शनिवार, 18 सितंबर 2021

👉 "धीरे चलो"

नदी के तट पर एक भिक्षु ने वहां बैठे एक वृद्ध से पूछा "यहां से नगर कितनी दूर है?
सुना है, सूरज ढलते ही नगर का द्वार बंद हो जाता है।
अब तो शाम होने ही वाली है। क्या मैं वहां पहुंच जाऊंगा?'

वृद्ध ने कहा "धीरे चलो तो पहुंच भी सकते हो।" भिक्षु यह सुनकर हैरत में पड़ गया।
वह सोचने लगा कि लोग कहते हैं कि जल्दी से जाओ, पर यह तो विपरीत बात कह रहा है।
भिक्षु तेजी से भागा। लेकिन रास्ता ऊबड़-खाबड़ और पथरीला था। थोड़ी देर बाद ही भिक्षु लड़खड़ाकर गिर पड़ा।

किसी तरह वह उठ तो गया लेकिन दर्द से परेशान था।
उसे चलने में काफी दिक्कत हो रही थी। वह किसी तरह आगे बढ़ा लेकिन तब तक अंधेरा हो गया।
उस समय वह नगर से थोड़ी ही दूर पर था। उसने देखा कि दरवाजा बंद हो रहा है। उसके ठीक पास से एक व्यक्ति गुजर रहा था। उसने भिक्षु को देखा तो हंसने लगा भिक्षु ने नाराज होकर कहा, "तुम हंस क्यों रहे हो?"

उस व्यक्ति ने कहा, 'आज आपकी जो हालत हुई है, वह कभी मेरी भी हुई थी। आप भी उस बाबा जी की बात नहीं समझ पाए जो नदी किनारे रहते हैं।'

भिक्षु की उत्सुकता बढ़ गई। उसने पूछा "साफ साफ बताओ भाई।
" उस व्यक्ति ने कहा "जब बाबाजी कहते हैं कि धीरे चलो तो लोगों को अटपटा लगता है। असल में वह बताना चाहते हैं कि रास्ता गड़बड़ है, अगर संभलकर चलोगे तो पहुंच सकते हो

कथा का तात्पर्य
जिंदगी में सिर्फ तेज भागना ही काफी नहीं है। सोच-समझकर संभलकर चलना ज्यादा काम आता है।

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग ६४)

एक ही सत्ता ओत-प्रोत है

जीव-विज्ञान को दो भागों में बांटा जा सकता है। वनस्पति विज्ञान (वौटनी), प्राणि विज्ञान (जूलौजी) इन दो विभाजनों से भी इस महा समुद्र का ठीक तरह विवेचन नहीं हो सकता। इसलिए इसे अन्य भेद-उपभेदों में विभक्त करना पड़ता है।

सूक्ष्मदर्शी यन्त्रों से जिन जीवधारियों को देखा समझा जाता है उसके सम्बन्ध में जानकारी सूक्ष्म जैविकी (माइक्रो बायोलॉजी) कही जाती है।

आकारिकी (मारफोलाजी) शारीरिकी (अनाटोमी) ऊतिकी (हिस्टोलाजी) कोशिकी (साइटोलोजी) भ्रूणी (एम्ब्रोलाजी) शरीर क्रिया (फिजियोलॉजी) परिस्थिति की (एकोलाजी) आनुवंशिकी (जैनेटिक्स) जैव विकास (आरगैनिक एवूलेशन) आदि।

इन सभी जीव-विज्ञान धाराओं ने यह सिद्ध किया है कि जीवन और कुछ नहीं जड़ पदार्थों का ही विकसित रूप है।

रासायनिक दृष्टि से जीवन सेल और अणु के एक ही तराजू पर तोला जा सकता है। दोनों में प्रायः समान स्तर के प्राकृतिक नियम काम करते हैं। एकाकी एटम—मालेक्यूल्स और इलेक्ट्रोन्स के बारे में अभी भी वैसी ही खोज जारी है जैसी कि पिछली तीन शताब्दियों में चलती रही है। विकरण—रेडियेशन और गुरुत्वाकर्षण ग्रेविटेशन के अभी बहुत से स्पष्टीकरण होने बाकी हैं। जो समझा जा सका है वह अपर्याप्त ही नहीं असन्तोषजनक भी है।

यों कोशिकाएं निरन्तर जन्मती-मरती रहती हैं, पर उनमें एक के बाद दूसरी में जीवन तत्व का संचार अनवरत रूप से होता रहता है। मृत होने से पूर्व कोशिकाएं अपना जीवन तत्व नवजात कोषा को दे जाती हैं, इस प्रकार मरण के साथ ही जीवन की अविच्छिन्न परम्परा निरन्तर चलती रहती है। उन्हें मरण धर्मा होने के साथ-साथ अजर-अमर भी कह सकते हैं। वस्त्र बदलने जैसी प्रक्रिया चलते रहने पर भी उनकी अविनाशी सत्ता पर कोई आंच नहीं आती।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ १०२
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

👉 भक्तिगाथा (भाग ६४)

अभिमानी से दूर हैं ईश्वर
    
अन्तर्प्रज्ञा से प्रकाशित देवर्षि के अन्तस को यह सत्य समझने में देर न लगी। वे कहने लगे, ‘‘मेरे इस अनुभव को यूँ तो युगों बीत गए, परन्तु ऐसा लगता है जैसे मानो यह अभी कल की ही बात हो। हिमवान के इस आंगन में यह अनुभव मुझे मिला था। हिमालय के श्वेत-शुभ्र शिखरों की आभा तब भी ऐसी ही थी। भगवान सूर्यदेव एवं अमृतवर्षी चन्द्रदेव तब भी इसी तरह इन श्वेत शिखरों से अपनी स्वर्ण व रजत रश्मियाँ बिखरते रहते थे। यहाँ की आध्यात्मिक प्रभा का अनोखापन, अनूठापन तो आप सभी अनुभव कर ही रहे हैं। मैं उन दिनों क्षीरशायी भगवान नारायण के पास से इस ओर आ रहा था। आकाशमार्ग से जाते समय हिमवान के अतुलनीय आध्यात्मिक वैभव ने मुझे खींच लिया। यहाँ के अनोखे चुम्बकत्व के प्रभाव से मैं आकाश से धरा पर आ गया।
    
आने के बाद बहुत समय तक हिमालय के हिम शिखरों में एकाकी भ्रमण करता रहा। यहाँ के पर्वतीय पादप, पक्षी एवं पशु मेरे सहचर हो गए। इस आनन्द भ्रमण में कितना समय बीता, पता ही न चला। पर तभी मन में सात्त्विक हिलोर उठी और मैं एक हिमगुहा में बैठकर समाधिमग्न हो गया। मेरे पूरे अस्तित्त्व में भगवत् सान्निध्य की सुवास फैल गयी। मेरी इस समाधि से स्वर्गाधिपति को पता नहीं क्यों भय हो आया और उन्होंने काम कला के अधिपति पुष्पधन्वा कामदेव को अपने सम्पूर्ण सहचरों के साथ भेज दिया। उन्होंने यहाँ हिमालय के आँगन में आकर अपनी कला की अनेकों छटाएँ बिखेरीं, अप्सराओं के सौन्दर्य एवं कामदेव के अनगिन बाण मुझ पर बरसते रहे, पर मैं प्रभु स्मरण के कवच के कारण सुरक्षित रहा। बाद में जब मेरा समाधि से व्युत्थान हुआ, तो उन सबने मुझसे चरणवन्दन के साथ क्षमा मांगी। मैंने भी सहज भाव से उन्हें क्षमा कर दिया।
    
