बुधवार, 29 दिसंबर 2021

👉 स्वामी विवेकानन्द के विचार

आओ हम नाम, यश और दूसरों पर शासन करने की इच्छा से रहित होकर काम करें। काम, क्रोध एंव लोभ -- इस त्रिविध बन्धन से हम मुक्त हो जायें और फिर सत्य हमारे साथ रहेगा।

एक ही आदमी मेरा अनुसरण करे, किन्तु उसे मृत्युपर्यन्त सत्य और विश्वासी होना होगा। मैं सफलता और असफलता की चिन्ता नहीं करता। मैं अपने आन्दोलन को पवित्र रखूँगा, भले ही मेरे साथ कोई न हो। कपटी कार्यों से सामना पडने पर मेरा धैर्य समाप्त हो जाता है। यही संसार है कि जिन्हें तुम सबसे अधिक प्यार और सहायता करो, वे ही तुम्हे धोखा देंगे।

प्रायः देखने में आता है कि अच्छे से अच्छे लोगों पर कष्ट और कठिनाइयाँ आ पडती हैं। इसका समाधान न भी हो सके, फिर भी मुझे जीवन में ऐसा अनुभव हुआ है कि जगत में कोई ऐसी वस्तु नहीं, जो मूल रूप में भली न हो। ऊपरी लहरें चाहे जैसी हों, परन्तु वस्तु मात्र के अन्तरकाल में प्रेम एवं कल्याण का अनन्त भण्डार है। जब तक हम उस
अन्तराल तक नहीं पहुँचते, तभी तक हमें कष्ट मिलता है। एक बार उस शान्ति-मण्डल में प्रवेश करने पर फिर चाहे आँधी और तूफान के जितने तुमुल झकोरे आयें, वह मकान, जो सदियों की पुरानि चट्टान पर बना है, हिल नहीं सकता।

न संख्या-शक्ति, न धन, न पाण्डित्य, न वाक चातुर्य, कुछ भी नहीं, बल्कि पवित्रता, शुध्द जीवन, एक शब्द में अनुभूति, आत्म-साक्षात्कार को विजय मिलेगी! प्रत्येक देश में सिंह जैसी शक्तिमान दस-बारह आत्माएँ होने दो, जिन्होने अपने बन्धन तोड डाले हैं, जिन्होने अनन्त का स्पर्श कर लिया है, जिन्का चित्र ब्रह्मनुसन्धान में लीन है, जो न धन की चिन्ता करते हैं, न बल की, न नाम की और ये व्यक्ति ही  संसार को हिला डालने के लिए पर्याप्त होंगे।

👉 भक्तिगाथा (भाग ९८)

नारायण नाम का चमत्कार

अजामिल की कथा ने सुनने वालों की भावनाओं को भिगो दिया। एक अजब सी नीरवता, निस्तब्धता, निस्पन्दता वातावरण में घिर आयी। सभी मौन थे, लेकिन सबके मन की गहरी परतों में कुछ स्पन्दित था। सम्भवतः सबके सब अपने मन के किसी कोने में यह सोच रहे थे कि कैसा घातक होता है कुसंग, जिसके प्रभाव से अजामिल जैसे तेजस्वी ब्राह्मण पुत्र की चरित्रनिष्ठा ढह गयी। शायद कुसंग ही माया का महास्र होता है, जिसका आघात सदा ही अचूक और अचानक होता है। जो भी इसकी लपेट में, चपेट में आया, वह घायल और क्षत-विक्षत हुए बिना नहीं रहता।

अजामिल के लिए उपस्थित ऋषिमण्डल एवं देवमण्डल के अन्तर्भावों में कहीं तरल संवेदना प्रवाहित हो उठी थी। सब उत्सुक हो रहे थे कि आगे की कथा जानने के लिए, सुनने के लिए और समझने के लिए क्योंकि उनके मन में जिज्ञासा थी कि अचानक आयी कुसंग की लहर क्या साधक की सम्पूर्ण समाप्ति कर देती है अथवा फिर पिछले समय की गयी साधना फिर कभी उदित होकर साधक का उद्धार करती है।

सबकी इस सोच से असंपृक्त महर्षि पुलह मन्द-मन्द मुस्कराते हुए देवर्षि की ओर देखे जा रहे थे। उनकी यह दृष्टि मर्मभेदी थी। शायद इसमें यह सच छुपा था कि न तो अभी अजामिल की कथा पूरी हुई है और न ही देवर्षि का सूत्र पूर्ण हुआ है। अपने मन्द हास्य को बीच में रोककर महर्षि पुलह अपनी रौ में बोले- कस्तरति कस्तरति मायाम्? उनका यह प्रश्न स्वयं से था अथवा भक्ति के आचार्य देवर्षि नारद से, यह तो किसी को भी समझ में नहीं आया। परन्तु देवर्षि ने महर्षि पुलह के ही अन्दाज में कहा- यः सङ्गास्त्यजति, यो महानुभावं सेवते, निर्ममो भवति। महर्षि पुलह के प्रश्न के अनुरूप ही देवर्षि का उत्तर था। मर्मभेदी प्रश्न का सटीक उत्तर। इसे सुनकर सुनने वालों को आश्वस्ति मिली।

लेकिन महर्षि वसिष्ठ के मुख से कुछ ऐसा लगा जैसे कि वह कुछ कहना चाहते हों? उनकी यह मुख मुद्रा भांपकर देवर्षि नारद ने कहा- ‘‘आपके कथन का स्वागत है महर्षि।’’ देवर्षि के इस कथन पर ऋषि वसिष्ठ हँसते हुए बोले- ‘‘मैं कुछ विशेष नहीं कहना चाहता, बस मैं आपके सूत्र को पूर्ण करना चाहता हूँ।’’ मेरे विचार से ऋषि पुलह का प्रश्न और आपका उत्तर मिलकर पूर्ण सूत्र की रचना करते हैं, कुछ इस तरह से-

‘कस्तरति कस्तरति मायाम्?
यः सङ्गास्त्यजति, यो महानुभावं सेवते, निर्ममो भवति’॥ ४६॥

(प्रश्न) कौन तरता है? (दुस्तर) माया से कौन तरता है? (उत्तर) जो सब सङ्गों का त्याग करता है, जो महानुभावों की सेवा करता है और जो ममतारहित होता है। महर्षि वसिष्ठ के इस सूत्र सम्पादन ने सभी के मन मुग्ध कर लिए।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १८४

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

All World Gayatri Pariwar Official  Social Media Platform > 👉 शांतिकुंज हरिद्वार के प्रेरणादायक वीडियो देखने के लिए Youtube Channel `S...