मंगलवार, 14 अगस्त 2018

👉 कंकर से तो शंकर बने

🔷 कंकर से तो शंकर बने और कंकर से ही काबा
     इनका स्वरुप सिर्फ एक जैसे यह मन्नत का धागा

🔶 बरसों से हम बहते आये औ सदियों तक है बहना
     नाहक पाले झूठा भरम नकली निकला ये गहना

🔷 पत्थरों पर यह गहरी धारें संचित संस्कारों की रेखाएं
     जैसे बाँचती हो कर्मफल मुखरित मौन मुस्कुराये

🔶 सिमटे दिखते आस-पास कुटुंब और रिश्ते - नाते
     सांसों के अनूठे मेले को ज्यादातर नहीं निभा पाते

🔷 मौन मनोरथ श्रंखला ज्यों जीवन प्रवाह समझाती
     काल की गहन परतों को है स्वतः खोलती जाती

🔶 रे ! मनुष्य कुछ तो सीख इन बहती लहरों से आज
     सांसों की इस सरगम में बजाना खूब अपना साज

🔷 ना रहना कठोर हमेशा यहाँ पत्थर घिस हैं जाते
     बड़े बड़े सुरमा जहाँ से सिर्फ खाली हाथ जाते

🔶 बनाना तुम सिर्फ धारा जो स्वयं है बहती जाती
     अपने अप्रतिम जोश से पत्थरों को चीरती जाती

🔷 समय सिर्फ धार देखता ना सराहे निरर्थक प्रयास
     रे पत्थर तुम खूब सरकना ना छोड़ना कभी आस 

विचार क्रांति अभियान  शांतिकुंज हरिद्वार

👉 आज का सद्चिंतन 14 August 2018


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 14 August 2018


👉 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार 1 (भाग 27)

👉 प्रतिभा के बीजांकुर हर किसी में विद्यमान हैं

🔷 कण-कण में निरंतर गतिशील यह प्रक्रिया इतनी द्रुतगामी होती है कि उसकी अनवरत क्रियाशीलता को देखकर-आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। इतना बड़ा कायातंत्र इतने छोटे घटकों से मिलकर बना है, यह कम आश्चर्य की बात नहीं है। उससे भी अधिक आश्चर्य इस बात का है कि प्रत्येक जीवकोष छोटे रूप में लगभग उसी क्रियाकलाप का अनुसरण करता रहता है, जो अपने सौर मंडल में गतिशील रहता है। यह सब कैसे होता है? शक्ति कहाँ से आती है?

🔶 साधन कहाँ से जुटते हैं? इन सबका उत्तर काय-कलेवर के कण-कण में संव्याप्त और गतिशील विद्युत प्रवाह की ओर संकेत करके ही दिया जा सकता है। चूँकि घटक अत्यंत छोटे हैं और उनमें काम करने वाली सचेतन स्तर की विद्युत अत्यल्प मात्रा में आँकी जाती है, इसलिए वैसा कुछ अनुभव नहीं होता जैसा कि बिजली की अँगीठी या तारों को छूते समय होता है। फिर भी उनमें उपस्थित शक्ति की प्रचंडता सुनिश्चित है। यदि ऐसा न होता, तो असंख्य लघु घटकों से विनिर्मित काया का प्रत्येक घटक, अपने-अपने कामों को इतनी मुस्तैदी से, इतनी नपी-तुली सही रीति से न कर पाता।
  
🔷 आकलनकर्ताओं ने हिसाब लगाया है कि यदि शरीर के छोटे-बड़े अनेकानेक अंग-प्रत्यंगों की बिजली को एकत्रित किया जा सके, तो उसकी शक्ति किसी विशालकाय बिजलीघर से कम न होगी। इतनी आपूर्ति किए बिना, जन्म से लेकर मृत्युपर्यंत, जो असंख्य क्षेत्रों की अनेकानेक स्तर की गतिविधियाँ बिना रुके अनवरत रूप से काम करती रहती हैं, उनका इस प्रकार क्रियाशील रह सकना संभव न हुआ होता। औसत पाँच फुट छह इंच का यह कलेवर अपने भीतर इतनी शक्ति सामर्थ्य छिपाए हुए है, जिसे यदि वैज्ञानिक द्वारा स्थूल उपकरणों के माध्यम से उत्पन्न किया जाए तो उसके लिए मीलों लंबे विशालकाय बिजली घर की आवश्यकता पड़ेगी। इतना विराट एवं असीम संभावनाओं से भरा है यह काया का विद्युत भंडार।
 
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार पृष्ठ 36

http://awgpskj.blogspot.com/2018/08/1-27.html

👉 Love is Supreme

🔶 Divine knowledge and selfless love enlighten every dimension of life, destroy all vices and worries; there remains no feeling of hatred, jealously, discrimination, or fear. And then, one is blessed by the divine sight to see the pure love, justice and equality indwelling everywhere.

