बुधवार, 31 अक्टूबर 2018
👉 कर्त्तव्य परायणता
🔶 कठिन परिस्थितयों में भी अपनी कर्त्तव्य परायणता ही मानव को महा -मानव बनाती है। ऐसी ही एक मिसाल सरदार पटेल के जीवन से जुड़ी है, जो इस प्रेरक प्रसंग में आपको पढने को मिलेगी। उनके कथनों में भी आपको उनके व्यक्तित्व की झलक मिलेगी जिन्हें आप नीचे दिए गए लिंक पर पढ़ सकते हैं :
🔷 एक वकील की वकालत खूब चलती थी। एक बार वह हत्या का एक मुकदमा लड़ रहे थे। उन्हें खबर मिली कि गांव में उनकी पत्नी बहुत बीमार हो गई हैं। बीमारी गंभीर थी। इस कारण वकील साहब गांव आ गए। वह अपनी पत्नी की देखभाल में लगे थे। इसी बीच हत्या के उस मुकदमे की सुनवाई की तारीख पड़ी। वकील साहब असमंजस में थे। इधर पत्नी मृत्युशैया पर थी, उधर पेशी पर शहर जाना भी जरूरी था। न जाने पर मुकदमा खारिज हो जाने और मुलजिम को फांसी होने की आशंका थी।
🔶 पति को असमंजस में देख पत्नी बोलीं- आप मेरी चिंता न करें, पेशी पर जरूर जाएं। भगवान सब अच्छा करेंगे। पत्नी की बात मानकर वकील साहब शहर लौट तो आए, मगर उनका मन बड़ा दुखी होता रहा। अदालत में मुकदमा पेश हुआ। सरकारी वकील ने साबित करने की कोशिश की कि मुलजिम कसूरवार है और उसे फांसी ही होनी चाहिए। वकील साहब बचाव पक्ष की ओर से जवाब देने के लिए खड़े हुए। वह बहस कर ही रहे थे कि उनके सहायक ने एक तार लाकर उनको दिया। वकील साहब थोड़ी देर रुके।
🔷 तार पढ़कर अपने कोट की जेब में रखा और फिर बहस में लग गए। उन्होंने साबित कर दिया कि उनका मुवक्किल बेकसूर है। बहस के बाद मजिस्ट्रेट ने फैसला सुनाया कि अपराधी निरपराध है। मुवक्किल और दूसरे वकील मित्र अदालत के बाद बधाई देने वकील साहब के कमरे में आए। वकील साहब ने मित्रों को वह तार दिखाया जो उन्हें अदालत में बहस के दौरान मिला था। तार में लिखा था कि उनकी पत्नी का देहांत हो गया। मित्रों ने कहा, 'बीमार पत्नी को छोड़कर नहीं आना चाहिए था।' वकील साहब ने कहा, 'दोस्तो, अपनत्व से बड़ा कर्तव्य होता है।' यह वकील थे भारत की एकता के निर्माता लौहपुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल।
🔷 एक वकील की वकालत खूब चलती थी। एक बार वह हत्या का एक मुकदमा लड़ रहे थे। उन्हें खबर मिली कि गांव में उनकी पत्नी बहुत बीमार हो गई हैं। बीमारी गंभीर थी। इस कारण वकील साहब गांव आ गए। वह अपनी पत्नी की देखभाल में लगे थे। इसी बीच हत्या के उस मुकदमे की सुनवाई की तारीख पड़ी। वकील साहब असमंजस में थे। इधर पत्नी मृत्युशैया पर थी, उधर पेशी पर शहर जाना भी जरूरी था। न जाने पर मुकदमा खारिज हो जाने और मुलजिम को फांसी होने की आशंका थी।
🔶 पति को असमंजस में देख पत्नी बोलीं- आप मेरी चिंता न करें, पेशी पर जरूर जाएं। भगवान सब अच्छा करेंगे। पत्नी की बात मानकर वकील साहब शहर लौट तो आए, मगर उनका मन बड़ा दुखी होता रहा। अदालत में मुकदमा पेश हुआ। सरकारी वकील ने साबित करने की कोशिश की कि मुलजिम कसूरवार है और उसे फांसी ही होनी चाहिए। वकील साहब बचाव पक्ष की ओर से जवाब देने के लिए खड़े हुए। वह बहस कर ही रहे थे कि उनके सहायक ने एक तार लाकर उनको दिया। वकील साहब थोड़ी देर रुके।
🔷 तार पढ़कर अपने कोट की जेब में रखा और फिर बहस में लग गए। उन्होंने साबित कर दिया कि उनका मुवक्किल बेकसूर है। बहस के बाद मजिस्ट्रेट ने फैसला सुनाया कि अपराधी निरपराध है। मुवक्किल और दूसरे वकील मित्र अदालत के बाद बधाई देने वकील साहब के कमरे में आए। वकील साहब ने मित्रों को वह तार दिखाया जो उन्हें अदालत में बहस के दौरान मिला था। तार में लिखा था कि उनकी पत्नी का देहांत हो गया। मित्रों ने कहा, 'बीमार पत्नी को छोड़कर नहीं आना चाहिए था।' वकील साहब ने कहा, 'दोस्तो, अपनत्व से बड़ा कर्तव्य होता है।' यह वकील थे भारत की एकता के निर्माता लौहपुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल।
👉 कठोर समय में सही निर्णय
🔶 "हैदराबाद के निजाम ने खुद को भारत से अलग होने का ऐलान कर दिया था। सरदार पटेल ने उसे संधि के लिए दिल्ली बुलाया, निजाम ने अपने दीवान को उनसे मिलने भेजा, जब निजाम पटेल जी से मिलने आया तो पटेल जी ने उनका पूरा आदर सत्कार किया, भोजन किया और उसके बाद मंत्रणा करने बैठे।
🔷 पटेल जी ने पूछा की जब हैदराबाद के 80% हिन्दू भारत में मिलना चाहते है तो आपके निजाम क्यों पाकिस्तान के बहकावे में आ रहे है। निजाम के दीवान ने कहा की आप हमारे बीच में न पड़े, हम अपनी मर्जी के मालिक है, और रही हिन्दुओ की बात तो इन 1 करोड़ हिन्दुओ की हम लाशें बिछा देंगे, एक भी हिन्दू आपको जिन्दा नहीं मिलेगा, तब किसकी राय पूछेंगे ??
🔶 यह सुनकर पटेल जी ने दीवान कहा - आप जाइए वापिस हैदराबाद, दीवान चला जाता है, अगली सुबह दीवान के हैदराबाद पहुँचने से पहले ही भारतीय सेना हैदराबाद पर धावा बोल देती है।
🔷 ऐसे कठोर समय में भी बिना समय गँवाए सही निर्णय लेकर खंड खंड देश को हिमाचल से कन्याकुमारी तक एक करने वाले सरदार पटेल को कोटि कोटि नमन।"
🔷 पटेल जी ने पूछा की जब हैदराबाद के 80% हिन्दू भारत में मिलना चाहते है तो आपके निजाम क्यों पाकिस्तान के बहकावे में आ रहे है। निजाम के दीवान ने कहा की आप हमारे बीच में न पड़े, हम अपनी मर्जी के मालिक है, और रही हिन्दुओ की बात तो इन 1 करोड़ हिन्दुओ की हम लाशें बिछा देंगे, एक भी हिन्दू आपको जिन्दा नहीं मिलेगा, तब किसकी राय पूछेंगे ??
