सोमवार, 22 मई 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 22 May 2023

यौवन कोई अवधि नहीं, वरन् एक मानसिक स्थिति है। उसकी परख रक्त के उभार के आधार पर नहीं, इच्छा, कल्पना एवं भावना के आधार पर ही की जानी चाहिए। आदमी तब तक जवान रहता है, जब तक उसमें उत्साह, साहस और निष्ठा बनी रहती है। बुढ़ापा और कुछ नहीं, आशा का परित्याग, उज्ज्वल भविष्य के प्रति संदेह और अपने आप पर अविश्वास का ही दूसरा नाम है। जब जीवन में अनन्त सुंदरता, महानता, सामर्थ्य और प्रकाश पूर्ण संभावना की ओर से मन सिकोड़ लिया जाएगा तो वृद्धता की काली छाया ग्रसित कर लेगी, भले ही ऐसा व्यक्ति आयु की दृष्टि से नवयुवक ही क्यों न हो।

पुरुषार्थ कभी निष्फल नहीं जाता। उससे जो क्रिया कुशलता बढ़ती है वह अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि है। संसार के समस्त पुरुषार्थों में आत्म निर्माण की दिशा में किया गया प्रयास सर्वोपरि बुद्धिमत्ता का परिचायक है। उससे जीवन की जड़ें मजबूत होती है। यह सुदृढ़ता समूचे व्यक्तित्व को निखारती है। मानवी प्रखरता का दिव्य चुम्बकत्व शक्तिशाली बनता है। उसकी बढ़ी हुई सामर्थ्य भौतिक जगत् से समृद्धि की-प्राणी जगत् से सद्भावना की और दिव्य लोक से ईश्वरीय अनुकम्पा को इतनी अधिक मात्रा में खींच लाती है कि आत्म निर्माण की साधना में निरत मनुष्य जीवन को हर दृष्टि से सार्थक बनाता है।

अंतरंग जितना ही निर्मल, निष्पाप होगा, अंतर्द्वन्द्वों के कारण नष्ट होने वाली मेधा उसी परिमाण में बची रह सकेगी और उस निर्द्वन्द्व, निश्चिन्त मनःस्थिति में अनेकानेक प्रतिभाएँ उभरती रहेंगी। प्रसुप्त दिव्य क्षमताओं के जागरण का सुयोग बनेगा। यही है वह सार तत्त्व जिसके आधार पर प्रतिभा दिन-दिन तीक्ष्ण बनती जाती है और उसके फलस्वरूप जो भी लक्ष्य हो, उसमें द्रुत गति से सफलता का पथ प्रशस्त होता जाता है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 समर्थ और प्रसन्न जीवन की कुँजी (भाग 3)

ओछे आदमियों की एक और पहचान है कि अपनी राई रत्ती सफलता को दस जगह सुनाते और बढ़ चढ़ कर गीत गाते है। उनका मतलब रौब गाँठना और दूसरों के मुंह से अपनी प्रशंसा सुनना होता हैं अपने पौरुष पराक्रम को वे पर्याप्त नहीं मानते। सुनने वाले उसकी बड़ाई के गीत गाये तब उन्हें विश्वास होता है कि वे समर्थ है और सफल रहे हैं। इसी प्रकार अपनी कठिनाइयों को भी दस जगह कहते है ताकि उन्हें अधिक लोगों की सहानुभूति सुनने को मिले। इतने में ही कठिनाई का हल हो जाए तो बात दूसरी है अन्यथा यदि यह आशा लगाई गई हो कि सहानुभूति के साथ साथ सहायता भी बरसेगी, लोग हाथ बंटायेंगे तो यह मान्यता गलत है।

हारे हुए को अयोग्य और मूर्ख माना जाता है। अपनी ख्याति इसी रूप में करना अपेक्षित हो तो अपनी कठिनाइयों और असफलता को जगह जगह गाते फिरने में हर्ज नहीं सफल होने वालों की प्रशंसा करने तो कई लोग सुनते है और उन्हें समझदार भी मानते है पर कठिनाइयों में फंसे हुए लोगों से बचने की कोशिश करते है कि कहीं हमें भी उनकी सहायता के झंझट में न फंसना पड़े। फलता की शेखी बघारने वाले को शेखीखोर और अहंकारी कहा जाता है। इसलिए दोनों ही प्रकार की चर्चायें न केवल निरर्थक वरन हानिकारक भी है। गंभीर व्यक्ति की मेहनत जिम्मेदार और सूझबूझ ही उसका सम्मान बढ़ाने के लिए पर्याप्त है।

आवश्यक नहीं कि परिस्थितियाँ सदा आपके अनुकूल ही हो। आवश्यक नहीं कि दूसरे आपको सही समझ ही और न्याय करें ही। हो सकता है कि बिलकुल उलटी चल पड़। ऐसी दशा में क्रोध से भर जाना और आवेश में आना भी आपकी कठिनाई को हल नहीं कर सकता। दूसरों की गलती सुधारने के लिए क्रोध प्रकट करना और आवेश में आना ही कोई हल नहीं निकालता वरन बिगड़ी बात को और भी अधिक बिगाड़ सकता है। हो सकता है आपके क्रोध को दूसरा आदमी अपना अपमान समझ और बदले में दूना क्रोध प्रकट करें और अपमान पर उतर आये।

ऐसी दशा में गुत्थी और भी दूनी उलझ जाती है। समाधान के लिये, अब क्या करना चाहिए, दूसरा कोई सही रास्ता सूझता ही नहीं। प्रसंग एक ओर रखा रह जाता है। मानापमान, शत्रुता एवं प्रतिशोध का नया सिलसिला चल पड़ता है। बात को इतनी आगे बढ़ाने की अपेक्षा यही उचित था कि ठंडे दिमाग और मधुर शब्दों में अपना पक्ष प्रस्तुत करते रह जाता। चुप हो गा होता अथवा प्रसंग बदल कर कोई ऐसी दूसरी बात आरंभ की गई होती। एक बार बाजी हार जाने पर खिलाड़ी दूसरा दौरा शुरू करते है। यही रवैया हमें हर प्रसंग में अपनाना चाहिए, विशेषतया प्रतिकूल अवसर खड़ा होने पर।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति मार्च 1988 पृष्ठ 57



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