गुरुवार, 1 दिसंबर 2016
👉 *मैं क्या हूँ? What Am I?* (भाग 45)
🌞 चौथा अध्याय
🌹 एकता अनुभव करने का अभ्यास
🔴 ध्यानास्थित होकर भौतिक जीवन प्रवाह पर चित्त जमाओ। अनुभव करो कि समस्त ब्रह्माण्डों में एक ही चेतना शक्ति लहरा रही है, उसी के समस्त विकार भेद से पंचतत्त्व निर्मित हुए हैं। इन्द्रियों द्वारा जो विभिन्न प्रकार के सुख-दुःखमय अनुभव होते हैं, वह तत्त्वों की विभिन्न रासायनिक प्रक्रिया हैं, जो इन्द्रियों के तारों से टकराकर विभिन्न परिस्थितियों के अनुसार विभिन्न प्रकार की झंकारें उत्पन्न करती हैं। समस्त लोकों का मूल शक्ति तत्त्व एक ही है और उसमें 'मैं' भी उसी प्रकार गति प्राप्त कर रहा हूँ जैसे दूसरे। यह एक साझे का कम्बल है, जिसमें लिपटे हुए हम सब बालक बैठे हैं। इस सच्चाई को अच्छी तरह कल्पना में लाओ, बुद्घि को ठीक-ठीक अनुभव करने, समझने और हृदय को स्पष्टतः अनुभव करने दो।
🔵 स्थूल भौतिक पदार्थों की एकता का अनुभव करने के बाद सूक्ष्म मानसिक तत्त्व की एकता की कल्पना करो। वह भी भौतिक द्रव्य की भाँति एक ही तत्त्व है। तुम्हारा मन महामन की एक बूँद है। जो ज्ञान और विचार मस्तिष्क में भरे हुए हैं, वह मूलतः सार्वभौम ज्ञान और विचारधारा के कुछ परमाणु हैं और उन्हें पुस्तकों द्वारा, गुरु-मुख द्वारा या ईथर-आकाश में बहने वाली धाराओं से प्राप्त किया जाता है।
🔴 यह भी एक अखण्ड गतिमान शक्ति है और उसका उपयोग वैसे ही कर रहे हो, जैसे नदी में पड़ा हुआ कछुआ अविचल गति से बहते हुए जल-परमाणुओं में से कुछ को पीता है और फिर उसी में मूत्र रूप में त्याग देता है। इस सत्य को भी बराबर हृदयंगम करो और अच्छी तरह मानस-पटल पर अंकित कर लो।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/mai_kya_hun/part4
🌹 एकता अनुभव करने का अभ्यास
🔴 ध्यानास्थित होकर भौतिक जीवन प्रवाह पर चित्त जमाओ। अनुभव करो कि समस्त ब्रह्माण्डों में एक ही चेतना शक्ति लहरा रही है, उसी के समस्त विकार भेद से पंचतत्त्व निर्मित हुए हैं। इन्द्रियों द्वारा जो विभिन्न प्रकार के सुख-दुःखमय अनुभव होते हैं, वह तत्त्वों की विभिन्न रासायनिक प्रक्रिया हैं, जो इन्द्रियों के तारों से टकराकर विभिन्न परिस्थितियों के अनुसार विभिन्न प्रकार की झंकारें उत्पन्न करती हैं। समस्त लोकों का मूल शक्ति तत्त्व एक ही है और उसमें 'मैं' भी उसी प्रकार गति प्राप्त कर रहा हूँ जैसे दूसरे। यह एक साझे का कम्बल है, जिसमें लिपटे हुए हम सब बालक बैठे हैं। इस सच्चाई को अच्छी तरह कल्पना में लाओ, बुद्घि को ठीक-ठीक अनुभव करने, समझने और हृदय को स्पष्टतः अनुभव करने दो।
🔵 स्थूल भौतिक पदार्थों की एकता का अनुभव करने के बाद सूक्ष्म मानसिक तत्त्व की एकता की कल्पना करो। वह भी भौतिक द्रव्य की भाँति एक ही तत्त्व है। तुम्हारा मन महामन की एक बूँद है। जो ज्ञान और विचार मस्तिष्क में भरे हुए हैं, वह मूलतः सार्वभौम ज्ञान और विचारधारा के कुछ परमाणु हैं और उन्हें पुस्तकों द्वारा, गुरु-मुख द्वारा या ईथर-आकाश में बहने वाली धाराओं से प्राप्त किया जाता है।
🔴 यह भी एक अखण्ड गतिमान शक्ति है और उसका उपयोग वैसे ही कर रहे हो, जैसे नदी में पड़ा हुआ कछुआ अविचल गति से बहते हुए जल-परमाणुओं में से कुछ को पीता है और फिर उसी में मूत्र रूप में त्याग देता है। इस सत्य को भी बराबर हृदयंगम करो और अच्छी तरह मानस-पटल पर अंकित कर लो।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/mai_kya_hun/part4