🔶 यह सुनकर पटेल जी ने दीवान कहा - आप जाइए वापिस हैदराबाद, दीवान चला जाता है, अगली सुबह दीवान के हैदराबाद पहुँचने से पहले ही भारतीय सेना हैदराबाद पर धावा बोल देती है।
🔷 ऐसे कठोर समय में भी बिना समय गँवाए सही निर्णय लेकर खंड खंड देश को हिमाचल से कन्याकुमारी तक एक करने वाले सरदार पटेल को कोटि कोटि नमन।"
👉 सरदार पटेल - भारत माता के निर्भय सेनानी
🔶 सन् १९४८ का वर्ष भारत की राजनैतिक परिस्थिति की दृष्टि से बडा हलचल पूर्ण था। अगस्त १९४७ में जैसे ही देश को स्वतंत्रता प्राप्त हुई, चारों तरफ अशांति का वातावरण दिखाई पड़ने लगा। सबसे पहले तो पचास- साठ लाख शरणार्थियों को सुरक्षापूर्वक लाने और बसाने की समस्या सामने आई। उसी के साथ- साथ अनेक स्थानों पर सांप्रदायिक उपद्रव और मारकाट को भी नियंत्रण में लाना पडा। एक बहुत बडी समस्या देशी राज्यों की भी थी, जिनको अंग्रेजी सरकार ने 'स्वतंत्र' बनाकर राष्ट्रीय सरकार के साथ इच्छानुसार व्यवहार करने की छूट दे दी थी। इस प्रकार भारत के ऊपर उस समय चारों तरफ से काली घटाएँ घिरी हुईं थीं और इन सबको संभालने का भार भारत सरकार के गृह मंत्रालय पर था, जिसके संचालक थे- सरदार पटेल।
🔷 देशी राज्यों की समस्या वास्तव में बडी विकट थी। अधिकांश राजागण अपने को प्राचीनकाल के बडे- बडे प्रसिद्ध राजा- महाराजाओं तथा 'चक्रवर्ती नरेशों' के वंशज समझकर देश का वास्तविक स्वामी स्वयं को ही मानते थे। ऐसे राजाओं का भी अभाव न था, जो मन ही मन अंग्रेजों के हट जाने पर 'तलवार के बल' से देश पर अपनी हुकूमत कायम करने का स्वप्न देखते रहते थे। भारत के देशी और विदेशी 'शत्रु' भी समझते थे कि यह समस्या भारत की आंतरिक अवस्था को इतना अधिक डाँवाडोल कर देगी कि वह सचमुच लुंज- पुंज हो जायेगा और तब हमको उस पर दाँत गडा़ने का अच्छा मौका मिलेगा। और तो क्या सामान्य लोगों की आमतौर से यह धारणा थी कि इस समय परिस्थितिवश अंग्रेज भारत को स्वराज्य देकर चले तो जा रहे हैं, पर वे जानते हैं कि पाकिस्तान और देशी राज्यों के कारण कांग्रेसी सरकार शासन को चला सकने में समर्थ न होगी और झक मारकर अंत में उन्हीं को बुलाकर सुरक्षा करानी पडेगी।
🔶 पर लोगों के ये सब मंसूबे, अटकलें और भ्रम उस समय हवा में उड़ गये, जब सरदार पटेल ने चार- पाँच महीने के भीतर ही अधिकांश राजाओं को अपनी रियासतें भारतीय राष्ट्र में सम्मिलित करने को राजी कर लिया। उन्होंने शुरूआत अपने प्रांत गुजरात से ही की और वहाँ की कई सौ छोटी- छोटी रियासतों को एक संघ में संगठित करके नवानगर के जाम साहब को उसका राज प्रमुख बना दिया। इसके पश्चात् क्रमशः मध्य भारत, पंजाब और राजस्थान की रियासतों के संघ बनाकर उनको "भारतीय- संघ" में सम्मिलित कर लिया गया। जूनागढ़, भोपाल बडौ़दा आदि तीन- चार रियासतों के शासकों ने कुछ विरोध का भाव प्रदर्शित किया, पर सरदार ने साम- दाम दंड- भेद की राजनीति द्वारा बिना किसी प्रकार के बल का प्रत्यक्ष प्रयोग किये, उनकी समस्या को हल कर दिया।
हैदराबाद का विजय अभियान-
🔷 पर सबसे बढ़कर कठिनाई उपस्थित हुई हैदराबाद के मामले में। वह भारत की सबसे बडी रियासत थी और मुसलमान उसे अपना गढ़ समझते थे। भारत विभाजन के पश्चात् वहाँ कितने ही कट्टरपंथी मुस्लिम लोग जा पहुँचे और कोशिश करने लगे कि हैदराबाद को पाकिस्तान में शामिल किया जाय। उत्तर प्रदेश के कासिम रिजवी नामक व्यक्ति ने वहाँ जाकर 'रजाकार' नाम से एक स्वयंसेवक- दल कायम कर दिया, जिसमें दो लाख हथियार बंद व्यक्ति सम्मिलित थे। हैदराबाद की ४२ हजार सरकारी सेना इसके अतिरिक्त थी। ये सब रियासत के हिंदुओं पर ही अत्याचार नहीं करने लगे, वरन् आसपास के प्रदेशों की भूमि पर आकर भी लूटमार करने लगे। एक- दो बार उन्होंने रेलगाडी को रोककर लूट लिया और कई आदमियों को भी मार डाला। सरदार तुरंत ही हैदराबाद के विरुद्ध कार्यवाही करने को तैयार हो गये, पर नेहरू जी तथा अन्य कई मंत्रियों के राजी न होने से रुके रहे। पर जब हालत बहुत बिगड़ गई और कनाडा के राजदूत ने नेहरू जी से ईसाई स्त्रियों पर रजाकारों द्वारा आक्रमण करने की शिकायत की, तब कहीं जाकर उसके विरुद्ध सैनिक कार्यवाही करने का निश्चय किया गया। सरदार ने फौज को आदेश दे दिया। और मेजर जनरल जे० एन० चौधरी थोडी- सी सेना लेकर शोलापुर के रास्ते से आगे बढे ।
🔶 उस अवसर पर यद्यपि कासिम रिजवी ने यहाँ तक धमकी दी थी कि अगर भारतीय सेना ने हैदराबाद में प्रवेश किया तो उसको यहाँ डेढ़ करोड़ हिंदुओं की हड्डियों के अतिरिक्त और कुछ न मिलेगा। पर सरदार ऐसी बातों की कब परवाह करते थे? उन्होंने निजाम के प्रतिनिधि लायक अली से स्पष्ट कह दिया कि "हैदराबाद की समस्या भी उसी तरह सुलझेगी, जिस प्रकार अन्य रियासतों की सुलझी है। इसका दूसरा कोई मार्ग संभव नहीं है। हम किसी ऐसे स्थान को अपने देश में पृथक् नहीं रहने दे सकते, जो हमारे उसी संघ को नष्ट कर देगा, जिसे हमने रक्त और परिश्रम से बनाया है। हम समस्या का मित्रतापूर्ण हल ही चाहते हैं, और उसके लिए प्रयत्न कर रहे हैं, किंतु इसका अर्थ यह नहीं कि हैदराबाद को पूर्ण स्वतंत्र रह जाने देंगे। यदि वह स्वतंत्र रहने की अपनी माँग पर अडा रहा तो उसे निश्चय ही असफल होना पडे़गा।"
🔷 यद्यपि हैदराबाद के रजाकार और अन्य धर्मांध मुसलमान बडा जोर- शोर दिखा रहे थे और समझते थे कि भारतीय सेना का हमला होने पर संसार के मुसलमान देश उनका साथ देंगे, पर भारतीय सेना को देखते ही वे सब बगलें झाँकने लगे। कुछ रजाकारों ने दो- तीन दिन तक जगह- जगह पर कुछ लडाई की, पर भारत की सुशिक्षित सेना के सामने वे भेड़- बकरियों की भीड़ से अधिक प्रभावशाली सिद्ध न हो पाये। तीन दिन के संघर्ष में लगभग एक हजार रजाकार मारे गये, जबकि भारतीय सेना की मृत्यु संख्या नाम मात्र को ही थी। १७ सितंबर १९४८ को हैदराबाद के प्रधान सेनापति एल० एदरूस ने जनरल चौधरी के सामने बाकायदा आत्म समर्पण कर दिया और १८ सितंबर को जनरल चौधरी हैदराबाद के सैनिक गवर्नर नियुक्त कर दिये गये। फरवरी १९४९ में सरदार दक्षिण भारत की यात्रा करते हुए हैदराबाद पहुँचे तो निजाम ने स्वयं हवाई अड्डे पर आकर उनका स्वागत किया और भारतीय- प्रथा के अनुसार हाथ जोड़कर उनका अभिवादन किया, जो उनके जीवन में एक सर्वथा नई और सर्वप्रथम घटना थी।
