बन्धन क्या? मुक्ति कैसे?
लालची मक्खी और चींटी की आसक्ति, आतुरता उसे विपत्ति के बन्धनों में जकड़ देती है और प्राण संकट उपस्थित करती है। चासनी को आतुरतापूर्वक निगल जाने के लोभ में यह अबोध प्राणी उस पर बेतरह टूट पड़ते हैं और अपने पंख, पैर उसी में फंसा कर जान गंवाते हैं। मछली के आटे की गोली निगलने और पक्षी के जाल में जा फंसने के पीछे भी वह आतुर अशक्ति ही कारण होती है, जिसके कारण आगा-पीछा सोचने की विवेक बुद्धि को काम कर सकने का अवसर ही नहीं मिलता।
शरीर के साथ जीव का अत्यधिक तादात्म्य बन जाना ही आसक्ति एवं माया है। होना यह चाहिए कि आत्मा और शरीर के साथ स्वामी सेवक का—शिल्पी उपकरण का भाव बना रहे। जीव समझता रहे कि मेरी स्वतन्त्र सत्ता है। शरीर के वाहन, साधन, प्रकृति यात्रा की सुविधा भर के लिए मिले हैं। साधन की सुरक्षा उचित है। किन्तु शिल्पी अपने को—अपने सृजन प्रयोजन को भूल कर—उपकरणों में खिलवाड़ करते रहने में सारी सुधि-बुद्धि खोकर तल्लीन बन जाया तो यह स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण हो होगी। तीनों शरीर तीन बन्धनों में बंधते हैं। स्थूल शरीर इन्द्रिय लिप्सा में, वासना में। सूक्ष्म शरीर (मस्तिष्क) सम्बन्धियों तथा सम्पदा के व्यामोह में। कारण शरीर-अहंता के आतंक फैलाने वाले उद्धत प्रदर्शनों में। इस प्रकार तीनों शरीर—तीन बन्धनों में बंधते हैं और आत्मा उन्हीं में तन्मय रहने की स्थिति में स्वयं ही भव बंधनों में बंध जाता है। यह लिप्सा लालसायें इतनी मादक होती है कि जीव उन्हें छोड़कर अपने स्वरूप एवं लक्ष्य को ही विस्मृति के गर्त में फेंक देता है। वेणुनाद पर मोहित होने वाले मृग वधिक के हाथों पड़ते हैं। पराग लोलुप भ्रमर-कमल में कैद होकर दम घुटने का कष्ट सहता है। दीपक की चमक से आकर्षित पतंगे की जो दुर्गति होती है व सर्वविदित है। लगभग ऐसी ही स्थिति व्यामोह ग्रसित जीव की भी होती है। उसे इस बात की न तो इच्छा उठती है और न फुरसत होती है कि अपने स्वरूप और लक्ष्य को पहचाने। उत्कर्ष के लिए आवश्यक संकल्प शक्ति जगाई जा सकती तो इस महान प्रयोजन के लिये मिली हुई विशिष्ट क्षमताओं को भी खोजा जगाया जा सकता था। किन्तु उसके लिये प्रयत्न कौन करे? क्यों करे? जब विषयानन्द की ललक ही मदिरा की तरह नस-नस पर छाई हुई है तो ब्रह्मानन्द की बात कौन सोचे? क्यों सोचे?
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ १०८
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी