सोमवार, 13 जनवरी 2020
👉 नव निर्माण हेतु विभूतियों का आह्वान (अन्तिम भाग)
(६) सम्पदा-विभूतियों में इन दिनों सर्वोपरि मान्यता पूँजी को मिली है। धन का वर्चस्व सर्वविदित है। सम्पत्ति में स्वयं कोई दोष नहीं। दोष उसके दुरुपयोग में है। व्यक्तिगत विलासिता में, अहंता की वृद्धि में यदि उसका उपयोग होता है, संग्रह बढ़ता है एवं उसका लाभ बेटे-पोतों तक ही रखने का प्रयत्न किया जाता है, तो निस्संदेह ऐसा धन निन्दनीय है। अगले दिनों समता के आधार पर ही समाज व्यवस्था बनेगी। सामर्थ्य भर श्रम एवं आवश्यकता भर साधन प्राप्त करने का क्रम चले तभी सम्पदा पर व्यक्ति का नहीं समाज का अधिकार होगा। न कोई गरीब दिखाई देगा न अमीर। पर जब तक वह स्थिति नहीं बन जाती तब तक संग्रहीत पूँजी को लोकमंगल के लिए लगाने की दूरदर्शिता दिखाने के लिए धनपतियों को कहा जायेगा।
दान न सही कम से कम इतना तो होना ही चाहिए कि युग परिवर्तित का पथ प्रशस्त करने वाले प्रचारात्मक कार्यक्रमों में पूँजी की कमी न पड़े। भले ही यह व्यवसाय बुद्धि से किया जाय तो भी इतना होना ही चाहिए कि युग परिवर्तन के प्रवाह में अनुकूलता उत्पन्न करने वाला विनियोग इस पूँजी का हो सके। पिछले पृष्ठों पर ऐसे कितने ही क्रिया कलापों की चर्चा की गई है, जिसमें पूँजी के रूप में भी यदि धन लग सके, यदि उन क्रिया कलापों को व्यावसायिक रूप में खड़ा किया जा सके तो भी बहुत कुछ हो सकता है। (१) साहित्य प्रकाशन (२) चित्र प्रकाशन (३) अभिनय मंडलियाँ (४) ग्रामोफोन रिकार्ड (५) फिल्म निर्माण। यह पाँच कार्य ऐसे हैं, जिनके लिए विशालकाय अर्थसंस्थान खड़े किये जाने चाहिए और लोकमानस को परिष्कृत बनाने की आवश्यकता पूरी की जानी चाहिए।
(७) प्रतिभायें-प्रतिभा एक वशिष्ठ और अतिरिक्त विभूति है। कुछ लोगों के व्यक्तित्व ऐसे साहसी, स्फूर्तिवान् सूक्ष्मदर्शी, मिलनसार, क्रियाकुशल और प्रभावशाली होते हैं कि वे जिस काम को भी हाथ में लें उसी को अपने मनोयोग एवं व्यवहार कुशलता के आधार पर गतिशील बनाते चले जाते है और सफलता के उच्च शिखर तक पहुँचा देते हैं। इस विशेषता को प्रतिभा कहते हैं। सूझबूझ, आत्म विश्वास, कर्मठता जैसे अनेक सद्गुण उनमें भरे रहते हैं। आमतौर से ऐसे ही लोग महान कार्यों के संस्थापक एवं संचालक होते हैं। सफलतायें उनके पीछे छाया की तरह फिरती हैं, क्योंकि उन्हें ज्ञान होता है कि कठिनाइयों से कैसे निपटा जाता है, उन्हें सरल कैसे बनाया जाता है।
प्रतिभाशाली व्यक्ति ही सफल सन्त, राजनेता, समाजसेवी, साहित्यकार, कलाकार, व्यवसायी, व्यवस्थापक होते देखे गये हैं। प्रतिभाएँ ही डाकू, चोर, ठग जैसे दुस्साहस पूर्ण कार्य करती हैं। सेनाध्यक्षों के रूप में, लड़ाकू योद्धाओं के रूप में उन्हें ही अग्रिम पंक्ति में देखा जाता है। क्रान्तिकारी भी इसी तरह के लोग बनते हैं। प्रतिभाशाली तत्व जहाँ कहीं भी चमक रहे हो वहाँ से उन्हें आमंत्रित किया जा रहा है कि वे अपने ईश्वरीय अनुदान को निरर्थक विडम्बनाओं में खर्च न करें वरन् उसे नव निर्माण के ऐसे महान प्रयोजन में नियोजित कर दें जिसमें उनका, उनकी प्रतिभा का तथा समस्त संसार का हित साधन हो सके।
