सोमवार, 28 नवंबर 2016
👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 31)
🌹 सभ्य समाज की स्वस्थ रचना
🔵 सामाजिक सुव्यवस्था के लिये हमें अपना वैयक्तिक और पारिवारिक जीवन भी ऐसा बनाना चाहिये कि उसका सत्प्रभाव सारे समाज पर पड़े। इसी प्रकार सामाजिक व्यवस्था में जहां व्यतिक्रम उत्पन्न हो गया है उसे सुधारना चाहिए। स्वस्थ परम्पराओं को सुदृढ़ बनाने और अस्वस्थ प्रथाओं को हटाने का ऐसा प्रयत्न करना चाहिये कि सभ्य समाज की रचना का लक्ष्य पूर्ण हो सके। नीचे कुछ ऐसे ही कार्यक्रम दिये गये हैं:—
🔴 41. सम्मिलित कुटुम्ब-प्रथा— सम्मिलित कुटुम्ब-प्रथा को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। व्यक्ति अपने आपको संकीर्ण दायरे तक ही सीमित न रखे। स्त्री-बच्चों को ही अपना न माने वरन् भाई, माता-पिता एवं अन्य सम्बद्ध कुटुम्बियों की प्रगति एवं सुव्यवस्था का भी आत्मीयतापूर्ण ध्यान रखना चाहिए। सब लोग मिल जुल कर रहें, एक दूसरे की सहायता करें, सहनशीलता, सहिष्णुता, त्याग और उदारता की सद्वृत्तियों को बढ़ावें, यही आत्म-विकास की श्रेष्ठ परम्परा है। स्वार्थ को परमार्थ में परिणत करने की परम्परा सम्मिलित कुटुम्ब में ही संभव है। अशान्ति और मनोमालिन्य उत्पन्न करने वाले कारणों को हटाना चाहिए किन्तु मूल आधार को नष्ट नहीं करना चाहिए। समाजवाद का प्राथमिक रूप सम्मिलित कुटुम्ब प्रथा ही है, उसे सुविकसित करना ही श्रेष्ठ है।
🔵 42. पारिवारिक विचारगोष्ठी— प्रत्येक परिवार में नित्य विचारगोष्ठी के रूप में सत्संग क्रम चला करे। कथा-कहानी, पुस्तकें पढ़ कर सुनाना सामयिक समाचारों की चर्चा करते हुए जीवन की विभिन्न समस्याओं के सुलझाने का प्रशिक्षण करना चाहिए। बड़ों के चरण छूकर प्रणाम करने की और छोटों की भी ‘तू’ न कह कर तुम या आप कहने की शिष्ट परम्पराएं हर परिवार में चलनी चाहिए। हर घर में उपासना कक्ष हो जहां बैठ कर कम से कम दस मिनट घर का हर सदस्य उपासना किया करे। घरेलू पुस्तकालय से विहीन कोई घर न रहे। जिन्दगी कैसे जिएं और नित्यप्रति सामने आती रहने वाली गुत्थियों को सुलझाने के लिए संजीवन विद्या का साहित्य बचपन से ही पढ़ा और सुना जाना चाहिए। उपासना स्वाध्याय और सत्संग की नियमित व्यवस्था रहे तो उसका प्रतिफल सुखी परिवारों के रूप में सामने आवेगा और सभ्य समाज की रचना का उद्देश्य आसानी से पूर्ण होगा।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
🔵 सामाजिक सुव्यवस्था के लिये हमें अपना वैयक्तिक और पारिवारिक जीवन भी ऐसा बनाना चाहिये कि उसका सत्प्रभाव सारे समाज पर पड़े। इसी प्रकार सामाजिक व्यवस्था में जहां व्यतिक्रम उत्पन्न हो गया है उसे सुधारना चाहिए। स्वस्थ परम्पराओं को सुदृढ़ बनाने और अस्वस्थ प्रथाओं को हटाने का ऐसा प्रयत्न करना चाहिये कि सभ्य समाज की रचना का लक्ष्य पूर्ण हो सके। नीचे कुछ ऐसे ही कार्यक्रम दिये गये हैं:—