🔷 If you want to experience the divine joy, make your mind a source of wisdom, firm determination and noble thoughts; let your heart be an auspicious ocean of compassion. Control your tongue, purity and discipline it to speak truth. This will help your self- refinement and inner strengthening and eventually inspire the divine impulse of eternal love.

🔶 If you have integrity of character, authenticity in what you talk and do, people will believe you. You will not have to attempt convincing them. The wise and sincere seekers will themselves reach you. If in addition, you are generous and have an altruistic attitude towards everyone, you will also naturally win people’s heart. The warmth, words and works of truth and love never go in the void. Their positive impact is an absolute certainty.

🔷 There should be no doubt in your minds that pure love is omnipresent and supreme. It contains the power to accomplish the eternal quest of life. It facilitates uprooting the vices and allaying the agility, apprehensions and tensions of mind. Selfless love is a divine virtue, a preeminent source of auspicious peace and joy.

📖 Akhand Jyoti, Oct. 1943

👉 अहंकार का तो उन्मूलन ही किया जाय (भाग 3)

🔶 जिन लोगों ने अभी अध्यात्म-मार्ग पर पैर रखा है, और आत्म-समर्पण का केवल संकल्प ही किया है, उनमें इन तीनों में से कोई एक तरह का अहंकार पाया जाता है, और वही उनकी प्रगति के मार्ग में बाधक बन जाता है। जिस साधक में रजोगुण की प्रधानता होती है, वह सोचने लगता है- “हम साधक हैं- हम ने जप, तप, योग के मार्ग को अपनाया है। अन्य लोग सांसारिक माया में ही फँसे पड़े है, हम इतना आगे बढ़ जाये। हम भगवान के हाथ के एक यंत्र हो रहे है।” इस तरह के अनेक मनोभाव साधक को अहंकारी बना देते है। इसका परिणाम होता है कि जो धर्म उसकी वासना और कामना से उत्पन्न होता है उसे वह भगवान का बतलाकर उस पर आचरण करता है और बारबार असफल होकर निराश होता है। तो भी उसके मन में यह धारणा उठती है कि हम धर्माचरण कर रहे हैं और धर्म का मार्ग बाधा, विपत्ति और कंटकाकीर्ण होता ही है, इससे हमको सब कुछ सहन करते हुये परिश्रम से काम करना चाहिये।

🔷 इस भाव से प्रेरित होकर वह और भी तल्लीनता से काम करने लगाता है। वह जब काम करने लगता है तब सोचता है कि हमारे हृदय में प्रविष्ट होकर भगवान ही यह काम करा रहे है, हमारा इसमें कोई हाथ नहीं पर ये सब उसके ऊपरी मन की बातें होती है। उसके भीतरी मन से उस काम को पूर्ण करने का अनुराग बहुत अधिक रहता है और उसके पूर्ण न होने से उसे बड़ा दुःख भी होता है। इस लिये अध्यात्म और योग के पथिक को अपने मन में सदैव यही भाव धारण करना होगा कि भगवान सब के हृदय में विराजमान है और समस्त अभिलाषाओं को त्याग कर उनकी लीला पर लक्ष्य रखना ही हमारा ध्येय है। जब तक भगवान स्वयं ज्ञान-दीप को जला कर अर्न्तहृदय के सम्पूर्ण तम का नाश न करेंगे तब तक साधक के मोह रूपी अंधकार में फँस जाने की पूर्ण संभावना है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 महायोगी अरविन्द
📖 अखण्ड ज्योति, जून 1961 पृष्ठ 9

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1961/June/v1.9

👉 राजनीति में हमारी भूमिका (धर्मतन्त्र का सहगमन जरूरी)

🔶 लोग एक प्रश्र अक्सर करते रहते हैं कि ‘‘हम राजनीति के क्षेत्र में प्रवेश क्यों नहीं करते? और राजतन्त्र को अपने अनुकूल सरकारी स्तर पर वह सब सहज ही क्यों नहीं करा लेते? जिसके लिये इन दिनों इतनी अधिक माथापच्ची कर रहे हैं।’’ इस सुझाव के पीछे अपनी-अपने संगठन की वह क्षमता और व्यापकता है, जिसका वही मूल्यांकन कर सकने वाले लोग अनुभव करते हैं कि इन दिनों अपना तन्त्र-किसी भी राजनैतिक, सामाजिक या धार्मिक तन्त्र से कम प्रखर एवं कम सशक्त नहीं है।

🔷 वर्तमान युग में राजनीति की सर्वोपरि सत्ता और महत्ता को स्वीकार करने में हमें कोई आपत्ति नहीं है। यह स्वीकार करने में हमें कोई अड़चन नहीं है कि सरकारें यदि सही कदम उठा सकें, सूझ-बूझ से काम लें और अपने क्रियातन्त्र को सुव्यवस्थित रख सकने में समर्थ हों, तो वे अपने क्षेत्र में आश्चर्यजनक प्रगति कर सकती हैं। जापान, चीन, रूस, जर्मनी, अरब, इजरायल आदि ने चन्द दिनों के भीतर अपने ढंग से अपनी योजनानुसार अभीष्ट परिवर्तन के प्रकार प्रस्तुत कर लिये, इसके आश्चर्यजनक उदाहरण सामने  हैं। हम उन लोगों में से नहीं हैं जो वास्तविकता की ओर से जान-बूझकर आँखें बन्द किये रहें। धर्म का राजनीति से कोई सम्बन्ध नहीं, यह दूसरों ने भले कहा हो हमने यह शब्द कभी नहीं कहे हैं। इतिहास ने हमें सिखाया है कि धर्म की स्थापना में राजनीति का सहयोग आवश्यक है और राजनीति के मदोन्मत्त हाथी पर धर्म का अंकुश रहना चाहिए। दोनों एक-दूसरे के विरोधी नहीं, वरन् पूरक हैं। दोनों में उपेक्षा या असहयोग की प्रवृत्ति नहीं, वरन् घनिष्टता एवं परिपोषण का साधन तारतम्य जुड़ा रहना चाहिए।

🔶 इतिहास साक्षी है कि जनता के सुख-सौभाग्य में अभिवृद्धि का आधार दोनों के बीच साधन सहयोग ही प्रमुख तथ्य रहा है। गुरु वशिष्ठ के मार्गदर्शन और रघुवंशियों के शासन क्रम ने त्रेता में उस सतयुग की स्थापना की थी, जिसे हम रामराज्य के नाम से आदर के साथ याद करते हैं। चाणक्य के मार्गदर्शन से गुप्त साम्राज्य पनपा, फैला और परिपुष्ट हुआ था। पाण्डवों का मार्गदर्शन कृष्ण ने किया था और दुशासन का उन्मूलन कर सुशासन की स्थापना की थी। राजा मान्धाता का सहयोग शंकराचार्य की दिग्विजय का महत्त्वपूर्ण आधार था। भगवान् बुद्ध के प्रभाव से सम्राट् अशोक का बदलना और अशोक की सत्ता के सहयोग से बुद्ध धर्म का समस्त एशिया में फैल जाना एक ऐसी सच्चाई है, जिससे इन्कार नहीं किया जा सकता।

🔷 समर्थ गुरु रामदास जानते थे कि धर्म प्रवचनों से ही काम चलने वाला नहीं है, सुशासन की स्थापना भी आवश्यक है। अस्तु; उन्होंने शिवाजी जैसे अपने प्रधान शिष्य को इस मार्ग पर अग्रसर किया। अग्रसर ही नहीं किया, अपने स्थापित ७०० महावीर देवालयों के माध्यम से आवश्यक रसद, पैसा तथा सैनिक जुटाने की भी व्यवस्था की। शिवाजी उसी सहयोग के बल पर स्वतन्त्रता संग्राम की ऐतिहासिक भूमिका प्रस्तुत कर सके। गुरु नानक का पन्थ एक प्रकार से स्वाधीनता के सैनिकों से ही बदल गया। उनने ‘‘एक हाथ में माला और एक हाथ में भाला’’ का आदर्श प्रस्तुत करके यह बता दिया कि राजतन्त्र और धर्मतन्त्र को विरुद्ध दिशाओं में नहीं चलने देना चाहिए; वरन् उनके कदम एक ही दिशा में उठने की आवश्यकता हर कीमत पर पूरी की जानी चाहिए। बन्दा वैरागी ने सच्चे अध्यात्मवादी का उदाहरण प्रस्तुत किया और समाधि, साधना एवं ईश्वर के प्रति आत्मसमर्पण की तरह ही अपना सर्वस्व राजनीति सदाशयता की ओर मोड़ने के प्रयास में अपना सर्वस्व उत्सर्ग कर दिया।

✍🏻 पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 राजनीति में हमारी भूमिका पृष्ठ-14-17

http://literature.awgp.org/book/rajaneeti_men_hamaree_bhoomika/v1.3

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