सोमवार, 29 जून 2020
👉 ममता हटाने पर ही चित्त शुद्ध होगा (भाग १)
‘हमारा चित्त अशुद्ध है’—प्रायः लोगों को यह शिकायत रहा करती है। शिकायत ठीक है। यदि उनका चित्त अशुद्ध न हो, वह दोषः रहित हो तो उनको दुःख-द्वन्दों का सामना न करना पड़े। चिन्ता, क्षोभ तथा असंतोष का ताप जब किसी को संतप्त करने लगता है और वह उसका कारण बाह्य परिस्थितियों में नहीं खोज पाता, क्योंकि वह वहाँ होता ही नहीं, तो उसे यही मानना पड़ता है कि उसकी इस यातना का कारण उसका चित्त-दोष ही है। निर्दोष चित्त व्यक्ति की प्रसन्नता कभी भंग नहीं होती। चित्त की निर्दोषिता ही वह प्रसन्नता है जिसकी आकाँक्षा मनुष्य किया करता है और जो कि जीवन की सबसे सच्ची एवं सार्थक उपलब्धि है।
मनुष्य की इच्छा रहती है कि उसका चित्त उसके वश में रहे। वह जिस प्रकार चाहे उसका संचालन करे। चित्त गति के अनुसार ही मनुष्य कर्मों में नियुक्त होता है। सत्कर्मों को करने की इच्छा हर मनुष्य में होती है। वह सत्कर्म करना भी चाहता है किन्तु चित्त की उच्छृंखलता के कारण ऐसा नहीं कर पाता। चित्त-दोष के कारण न चाहता हुआ भी वह असत् कर्मों में प्रेरित हो जाता है और फलस्वरूप दुःख, क्षोभ अथवा पश्चाताप का भागी बनाता है।
जिस प्रकार चित्त की उच्छृंखलता दुःख का कारण है उसी प्रकार उसकी स्ववशता, सत्कर्मों अथवा शुभ संकल्पों के माध्यम से सुख का हेतु होती है। इसी कारण हर मनुष्य अपने चित्त को स्वाधीन रखना चाहता है। चित्त स्ववश तभी हो सकता है जब वह निर्दोष हो। सदोष अथवा अशुद्ध चित्त उपद्रवी होता है। विपरीत-गति-गामी होने से वह मनुष्य को भयावह अन्धकार की ओर ही लिये भागता रहता है। अन्धकार से मनुष्य को स्वाभाविक घृणा तथा भय से वितृष्णा ही होती है क्योंकि यह दोनों आनन्द के घोर शत्रु हैं।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर 1966 पृष्ठ 11
मनुष्य की इच्छा रहती है कि उसका चित्त उसके वश में रहे। वह जिस प्रकार चाहे उसका संचालन करे। चित्त गति के अनुसार ही मनुष्य कर्मों में नियुक्त होता है। सत्कर्मों को करने की इच्छा हर मनुष्य में होती है। वह सत्कर्म करना भी चाहता है किन्तु चित्त की उच्छृंखलता के कारण ऐसा नहीं कर पाता। चित्त-दोष के कारण न चाहता हुआ भी वह असत् कर्मों में प्रेरित हो जाता है और फलस्वरूप दुःख, क्षोभ अथवा पश्चाताप का भागी बनाता है।
जिस प्रकार चित्त की उच्छृंखलता दुःख का कारण है उसी प्रकार उसकी स्ववशता, सत्कर्मों अथवा शुभ संकल्पों के माध्यम से सुख का हेतु होती है। इसी कारण हर मनुष्य अपने चित्त को स्वाधीन रखना चाहता है। चित्त स्ववश तभी हो सकता है जब वह निर्दोष हो। सदोष अथवा अशुद्ध चित्त उपद्रवी होता है। विपरीत-गति-गामी होने से वह मनुष्य को भयावह अन्धकार की ओर ही लिये भागता रहता है। अन्धकार से मनुष्य को स्वाभाविक घृणा तथा भय से वितृष्णा ही होती है क्योंकि यह दोनों आनन्द के घोर शत्रु हैं।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर 1966 पृष्ठ 11
👉 Be Your Own Master
You often grasp unnecessary messages from what others say. What others comment about you seem to matter more to you. This way you annoy and worry yourself and complain that people don’t let you live in peace. Your own attitude is the major cause of your worries, so you trouble yourself more. Why should you get carried away by others’ comment – compliments or criticism? A wise and self-confident man does what he determines to do. He is never perturbed by what others say. He is firm and focused to march towards the goal.