.....समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
दान न सही कम से कम इतना तो होना ही चाहिए कि युग परिवर्तित का पथ प्रशस्त करने वाले प्रचारात्मक कार्यक्रमों में पूँजी की कमी न पड़े। भले ही यह व्यवसाय बुद्धि से किया जाय तो भी इतना होना ही चाहिए कि युग परिवर्तन के प्रवाह में अनुकूलता उत्पन्न करने वाला विनियोग इस पूँजी का हो सके। पिछले पृष्ठों पर ऐसे कितने ही क्रिया कलापों की चर्चा की गई है, जिसमें पूँजी के रूप में भी यदि धन लग सके, यदि उन क्रिया कलापों को व्यावसायिक रूप में खड़ा किया जा सके तो भी बहुत कुछ हो सकता है। (१) साहित्य प्रकाशन (२) चित्र प्रकाशन (३) अभिनय मंडलियाँ (४) ग्रामोफोन रिकार्ड (५) फिल्म निर्माण। यह पाँच कार्य ऐसे हैं, जिनके लिए विशालकाय अर्थसंस्थान खड़े किये जाने चाहिए और लोकमानस को परिष्कृत बनाने की आवश्यकता पूरी की जानी चाहिए।
(७) प्रतिभायें-प्रतिभा एक वशिष्ठ और अतिरिक्त विभूति है। कुछ लोगों के व्यक्तित्व ऐसे साहसी, स्फूर्तिवान् सूक्ष्मदर्शी, मिलनसार, क्रियाकुशल और प्रभावशाली होते हैं कि वे जिस काम को भी हाथ में लें उसी को अपने मनोयोग एवं व्यवहार कुशलता के आधार पर गतिशील बनाते चले जाते है और सफलता के उच्च शिखर तक पहुँचा देते हैं। इस विशेषता को प्रतिभा कहते हैं। सूझबूझ, आत्म विश्वास, कर्मठता जैसे अनेक सद्गुण उनमें भरे रहते हैं। आमतौर से ऐसे ही लोग महान कार्यों के संस्थापक एवं संचालक होते हैं। सफलतायें उनके पीछे छाया की तरह फिरती हैं, क्योंकि उन्हें ज्ञान होता है कि कठिनाइयों से कैसे निपटा जाता है, उन्हें सरल कैसे बनाया जाता है।
प्रतिभाशाली व्यक्ति ही सफल सन्त, राजनेता, समाजसेवी, साहित्यकार, कलाकार, व्यवसायी, व्यवस्थापक होते देखे गये हैं। प्रतिभाएँ ही डाकू, चोर, ठग जैसे दुस्साहस पूर्ण कार्य करती हैं। सेनाध्यक्षों के रूप में, लड़ाकू योद्धाओं के रूप में उन्हें ही अग्रिम पंक्ति में देखा जाता है। क्रान्तिकारी भी इसी तरह के लोग बनते हैं। प्रतिभाशाली तत्व जहाँ कहीं भी चमक रहे हो वहाँ से उन्हें आमंत्रित किया जा रहा है कि वे अपने ईश्वरीय अनुदान को निरर्थक विडम्बनाओं में खर्च न करें वरन् उसे नव निर्माण के ऐसे महान प्रयोजन में नियोजित कर दें जिसमें उनका, उनकी प्रतिभा का तथा समस्त संसार का हित साधन हो सके।
.....समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 युवा शक्ति
संवेदना और साहस की सघनता में युवा शक्ति प्रज्वलित होती है। जहाँ भाव छलकते हों और साहस मचलता हो, समझो वहीं यौवन के अंगारे शक्ति की धधकती ज्वालाओं में बदलने के लिए तत्पर हैं। विपरीतताएँ इसे प्रेरित करती हैं, विषमताओं से इसे उत्साह मिलता है। समस्याओं के संवेदन इसमें नयी ऊर्जा का संचार करते हैं। काल की कुटिल व्यूह रचनाओं की छुअन से यह और अधिक उफनती है और तब तक नहीं थमती जब तक कि यह इन्हें पूरी तरह से छिन्न-भिन्न न कर दे।