🔴 41. सम्मिलित कुटुम्ब-प्रथा— सम्मिलित कुटुम्ब-प्रथा को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। व्यक्ति अपने आपको संकीर्ण दायरे तक ही सीमित न रखे। स्त्री-बच्चों को ही अपना न माने वरन् भाई, माता-पिता एवं अन्य सम्बद्ध कुटुम्बियों की प्रगति एवं सुव्यवस्था का भी आत्मीयतापूर्ण ध्यान रखना चाहिए। सब लोग मिल जुल कर रहें, एक दूसरे की सहायता करें, सहनशीलता, सहिष्णुता, त्याग और उदारता की सद्वृत्तियों को बढ़ावें, यही आत्म-विकास की श्रेष्ठ परम्परा है। स्वार्थ को परमार्थ में परिणत करने की परम्परा सम्मिलित कुटुम्ब में ही संभव है। अशान्ति और मनोमालिन्य उत्पन्न करने वाले कारणों को हटाना चाहिए किन्तु मूल आधार को नष्ट नहीं करना चाहिए। समाजवाद का प्राथमिक रूप सम्मिलित कुटुम्ब प्रथा ही है, उसे सुविकसित करना ही श्रेष्ठ है।
🔵 42. पारिवारिक विचारगोष्ठी— प्रत्येक परिवार में नित्य विचारगोष्ठी के रूप में सत्संग क्रम चला करे। कथा-कहानी, पुस्तकें पढ़ कर सुनाना सामयिक समाचारों की चर्चा करते हुए जीवन की विभिन्न समस्याओं के सुलझाने का प्रशिक्षण करना चाहिए। बड़ों के चरण छूकर प्रणाम करने की और छोटों की भी ‘तू’ न कह कर तुम या आप कहने की शिष्ट परम्पराएं हर परिवार में चलनी चाहिए। हर घर में उपासना कक्ष हो जहां बैठ कर कम से कम दस मिनट घर का हर सदस्य उपासना किया करे। घरेलू पुस्तकालय से विहीन कोई घर न रहे। जिन्दगी कैसे जिएं और नित्यप्रति सामने आती रहने वाली गुत्थियों को सुलझाने के लिए संजीवन विद्या का साहित्य बचपन से ही पढ़ा और सुना जाना चाहिए। उपासना स्वाध्याय और सत्संग की नियमित व्यवस्था रहे तो उसका प्रतिफल सुखी परिवारों के रूप में सामने आवेगा और सभ्य समाज की रचना का उद्देश्य आसानी से पूर्ण होगा।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
👉 *गृहस्थ-योग (भाग 18) 29 Nov*
🌹 *गृहस्थ धर्म तुच्छ नहीं है*
🔵 मुद्दतों से शिक्षा, दीक्षा, अनुभव एवं सामाजिक कार्य क्षेत्र से पृथक एक छोटे पिंजड़े से घर में जीवन भर बन्द रहने और अपने जैसी अन्य मूर्खाओं की संगति मिलने के कारण वे बेचारी व्यावहारिक ज्ञान में बहुत कुछ पिछड़ गई हैं तो भी उनमें आत्मिक सद्गुण पुरुषों की अपेक्षा बहुत अधिक विद्यमान है। उनके सान्निध्य में नरक, पतन, माया, बन्धन जैसे किसी संकट के उत्पन्न होने की आशंका नहीं है। सच तो यह है कि उनके पवित्र अंचल की छाया में बैठकर पुरुष अपनी शैतानी आदतों से बहुत कुछ छुटकारा पा सकता है उनकी स्नेह गंगा के अमृत जल का आचमन करके अपने कलुष कषायों से, पाप तापों से छुटकारा पा सकता है।
