विदेह एवं प्रकृतिलय पाते हैं—अद्भुत अनुदान
श्रद्धा अनूठी सेतु है। हृदय में यह प्रगाढ़ हो, तो देश एवं काल की दूरियाँ भी सिमट जाती हैं। लोक-लोकान्तर के सत्य पलक झपकते ही भाव चक्षुओं के सामने आ विराजते हैं। दिव्य लोकों में तपोलीन ऋषि सत्तायें भी हृदयाकाश में प्रत्यक्ष होकर मार्गदर्शन देती हैं। यह उद्गार मात्र एक काल्पनिक विचार भर नहीं, एक जीवन्त अनुभूति है। महर्षि पतञ्जलि एवं ब्रह्मर्षि परम पूज्य गुरुदेव का सूक्ष्म सहचर्य भी यह अनुभव करा सकती है, जिसके बाद अन्तर्यात्रा का यह पथ आनंद से कट जाता है।
साधकों को योगानंद का अनुभव करा रहे महर्षि पतंजलि अब बताते हैं कि असम्प्रज्ञात समाधि किसे उपलब्ध होती है? वे कहते हैं-
भवप्रत्ययो विदेहप्रकृतिलयानाम् ॥ १/१९॥
शब्दार्थ - विदेहप्रकृतिलयानाम् = विदेह एवं प्रकृतिलय योगियों का (उपर्युक्त योग); भवप्रत्ययः = भव प्रत्यय (जन्म होने से ही सहज प्राप्त) कहलाता है।
अर्थात् विदेहियों और प्रकृतिलयों को असम्प्रज्ञात समाधि सहज ही उपलब्ध होती है। क्योंकि अपने पिछले जन्म में उन्होंने अपने शरीरों के साथ तादात्म्य बनाना समाप्त कर दिया था। वे फिर से जन्म लेते हैं, क्योंकि इच्छा के बीज बने रहते हैं।
विदेह एवं प्रकृतिलय बड़े ही सौन्दर्यपूर्ण शब्द हैं। इनमें आध्यात्मिक भावों का अवर्णनीय सौन्दर्य समाया है। इनमें से विदेह का अर्थ है-जो जान लेता है कि अब वह देह नहीं है। यह अनूठी स्थिति उसे असम्प्रज्ञात समाधि के बाद ही उपलब्ध होती है। असम्प्रज्ञात समाधि की विभूतियाँ तो उसे पिछले जन्म में ही प्राप्त हो चुकी। इस जन्म में तो वह प्रारम्भ से ही असम्प्रज्ञात का वैभव धारण किये हुए जन्मता है। उसे जीवन की शुरुआत से ही इस सत्य का सम्पूर्ण बोध होता है कि वह देह नहीं है। देह तो उसने सिर्फ इसलिए धारण की है कि पिछले कर्मों का हिसाब-किताब बराबर करना है। पिछले कर्म बीजों को नष्ट करना है। कर्मों का सारा खाता बराबर करना है। ऐसे विदेह योगियों का जन्म तो बस समाप्त हो रहे हिसाबों से बना होता है। हजारों जन्म, अनगिन सम्बन्ध, बहुत सारे उलझाव और वादे, हर चीज को समाप्त करना है।
.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ ८४
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या