हारे मन और थके तन से कोई कभी युवा नहीं होता, फिर भले ही उसकी आयु कुछ भी क्यों न हो? यौवन तो वहीं है, जहाँ शक्ति का तूफान अपनी सम्पूर्ण प्रचण्डता से सक्रिय है। जो अपने महावेग से समस्याओं के गिरि शिखरों को ढहाता, विषमताओं के महावटों को उखाड़ता और विपरीतताओं के खाई-खड्ढों को पाटता चलता है। ऐसा क्या है? जो युवा न कर सके? ऐसी कौन सी मुश्किल है जो उसकी शक्ति को थाम ले? अरे वह युवा शक्ति की क्या? जिसे कोई अवरोध रोक ले।
समस्याओं की परिधि व्यक्तिगत हो या पारिवारिक, सामाजिक-राष्ट्रीय हो अथवा वैश्विक, युवा शक्ति इनका समाधान करने में कभी नहीं हारी है। रानी लक्ष्मीबाई, वीर सुभाष, स्वामी विवेकानन्द, शहीद भगतसिंह के रूप में इसके अनगिन आयाम प्रकट हुए हैं। यह प्रक्रिया आज भी जारी है। देह का महाबल, प्रतिभा की पराकाष्ठा, आत्मा का परम तेज और सबसे बढ़कर महान उद्देश्यों के लिए इन सभी को न्यौछावर करने के बलिदानी साहस से युवा शक्ति ने सदा असम्भव को सम्भव किया है। इनकी एक हुंकार से साम्राज्य सिमटे हैं, राज सिंहासन भूलुंठित हुए हैं और नयी व्यवस्थाओं का नवोदय हुआ है।
सचमुच ही यौवन भगवती महाशक्ति का वरदान है। यहाँ वह अपनी सम्पूर्ण महिमा के साथ प्रदीप्त होती है। दुष्ट दलन, सद्गुण पोषण एवं कलाओं के सौन्दर्य सृजन के सभी रूप यहीं प्रकट होते हैं। ध्यान देने की बात यह है कि यौवन में शक्ति के महानुदान मिलते तो सभी को हैं, पर टिकते वहीं हैं जहाँ इनका सदुपयोग होता है। जरा सा दुरुपयोग होते ही शक्ति यौवन की संहारक बन जाती है। कालिख की अँधेरी कालिमा में इसकी प्रभा विलीन होने लगती है। इसलिए युवा जीवन की शक्ति सम्पन्नता सार्थक यौवन में ही संवर्धित हो पाती है।
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ १५९
हारे मन और थके तन से कोई कभी युवा नहीं होता, फिर भले ही उसकी आयु कुछ भी क्यों न हो? यौवन तो वहीं है, जहाँ शक्ति का तूफान अपनी सम्पूर्ण प्रचण्डता से सक्रिय है। जो अपने महावेग से समस्याओं के गिरि शिखरों को ढहाता, विषमताओं के महावटों को उखाड़ता और विपरीतताओं के खाई-खड्ढों को पाटता चलता है। ऐसा क्या है? जो युवा न कर सके? ऐसी कौन सी मुश्किल है जो उसकी शक्ति को थाम ले? अरे वह युवा शक्ति की क्या? जिसे कोई अवरोध रोक ले।
समस्याओं की परिधि व्यक्तिगत हो या पारिवारिक, सामाजिक-राष्ट्रीय हो अथवा वैश्विक, युवा शक्ति इनका समाधान करने में कभी नहीं हारी है। रानी लक्ष्मीबाई, वीर सुभाष, स्वामी विवेकानन्द, शहीद भगतसिंह के रूप में इसके अनगिन आयाम प्रकट हुए हैं। यह प्रक्रिया आज भी जारी है। देह का महाबल, प्रतिभा की पराकाष्ठा, आत्मा का परम तेज और सबसे बढ़कर महान उद्देश्यों के लिए इन सभी को न्यौछावर करने के बलिदानी साहस से युवा शक्ति ने सदा असम्भव को सम्भव किया है। इनकी एक हुंकार से साम्राज्य सिमटे हैं, राज सिंहासन भूलुंठित हुए हैं और नयी व्यवस्थाओं का नवोदय हुआ है।