यहाँ तक का घटनाक्रम एक सात्त्विक स्वप्न की तरह गुजर गया। परन्तु बाद में पता नहीं कहाँ से राजसिक अहं मेरी चित्तभूमि में अंकुरित हो गया और जो घटनाक्रम भगवद्कृपा से घटित हुआ था, मैंने स्वयं को उसका कर्त्ता मान लिया। फिर क्या था मेरा चित्त अज्ञान के आवरण एवं कर्त्तापन के मल के कारण धुँधला हो गया। फिर तो मैंने जहाँ-तहाँ अपने कर्त्तृत्व का बखान करना शुरू कर दिया। देवलोक में मुझे प्रशंसक मिले। इस प्रशंसा से मैं फूला न समाया और फिर ब्रह्मलोक पहुँचा, वहाँ भगवान ब्रह्मा ने मुझे चेताया। परन्तु अहं को भला चेतावनी कब पसन्द आती है सो मैंने शिवलोक प्रस्थान किया, वहाँ पर जब मैंने अपनी अहंकथा सुनायी तो माता पार्वती सहित भगवान सदाशिव ने मुझे चेताया- देवर्षि! यह कथा तुमने मुझे तो कह सुनायी, परन्तु इसे भगवान श्रीहरि से न कहना।
    
परन्तु प्रशंसित अहं तो तीव्र ज्वर की तरह सम्पूर्ण चिन्तन चेतना को ग्रस लेता है। उसी के प्रभाव से मैंने भगवान विष्णु के पास पहुँचकर अपनी अभिमान गाथा को बढ़ा-चढ़ाकर कह सुनाया। उत्तर में प्रभु मुस्कराए। उनकी इस मुस्कान का रहस्य मुझे तो नहीं समझ में आया, परन्तु भगवती योगमाया प्रभु का इंगित समझ गयी। वह जान गयीं कि प्रभु मेरे अभिमान का हरण करना चाहते हैं। सो उन्होंने एक लीलामय राज्य की रचना कर दी जिसके राजा शीलनिधि एवं राजकन्या विश्वमोहिनी थी। राह में गुजरते हुए मैं उनके नगर गया और उस राजकन्या से मिला। उसकी हस्तरेखाएँ पढ़ीं तो बस मैं काम-राग से विह्वल हो गया। अपनी इसी विह्वलता में मैंने भगवान से प्रार्थना भी कर डाली, कि प्रभु मेरा उस कन्या से विवाह करा दें।
    
उस कन्या के विवाह स्वयंवर में भगवान शिव के गण भी थे। उन्होंने बहुत चेताने की कोशिश की। परन्तु अहंता से अन्धा, काम से विह्वल और राग में रंगा मन भला कब किसकी सुना करता है। उन्होंने मेरा उपहास भी किया, फिर भी मैं नहीं चेता। मेरी आँखें तो तब खुलीं जब उस राजकन्या ने भगवान विष्णु को वरमाला पहना दी। अब तो मेरा राग, रोष में बदल गया। फिर तो मैंने उन प्रभु को शाप भी दे डाला। शाप-वरदान जिन्हें कभी छू भी नहीं सकता, उन भक्तवत्सल भगवान ने मेरा शाप शिरोधार्य भी कर लिया। प्रभु के अधरों पर अभी भी मुस्कान थी। इस मुस्कान ने मेरी चेतना पर छाए अँधेरे को हटा दिया, मिटा दिया। होश आने पर मैंने प्रभुलीला का सत्य अनुभव किया। अपने अहं विनाश का वह आयोजन मुझे तब समझ में आया।
    
परन्तु अब करता भी क्या? भगवान् से ही मैंने प्रायश्चित्त विधान की याचना की। उन्होंने कृपा करके भगवान शिव के शतनाम जप का उपदेश दिया। प्रभु आदेश को शिरोधार्य करके मैंने वैसा ही किया। सदाशिव की कृपा से ज्ञान, वैराग्य और भक्ति की महासम्पदा मुझे फिर से मिल गयी। यह अनुभव मुझे आज भी भुलाए नहीं भूलता है। मेरे हृदय में हमेशा यह अनुभव सत्य सदा ही दीप्त रहता है कि भगवान् के भक्त को अहं शोभा नहीं देता। उसका कल्याण सदा ही अपने प्रभु का निमित्त बनने में है।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ ११४

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