🔶 हैदराबाद की समस्या को इस प्रकार ३ दिन में हल करके सरदार ने भारतीय सैनिक शक्ति और राजनीति की धाक समस्त देश में जमा दी। इससे वे सब 'तत्त्व' ठडे पड़ गये, जो शासन बदलने के कारण जगह- जगह सर उठा रहे थे और समझते थे की हम इन अनुभवहीन शासकों को दबा- धमकाकर अपना उल्लू सीधा करते रहेंगे। हैदराबाद की इस शानदार विजय से भारतीय जनता में उत्साह की लहर दौड़ गई। और शेष बची रियासतें बहुत शीघ्र भारतीय संघ के अंतर्गत आने को तैयार हो गईं।
🔷 छह- सात सौ रियासतों का भारतीय संघ में पूर्णतः विलय होकर एक अखण्ड राष्ट्र का निर्माण कुछ समय पहले तक एक असंभव कार्य समझा जाता था। पर सरदार पटेल ने उसे ऐसी खूबी से पूरा करके दिखा दिया कि देश- विदेशों के समस्त राजनीतिज्ञ चकित रह गये। यह कहने में कुछ भी अतिशयोक्ति नहीं कि जो कार्य जर्मनी के एकीकरण में बिस्मार्क ने कर दिखाया और जापान को एक सुदृढ़ राष्ट्र बनाने में मिकाडो ने जो महान् सफलता प्राप्त की, सरदार पटेल के कर्तृत्व का महत्त्व भी उससे कम नहीं है। जर्मनी और जापान तो उस समय चार- पाँच करोड़ की जनसंख्या के छोटे देश ही थे, पर सरदार ने तो उस भारत को एक कर दिखाया, जिसको विविधता और विस्तार की दृष्टि से अनेक लोग एक 'महाद्वीप' की संज्ञा देते हैं।
http://literature.awgp.org/book/prerna_prad_prasang/v1.5
🔷 देशी राज्यों की समस्या वास्तव में बडी विकट थी। अधिकांश राजागण अपने को प्राचीनकाल के बडे- बडे प्रसिद्ध राजा- महाराजाओं तथा 'चक्रवर्ती नरेशों' के वंशज समझकर देश का वास्तविक स्वामी स्वयं को ही मानते थे। ऐसे राजाओं का भी अभाव न था, जो मन ही मन अंग्रेजों के हट जाने पर 'तलवार के बल' से देश पर अपनी हुकूमत कायम करने का स्वप्न देखते रहते थे। भारत के देशी और विदेशी 'शत्रु' भी समझते थे कि यह समस्या भारत की आंतरिक अवस्था को इतना अधिक डाँवाडोल कर देगी कि वह सचमुच लुंज- पुंज हो जायेगा और तब हमको उस पर दाँत गडा़ने का अच्छा मौका मिलेगा। और तो क्या सामान्य लोगों की आमतौर से यह धारणा थी कि इस समय परिस्थितिवश अंग्रेज भारत को स्वराज्य देकर चले तो जा रहे हैं, पर वे जानते हैं कि पाकिस्तान और देशी राज्यों के कारण कांग्रेसी सरकार शासन को चला सकने में समर्थ न होगी और झक मारकर अंत में उन्हीं को बुलाकर सुरक्षा करानी पडेगी।
🔶 पर लोगों के ये सब मंसूबे, अटकलें और भ्रम उस समय हवा में उड़ गये, जब सरदार पटेल ने चार- पाँच महीने के भीतर ही अधिकांश राजाओं को अपनी रियासतें भारतीय राष्ट्र में सम्मिलित करने को राजी कर लिया। उन्होंने शुरूआत अपने प्रांत गुजरात से ही की और वहाँ की कई सौ छोटी- छोटी रियासतों को एक संघ में संगठित करके नवानगर के जाम साहब को उसका राज प्रमुख बना दिया। इसके पश्चात् क्रमशः मध्य भारत, पंजाब और राजस्थान की रियासतों के संघ बनाकर उनको "भारतीय- संघ" में सम्मिलित कर लिया गया। जूनागढ़, भोपाल बडौ़दा आदि तीन- चार रियासतों के शासकों ने कुछ विरोध का भाव प्रदर्शित किया, पर सरदार ने साम- दाम दंड- भेद की राजनीति द्वारा बिना किसी प्रकार के बल का प्रत्यक्ष प्रयोग किये, उनकी समस्या को हल कर दिया।
हैदराबाद का विजय अभियान-
🔷 पर सबसे बढ़कर कठिनाई उपस्थित हुई हैदराबाद के मामले में। वह भारत की सबसे बडी रियासत थी और मुसलमान उसे अपना गढ़ समझते थे। भारत विभाजन के पश्चात् वहाँ कितने ही कट्टरपंथी मुस्लिम लोग जा पहुँचे और कोशिश करने लगे कि हैदराबाद को पाकिस्तान में शामिल किया जाय। उत्तर प्रदेश के कासिम रिजवी नामक व्यक्ति ने वहाँ जाकर 'रजाकार' नाम से एक स्वयंसेवक- दल कायम कर दिया, जिसमें दो लाख हथियार बंद व्यक्ति सम्मिलित थे। हैदराबाद की ४२ हजार सरकारी सेना इसके अतिरिक्त थी। ये सब रियासत के हिंदुओं पर ही अत्याचार नहीं करने लगे, वरन् आसपास के प्रदेशों की भूमि पर आकर भी लूटमार करने लगे। एक- दो बार उन्होंने रेलगाडी को रोककर लूट लिया और कई आदमियों को भी मार डाला। सरदार तुरंत ही हैदराबाद के विरुद्ध कार्यवाही करने को तैयार हो गये, पर नेहरू जी तथा अन्य कई मंत्रियों के राजी न होने से रुके रहे। पर जब हालत बहुत बिगड़ गई और कनाडा के राजदूत ने नेहरू जी से ईसाई स्त्रियों पर रजाकारों द्वारा आक्रमण करने की शिकायत की, तब कहीं जाकर उसके विरुद्ध सैनिक कार्यवाही करने का निश्चय किया गया। सरदार ने फौज को आदेश दे दिया। और मेजर जनरल जे० एन० चौधरी थोडी- सी सेना लेकर शोलापुर के रास्ते से आगे बढे ।
🔶 उस अवसर पर यद्यपि कासिम रिजवी ने यहाँ तक धमकी दी थी कि अगर भारतीय सेना ने हैदराबाद में प्रवेश किया तो उसको यहाँ डेढ़ करोड़ हिंदुओं की हड्डियों के अतिरिक्त और कुछ न मिलेगा। पर सरदार ऐसी बातों की कब परवाह करते थे? उन्होंने निजाम के प्रतिनिधि लायक अली से स्पष्ट कह दिया कि "हैदराबाद की समस्या भी उसी तरह सुलझेगी, जिस प्रकार अन्य रियासतों की सुलझी है। इसका दूसरा कोई मार्ग संभव नहीं है। हम किसी ऐसे स्थान को अपने देश में पृथक् नहीं रहने दे सकते, जो हमारे उसी संघ को नष्ट कर देगा, जिसे हमने रक्त और परिश्रम से बनाया है। हम समस्या का मित्रतापूर्ण हल ही चाहते हैं, और उसके लिए प्रयत्न कर रहे हैं, किंतु इसका अर्थ यह नहीं कि हैदराबाद को पूर्ण स्वतंत्र रह जाने देंगे। यदि वह स्वतंत्र रहने की अपनी माँग पर अडा रहा तो उसे निश्चय ही असफल होना पडे़गा।"
🔷 यद्यपि हैदराबाद के रजाकार और अन्य धर्मांध मुसलमान बडा जोर- शोर दिखा रहे थे और समझते थे कि भारतीय सेना का हमला होने पर संसार के मुसलमान देश उनका साथ देंगे, पर भारतीय सेना को देखते ही वे सब बगलें झाँकने लगे। कुछ रजाकारों ने दो- तीन दिन तक जगह- जगह पर कुछ लडाई की, पर भारत की सुशिक्षित सेना के सामने वे भेड़- बकरियों की भीड़ से अधिक प्रभावशाली सिद्ध न हो पाये। तीन दिन के संघर्ष में लगभग एक हजार रजाकार मारे गये, जबकि भारतीय सेना की मृत्यु संख्या नाम मात्र को ही थी। १७ सितंबर १९४८ को हैदराबाद के प्रधान सेनापति एल० एदरूस ने जनरल चौधरी के सामने बाकायदा आत्म समर्पण कर दिया और १८ सितंबर को जनरल चौधरी हैदराबाद के सैनिक गवर्नर नियुक्त कर दिये गये। फरवरी १९४९ में सरदार दक्षिण भारत की यात्रा करते हुए हैदराबाद पहुँचे तो निजाम ने स्वयं हवाई अड्डे पर आकर उनका स्वागत किया और भारतीय- प्रथा के अनुसार हाथ जोड़कर उनका अभिवादन किया, जो उनके जीवन में एक सर्वथा नई और सर्वप्रथम घटना थी।