👉 सफल जीवन के कुछ स्वर्णिम सूत्र (भाग 21) 2 Dec
🌹 *दुष्टता से निपटें तो किस तरह?*
🔵 व्यक्ति पत्थर का नहीं—मिट्टी का, मोम का है। उसे तर्कों या भावनाओं से प्रभावित करके बदला जा सकता है। यहां तक कि धातुओं को गलाकर भी उसके उपकरण ढाले जा सकते हैं, पत्थर से भी प्रतिमायें गढ़ी जा सकती हैं। इसलिए यह मान बैठना उपयुक्त नहीं कि परिस्थितियों में परिवर्तन न होगा और जिन व्यक्तियों से आज घृणा की जा रही है वे अगले दिनों सुधरने या अनुकूल बनने की स्थिति में न होंगे। वाल्मीकि, अंगुलिमाल, अजामिल जैसे बुरे व्यक्ति जब अच्छे बन सकते हैं तो कोई कारण नहीं कि जो प्रतिकूलता आज है वह भविष्य में अनुकूलता में न बदल सकेगी।
🔴 यहां किसी को समदर्शी होने की अव्यवहारिक दार्शनिक भूल-भुलैयों में नहीं भटकाया जा रहा है और न यह कहा जा रहा है कि सन्त और दुष्ट की समान सम्मान के साथ आरती उतारी जाय। व्याघ्र-भेड़ियों में, सर्प-बिच्छुओं में एक ही आत्मा विद्यमान मानकर साष्टांग दण्डवत् करते रहने की बात भी यहां नहीं कही जा रही है। बुराई को रोकने और भलाई को बढ़ाने का सिद्धांत जब तक जीवित है तब तक समदर्शी रहने की आशा चन्द्र-सूर्य जैसे देवताओं से तो की जा सकती है, पर विभिन्न परिस्थितियों में विभिन्न प्रकार का उपाय अपनाने का धर्म सिद्धान्त ही मनुष्य के व्यवहार में आ सकता है।
🔵 क्या बिना घृणा किये किसी को बदला-सुधारा जा सकता है? इसका उत्तर हां में दिया जा सकता है। गांधीजी का सत्याग्रह आन्दोलन, प्रह्लाद का असहयोग इसी आधार पर सफल हुआ था, उसमें बिना प्रतिहिंसा के ही काम चल गया था। रोगी को बचाना और रोग को मारना—यह गलत सिद्धांत नहीं है। यह पूर्णतया शक्य है, कठिन इसलिए प्रतीत होता है, क्योंकि उसका प्रयोग-अभ्यास करने का अवसर हमें मिला नहीं है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
🔵 व्यक्ति पत्थर का नहीं—मिट्टी का, मोम का है। उसे तर्कों या भावनाओं से प्रभावित करके बदला जा सकता है। यहां तक कि धातुओं को गलाकर भी उसके उपकरण ढाले जा सकते हैं, पत्थर से भी प्रतिमायें गढ़ी जा सकती हैं। इसलिए यह मान बैठना उपयुक्त नहीं कि परिस्थितियों में परिवर्तन न होगा और जिन व्यक्तियों से आज घृणा की जा रही है वे अगले दिनों सुधरने या अनुकूल बनने की स्थिति में न होंगे। वाल्मीकि, अंगुलिमाल, अजामिल जैसे बुरे व्यक्ति जब अच्छे बन सकते हैं तो कोई कारण नहीं कि जो प्रतिकूलता आज है वह भविष्य में अनुकूलता में न बदल सकेगी।
🔴 यहां किसी को समदर्शी होने की अव्यवहारिक दार्शनिक भूल-भुलैयों में नहीं भटकाया जा रहा है और न यह कहा जा रहा है कि सन्त और दुष्ट की समान सम्मान के साथ आरती उतारी जाय। व्याघ्र-भेड़ियों में, सर्प-बिच्छुओं में एक ही आत्मा विद्यमान मानकर साष्टांग दण्डवत् करते रहने की बात भी यहां नहीं कही जा रही है। बुराई को रोकने और भलाई को बढ़ाने का सिद्धांत जब तक जीवित है तब तक समदर्शी रहने की आशा चन्द्र-सूर्य जैसे देवताओं से तो की जा सकती है, पर विभिन्न परिस्थितियों में विभिन्न प्रकार का उपाय अपनाने का धर्म सिद्धान्त ही मनुष्य के व्यवहार में आ सकता है।
🔵 क्या बिना घृणा किये किसी को बदला-सुधारा जा सकता है? इसका उत्तर हां में दिया जा सकता है। गांधीजी का सत्याग्रह आन्दोलन, प्रह्लाद का असहयोग इसी आधार पर सफल हुआ था, उसमें बिना प्रतिहिंसा के ही काम चल गया था। रोगी को बचाना और रोग को मारना—यह गलत सिद्धांत नहीं है। यह पूर्णतया शक्य है, कठिन इसलिए प्रतीत होता है, क्योंकि उसका प्रयोग-अभ्यास करने का अवसर हमें मिला नहीं है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
