यौवन कोई अवधि नहीं, वरन् एक मानसिक स्थिति है। उसकी परख रक्त के उभार के आधार पर नहीं, इच्छा, कल्पना एवं भावना के आधार पर ही की जानी चाहिए। आदमी तब तक जवान रहता है, जब तक उसमें उत्साह, साहस और निष्ठा बनी रहती है। बुढ़ापा और कुछ नहीं, आशा का परित्याग, उज्ज्वल भविष्य के प्रति संदेह और अपने आप पर अविश्वास का ही दूसरा नाम है। जब जीवन में अनन्त सुंदरता, महानता, सामर्थ्य और प्रकाश पूर्ण संभावना की ओर से मन सिकोड़ लिया जाएगा तो वृद्धता की काली छाया ग्रसित कर लेगी, भले ही ऐसा व्यक्ति आयु की दृष्टि से नवयुवक ही क्यों न हो।
पुरुषार्थ कभी निष्फल नहीं जाता। उससे जो क्रिया कुशलता बढ़ती है वह अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि है। संसार के समस्त पुरुषार्थों में आत्म निर्माण की दिशा में किया गया प्रयास सर्वोपरि बुद्धिमत्ता का परिचायक है। उससे जीवन की जड़ें मजबूत होती है। यह सुदृढ़ता समूचे व्यक्तित्व को निखारती है। मानवी प्रखरता का दिव्य चुम्बकत्व शक्तिशाली बनता है। उसकी बढ़ी हुई सामर्थ्य भौतिक जगत् से समृद्धि की-प्राणी जगत् से सद्भावना की और दिव्य लोक से ईश्वरीय अनुकम्पा को इतनी अधिक मात्रा में खींच लाती है कि आत्म निर्माण की साधना में निरत मनुष्य जीवन को हर दृष्टि से सार्थक बनाता है।
अंतरंग जितना ही निर्मल, निष्पाप होगा, अंतर्द्वन्द्वों के कारण नष्ट होने वाली मेधा उसी परिमाण में बची रह सकेगी और उस निर्द्वन्द्व, निश्चिन्त मनःस्थिति में अनेकानेक प्रतिभाएँ उभरती रहेंगी। प्रसुप्त दिव्य क्षमताओं के जागरण का सुयोग बनेगा। यही है वह सार तत्त्व जिसके आधार पर प्रतिभा दिन-दिन तीक्ष्ण बनती जाती है और उसके फलस्वरूप जो भी लक्ष्य हो, उसमें द्रुत गति से सफलता का पथ प्रशस्त होता जाता है।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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