🔶 हैदराबाद की समस्या को इस प्रकार ३ दिन में हल करके सरदार ने भारतीय सैनिक शक्ति और राजनीति की धाक समस्त देश में जमा दी। इससे वे सब 'तत्त्व' ठडे पड़ गये, जो शासन बदलने के कारण जगह- जगह सर उठा रहे थे और समझते थे की हम इन अनुभवहीन शासकों को दबा- धमकाकर अपना उल्लू सीधा करते रहेंगे। हैदराबाद की इस शानदार विजय से भारतीय जनता में उत्साह की लहर दौड़ गई। और शेष बची रियासतें बहुत शीघ्र भारतीय संघ के अंतर्गत आने को तैयार हो गईं।
🔷 छह- सात सौ रियासतों का भारतीय संघ में पूर्णतः विलय होकर एक अखण्ड राष्ट्र का निर्माण कुछ समय पहले तक एक असंभव कार्य समझा जाता था। पर सरदार पटेल ने उसे ऐसी खूबी से पूरा करके दिखा दिया कि देश- विदेशों के समस्त राजनीतिज्ञ चकित रह गये। यह कहने में कुछ भी अतिशयोक्ति नहीं कि जो कार्य जर्मनी के एकीकरण में बिस्मार्क ने कर दिखाया और जापान को एक सुदृढ़ राष्ट्र बनाने में मिकाडो ने जो महान् सफलता प्राप्त की, सरदार पटेल के कर्तृत्व का महत्त्व भी उससे कम नहीं है। जर्मनी और जापान तो उस समय चार- पाँच करोड़ की जनसंख्या के छोटे देश ही थे, पर सरदार ने तो उस भारत को एक कर दिखाया, जिसको विविधता और विस्तार की दृष्टि से अनेक लोग एक 'महाद्वीप' की संज्ञा देते हैं।
http://literature.awgp.org/book/prerna_prad_prasang/v1.5
मंगलवार, 30 अक्टूबर 2018
👉 परिवर्तन के महान् क्षण (अन्तिम भाग)
👉 हमारी भविष्य वाणी
🔷 विज्ञान जीवित रहेगा; पर उसका नाम भौतिक विज्ञान न होकर अध्यात्म विज्ञान ही हो जाएगा। उस आधार को अपनाते ही वे सभी समस्याएँ सुलझ जाएँगी, जो इन दिनों अत्यन्त भयावह दीख पड़ती हैं। उन आवश्यकताओं को प्रकृति ही पूरा करने लगेगी, जिनके अभाव में मनुष्य अतिशय उद्विग्न, आशंकित, आतंकित दीख पड़ता है। न अगली शताब्दी में युद्ध होंगे, न महामारियाँ फैलेंगी और न जनसंख्या की अभिवृद्धि से वस्तुओं में कमी पड़ने के कारण चिन्तित होने की आवश्यकता पड़ेगी।
🔶 जागृत नारी अनावश्यक सन्तानोत्पादन से स्वयं इंकार कर देगी और अपनी बर्बाद होने वाली शक्ति को उन प्रयोजनों के लिए नियोजित करेगी, जो समृद्धि और सद्भावना के अभिवर्द्धन के लिए नितान्त आवश्यक है। नारी प्रधान इक्कीसवीं शताब्दी का वातावरण ऐसा होगा, जिसे सरस्वती, लक्ष्मी और दुर्गा की संयुक्त शक्ति द्वारा अपनाया गया क्रिया-कलाप कहा जा सके। शिक्षा मात्र उदरपूर्णा न रहेगी, वरन् उसका अभिनव स्वरूप व्यक्तियों को प्रामाणिक, प्रखर एवं प्रतिभा सम्पन्न बनाने की अपनी जिम्मेदारी पूरी करेगा।
🔷 यह सब कैसे होगा, इसकी प्रत्यक्षदर्शी योजनाओं का स्वरूप पूछने या जानने की जरूरत नहीं है। अदृश्य जगत में संव्याप्त दैवी चेतना का अनुपात वर्तमान परिस्थितियों की प्राणचेतना के आधार पर असाधारण रूप में उभरेगा और ऐसे परिवर्तन अनायास ही करता चला जाएगा, जिसे वसन्त का अभिनव अभियान कहा जा सके या उज्ज्वल भविष्य को साथ लेकर आने वाले ‘‘सतयुग की वापसी’’ कहा जा सके। इक्कीसवीं सदी का उज्ज्वल भविष्य इन्हीं आधारों को साथ लेकर अवतरित होगा। इसी की पृष्ठभूमि इन दिनों बन रही है।
.... समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 परिवर्तन के महान् क्षण पृष्ठ 32
🔷 विज्ञान जीवित रहेगा; पर उसका नाम भौतिक विज्ञान न होकर अध्यात्म विज्ञान ही हो जाएगा। उस आधार को अपनाते ही वे सभी समस्याएँ सुलझ जाएँगी, जो इन दिनों अत्यन्त भयावह दीख पड़ती हैं। उन आवश्यकताओं को प्रकृति ही पूरा करने लगेगी, जिनके अभाव में मनुष्य अतिशय उद्विग्न, आशंकित, आतंकित दीख पड़ता है। न अगली शताब्दी में युद्ध होंगे, न महामारियाँ फैलेंगी और न जनसंख्या की अभिवृद्धि से वस्तुओं में कमी पड़ने के कारण चिन्तित होने की आवश्यकता पड़ेगी।
🔶 जागृत नारी अनावश्यक सन्तानोत्पादन से स्वयं इंकार कर देगी और अपनी बर्बाद होने वाली शक्ति को उन प्रयोजनों के लिए नियोजित करेगी, जो समृद्धि और सद्भावना के अभिवर्द्धन के लिए नितान्त आवश्यक है। नारी प्रधान इक्कीसवीं शताब्दी का वातावरण ऐसा होगा, जिसे सरस्वती, लक्ष्मी और दुर्गा की संयुक्त शक्ति द्वारा अपनाया गया क्रिया-कलाप कहा जा सके। शिक्षा मात्र उदरपूर्णा न रहेगी, वरन् उसका अभिनव स्वरूप व्यक्तियों को प्रामाणिक, प्रखर एवं प्रतिभा सम्पन्न बनाने की अपनी जिम्मेदारी पूरी करेगा।
🔷 यह सब कैसे होगा, इसकी प्रत्यक्षदर्शी योजनाओं का स्वरूप पूछने या जानने की जरूरत नहीं है। अदृश्य जगत में संव्याप्त दैवी चेतना का अनुपात वर्तमान परिस्थितियों की प्राणचेतना के आधार पर असाधारण रूप में उभरेगा और ऐसे परिवर्तन अनायास ही करता चला जाएगा, जिसे वसन्त का अभिनव अभियान कहा जा सके या उज्ज्वल भविष्य को साथ लेकर आने वाले ‘‘सतयुग की वापसी’’ कहा जा सके। इक्कीसवीं सदी का उज्ज्वल भविष्य इन्हीं आधारों को साथ लेकर अवतरित होगा। इसी की पृष्ठभूमि इन दिनों बन रही है।
.... समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 परिवर्तन के महान् क्षण पृष्ठ 32
सोमवार, 29 अक्टूबर 2018
👉 हनुमान चालीसा में छिपे मैनेजमेंट के सूत्र
🔶 कई लोगों की दिनचर्या हनुमान चालीसा पढ़ने से शुरू होती है। पर क्या आप जानते हैं कि श्री *हनुमान चालीसा* में 40 चौपाइयां हैं, ये उस क्रम में लिखी गई हैं जो एक आम आदमी की जिंदगी का क्रम होता है।
🔷 माना जाता है तुलसीदास ने चालीसा की रचना मानस से पूर्व किया था हनुमान को गुरु बनाकर उन्होंने राम को पाने की शुरुआत की।
🔶 अगर आप सिर्फ हनुमान चालीसा पढ़ रहे हैं तो यह आपको भीतरी शक्ति तो दे रही है लेकिन अगर आप इसके अर्थ में छिपे जिंदगी के सूत्र समझ लें तो आपको जीवन के हर क्षेत्र में सफलता दिला सकते हैं।
🔷 हनुमान चालीसा सनातन परंपरा में लिखी गई पहली चालीसा है शेष सभी चालीसाएं इसके बाद ही लिखी गई। हनुमान चालीसा की शुरुआत से अंत तक सफलता के कई सूत्र हैं। आइए जानते हैं हनुमान चालीसा से आप अपने जीवन में क्या-क्या बदलाव ला सकते हैं….