Socrates was made to drink poison by the mightiest of his time, but no one could change his faith, his views. Banda Bairagi was forced to wear a wolf-skin and roam around in his town while his face was painted dark. But even this torturous insult could not distract him from his chosen path.
Dying for others’ praise, following the popular trends, getting disturbed by negative comments or criticism of others – are clear signs of mental weaknesses. You must remember that following the crowd can lead you nowhere. You have to be your own master if you want to ascend in life. Learn to think prudently on your own. Sharpen your decision-making powers. Follow the righteous path of your duties honestly; just ignore what others would say. If you don’t have the courage to stand and walk on your own, you don’t deserve to be independent.
📖 Akhand Jyoti, May 1945
Socrates was made to drink poison by the mightiest of his time, but no one could change his faith, his views. Banda Bairagi was forced to wear a wolf-skin and roam around in his town while his face was painted dark. But even this torturous insult could not distract him from his chosen path.
Dying for others’ praise, following the popular trends, getting disturbed by negative comments or criticism of others – are clear signs of mental weaknesses. You must remember that following the crowd can lead you nowhere. You have to be your own master if you want to ascend in life. Learn to think prudently on your own. Sharpen your decision-making powers. Follow the righteous path of your duties honestly; just ignore what others would say. If you don’t have the courage to stand and walk on your own, you don’t deserve to be independent.
📖 Akhand Jyoti, May 1945
👉 दृष्टिकोण के अनुरूप संसार का स्वरूप (अंतिम भाग)
दोष-दृष्टि अथवा दूषित मनोभाव रखकर संसार को बुरा देखते रहने से उसका तो कुछ नहीं बिगड़ता, अपनी ही मनःशांति और संतोष नष्ट हो जाता है। सर्वत्र बुरा ही बुरा देखते रहने से जीवन बड़ा ही अशांत एवं प्रतिगामी बनकर रह जाता है। इस दोष के कारण हम संसार में सर्वत्र बिखरे पड़े सौन्दर्य और व्यक्तियों के प्रेम, सौहार्द्र और स्नेह से वंचित हो जाते हैं। हर ओर विरोध और प्रतिकूलता का ही वातावरण बना रहता है। सर्वत्र अच्छाई के दर्शन करते रहने और दूसरों को आत्मीय दृष्टि से देखने पर बुरे तत्त्व भी अनुकूल बन जाते हैं। अपने से शत्रुता मानने वाले के प्रति भी यदि विरोधी-भाव न रक्खे जायें और हर प्रकार से अपने स्नेह और अनुकूल दृष्टि की अभिव्यक्ति की जाये, तो निश्चय ही शत्रु भी लज्जित होकर विरोध से विरत हो जाये। ऋषियों के आश्रम में शेर, भालू जैसे हिंसक जीव मनुष्यों के साथ हिले-मिले रहते थे। आश्रम-वासियों के अनुकूल मनोभावों के कारण ही उनकी हिंसा-वृत्ति दबी रहती थी और वे उनसे मित्रता का सुख अनुभव किया करते थे। सबके प्रति सद्भाव और अनुकूल दृष्टिकोण रखने के कारण ही धर्मराज युधिष्ठिर अजातशत्रु कहे जाते थे।