🔴 जिनका अन्तःकरण पवित्र है वे कोमलता की अधिकता के कारण स्त्री में और भी अधिक सत् तत्व का अनुभव करते हैं। हजरत मुहम्मद साहब कहा करते थे कि ‘‘मेरी स्वर्ग मेरी माता के पैरों तले है’’ महात्मा विलियम का कथन है कि ‘‘ईश्वर ने स्त्री के नेत्रों में दो दीपक रख दिए हैं ताकि संसार में भूले भटके लोग उसके प्रकाश में अपना खोया हुआ रास्ता देख सकें’’ तपस्वी लोवेल ने एक बार कहा था ‘‘नारी का महत्व में इसलिए नहीं मानता कि विधाता ने उसे सुन्दर बनाया है, न उससे इसलिये प्रेम करता हूं कि वह प्रेम के लिये उत्पन्न की गई है। मैं तो उसे इसलिये पूज्य मानता हूं कि मनुष्य का मनुष्यत्व केवल उसी में जीवित है।’’ दिव्यदर्शी टेलर ने अपनी अनुभूति प्रकाशित की थी कि— ‘‘स्त्री की सृष्टि में ईश्वरीय प्रकाश है। वह एक मधुर सरिता है जहां मनुष्य अपनी चिन्ताओं और दुखों से त्राण पाता है।’’
🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
🌿🌞 🌿🌞 🌿🌞
🔵 मुद्दतों से शिक्षा, दीक्षा, अनुभव एवं सामाजिक कार्य क्षेत्र से पृथक एक छोटे पिंजड़े से घर में जीवन भर बन्द रहने और अपने जैसी अन्य मूर्खाओं की संगति मिलने के कारण वे बेचारी व्यावहारिक ज्ञान में बहुत कुछ पिछड़ गई हैं तो भी उनमें आत्मिक सद्गुण पुरुषों की अपेक्षा बहुत अधिक विद्यमान है। उनके सान्निध्य में नरक, पतन, माया, बन्धन जैसे किसी संकट के उत्पन्न होने की आशंका नहीं है। सच तो यह है कि उनके पवित्र अंचल की छाया में बैठकर पुरुष अपनी शैतानी आदतों से बहुत कुछ छुटकारा पा सकता है उनकी स्नेह गंगा के अमृत जल का आचमन करके अपने कलुष कषायों से, पाप तापों से छुटकारा पा सकता है।
🔴 जिनका अन्तःकरण पवित्र है वे कोमलता की अधिकता के कारण स्त्री में और भी अधिक सत् तत्व का अनुभव करते हैं। हजरत मुहम्मद साहब कहा करते थे कि ‘‘मेरी स्वर्ग मेरी माता के पैरों तले है’’ महात्मा विलियम का कथन है कि ‘‘ईश्वर ने स्त्री के नेत्रों में दो दीपक रख दिए हैं ताकि संसार में भूले भटके लोग उसके प्रकाश में अपना खोया हुआ रास्ता देख सकें’’ तपस्वी लोवेल ने एक बार कहा था ‘‘नारी का महत्व में इसलिए नहीं मानता कि विधाता ने उसे सुन्दर बनाया है, न उससे इसलिये प्रेम करता हूं कि वह प्रेम के लिये उत्पन्न की गई है। मैं तो उसे इसलिये पूज्य मानता हूं कि मनुष्य का मनुष्यत्व केवल उसी में जीवित है।’’ दिव्यदर्शी टेलर ने अपनी अनुभूति प्रकाशित की थी कि— ‘‘स्त्री की सृष्टि में ईश्वरीय प्रकाश है। वह एक मधुर सरिता है जहां मनुष्य अपनी चिन्ताओं और दुखों से त्राण पाता है।’’
🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
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👉 सफल जीवन के कुछ स्वर्णिम सूत्र (भाग 18) 29 Nov
🌹 *विवेक ही हमारा सच्चा मार्गदर्शक*