🔶 शुरुआत गुरु से…
हनुमान चालीसा की शुरुआत गुरु से हुई है…
श्रीगुरु चरन सरोज रज,
निज मनु मुकुरु सुधारि।
🔷 अर्थ - अपने गुरु के चरणों की धूल से अपने मन के दर्पण को साफ करता हूं।
गुरु का महत्व चालीसा की पहले दोहे की पहली लाइन में लिखा गया है। जीवन में गुरु नहीं है तो आपको कोई आगे नहीं बढ़ा सकता। गुरु ही आपको सही रास्ता दिखा सकते हैं।
इसलिए तुलसीदास ने लिखा है कि गुरु के चरणों की धूल से मन के दर्पण को साफ करता हूं। आज के दौर में गुरु हमारा मेंटोर भी हो सकता है, बॉस भी। माता-पिता को पहला गुरु ही कहा गया है। समझने वाली बात ये है कि गुरु यानी अपने से बड़ों का सम्मान करना जरूरी है। अगर तरक्की की राह पर आगे बढ़ना है तो विनम्रता के साथ बड़ों का सम्मान करें।
🔶 ड्रेसअप का रखें ख्याल…
चालीसा की चौपाई है
कंचन बरन बिराज सुबेसा,
कानन कुंडल कुंचित केसा।
🔷 अर्थ - आपके शरीर का रंग सोने की तरह चमकीला है, सुवेष यानी अच्छे वस्त्र पहने हैं, कानों में कुंडल हैं और बाल संवरे हुए हैं।
आज के दौर में आपकी तरक्की इस बात पर भी निर्भर करती है कि आप रहते और दिखते कैसे हैं। फर्स्ट इंप्रेशन अच्छा होना चाहिए। अगर आप बहुत गुणवान भी हैं लेकिन अच्छे से नहीं रहते हैं तो ये बात आपके करियर को प्रभावित कर सकती है। इसलिए, रहन-सहन और ड्रेसअप हमेशा अच्छा रखें।
🔶 सिर्फ डिग्री काम नहीं आती
बिद्यावान गुनी अति चातुर,
राम काज करिबे को आतुर।
🔷 अर्थ - आप विद्यावान हैं, गुणों की खान हैं, चतुर भी हैं। राम के काम करने के लिए सदैव आतुर रहते हैं।
आज के दौर में एक अच्छी डिग्री होना बहुत जरूरी है। लेकिन चालीसा कहती है सिर्फ डिग्री होने से आप सफल नहीं होंगे। विद्या हासिल करने के साथ आपको अपने गुणों को भी बढ़ाना पड़ेगा, बुद्धि में चतुराई भी लानी होगी। हनुमान में तीनों गुण हैं, वे सूर्य के शिष्य हैं, गुणी भी हैं और चतुर भी।
🔶 अच्छा लिसनर बनें
प्रभु चरित सुनिबे को रसिया,
राम लखन सीता मन बसिया।
🔷 अर्थ -आप राम चरित यानी राम की कथा सुनने में रसिक है, राम, लक्ष्मण और सीता तीनों ही आपके मन में वास करते हैं।
जो आपकी प्रायोरिटी है, जो आपका काम है, उसे लेकर सिर्फ बोलने में नहीं, सुनने में भी आपको रस आना चाहिए। अच्छा श्रोता होना बहुत जरूरी है। अगर आपके पास सुनने की कला नहीं है तो आप कभी अच्छे लीडर नहीं बन सकते।
🔶 कहां, कैसे व्यवहार करना है ये ज्ञान जरूरी है
सूक्ष्म रुप धरि सियहिं दिखावा,
बिकट रुप धरि लंक जरावा।
🔷 अर्थ - आपने अशोक वाटिका में सीता को अपने छोटे रुप में दर्शन दिए। और लंका जलाते समय आपने बड़ा स्वरुप धारण किया।
कब, कहां, किस परिस्थिति में खुद का व्यवहार कैसा रखना है, ये कला हनुमानजी से सीखी जा सकती है। सीता से जब अशोक वाटिका में मिले तो उनके सामने छोटे वानर के आकार में मिले, वहीं जब लंका जलाई तो पर्वताकार रुप धर लिया। अक्सर लोग ये ही तय नहीं कर पाते हैं कि उन्हें कब किसके सामने कैसा दिखना है।
🔶 अच्छे सलाहकार बनें
तुम्हरो मंत्र बिभीसन माना,
लंकेस्वर भए सब जग जाना।
🔷 अर्थ - विभीषण ने आपकी सलाह मानी, वे लंका के राजा बने ये सारी दुनिया जानती है।
हनुमान सीता की खोज में लंका गए तो वहां विभीषण से मिले। विभीषण को राम भक्त के रुप में देख कर उन्हें राम से मिलने की सलाह दे दी।
विभीषण ने भी उस सलाह को माना और रावण के मरने के बाद वे राम द्वारा लंका के राजा बनाए गए। किसको, कहां, क्या सलाह देनी चाहिए, इसकी समझ बहुत आवश्यक है। सही समय पर सही इंसान को दी गई सलाह सिर्फ उसका ही फायदा नहीं करती, आपको भी कहीं ना कहीं फायदा पहुंचाती है।
🔶 आत्मविश्वास की कमी ना हो
प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माही,
जलधि लांघि गए अचरज नाहीं।
🔷 अर्थ - राम नाम की अंगुठी अपने मुख में रखकर आपने समुद्र को लांघ लिया, इसमें कोई अचरज नहीं है।
अगर आपमें खुद पर और अपने परमात्मा पर पूरा भरोसा है तो आप कोई भी मुश्किल से मुश्किल टॉस्क को आसानी से पूरा कर सकते हैं। आज के युवाओं में एक कमी ये भी है कि उनका भरोसा बहुत टूट जाता है। आत्मविश्वास की कमी भी बहुत है। प्रतिस्पर्धा के दौर में आत्मविश्वास की कमी होना खतरनाक है। अपनेआप पर पूरा भरोसा रखे।
🔷 माना जाता है तुलसीदास ने चालीसा की रचना मानस से पूर्व किया था हनुमान को गुरु बनाकर उन्होंने राम को पाने की शुरुआत की।
🔶 अगर आप सिर्फ हनुमान चालीसा पढ़ रहे हैं तो यह आपको भीतरी शक्ति तो दे रही है लेकिन अगर आप इसके अर्थ में छिपे जिंदगी के सूत्र समझ लें तो आपको जीवन के हर क्षेत्र में सफलता दिला सकते हैं।
🔷 हनुमान चालीसा सनातन परंपरा में लिखी गई पहली चालीसा है शेष सभी चालीसाएं इसके बाद ही लिखी गई। हनुमान चालीसा की शुरुआत से अंत तक सफलता के कई सूत्र हैं। आइए जानते हैं हनुमान चालीसा से आप अपने जीवन में क्या-क्या बदलाव ला सकते हैं….
🔶 शुरुआत गुरु से…
हनुमान चालीसा की शुरुआत गुरु से हुई है…
श्रीगुरु चरन सरोज रज,
निज मनु मुकुरु सुधारि।
🔷 अर्थ - अपने गुरु के चरणों की धूल से अपने मन के दर्पण को साफ करता हूं।
गुरु का महत्व चालीसा की पहले दोहे की पहली लाइन में लिखा गया है। जीवन में गुरु नहीं है तो आपको कोई आगे नहीं बढ़ा सकता। गुरु ही आपको सही रास्ता दिखा सकते हैं।
इसलिए तुलसीदास ने लिखा है कि गुरु के चरणों की धूल से मन के दर्पण को साफ करता हूं। आज के दौर में गुरु हमारा मेंटोर भी हो सकता है, बॉस भी। माता-पिता को पहला गुरु ही कहा गया है। समझने वाली बात ये है कि गुरु यानी अपने से बड़ों का सम्मान करना जरूरी है। अगर तरक्की की राह पर आगे बढ़ना है तो विनम्रता के साथ बड़ों का सम्मान करें।
🔶 ड्रेसअप का रखें ख्याल…
चालीसा की चौपाई है
कंचन बरन बिराज सुबेसा,
कानन कुंडल कुंचित केसा।
🔷 अर्थ - आपके शरीर का रंग सोने की तरह चमकीला है, सुवेष यानी अच्छे वस्त्र पहने हैं, कानों में कुंडल हैं और बाल संवरे हुए हैं।
आज के दौर में आपकी तरक्की इस बात पर भी निर्भर करती है कि आप रहते और दिखते कैसे हैं। फर्स्ट इंप्रेशन अच्छा होना चाहिए। अगर आप बहुत गुणवान भी हैं लेकिन अच्छे से नहीं रहते हैं तो ये बात आपके करियर को प्रभावित कर सकती है। इसलिए, रहन-सहन और ड्रेसअप हमेशा अच्छा रखें।
🔶 सिर्फ डिग्री काम नहीं आती
बिद्यावान गुनी अति चातुर,
राम काज करिबे को आतुर।
🔷 अर्थ - आप विद्यावान हैं, गुणों की खान हैं, चतुर भी हैं। राम के काम करने के लिए सदैव आतुर रहते हैं।
आज के दौर में एक अच्छी डिग्री होना बहुत जरूरी है। लेकिन चालीसा कहती है सिर्फ डिग्री होने से आप सफल नहीं होंगे। विद्या हासिल करने के साथ आपको अपने गुणों को भी बढ़ाना पड़ेगा, बुद्धि में चतुराई भी लानी होगी। हनुमान में तीनों गुण हैं, वे सूर्य के शिष्य हैं, गुणी भी हैं और चतुर भी।
🔶 अच्छा लिसनर बनें
प्रभु चरित सुनिबे को रसिया,
राम लखन सीता मन बसिया।
🔷 अर्थ -आप राम चरित यानी राम की कथा सुनने में रसिक है, राम, लक्ष्मण और सीता तीनों ही आपके मन में वास करते हैं।
जो आपकी प्रायोरिटी है, जो आपका काम है, उसे लेकर सिर्फ बोलने में नहीं, सुनने में भी आपको रस आना चाहिए। अच्छा श्रोता होना बहुत जरूरी है। अगर आपके पास सुनने की कला नहीं है तो आप कभी अच्छे लीडर नहीं बन सकते।
🔶 कहां, कैसे व्यवहार करना है ये ज्ञान जरूरी है
सूक्ष्म रुप धरि सियहिं दिखावा,
बिकट रुप धरि लंक जरावा।
🔷 अर्थ - आपने अशोक वाटिका में सीता को अपने छोटे रुप में दर्शन दिए। और लंका जलाते समय आपने बड़ा स्वरुप धारण किया।
कब, कहां, किस परिस्थिति में खुद का व्यवहार कैसा रखना है, ये कला हनुमानजी से सीखी जा सकती है। सीता से जब अशोक वाटिका में मिले तो उनके सामने छोटे वानर के आकार में मिले, वहीं जब लंका जलाई तो पर्वताकार रुप धर लिया। अक्सर लोग ये ही तय नहीं कर पाते हैं कि उन्हें कब किसके सामने कैसा दिखना है।
🔶 अच्छे सलाहकार बनें
तुम्हरो मंत्र बिभीसन माना,
लंकेस्वर भए सब जग जाना।
🔷 अर्थ - विभीषण ने आपकी सलाह मानी, वे लंका के राजा बने ये सारी दुनिया जानती है।
हनुमान सीता की खोज में लंका गए तो वहां विभीषण से मिले। विभीषण को राम भक्त के रुप में देख कर उन्हें राम से मिलने की सलाह दे दी।
विभीषण ने भी उस सलाह को माना और रावण के मरने के बाद वे राम द्वारा लंका के राजा बनाए गए। किसको, कहां, क्या सलाह देनी चाहिए, इसकी समझ बहुत आवश्यक है। सही समय पर सही इंसान को दी गई सलाह सिर्फ उसका ही फायदा नहीं करती, आपको भी कहीं ना कहीं फायदा पहुंचाती है।
🔶 आत्मविश्वास की कमी ना हो
प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माही,
जलधि लांघि गए अचरज नाहीं।
🔷 अर्थ - राम नाम की अंगुठी अपने मुख में रखकर आपने समुद्र को लांघ लिया, इसमें कोई अचरज नहीं है।
अगर आपमें खुद पर और अपने परमात्मा पर पूरा भरोसा है तो आप कोई भी मुश्किल से मुश्किल टॉस्क को आसानी से पूरा कर सकते हैं। आज के युवाओं में एक कमी ये भी है कि उनका भरोसा बहुत टूट जाता है। आत्मविश्वास की कमी भी बहुत है। प्रतिस्पर्धा के दौर में आत्मविश्वास की कमी होना खतरनाक है। अपनेआप पर पूरा भरोसा रखे।
👉 दृष्टिकोण
🔶 एक महिला रोज मंदिर जाती थी ! एक दिन उस महिला ने पुजारी से कहा अब मैं मंदिर नही आया करूँगी! इस पर पुजारी ने पूछा -- क्यों ?