दूषित दृष्टिकोण वाला व्यक्ति साधारण-सी कठिनाई का अनुचित मूल्यांकन कर अपनी परेशानियों की वृद्धि कर लेता है। तनिक-सा अभाव, छोटा-सा रोग अथवा साधारण-सी प्रतिकूलता उसे पहाड़ जैसी भारी और भयानक दिखाई देती है। जिससे वह अनावश्यक रूप से रोता-झींकता रहता है। परिस्थितियों का प्रभाव मनोभूमि के अनुसार ही पड़ता है। आग का प्रभाव जितना सूखी लकड़ी पर पड़ता है, उतना गीली पर नहीं। बीमारी जितना शीघ्र दुर्बल को दबा लेती है, उतना शीघ्र सबल को नहीं। वलुई जमीन जितनी शीघ्र पानी सोख लेती है, उतनी शीघ्र दूसरी पक्की जमीन नहीं। रंग जितना गाड़ा और शीघ्र महीन और श्वेत कपड़े पर चढ़ता है, उतना मोटे मैले पर नहीं, इसी प्रकार जो निर्बल दृष्टिकोण अथवा दूषित मनोभूमि के लोग हैं, जो जितना अधिक प्रतिकूलताओं के अनुकूल अपने को बनाये रहता है, वह उतना ही शीघ्र और गहराई तक उनसे प्रभावित होकर दुःखी होता है।
संसार में सफलता, सुन्दरता और सुख-शांति के लिये आवश्यक है कि अपना दृष्टिकोण परिमार्जित और मनोभूमि को तदनुकूल बनाया और रक्खा जाये, अन्यथा आघ्रत व्यक्ति की विकल दशा की तरह संसार की हर वस्तु व्यक्ति और परिस्थिति से एक असन्तोष और संताप के अतिरिक्त और कुछ न मिल सकेगा और हम संसार के सुख-शांति और सुन्दरता से सर्वदा वंचित रह जायेंगे।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति दिसम्बर 1968 पृष्ठ 39
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1968/December/v1.39
दूषित दृष्टिकोण वाला व्यक्ति साधारण-सी कठिनाई का अनुचित मूल्यांकन कर अपनी परेशानियों की वृद्धि कर लेता है। तनिक-सा अभाव, छोटा-सा रोग अथवा साधारण-सी प्रतिकूलता उसे पहाड़ जैसी भारी और भयानक दिखाई देती है। जिससे वह अनावश्यक रूप से रोता-झींकता रहता है। परिस्थितियों का प्रभाव मनोभूमि के अनुसार ही पड़ता है। आग का प्रभाव जितना सूखी लकड़ी पर पड़ता है, उतना गीली पर नहीं। बीमारी जितना शीघ्र दुर्बल को दबा लेती है, उतना शीघ्र सबल को नहीं। वलुई जमीन जितनी शीघ्र पानी सोख लेती है, उतनी शीघ्र दूसरी पक्की जमीन नहीं। रंग जितना गाड़ा और शीघ्र महीन और श्वेत कपड़े पर चढ़ता है, उतना मोटे मैले पर नहीं, इसी प्रकार जो निर्बल दृष्टिकोण अथवा दूषित मनोभूमि के लोग हैं, जो जितना अधिक प्रतिकूलताओं के अनुकूल अपने को बनाये रहता है, वह उतना ही शीघ्र और गहराई तक उनसे प्रभावित होकर दुःखी होता है।
संसार में सफलता, सुन्दरता और सुख-शांति के लिये आवश्यक है कि अपना दृष्टिकोण परिमार्जित और मनोभूमि को तदनुकूल बनाया और रक्खा जाये, अन्यथा आघ्रत व्यक्ति की विकल दशा की तरह संसार की हर वस्तु व्यक्ति और परिस्थिति से एक असन्तोष और संताप के अतिरिक्त और कुछ न मिल सकेगा और हम संसार के सुख-शांति और सुन्दरता से सर्वदा वंचित रह जायेंगे।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति दिसम्बर 1968 पृष्ठ 39
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1968/December/v1.39
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