सचमुच ही यौवन भगवती महाशक्ति का वरदान है। यहाँ वह अपनी सम्पूर्ण महिमा के साथ प्रदीप्त होती है। दुष्ट दलन, सद्गुण पोषण एवं कलाओं के सौन्दर्य सृजन के सभी रूप यहीं प्रकट होते हैं। ध्यान देने की बात यह है कि यौवन में शक्ति के महानुदान मिलते तो सभी को हैं, पर टिकते वहीं हैं जहाँ इनका सदुपयोग होता है। जरा सा दुरुपयोग होते ही शक्ति यौवन की संहारक बन जाती है। कालिख की अँधेरी कालिमा में इसकी प्रभा विलीन होने लगती है। इसलिए युवा जीवन की शक्ति सम्पन्नता सार्थक यौवन में ही संवर्धित हो पाती है।
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ १५९
👉 FALLACIES ABOUT SCRIPTURAL RESTRICTIONS (Part 5)
Q.5. Is audible chanting of Gayatri scripturally permissible?
Ans. Some people say that Gayatri Mantra being a “secret” Mantra should only be whispered in the ear during initiation. This may apply to Tantrik Mantras but not to Gayatri Mantra. According to scriptures the Ved Mantras should be chanted loudly with tune or accent according to specified notation. Whispering is needed only for secrecy and it is done in seclusion in conspiracies. There is nothing in Gayatri Mantra necessitating such a secrecy.
Nowhere in the scriptures, audible chanting of Gayatri is forbidden. The tradition of whispering the Mantra in the ears of the person being initiated owes its origin to the vested interests of the dark middle ages, when a particular class of society amongst the Hindus claimed exclusive rights to Gayatri worship and its initiation in order to prove its superiority in spiritual matters. Nothing can be more ludicrous than preaching secrecy and advocating intellectual proprietary rights on worship of God. (During the medieval period the Popes in Europe indulged in similar corrupt practices.) In fact, the scriptures clearly emphasize the need to rhyme the Gayatri Mantra . In Devi Bhagwat (11.3.11) it is mentioned that “Since it protects its singer, it is known as Gayatri”. The ‘Chandogyaupnishad” (Shankar Bhasya) too confirms this assertion. The ‘Niruktam’ says that since this Mantra was used by the Devtas for praying (Stuti), it came to be known as Gayatri Mantra (7.12). Besides, literally the word Gayatri is composed of two words- Gai and Train. In sanskrit Gai stands for ‘To sing’ and Train means ‘to look after’ or ‘to protect’, i.e. it protects the one who sings it.
Hence, arguments against audible chanting of this Mantra have no basis whatsoever.