🔷 तब महिला बोली -- मैं देखती हूँ लोग मंदिर परिसर में अपने फोन से अपने व्यापार की बात करते हैं ! कुछ ने तो मंदिर को ही गपशप करने का स्थान चुन रखा है ! कुछ पूजा कम पाखंड,दिखावा ज्यादा करते हैं!
🔶 इस पर पुजारी कुछ देर तक चुप रहे फिर कहा -- सही है ! परंतु अपना अंतिम निर्णय लेने से पहले क्या आप मेरे कहने से कुछ कर सकती हैं! महिला बोली -आप बताइए क्या करना है?
🔷 पुजारी ने कहा -- एक गिलास पानी भर लीजिए और 2 बार मंदिर परिसर के अंदर परिक्रमा लगाइए । शर्त ये है कि गिलास का पानी गिरना नहीं चाहिये! महिला बोली -- मैं ऐसा कर सकती हूँ!
🔶 फिर थोड़ी ही देर में उस महिला ने ऐसा ही कर दिखाया! उसके बाद मंदिर के पुजारी ने महिला से 3 सवाल पूछे -
🔷 1.क्या आपने किसी को फोन पर बात करते देखा?
🔶 2.क्या आपने किसी को मंदिर में गपशप करते देखा?
🔷 3.क्या किसी को पाखंड करते देखा?
🔶 महिला बोली -- नहीं मैंने कुछ भी नहीं देखा!
🔷 फिर पुजारी बोले --- जब आप परिक्रमा लगा रही थीं तो आपका पूरा ध्यान गिलास पर था कि इसमें से पानी न गिर जाए इसलिए आपको कुछ दिखाई नहीं दिया।
🔶 अब जब भी आप मंदिर आयें तो अपना ध्यान सिर्फ़ परम पिता परमात्मा में ही लगाना फिर आपको कुछ दिखाई नहीं देगा| सिर्फ भगवान ही सर्वत्र दिखाई देगें।
'' जाकी रही भावना जैसी..
प्रभु मूरत देखी तिन तैसी
🔷 तब महिला बोली -- मैं देखती हूँ लोग मंदिर परिसर में अपने फोन से अपने व्यापार की बात करते हैं ! कुछ ने तो मंदिर को ही गपशप करने का स्थान चुन रखा है ! कुछ पूजा कम पाखंड,दिखावा ज्यादा करते हैं!
🔶 इस पर पुजारी कुछ देर तक चुप रहे फिर कहा -- सही है ! परंतु अपना अंतिम निर्णय लेने से पहले क्या आप मेरे कहने से कुछ कर सकती हैं! महिला बोली -आप बताइए क्या करना है?
🔷 पुजारी ने कहा -- एक गिलास पानी भर लीजिए और 2 बार मंदिर परिसर के अंदर परिक्रमा लगाइए । शर्त ये है कि गिलास का पानी गिरना नहीं चाहिये! महिला बोली -- मैं ऐसा कर सकती हूँ!
🔶 फिर थोड़ी ही देर में उस महिला ने ऐसा ही कर दिखाया! उसके बाद मंदिर के पुजारी ने महिला से 3 सवाल पूछे -
🔷 1.क्या आपने किसी को फोन पर बात करते देखा?
🔶 2.क्या आपने किसी को मंदिर में गपशप करते देखा?
🔷 3.क्या किसी को पाखंड करते देखा?
🔶 महिला बोली -- नहीं मैंने कुछ भी नहीं देखा!
🔷 फिर पुजारी बोले --- जब आप परिक्रमा लगा रही थीं तो आपका पूरा ध्यान गिलास पर था कि इसमें से पानी न गिर जाए इसलिए आपको कुछ दिखाई नहीं दिया।
🔶 अब जब भी आप मंदिर आयें तो अपना ध्यान सिर्फ़ परम पिता परमात्मा में ही लगाना फिर आपको कुछ दिखाई नहीं देगा| सिर्फ भगवान ही सर्वत्र दिखाई देगें।
'' जाकी रही भावना जैसी..
प्रभु मूरत देखी तिन तैसी
👉 परिवर्तन के महान् क्षण (भाग 29)
👉 हमारी भविष्य वाणी
🔶 अब बात भविष्य की आती है, जिसमें प्रचलित दुष्प्रवृत्तियों का उन्मूलन, अभावों का निराकरण, सदाशयता का अभिवर्धन प्रमुख है। यह कार्य विज्ञान तो कदाचित् कितने ही प्रयत्न कर लेने पर भी समय की माँग को पूरा न कर सकेगा। पर यह विश्वास किया जा सकता है कि चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में उत्कृष्टता का असाधारण मात्रा में अभिवर्धन होगा, तो वे सभी समस्याएँ अनायास ही सुलझती चलेंगी, जिन्हें इन दिनों सर्वनाशी और खण्ड प्रलय जैसी विभीषिकाएँ माना जा रहा है।
🔷 चेतना में ऐसी शक्ति उभरने पर मनुष्य की भावना और क्रिया-प्रक्रिया में ऐसा आश्चर्यजनक परिवर्तन होगा कि दुरुपयोग में लगी हुई क्षमताएँ सदुपयोग की ओर मुड़ चलेंगी और ऐसे सत्परिणाम उत्पन्न करेंगी, जिन्हें सतयुग की वापसी का नाम दिया जा सके।
🔶 विज्ञान आगे भी अनर्थ पैदा करता रह सकेगा; ऐसी आशंकाएँ किसी को भी नहीं करनी चाहिए; क्योंकि खनिज तेल, विद्युत उत्पादन जैसे स्रोत ही सूख जाएँगे, तब विज्ञान जीवित कैसे रह सकेगा? लोगों को लौटकर फिर प्राकृतिक जीवन अपनाना पड़ेगा, जिसमें विकृतियों के अभिवर्धन की कोई गुंजायश ही नहीं है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 परिवर्तन के महान् क्षण पृष्ठ 32
🔶 अब बात भविष्य की आती है, जिसमें प्रचलित दुष्प्रवृत्तियों का उन्मूलन, अभावों का निराकरण, सदाशयता का अभिवर्धन प्रमुख है। यह कार्य विज्ञान तो कदाचित् कितने ही प्रयत्न कर लेने पर भी समय की माँग को पूरा न कर सकेगा। पर यह विश्वास किया जा सकता है कि चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में उत्कृष्टता का असाधारण मात्रा में अभिवर्धन होगा, तो वे सभी समस्याएँ अनायास ही सुलझती चलेंगी, जिन्हें इन दिनों सर्वनाशी और खण्ड प्रलय जैसी विभीषिकाएँ माना जा रहा है।
🔷 चेतना में ऐसी शक्ति उभरने पर मनुष्य की भावना और क्रिया-प्रक्रिया में ऐसा आश्चर्यजनक परिवर्तन होगा कि दुरुपयोग में लगी हुई क्षमताएँ सदुपयोग की ओर मुड़ चलेंगी और ऐसे सत्परिणाम उत्पन्न करेंगी, जिन्हें सतयुग की वापसी का नाम दिया जा सके।
🔶 विज्ञान आगे भी अनर्थ पैदा करता रह सकेगा; ऐसी आशंकाएँ किसी को भी नहीं करनी चाहिए; क्योंकि खनिज तेल, विद्युत उत्पादन जैसे स्रोत ही सूख जाएँगे, तब विज्ञान जीवित कैसे रह सकेगा? लोगों को लौटकर फिर प्राकृतिक जीवन अपनाना पड़ेगा, जिसमें विकृतियों के अभिवर्धन की कोई गुंजायश ही नहीं है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 परिवर्तन के महान् क्षण पृष्ठ 32
👉 Significance of Symbolism & Customs of Indian Culture (Part 3)
🔶 Objects like dipaka (lamp of ghee) and kalasa (round copper pot filled with the water of a sacred river) symbolize respectively, the incessant light of divinity, and presence of divine powers in all directions and forms around the cosmos.