👉 गृहस्थ-योग (भाग 21) 2 Dec
🌹 गृहस्थ योग से परम पद
🔵 यदि कोई आदमी साधारण काम करता है। मामूली व्यक्तियों की तरह जीवन यापन करता है, किन्तु उन साधारण कार्यों में भी उद्देश्य, मनोभाव और विचार ऊंचे रखता है तो वह साधारण काम भी तपस्या जैसा पुण्य फलदायक हो जाता है। यहीं तक नहीं—बल्कि यहां तक भी होता है कि बाहर से दिखने वाले अधर्म युक्त कार्य भी यदि सद्भावना से किये जाते हैं तो वे भी धर्म बन जाते हैं। जैसे हिंसा करना, किसी के प्राण लेना, हत्या या रक्तपात करना प्रत्यक्ष पाप है। परन्तु आततायी, दुष्ट और दुरात्माओं से संसार की रक्षा करने की सद्भावना से यदि दुष्टों को मारा जाता है तो वह पाप नहीं वरन् पुण्य बन जाता है।
🔴 भगवान कृष्ण ने अर्जुन को युद्ध के लिए प्रोत्साहित करके हजारों मनुष्यों को मरवा डाला पर इससे अर्जुन या कृष्ण को कुछ पाप नहीं लगा। राम रावण युद्ध में बहुत बड़ा भारी जन संहार हुआ परन्तु उन दुष्टों को मारने वाले पापी या हत्यारे नहीं कहलाये। यहां हिंसा प्रत्यक्ष है तो भी हिंसा करने वाले सद्भावना युक्त थे इसलिए उनके कार्य पुण्यमय ही हुए। इसी प्रकार झूठ, चोरी, छल आदि भी समयानुसार—सद् उद्देश्य से किये जाने पर धर्ममय ही होते हैं। उन्हें करने वाले को पाप नहीं लगता वरन् पुण्य फल ही प्राप्त होता है।
🔵 उपरोक्त पंक्तियों को पढ़कर पाठकों को किसी भ्रम में न पड़ना चाहिए। हम सत्कर्मों की निन्दा या असत् कार्यों की प्रशंसा नहीं कर रहे हैं। हमारा तात्पर्य तो केवल यह कहने का है कि काम का बाहरी रूप कैसा है, इससे दुनियां की स्थूल दृष्टि ही कुछ समय के लिए चकाचौंध में पड़ सकती है पर परमात्मा प्रसन्न नहीं हो सकता। आत्मा और परमात्मा के समक्ष तो भावना प्रधान है। संसार के लोगों की सूक्ष्म बुद्धि भी भावना को ही महत्व देती है। यदि किसी ने अपने किसी स्वार्थ-साधन के लिये कोई प्रीति भोज दिया हो या और कोई ऐसा काम किया हो तो जब लोगों को असली बात का पता चलता है तो लोग उसकी चालाकी के लिये मन ही मन मुसकराते हैं, कनखिया लेते हैं और मसखरी उड़ाते हैं, धर्मात्मा की बजाय उसे चालक ही समझा जाता है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
🌿🌞 🌿🌞 🌿🌞
🔵 यदि कोई आदमी साधारण काम करता है। मामूली व्यक्तियों की तरह जीवन यापन करता है, किन्तु उन साधारण कार्यों में भी उद्देश्य, मनोभाव और विचार ऊंचे रखता है तो वह साधारण काम भी तपस्या जैसा पुण्य फलदायक हो जाता है। यहीं तक नहीं—बल्कि यहां तक भी होता है कि बाहर से दिखने वाले अधर्म युक्त कार्य भी यदि सद्भावना से किये जाते हैं तो वे भी धर्म बन जाते हैं। जैसे हिंसा करना, किसी के प्राण लेना, हत्या या रक्तपात करना प्रत्यक्ष पाप है। परन्तु आततायी, दुष्ट और दुरात्माओं से संसार की रक्षा करने की सद्भावना से यदि दुष्टों को मारा जाता है तो वह पाप नहीं वरन् पुण्य बन जाता है।
🔴 भगवान कृष्ण ने अर्जुन को युद्ध के लिए प्रोत्साहित करके हजारों मनुष्यों को मरवा डाला पर इससे अर्जुन या कृष्ण को कुछ पाप नहीं लगा। राम रावण युद्ध में बहुत बड़ा भारी जन संहार हुआ परन्तु उन दुष्टों को मारने वाले पापी या हत्यारे नहीं कहलाये। यहां हिंसा प्रत्यक्ष है तो भी हिंसा करने वाले सद्भावना युक्त थे इसलिए उनके कार्य पुण्यमय ही हुए। इसी प्रकार झूठ, चोरी, छल आदि भी समयानुसार—सद् उद्देश्य से किये जाने पर धर्ममय ही होते हैं। उन्हें करने वाले को पाप नहीं लगता वरन् पुण्य फल ही प्राप्त होता है।
