आती। ऐसे ही समय के प्रत्येक क्षण का उपयोग कर लेना भी मनुष्य की बुद्धिमत्ता का प्रतीक है उन्नति की इच्छा रखने वालों को अपना समय कभी भी व्यर्थ न गंवाना चाहिये। समय के सदुपयोग करने में सदैव सावधान रहना चाहिये। आज जो समय गुजर गया, कल वह फिर आने वाला नहीं।

🔴 कार्य चाहे व्यावहारिक हो अथवा पारमार्थिक, जो समय सम्बन्धी विवेक और सावधानी नहीं रखते उन्हें इसके दुष्परिणाम जन्म-जन्मान्तरों तक भुगतने पड़ते हैं। आज अपने पास सभी परिस्थितियां हैं, साधन हैं। मनुष्य शरीर मिला है, बुद्धि और विचार की बहुमूल्य विरासत जो हमें मिली है वह यह समझ लेने के लिये है कि आपका समय सीमाओं से प्रतिबन्धित है। सृष्टि के दूसरे जीवों में से कई तो लम्बी आयु वाले भी होते हैं किन्तु मनुष्य की अवस्था अधिक से अधिक सौ वर्ष है। उसमें भी कितना समय अवस्था के अनुरूप व्यर्थ चला जाना है फिर जो शेष बचता है उसका उपयोग यदि सांसारिक और आध्यात्मिक विकास के लिए नहीं कर पाये तो कौन जाने यह परिस्थितियां फिर कभी मिलेंगी या नहीं।

🔵 आध्यात्मिक जीवन व्यतीत करने वाले भी जब समय का ठीक ठीक उपयोग नहीं कर पाते, इस सम्बन्ध में जागरुक और विवेकशील नहीं होते तो बड़ा आश्चर्य होता है। इससे अच्छे तो वे लोग ही हैं जो बेचारे किसी प्रकार जीवन-निर्वाह के साधन और आजीविका जुटाने में ही लगे रहते हैं। उन्हें यह पछतावा तो नहीं होता कि जीवन के बहुमूल्य क्षणों का पूर्ण उपयोग नहीं कर सके। आजीविका भी अध्यात्म का एक अंग है अतएव सम्पूर्ण न सही, कुछ अंशों में तो उन्होंने मानव-जीवन का सदुपयोग किया। 

🔴 हाथ पर हाथ रखकर आलस्य में, समय गंवाने वाले सामाजिक जीवन में गड़बड़ी ही फैलाते हैं भले ही वे कितने ही बुद्धिमान, भजनोपदेशक, कथावाचक, पण्डित या सन्त-संन्यासी ही क्यों न हों। समय का सदुपयोग करने वाला घसियारा, बेकार बैठे रहने वाले पण्डित से बढ़कर है क्योंकि वह समाज को किसी न किसी रूप में समुन्नत बनाने का प्रयास करता ही है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 स्रष्टा का परम प्रसाद-प्रखर प्रज्ञा (भाग 38)

🌹 इन दिनों की सर्वोपरि आवश्यकता 

🔵 करने को तो काम एक ही है, पर वह है इतना बड़ा और व्यापक, जिसकी तुलना हजार छोटे-बड़े कामों के समूह से की जा सकती है। बदलाव पदार्थों का सरल है-लोहे तक को गलाकर दूसरे साँचे में ढाला जा सकता है; वेश-विन्यास से कुरूप को भी रूपवानों की पंक्ति में बिठाया जा सकता है, पर विचारों का क्या किया जाए, जो चिरकाल से बन पड़ते रहे कुकर्मों के कारण स्वभाव का अंग बन गये हैं और आदतों की तरह बिना प्रयास के चरितार्थ होते रहते हैं। सभी जानते हैं कि नीचे गिराने में तो पृथ्वी की आकर्षण-शक्ति ही पूरा-पूरा जोर हर घड़ी लगाये रहती है, पर ऊँचा उठने या उठाने के लिए तो आवश्यकता के अनुरूप समर्थ साधना चाहिए।      

🔴 इस निमित्त सामर्थ्य भर जोर लगाना पड़ता है। श्रेष्ठ काम कर गुजरने वालो में-आततायी-वर्ग द्वारा प्रयुक्त होने वाली शक्ति की तुलना में-सैकड़ों गुनी अधिक सामर्थ्य चाहिए। किसी मकान को एक दिन में-नष्ट किया जा सकता है और इसके लिए एक फावड़ा ही पर्याप्त हो सकता है, पर यदि उसे नये सिरे से बनाना हो तो उसके लिये कितना समय व कितना कौशल लगाना पड़ेगा, इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। श्रेय ध्वंस को नहीं, सृृजन को ही मिलता रहा है।                           

🔵 इन दिनों एक ही बड़ा काम सामने है कि जन-जन के मन-मस्तिष्क पर छाई हुई दुर्भावना के निराकरण के लिये कितना बड़ा, कितना कठिन और कितने शौर्य-पराक्रम की अपेक्षा रखने वाला पुरुषार्थ जुटाया जाना चाहिए? यह कार्य मात्र उपदेशों से नहीं होगा। इसके लिए तद्नुरूप वातावरण चाहिए। फिर उपदेष्टा का व्यक्तित्व ऐसा चाहिए जो अपने कथन व अपने व्यवहार में उतरने की कसौटी पर हर दृष्टि से खरा उतरता हो। बढ़िया बंदूक ही सहज निशाना लगाने में समर्थ होती है, टेढ़ी-मेढ़ी अनगढ़ नहीं, बालक का तमंचा प्राय: असफल निशाना ही लगाता रहता है। सदाशयता और सद्भावना का निजी जीवन में परिचय देने वाले ही दूसरों को ऊँचा चढ़ाने, आगे बढ़ाने और सृजनात्मक प्रयोजनों को पूरा कर पाने में समर्थ हो पाते हैं। 

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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