🔷 All these symbols and objects, and other facets of Indian Culture are linked with the multiple manifestations and divine powers of Gayatri (Gayatri) — the Supreme Mother of all divine virtues and powers; the primordial, eternal power (of the Omnipotent), the perennial evolutionary force for expression of Brahm in the existence and creation of Nature; the eternal origin of divine wisdom.
🔶 Supreme knowledge of the Vedas is also said to have originated from the Gayatri Mantra According to revered mystics, spiritual masters. and scholars, spiritual endeavors of sadhana reach ultimate state of beatifying enlightenment soul-realization, and divine bliss with the support of this supreme mantra. The journey of spiritual purification and illumination of the inner-self also begins with the meditative chants of this mantra. Indeed, Gayatri (supreme source of noble thoughts and virtues) and yagya (selfless service, noble deeds) provide the motivating light and foundational support for the noble Indian Culture.
To be continued...
🔷 All these symbols and objects, and other facets of Indian Culture are linked with the multiple manifestations and divine powers of Gayatri (Gayatri) — the Supreme Mother of all divine virtues and powers; the primordial, eternal power (of the Omnipotent), the perennial evolutionary force for expression of Brahm in the existence and creation of Nature; the eternal origin of divine wisdom.
🔶 Supreme knowledge of the Vedas is also said to have originated from the Gayatri Mantra According to revered mystics, spiritual masters. and scholars, spiritual endeavors of sadhana reach ultimate state of beatifying enlightenment soul-realization, and divine bliss with the support of this supreme mantra. The journey of spiritual purification and illumination of the inner-self also begins with the meditative chants of this mantra. Indeed, Gayatri (supreme source of noble thoughts and virtues) and yagya (selfless service, noble deeds) provide the motivating light and foundational support for the noble Indian Culture.
To be continued...
शुक्रवार, 26 अक्टूबर 2018
गुरुवार, 25 अक्टूबर 2018
👉 परिवर्तन के महान् क्षण (भाग 28)
👉 आश्वासन एवं अनुरोध
🔶 अस्सी वर्ष जी लेने के उपरान्त और अधिक जीने की इच्छा तो तनिक भी नहीं है; पर अपनी मर्जी से तो न जीना हो सका और न मरना हो सकता है। नियंता की मर्जी ही प्रमुख है। इतने पर भी यह निश्चित है कि शरीर के बिना भी बहुत कुछ करते बन पड़ेगा। इसका पूर्वाभ्यास इन दिनों चल रहा है। एकान्त सेवन के साथ जुड़ी हुई निष्क्रियता दीख पड़ने पर भी यह जाँचा जा रहा है कि स्फूर्तिवान शरीर से लदे रहने पर जितना कुछ करते बन पड़ा करता था, अब उसमें कुछ कमी तो नहीं आ गई है।
🔷 निष्कर्ष यही निकल रहा है कि इस स्थिति में सीमित को असीम बनाने में समर्थता का अधिक बढ़-चढ़ कर परिचय देने में सहायता ही मिल रही है। इस आधार पर विश्वास परिपक्व हो गया है कि जीवित रहने की अपेक्षा शरीर न रहने पर समर्थता एवं सक्रियता और भी अधिक बढ़ जाती है। इसी मान्यता के आधार पर प्रज्ञा परिजनों से विशेष रूप से कहा जा सकता है कि आँखों से न दीख पड़ने पर तनिक भी उदास न हों और निरन्तर यह अनुभव करें कि हम उन्हें अधिक प्यार, अधिक उत्कर्ष और अधिक समर्थ सहयोग दे सकने की स्थिति में तब भी होंगे, जब यह पंच भौतिक ढकोसला मिट्टी में मिल जाएगा। जो पुकारेगा, जो खोजेगा उसे हम सामने खड़े और समर्थ सहयोग करते दीख पड़ेंगे।
🔶 अदृश्य अध्यात्म की सामर्थ्य दृश्यमान विज्ञान की तुलना में कम तो नहीं है, इस असमंजस को इतने दिनों जीकर, अभीष्ट प्रयोग की दिशा में निरत रहकर यह भली-भाँति जान लिया है कि आत्मबल संसार के समस्त बलों की तुलना में अधिक सामर्थ्यवान है। विज्ञान की पहुँच मात्र जड़ पदार्थों तक है, जबकि अध्यात्म जड़ ही नहीं, चेतना को भी प्रभावित, परिष्कृत करने में समर्थ है। उसका अमृत, पारस, कल्पवृक्ष, कामधेनु आदि के नामों से आलंकारिक सम्बोधन किया जाता है। वह कथानक प्रकारान्तर से सच्चाई के साथ जुड़ा हुआ है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 परिवर्तन के महान् क्षण पृष्ठ 32
🔶 अस्सी वर्ष जी लेने के उपरान्त और अधिक जीने की इच्छा तो तनिक भी नहीं है; पर अपनी मर्जी से तो न जीना हो सका और न मरना हो सकता है। नियंता की मर्जी ही प्रमुख है। इतने पर भी यह निश्चित है कि शरीर के बिना भी बहुत कुछ करते बन पड़ेगा। इसका पूर्वाभ्यास इन दिनों चल रहा है। एकान्त सेवन के साथ जुड़ी हुई निष्क्रियता दीख पड़ने पर भी यह जाँचा जा रहा है कि स्फूर्तिवान शरीर से लदे रहने पर जितना कुछ करते बन पड़ा करता था, अब उसमें कुछ कमी तो नहीं आ गई है।
🔷 निष्कर्ष यही निकल रहा है कि इस स्थिति में सीमित को असीम बनाने में समर्थता का अधिक बढ़-चढ़ कर परिचय देने में सहायता ही मिल रही है। इस आधार पर विश्वास परिपक्व हो गया है कि जीवित रहने की अपेक्षा शरीर न रहने पर समर्थता एवं सक्रियता और भी अधिक बढ़ जाती है। इसी मान्यता के आधार पर प्रज्ञा परिजनों से विशेष रूप से कहा जा सकता है कि आँखों से न दीख पड़ने पर तनिक भी उदास न हों और निरन्तर यह अनुभव करें कि हम उन्हें अधिक प्यार, अधिक उत्कर्ष और अधिक समर्थ सहयोग दे सकने की स्थिति में तब भी होंगे, जब यह पंच भौतिक ढकोसला मिट्टी में मिल जाएगा। जो पुकारेगा, जो खोजेगा उसे हम सामने खड़े और समर्थ सहयोग करते दीख पड़ेंगे।
🔶 अदृश्य अध्यात्म की सामर्थ्य दृश्यमान विज्ञान की तुलना में कम तो नहीं है, इस असमंजस को इतने दिनों जीकर, अभीष्ट प्रयोग की दिशा में निरत रहकर यह भली-भाँति जान लिया है कि आत्मबल संसार के समस्त बलों की तुलना में अधिक सामर्थ्यवान है। विज्ञान की पहुँच मात्र जड़ पदार्थों तक है, जबकि अध्यात्म जड़ ही नहीं, चेतना को भी प्रभावित, परिष्कृत करने में समर्थ है। उसका अमृत, पारस, कल्पवृक्ष, कामधेनु आदि के नामों से आलंकारिक सम्बोधन किया जाता है। वह कथानक प्रकारान्तर से सच्चाई के साथ जुड़ा हुआ है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 परिवर्तन के महान् क्षण पृष्ठ 32
👉 Significance of Symbolism & Customs of Indian Culture (Part 2)
In (Bio) chemical sciences, line-diagrams or networks of lines and circles with syllables of atom-names are used as schematic representations of molecular structures. A more evolved and structured coding system (in terms of geometric designs/symbols, or specific objects) was devised by the Vedic sages (the founders of Indian Culture) to represent transcendent and manifested elements and energy current/fields existing in Nature. These symbols (matrikas and yantras) have multiple meanings in terms of physical, mental and spiritual expressions and effects. Prominent among these symbols are outlined below (details in [5]).
🔷 ॐ (Oam): The symbol of self-existent, omnipresent element of the ‘sound’ of the evolutionary vibration of Brahm; concise representation of the combined spiritual energy fields of the divine forces of trinity gods Brahma, Vishnu, and Shiva. Researchers of yoga-science and spiritual healing have found, and millions of yoga-practitioners across the world have experienced, significant soothing and rejuvenating effects of meditative chants of “Oam”.
🔶 (Swastika): The symbol of the manifested energy (of Brahm) subtly spread in all cosmic directions that accounts for auspiciousness and wellbeing.
🔷 Sikha (Hair knot, tied at centre of the head) and Sutra (sacred thread or yagvopavita hanged from left shoulder till the navel: Sikha symbolizes the presence of discerning intellect, farsightedness and the deity of knowledge upon our head. It is like a flag hoisted at the suture (the central junctions of all major nerves) of dignified values and virtues of humanity. Awareness of righteousness, moral responsibilities and social duties of human life are worn on our shoulders and kept attached to our hearts in symbolic form as the Sutra.