🔵 प्रत्येक सम्प्रदाय के अनुयायी अपने मार्गदर्शकों के प्रतिपादनों पर इतना कट्टर विश्वास करते हैं कि उनमें से किसी को झुठलाना उनके अनुयायियों को मर्मान्तक पीड़ा पहुंचाने के बराबर है। सभी मतवादी अपने मान्यताओं का अपने-अपने ढंग से ऐसा प्रतिपादन करते हैं कि मानो उनका विश्वास ही एकमात्र सत्य है। इसका अर्थ हुआ कि अन्य मतावलम्बी झूठे हैं, जिस एक को सत्य माना जाय वह भी अन्यों की दृष्टि में झूठा है। फिर परस्पर घोर विपरीतता लिए हुए प्रतिपादनों में से किसी को भी सत्य ठहराते नहीं बनता। वह कहानी उपहासास्पद है जिसमें अन्धों ने हाथी के कई अंगों को पकड़कर उसका वर्णन अपने अनुभवों के आधार पर किया था।
🔴 इस कहानी में यह बात नहीं है कि एक ही कान को पकड़कर हर अन्धे ने उसे अलग-अलग प्रकार का बताया था, यहां तो यही होता देखा जा सकता है। पशुबलि को ही लें, एक सम्प्रदाय को तो उसके बिना धर्म-कर्म सम्पन्न ही नहीं होता दूसरा जीव हिंसा को धर्म के घोर विपरीत मानता है। दोनों ही अपनी-अपनी मान्यताओं पर कट्टर हैं, एक वर्ग ईश्वर को साकार बताता है, दूसरा निराकार। अपने-अपने पक्ष की कट्टरता के कारण अब तक असंख्यों बार रक्त की नदियां बहती रही हैं और विपक्षी को धर्मद्रोही बताकर सिर काटने में ईश्वर की प्रसन्नता जानी जाती रही है।
🔵 समाधान जब कभी निकलेगा तब विवेक की कसौटी का सहारा लेने पर ही निकलेगा, अन्य सभी क्षेत्रों की तरह धर्मक्षेत्र में भी असली-नकली का समन्वय बेतरह भरा है। किस धर्म की मान्यताओं में कितना अंश बुद्धि संगत है? यह देखते हुए यदि खिले हुए फूल चुन लिए जांय तो एक सुन्दर गुलदस्ता बन सकता है। बिना दुराग्रह के यदि सार संग्रह की दृष्टि लेकर चला जाये और प्राचीन-नवीन का भेद न किया जाये तो आज की स्थिति में जो उपयुक्त है उसे सर्वसाधारण के लिए प्रस्तुत किया जा सकेगा। वही सामयिक एवं सर्वोपयोगी धर्म हो सकेगा, ऐसे सार-संग्रह में विवेक को—तर्क-तथ्य को ही प्रामाणिक मानकर चलना पड़ेगा।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
🔵 प्रत्येक सम्प्रदाय के अनुयायी अपने मार्गदर्शकों के प्रतिपादनों पर इतना कट्टर विश्वास करते हैं कि उनमें से किसी को झुठलाना उनके अनुयायियों को मर्मान्तक पीड़ा पहुंचाने के बराबर है। सभी मतवादी अपने मान्यताओं का अपने-अपने ढंग से ऐसा प्रतिपादन करते हैं कि मानो उनका विश्वास ही एकमात्र सत्य है। इसका अर्थ हुआ कि अन्य मतावलम्बी झूठे हैं, जिस एक को सत्य माना जाय वह भी अन्यों की दृष्टि में झूठा है। फिर परस्पर घोर विपरीतता लिए हुए प्रतिपादनों में से किसी को भी सत्य ठहराते नहीं बनता। वह कहानी उपहासास्पद है जिसमें अन्धों ने हाथी के कई अंगों को पकड़कर उसका वर्णन अपने अनुभवों के आधार पर किया था।
