बुधवार, 22 दिसंबर 2021

👉 स्वामी विवेकानन्द के विचार

ईश्वर ही ईश्वर की उपलब्थि कर सकता है। सभी जीवंत ईश्वर हैं–इस भाव से सब को देखो। मनुष्य का अध्ययन करो, मनुष्य ही जीवन्त काव्य है। जगत में जितने ईसा या बुद्ध हुए हैं, सभी हमारी ज्योति से ज्योतिष्मान हैं। इस ज्योति को छोड़ देने पर ये सब हमारे लिए और अधिक जीवित नहीं रह सकेंगे, मर जाएंगे। तुम अपनी आत्मा के ऊपर स्थिर रहो।

मानव-देह ही सर्वश्रेष्ठ देह है, एवं मनुष्य ही सर्वोच्च प्राणी है, क्योंकि इस मानव-देह तथा इस जन्म में ही हम इस सापेक्षिक जगत् से संपूर्णतया बाहर हो सकते हैं–निश्चय ही मुक्ति की अवस्था प्राप्त कर सकते हैं, और यह मुक्ति ही हमारा चरम लक्ष्य है।

जो महापुरुष प्रचार-कार्य के लिए अपना जीवन समर्पित कर देते हैं, वे उन महापुरुषों की तुलना में अपेक्षाकृत अपूर्ण हैं, जो मौन रहकर पवित्र जीवनयापन करते हैं और श्रेष्ठ विचारों का चिन्तन करते हुए जगत् की सहायता करते हैं। इन सभी महापुरुषों में एक के बाद दूसरे का आविर्भाव होता है–अंत में उनकी शक्ति का चरम फलस्वरूप ऐसा कोई शक्तिसम्पन्न पुरुष आविर्भूत होता है, जो जगत् को शिक्षा और सुरक्षा  प्रदान करता है।

मुक्ति-लाभ के अतिरिक्त और कौन सी उच्चावस्था का लाभ किया जा सकता है? देवदूत कभी कोई बुरे कार्य नहीं करते, इसलिए उन्हें कभी दंड भी प्राप्त नहीं होता, अतएव वे मुक्त भी नहीं हो सकते। सांसारिक धक्का ही हमें जगा देता है, वही इस जगत्स्वप्न को भंग करने में सहायता पहुँचाता है। इस प्रकार के लगातार आघात ही इस संसार से छुटकारा पाने की अर्थात् मुक्ति-लाभ करने की हमारी आकांक्षा को जाग्रत करते हैं।

👉 भक्तिगाथा (भाग ९५)

उबारता है सत्संग

उनकी अतिरूपवती कन्या अपने सलज्ज किन्तु सम्मोहक नयनों से बार-बार उनकी बातों में स्वयं की सहमति जता रही थी। बातों-बातों में वह बीच में अपनी बेटी से पूछ लेते थे कि बेटी! तुम्हें इनकी भक्ति से कोई आपत्ति तो नहीं है? उत्तर में हर बार वह यही कहती- मैं तो स्वयं इनके साथ भक्तिमय जीवन जीना चाहती हूँ। परन्तु ये तो केवल बातें थीं। इन बातों के पीछे रची जा रही अन्तर्कथा कुछ और ही थी। सत्य यही था कि भक्तिपूर्ण जीवन से उस समय किसी को कोई लेना-देना न था। उनकी कन्या को सुशील, स्वस्थ, सुन्दर और आज्ञाकारी पति चाहिए था। उसने इन सारी बातों की परखकर हामी भरी थी। उन सम्पन्न व्यवसायी को अपनी अतुलनीय सम्पत्ति के लिए ऐसे प्रहरी व प्रबन्धक की आवश्यकता थी, जो ईमानदार हो। उन्होंने अपनी आवश्यकता के अनुरूप सभी गुणों को मुझमें परख लिया था।