Ordinarily Jap should be performed in such a way that throat, lips, tongue may go on moving but even a person sitting close by may not be able to hear. It is possible to have estimation of average time and number of Japs with the help of a Mala. Those who do not possess a Mala can estimate the number approximately with the help of time. Tulsi, Sandal-wood Malas are most appropriate ones for performance of Jap. For Tantrik applications Rudraksh Malas are used.
Ordinarily, words are pronounced by the movement of throat, palate, tongue, lips etc., According to spiritual science it is also mentioned that there are some subtle centres, channels etc. within the human body which vibrate along with utterance of words.
As soon as the key of a type-writer is pressed, there is a stroke on the paper and the particular letter is typed on it. The letters of Gayatri Mantra have been selected in such a manner that by utterance thereof specific ultrasonic sound waves are created and positive attributes of Gun (virtues), Karma (action) and Swabhav (nature) get activated. A Sadhak gains spiritually as well as materially by this Sadhana.
Mental Jap without moving the lips can be performed during illness or in a journey when a person cannot take a bath and during the period of Sootak when there is birth or death in a family. It can also be done while walking on a the road or lying on the bed at night.
✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 Gayatri Sadhna truth and distortions Page 49
Ans. Some people say that Gayatri Mantra being a “secret” Mantra should only be whispered in the ear during initiation. This may apply to Tantrik Mantras but not to Gayatri Mantra. According to scriptures the Ved Mantras should be chanted loudly with tune or accent according to specified notation. Whispering is needed only for secrecy and it is done in seclusion in conspiracies. There is nothing in Gayatri Mantra necessitating such a secrecy.
Nowhere in the scriptures, audible chanting of Gayatri is forbidden. The tradition of whispering the Mantra in the ears of the person being initiated owes its origin to the vested interests of the dark middle ages, when a particular class of society amongst the Hindus claimed exclusive rights to Gayatri worship and its initiation in order to prove its superiority in spiritual matters. Nothing can be more ludicrous than preaching secrecy and advocating intellectual proprietary rights on worship of God. (During the medieval period the Popes in Europe indulged in similar corrupt practices.) In fact, the scriptures clearly emphasize the need to rhyme the Gayatri Mantra . In Devi Bhagwat (11.3.11) it is mentioned that “Since it protects its singer, it is known as Gayatri”. The ‘Chandogyaupnishad” (Shankar Bhasya) too confirms this assertion. The ‘Niruktam’ says that since this Mantra was used by the Devtas for praying (Stuti), it came to be known as Gayatri Mantra (7.12). Besides, literally the word Gayatri is composed of two words- Gai and Train. In sanskrit Gai stands for ‘To sing’ and Train means ‘to look after’ or ‘to protect’, i.e. it protects the one who sings it.
Hence, arguments against audible chanting of this Mantra have no basis whatsoever.
Ordinarily Jap should be performed in such a way that throat, lips, tongue may go on moving but even a person sitting close by may not be able to hear. It is possible to have estimation of average time and number of Japs with the help of a Mala. Those who do not possess a Mala can estimate the number approximately with the help of time. Tulsi, Sandal-wood Malas are most appropriate ones for performance of Jap. For Tantrik applications Rudraksh Malas are used.
Ordinarily, words are pronounced by the movement of throat, palate, tongue, lips etc., According to spiritual science it is also mentioned that there are some subtle centres, channels etc. within the human body which vibrate along with utterance of words.
As soon as the key of a type-writer is pressed, there is a stroke on the paper and the particular letter is typed on it. The letters of Gayatri Mantra have been selected in such a manner that by utterance thereof specific ultrasonic sound waves are created and positive attributes of Gun (virtues), Karma (action) and Swabhav (nature) get activated. A Sadhak gains spiritually as well as materially by this Sadhana.
Mental Jap without moving the lips can be performed during illness or in a journey when a person cannot take a bath and during the period of Sootak when there is birth or death in a family. It can also be done while walking on a the road or lying on the bed at night.
✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 Gayatri Sadhna truth and distortions Page 49
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