🔴 इस कहानी में यह बात नहीं है कि एक ही कान को पकड़कर हर अन्धे ने उसे अलग-अलग प्रकार का बताया था, यहां तो यही होता देखा जा सकता है। पशुबलि को ही लें, एक सम्प्रदाय को तो उसके बिना धर्म-कर्म सम्पन्न ही नहीं होता दूसरा जीव हिंसा को धर्म के घोर विपरीत मानता है। दोनों ही अपनी-अपनी मान्यताओं पर कट्टर हैं, एक वर्ग ईश्वर को साकार बताता है, दूसरा निराकार। अपने-अपने पक्ष की कट्टरता के कारण अब तक असंख्यों बार रक्त की नदियां बहती रही हैं और विपक्षी को धर्मद्रोही बताकर सिर काटने में ईश्वर की प्रसन्नता जानी जाती रही है।
🔵 समाधान जब कभी निकलेगा तब विवेक की कसौटी का सहारा लेने पर ही निकलेगा, अन्य सभी क्षेत्रों की तरह धर्मक्षेत्र में भी असली-नकली का समन्वय बेतरह भरा है। किस धर्म की मान्यताओं में कितना अंश बुद्धि संगत है? यह देखते हुए यदि खिले हुए फूल चुन लिए जांय तो एक सुन्दर गुलदस्ता बन सकता है। बिना दुराग्रह के यदि सार संग्रह की दृष्टि लेकर चला जाये और प्राचीन-नवीन का भेद न किया जाये तो आज की स्थिति में जो उपयुक्त है उसे सर्वसाधारण के लिए प्रस्तुत किया जा सकेगा। वही सामयिक एवं सर्वोपयोगी धर्म हो सकेगा, ऐसे सार-संग्रह में विवेक को—तर्क-तथ्य को ही प्रामाणिक मानकर चलना पड़ेगा।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
👉 मैं क्या हूँ? What Am I? (भाग 43)
🌞 चौथा अध्याय
🔴 डाक्टर बताते हैं कि शारीरिक कोष हर घड़ी बदल रहे हैं, पुराने नष्ट हो जाते हैं और उनके स्थान पर नये आ जाते हैं। यद्यपि देखने में शरीर ज्यों का त्यों रहता है, पर कुछ ही समय में वह बिलकुल बदल जाता है और पुराने शरीर का एक कण भी बाकी नहीं बचता। वायु, जल और भोजन द्वारा नवीन पदार्थ शरीर में प्रवेश करते हैं और श्वाँस क्रिया तथा मल त्याग के रूप में बाहर निकल रहे हैं। भौतिक पदार्थ बराबर अपनी धारा में बह रहे हैं। नदी-तल में पड़े हुए कछुए के ऊपर होकर नवीन जलधारा बहती रहती है, तथापि वह केवल इतना ही अनुभव करता है कि पानी मुझे घेरे हुए है और मैं पानी में पड़ा हुआ हूँ।
🔵 हम लोग भी उस निरन्तर बहने वाली प्रकृति-धारा से भलीभाँति परिचित नहीं होते, तथापि वह पल भर भी ठहरे बिना बराबर गति करती रहती है। यह मनुष्य शरीर तक ही सीमित नहीं, वरन् अन्य जीवधारियों, वनस्पतियों और जिन्हें हम जड़ मानते हैं, उन सब पदार्थों में होती हुई आगे बढ़ती रहती है। हर चीज हर घड़ी बदल रही है। कितना ही प्रयत्न क्यों न किया जाए, इस प्रवाह की एक बूँद को क्षण भर भी रोककर नहीं रखा जा सकता यह भौतिक सत्य, आध्यात्मिक सत्य भी है। फकीर गाते हैं-'यह दुनियाँ आनी जानी है।'
🔴 भौतिक द्रव्य प्रवाह को तुम समझ गए होगे। यही बात मानसिक चेतनाओं की है। विचारधाराएँ, शब्दावलियाँ, संकल्प आदि का प्रवाह भी ठीक इसी प्रकार जारी है। जो बातें एक सोचता है, वही बात दूसरे के मन में उठने लगती है। दुराचार के अड्डों का वातावरण ऐसा घृणित होता है कि वहाँ जाते-जाते नये आदमी का दम घुटने लगता है। शब्दधारा अब वैज्ञानिक यन्त्रों के वश में आ गई है। रेडियो, बेतार का तार