रविवार, 27 अगस्त 2017

👉 हमारा युग निर्माण सत्संकल्प (भाग 55)

🌹  परम्पराओं की तुलना में विवेक को महत्त्व देंगे

🔴 उचित- अनुचित का, लाभ- हानि का निष्कर्ष निकालने और किधर चलना, किधर नहीं चलना इसका निर्णय करने के लिए उपयुक्त बुद्धि भगवान् ने मनुष्य को दी है। उसी के आधार पर उसकी गतिविधियाँ चलती भी हैं, पर देखा यह जाता है कि दैनिक जीवन की साधारण बातों में जो विवेक ठीक काम करता है, वही महत्त्वपूर्ण समस्या सामने आने पर कुंठित हो जाता है। परम्पराओं की तुलना में तो किसी विरले का ही विवेक जाग्रत रहता है, अन्यथा आंतरिक विरोध रहते हुए भी लोग पानी में बहुत हुए तिनके की तरह अनिच्छित दिशा में बहने लगते हैं। भेड़ों को झुण्ड जिधर भी चल पड़े, उसी ओर सब भेड़ें बढ़ती जाती हैं। एक भेड़ कुँए में गिर पड़े तो पीछे की सब भेड़ें उसी कुँए में गिरती हुई अपने प्राण गँवाने लगती हैं। देखा- देखी की, नकल करने की प्रवृत्ति बंदर में पाई जाती है। वह दूसरों को जैसा करते देखता है, वैसा ही खुद भी करने लगता है। इस अंधानुकरण की आदत को जब मनुष्य का मन भी, इसी तरह मान लेने के लिए करता है, तो वह यह सिद्ध करने की कोशिश करता है कि आदमी बंदर की औलाद है।
 
🔵 समाज में प्रचलित कितनी ही प्रथाएँ ऐसी हैं, जिनमें लाभ रत्ती भर भी नहीं, हानि अनेक प्रकार से हैं, पर एक की देखा- देखी दूसरा उसे करने लगता है। बीड़ी और चाय का प्रचार दिन- दिन बढ़ रहा है। छोटे- छोटे बच्चे बड़े शौक से इन्हें पीते हैं। सोचा यह जाता है कि यह चीजें बड़प्पन अथवा सभ्यता की निशानी हैं। इन्हीं पीना एक फैशन की पूर्ति करना है और अपने को अमीर, धनवान साबित करना है। ऐसी ही कुछ भ्रांतियों से प्रेरित होकर शौक, मजे, फैशन जैसी दिखावे की भावना से एक की देखा- देखी दूसरा इन नशीली वस्तुओं को अपनाता है और अंत में एक कुटेब के रूप में वह लत ऐसी बुरी तरह लग जाती है कि छुड़ाए नहीं छूटती।
 
🔴 चाय, बीड़ी, भाँग, गाँजा, शराब, अफीम आदि सभी नशीली चीजें भयंकर दुर्व्यसन हैं, इनके द्वारा शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य नष्ट होता है और आर्थिक स्थिति पर बुरा प्रभाव पड़ता है। हर नशेबाज स्वभाव की दृष्टि से दिन- दिन घटिया आदमी बनता जाता है। क्रोध, आवेश, चिंता, निराशा, आलस्य, निर्दयता, अविश्वास आदि कितने ही मानसिक दुर्गुण उपज पड़ते हैं। समझाने पर या स्वयं विचार करने पर हर नशेबाज इस लत की बुराई को स्वीकार करता है, पर विवेक की प्रखरता और साहस की सजीवता न होने से कुछ कर नहीं पाता। एक अंध परम्परा में भेड़ की तरह चलता चला जाता है। क्या यही मनुष्य की बुद्धिमत्ता है?

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://literature.awgp.org/book/ikkeesaveen_sadee_ka_sanvidhan/v1.76

http://literature.awgp.org/book/ikkeesaveen_sadee_ka_sanvidhan/v2.14

👉 मनस्वी लोक सेवक चाहिए (अंतिम भाग)

🔵 अखण्ड-ज्योति परिवार में हर जाति एवं उपजाति के लोग मौजूद हैं। उसकी छाँट करके प्रारम्भिक रूप में प्रगतिशील जातीय सभाएं गठित कर दी जावेंगी, पर उतने थोड़े लोगों के संगठन किसी जाति पर व्यापक प्रभाव कहाँ डाल सकेंगे? उन्हें अपने-अपने संगठनों का व्यापक विस्तार करना होगा। प्रगतिशीलता का तात्पर्य और उद्देश्य समझाने के लिए उन्हें अपने-अपने कार्य क्षेत्र में दर दर मारा-मारा फिरता पड़ेगा। संगठन का उद्देश्य और कार्यक्रम समझ लेने पर ही तो कोई उससे प्रभावित होगा और उसमें सम्मिलित होने की तैयारी करेगा।

🔴 कहने पर से तो इन संस्थाओं के सदस्य सब लोग बन नहीं जायेंगे और यदि बन भी गये तो उनमें वह साहस कहाँ से आवेगा, जिसके बल बूते पर वह बहती नदी के प्रवाह को चीर कर उलटी चलने वाली मछली की तरह नवीन परम्परा स्थापित करने का आदर्श उपस्थित कर सकें निश्चय ही इसके लिए व्यापक प्रचार और प्रयास की जरूरत होगी। जन-संपर्क बनाने के लिए दौरे करने पड़ेंगे, उद्देश्य को समझा सकने वाला साहित्य-जनता तक पहुँचना पड़ेगा और उनके मस्तिष्क में वह भावना भरनी पड़ेगी जिससे वे युगधर्म को पहचान सकें और प्रतिगामिता की हानियों और प्रगतिशीलता के लाभों से परिचित हो सकें।

🔵 जातियों के क्षेत्र छोटे-छोटे हैं बिखरे हुए पड़े हैं, उन बिखरे हुए मन को को एक सूत्र में पिरोने में कितने मनोयोग की आवश्यकता है उसे कार्यक्षेत्र में उतरने वाले ही जानते हैं। कितना विरोध, कितना उपहास, कितना व्यंग सहना पड़ता है, कितना समय नष्ट करना पड़ता है उसे वही सहन कर सकेगा जिसमें त्यागी तपस्वी जैसी भावना विद्यमान हो। घर बैठे मुफ्त में यश को लूट भागने वाले बातूनी लोग इस प्रयोजन को पूरा कहाँ कर सकेंगे? इसलिए सबसे पहली आवश्यकता ऐसे भावनाशील लोगों की ही पड़ेगी, जो युग की सब से बड़ी आवश्यकता-सामाजिक क्रान्ति के लिए अपनी सच्ची श्रद्धा को अञ्जलि में लेकर संस्कृति के पुनरुत्थान के लिए साहस पूर्ण कदम बढ़ा सकें।

🌹 समाप्त
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 अखण्ड ज्योति मार्च1964 पृष्ठ 52
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1964/March/v1.52

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