🔵 उपरोक्त पंक्तियों को पढ़कर पाठकों को किसी भ्रम में न पड़ना चाहिए। हम सत्कर्मों की निन्दा या असत् कार्यों की प्रशंसा नहीं कर रहे हैं। हमारा तात्पर्य तो केवल यह कहने का है कि काम का बाहरी रूप कैसा है, इससे दुनियां की स्थूल दृष्टि ही कुछ समय के लिए चकाचौंध में पड़ सकती है पर परमात्मा प्रसन्न नहीं हो सकता। आत्मा और परमात्मा के समक्ष तो भावना प्रधान है। संसार के लोगों की सूक्ष्म बुद्धि भी भावना को ही महत्व देती है। यदि किसी ने अपने किसी स्वार्थ-साधन के लिये कोई प्रीति भोज दिया हो या और कोई ऐसा काम किया हो तो जब लोगों को असली बात का पता चलता है तो लोग उसकी चालाकी के लिये मन ही मन मुसकराते हैं, कनखिया लेते हैं और मसखरी उड़ाते हैं, धर्मात्मा की बजाय उसे चालक ही समझा जाता है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
🌿🌞 🌿🌞 🌿🌞
👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 34)
🔵 47. नैतिक कर्तव्यों का पालन— नैतिक एवं नागरिक कर्तव्यों का पालन, सामाजिक स्वस्थ परम्पराओं का समर्थन, धर्म और नीति के आधार पर आचरण, शिष्ट व्यवहार, वचन का पालन, सहयोग और उदारता का अवलम्बन, ईमानदारी और श्रम उपार्जित कमाई पर सन्तोष, सादगी और सचाई का जीवन—ऐसे ही सद्गुणों को अपनाना चाहिए। मानवता की रीति नीति को अपनाकर हमें सदा सन्मार्ग पर ही चलना चाहिए भले ही इसमें अभावों, असुविधाओं और कठिनाइयों का सामना करना पड़े।
🔴 आलसी नहीं बनना चाहिए और न समय का एक क्षण भी बर्बाद करना चाहिए। श्रम और समय का सदुपयोग यही सफलता के माध्यम हैं। जुआ, चोरी, बेईमानी, रिश्वत, मिलावट, धोखेबाजी जैसे अवांछनीय उपायों से कमाई करके बड़ा आदमी बनने की अपेक्षा ईमानदारी को अपना कर गरीबी का जीवन बिताना श्रेयस्कर समझना चाहिए। इसी अवस्था और गतिविधि को अपनाकर हम अपना और समाज का उत्थान कर सकते हैं, यह भली प्रकार समझ लिया जाय।
🔵 48. सहयोग और सामूहिकता— सहयोगपूर्वक, मिलजुल कर सम्मिलित कार्यक्रम को बढ़ाने की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन मिलना चाहिए। आर्थिक क्षेत्र में सहयोग समितियों के आधार पर व्यापारिक औद्योगिक एवं उत्पादन के कार्यों को विकसित किया जाय। इसमें पूंजी की कठिनाई रहती है। बड़े पैमाने पर कार्य होने से चीजें सस्ती एवं अच्छी तैयार होती हैं। इससे उत्पादकों को भी लाभ मिलता है। उपभोक्ताओं की भी सुविधा बढ़ती है। कार्यकर्ताओं में पारस्परिक प्रेम भी बढ़ता है व्यक्तिगत स्वार्थ की अपेक्षा सामूहिक लाभ एवं संगठन की भावनाएं विकसित होती हैं।
🔴 पारस्परिक सहयोग के आधार पर ही जीवन के हर क्षेत्र में प्रगति हो सकती है। इसलिए सामूहिकता और संगठन के आधार पर संचालित प्रवृत्तियों में भाग लेना, योग देना और उन्हें बढ़ाना ही उचित है। सहयोग की नीति अपनाकर ही मानव जाति ने अब तक इतनी प्रगति की है। इन भावनाओं में शिथिलता आने से सामाजिक पतन और तीव्रता आने से उत्थान का मार्ग प्रशस्त होता है। इस तथ्य को भली प्रकार हृदयंगम करते हुए सहयोग एवं संगठन की प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन करना चाहिए।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
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