शब्द-लहरों का प्रत्यक्ष प्रमाण है। मस्तिष्क में आने-जाने वाले विचारों के अब फोटो लिए जाने लगे हैं, जिससे यह पता चल जाता है कि अमुक आदमी किन विचारों को ग्रहण कर रहा है और कैसे विचार छोड़ रहा है ? बादलों की तरह विचार प्रवाह आकाश में मँडराता रहता है और लोगों की आकर्षण शक्ति द्वारा खींचा व फेंका जा सकता है। यह विज्ञान बड़ा महत्वपूर्ण और विस्तृत है, इस छोटी पुस्तक में उसका वर्णन कठिन हैं।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/mai_kya_hun/part4
🔴 डाक्टर बताते हैं कि शारीरिक कोष हर घड़ी बदल रहे हैं, पुराने नष्ट हो जाते हैं और उनके स्थान पर नये आ जाते हैं। यद्यपि देखने में शरीर ज्यों का त्यों रहता है, पर कुछ ही समय में वह बिलकुल बदल जाता है और पुराने शरीर का एक कण भी बाकी नहीं बचता। वायु, जल और भोजन द्वारा नवीन पदार्थ शरीर में प्रवेश करते हैं और श्वाँस क्रिया तथा मल त्याग के रूप में बाहर निकल रहे हैं। भौतिक पदार्थ बराबर अपनी धारा में बह रहे हैं। नदी-तल में पड़े हुए कछुए के ऊपर होकर नवीन जलधारा बहती रहती है, तथापि वह केवल इतना ही अनुभव करता है कि पानी मुझे घेरे हुए है और मैं पानी में पड़ा हुआ हूँ।
🔵 हम लोग भी उस निरन्तर बहने वाली प्रकृति-धारा से भलीभाँति परिचित नहीं होते, तथापि वह पल भर भी ठहरे बिना बराबर गति करती रहती है। यह मनुष्य शरीर तक ही सीमित नहीं, वरन् अन्य जीवधारियों, वनस्पतियों और जिन्हें हम जड़ मानते हैं, उन सब पदार्थों में होती हुई आगे बढ़ती रहती है। हर चीज हर घड़ी बदल रही है। कितना ही प्रयत्न क्यों न किया जाए, इस प्रवाह की एक बूँद को क्षण भर भी रोककर नहीं रखा जा सकता यह भौतिक सत्य, आध्यात्मिक सत्य भी है। फकीर गाते हैं-'यह दुनियाँ आनी जानी है।'
🔴 भौतिक द्रव्य प्रवाह को तुम समझ गए होगे। यही बात मानसिक चेतनाओं की है। विचारधाराएँ, शब्दावलियाँ, संकल्प आदि का प्रवाह भी ठीक इसी प्रकार जारी है। जो बातें एक सोचता है, वही बात दूसरे के मन में उठने लगती है। दुराचार के अड्डों का वातावरण ऐसा घृणित होता है कि वहाँ जाते-जाते नये आदमी का दम घुटने लगता है। शब्दधारा अब वैज्ञानिक यन्त्रों के वश में आ गई है। रेडियो, बेतार का तार शब्द-लहरों का प्रत्यक्ष प्रमाण है। मस्तिष्क में आने-जाने वाले विचारों के अब फोटो लिए जाने लगे हैं, जिससे यह पता चल जाता है कि अमुक आदमी किन विचारों को ग्रहण कर रहा है और कैसे विचार छोड़ रहा है ? बादलों की तरह विचार प्रवाह आकाश में मँडराता रहता है और लोगों की आकर्षण शक्ति द्वारा खींचा व फेंका जा सकता है। यह विज्ञान बड़ा महत्वपूर्ण और विस्तृत है, इस छोटी पुस्तक में उसका वर्णन कठिन हैं।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/mai_kya_hun/part4
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