जहाँ तक मेरी स्वयं की स्थिति की बात थी, तो मेरी चित्त चेतना दुःसंग के कुपरिणामों से आक्रान्त होने लगी थी। सदा प्रभुस्मरण करने वाला मेरा मन इस समय वासनाओं के कुहांसे से घिरा हुआ था। कामज्वर से मेरा तन-मन तप रहा था। कहीं यह सब कुछ मेरे हाथ से निकल न जाय यह सोचकर एक अजीब सी खीझ-झुंझलाहट और क्रोध मेरे भीतर उफन रहा था। रही बात मोह की तो इस समय मेरी पूरी चेतना ही मोहाक्रान्त थी। इस विनाशकारी मोह ने मेरी सभी पवित्र स्मृतियों को खण्डित और नष्ट कर दिया था। मै इस समय अपने स्वरूप एवं कर्त्तव्य को पूरी तरह से भूल चुका था। रही बात मेरी बुद्धि की तो उसकी तर्क, निर्णय एवं विश्लेषण क्षमताएँ समाप्त हो चुकी थीं। ऐसी विनष्ट हुई बुद्धि के साथ मैं अपने सर्वनाश के द्वार पर खड़ा था।

कुछ समय के दुःसंग ने मेरे सभी आध्यात्मिक गुणों का हरण कर लिया था, विवेक-वैराग्य का लेश भी मुझमें अब न बचा था। बस मेरी चिन्तन चेतना में एक ही त्वरा थी कि किस विधि से वह रूपवती कन्या मेरी पत्नी बन जाय? और मैं कितना शीघ्र उस व्यवसायी के सम्पन्न एवं सुविस्तृत व्यावसायिक साम्राज्य का स्वामी बनूं। मेरा धैर्य चुक रहा था, टूट रहा था। मैं अपने स्वयं के आध्यात्मिक जीवन का सर्वनाश करने के लिए उतारू था। लेकिन शायद अभी मेरे कुछ पुण्य शेष बचे थे। विधाता को मेरे जीवन की दिशा का कुछ और ही निर्धारण करना था।

तभी अकल्पित होनी की भांति मेरे पूज्य आचार्य ने द्वार पर दस्तक दी। इसके बारे में उन्होंने बाद में बताया कि मेरे लिए वह अपनी तीर्थयात्रा बीच में ही छोड़कर चले आए थे। उन्हें यह अनुभव हो गया था कि मैं किसी बड़े संकट में फँस गया हूँ। द्वार पर आते ही उन्होंने पुकारा- कैसे हो पुत्र रूक्मवर्ण? किन्तु आश्चर्य सदा ही उनकी एक पुकार पर भाग कर आने वाला मैं आज उनके स्वरों को पहचान न सका। बस जैसा का तैसा बैठा रहा। अन्दर आकर उन्होंने उस व्यवसायी का संरजाम भी देख लिया। वे अन्तर्ज्ञानी थे, उन्हें सत्य को समझने में देर न लगी।

लेकिन उन्होंने कुछ कहा नहीं। बस मेरे पास आकर उन्होंने स्नेह से मेरे सिर पर हाथ रखा और बोले- तनिक मेरी आँखों में देखो पुत्र! मैंने अनमने भाव से उनके नयनों में निहारा। लेकिन यह क्या उनके नेत्रों में निहारते ही असंख्य प्रकाशधाराएँ मेरे अस्तित्त्व में प्रवाहित हो उठीं। वासना की घटाएँ कब और कहाँ विलीन हुईं, मुझे पता भी न चला। मेरा चित्त फिर से विवेक-वैराग्य से दीप्त हो उठा। दुःसंग ने मुझे सर्वनाश के जिस महागर्भ में धकेला था, सत्संग ने मुझे फिर से उबार लिया। मेरे आचार्य को देखकर उन व्यवसायी महोदय को भी सम्भवतः अपनी भूल का अहसास हुआ। बस वह बिना कुछ बोले मेरे पूज्य आचार्यदेव को प्रणाम कर वहाँ से चले गए और मैं स्वयं पुनः अपने निर्धारित आध्यात्मिक पथ पर चलने लगा।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १८१

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