To be continued...
🔷 ॐ (Oam): The symbol of self-existent, omnipresent element of the ‘sound’ of the evolutionary vibration of Brahm; concise representation of the combined spiritual energy fields of the divine forces of trinity gods Brahma, Vishnu, and Shiva. Researchers of yoga-science and spiritual healing have found, and millions of yoga-practitioners across the world have experienced, significant soothing and rejuvenating effects of meditative chants of “Oam”.
🔶 (Swastika): The symbol of the manifested energy (of Brahm) subtly spread in all cosmic directions that accounts for auspiciousness and wellbeing.
🔷 Sikha (Hair knot, tied at centre of the head) and Sutra (sacred thread or yagvopavita hanged from left shoulder till the navel: Sikha symbolizes the presence of discerning intellect, farsightedness and the deity of knowledge upon our head. It is like a flag hoisted at the suture (the central junctions of all major nerves) of dignified values and virtues of humanity. Awareness of righteousness, moral responsibilities and social duties of human life are worn on our shoulders and kept attached to our hearts in symbolic form as the Sutra.
To be continued...
बुधवार, 24 अक्टूबर 2018
👉 माँसाहार का पाप पूर्व को भी पश्चिम न बना दे। (भाग 5)
🔷 ऊपर बता आये हैं कि माँस में कुछ अत्यन्त क्लिष्ट (कांप्लेक्स) प्रोटीन होते हैं, प्रारम्भ में जब कोई नया-नया माँस खाना प्रारम्भ करता है, तब उसके पाचन संस्थान की पूर्व संचित शक्ति काम देती रहती है पर वह शीघ्र ही समाप्त हो जाती है, तब क्लिष्ट प्रोटीन (काम्प्लेक्स प्रोटीन) को सरल प्रोटीन (नार्मल प्रोटीन्स) बनाने के लिये किन्हीं विशेष द्रवों के लेने की आवश्यकता पड़ने लगती है, जो यह कार्य कर सकें। यह द्रव अल्कोहल या शराब होते हैं। शराब क्लिष्ट प्रोटीनों को रासायनिक क्रिया के द्वारा (बाई केमिकल रिएक्शन) प्रोटीन अम्ल रस में बदल देता है, इस प्रकार एक बुराई से दूसरी बुराई, दूसरी से तीसरी बुराई का जन्म होता चला जाता है।
🔶 इंग्लैंड और अमेरिका आदि प्रधान आमिषाहारी देशों में प्रायः 7 वर्ष की आयु से ही बच्चों को इसी कारण शराब देनी प्रारम्भ कर दी जाती है। अन्य माँसाहारी जातियों में भी शराब इसीलिये बहुतायत से पी जाती है। पाश्चात्य देशों में शराब (बीयर) जल की तरह एक आवश्यक पेय हो गया है। आहार की यह दोहरी दूषित प्रक्रिया वहाँ के जीवन को और भी दुःखद बनाती चली जा रही है।
🔷 माँसाहार से स्वास्थ्य की विकृति उतनी कष्टदायक नहीं है, जितना उसके द्वारा भावनाओं का अधःपतन और उसके फलस्वरूप उत्पन्न हुये दुष्परिणाम। मनुष्य परस्पर दया, करुणा और उदारता के सहारे जीवित और व्यवस्थित है। इन्हीं गुणों पर हमारी व्यक्तिगत पारिवारिक, सामाजिक और सम्पूर्ण विश्व की सुख-शाँति एवं सुरक्षा बनी हुई है। भले ही जानवरों पर सही जब मनुष्य माँसाहार के लिये वध और उत्पीड़न की नृशंसता बरतेगा तो उसकी भावनाओं में कठोरता, अनुदारता और नृशंसता के बीज पड़ेंगे और फलेंगे-फूलेंगे ही। कठोरता फिर पशु-पक्षियों तक थोड़े ही सीमित रहेगी, मनुष्य-मनुष्य के बीच भी उसका आदान-प्रदान होगा।
🔶 मानवीय भावना का यह अन्त ही आज पश्चिम को दुःख−ग्रस्त, पीड़ा और अशाँति−ग्रस्त कर रहा है, यही लहर पूर्व में भी दौड़ी चली आ रही है। वहाँ की तरह यहाँ भी हत्या, लूटमार, बेईमानी, छल−कपट, दुराव, दुष्टता, व्यभिचार आदि बढ़ रहे हैं और परिस्थितियाँ दोषी होंगी, यह हमें नहीं मालूम पर माँसाहार का पाप तो स्पष्ट है, जो हमारी कोमल भावनाओं को नष्ट करता और हमारे जीवन को दुःखान्त बनाता चला जा रहा है। समय रहते यदि हम सावधान हो जाते हैं तो धन्यवाद अपने आपको, अन्यथा सर्वनाश की विभीषिका के लिये हम सबको तैयार रहना चाहिये। माँस के लिये जीवात्माओं के वध का अपराध मनुष्य जाति को दण्ड दिये बिना छोड़ दे, ऐसा संभव नहीं, कदापि सम्भव नहीं।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1970 पृष्ठ 28
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1970/January/v1.28
🔶 इंग्लैंड और अमेरिका आदि प्रधान आमिषाहारी देशों में प्रायः 7 वर्ष की आयु से ही बच्चों को इसी कारण शराब देनी प्रारम्भ कर दी जाती है। अन्य माँसाहारी जातियों में भी शराब इसीलिये बहुतायत से पी जाती है। पाश्चात्य देशों में शराब (बीयर) जल की तरह एक आवश्यक पेय हो गया है। आहार की यह दोहरी दूषित प्रक्रिया वहाँ के जीवन को और भी दुःखद बनाती चली जा रही है।
🔷 माँसाहार से स्वास्थ्य की विकृति उतनी कष्टदायक नहीं है, जितना उसके द्वारा भावनाओं का अधःपतन और उसके फलस्वरूप उत्पन्न हुये दुष्परिणाम। मनुष्य परस्पर दया, करुणा और उदारता के सहारे जीवित और व्यवस्थित है। इन्हीं गुणों पर हमारी व्यक्तिगत पारिवारिक, सामाजिक और सम्पूर्ण विश्व की सुख-शाँति एवं सुरक्षा बनी हुई है। भले ही जानवरों पर सही जब मनुष्य माँसाहार के लिये वध और उत्पीड़न की नृशंसता बरतेगा तो उसकी भावनाओं में कठोरता, अनुदारता और नृशंसता के बीज पड़ेंगे और फलेंगे-फूलेंगे ही। कठोरता फिर पशु-पक्षियों तक थोड़े ही सीमित रहेगी, मनुष्य-मनुष्य के बीच भी उसका आदान-प्रदान होगा।
🔶 मानवीय भावना का यह अन्त ही आज पश्चिम को दुःख−ग्रस्त, पीड़ा और अशाँति−ग्रस्त कर रहा है, यही लहर पूर्व में भी दौड़ी चली आ रही है। वहाँ की तरह यहाँ भी हत्या, लूटमार, बेईमानी, छल−कपट, दुराव, दुष्टता, व्यभिचार आदि बढ़ रहे हैं और परिस्थितियाँ दोषी होंगी, यह हमें नहीं मालूम पर माँसाहार का पाप तो स्पष्ट है, जो हमारी कोमल भावनाओं को नष्ट करता और हमारे जीवन को दुःखान्त बनाता चला जा रहा है। समय रहते यदि हम सावधान हो जाते हैं तो धन्यवाद अपने आपको, अन्यथा सर्वनाश की विभीषिका के लिये हम सबको तैयार रहना चाहिये। माँस के लिये जीवात्माओं के वध का अपराध मनुष्य जाति को दण्ड दिये बिना छोड़ दे, ऐसा संभव नहीं, कदापि सम्भव नहीं।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1970 पृष्ठ 28
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1970/January/v1.28
मंगलवार, 23 अक्टूबर 2018
👉 माँसाहार का पाप पूर्व को भी पश्चिम न बना दे। (भाग 4)
🔶 गाँवों में रहने वाले लोगों को प्रायः लकड़बग्घे, बाघ या भेड़ियों का सामना करना पड़ जाता है। शहरी लोग चिड़िया−घरों में इन जन्तुओं को देखते हैं, जो इनके समीप से गुजरे होंगे उन्हें मालूम होगा कि उनके पास पहुँचने के काफी दूर से कितनी भयंकर दुर्गन्ध आने लगती है, उनके पास तो अधिक देर खड़ा भी नहीं हुआ जाता। यह दुर्गन्ध दरअसल और कुछ नहीं माँसाहार से रक्त में बढ़े मूत्र (यूरिआ) और सार्कोलैक्टिक एसिड के कारण होती है। यह तत्त्व मनुष्य के रक्त में मिलकर मस्तिष्क में दुर्गन्ध भर देते हैं, उससे कई बार लोग अच्छी स्थिति में अशाँति, असन्तोष, उद्विग्नता और मानसिक कष्ट अनुभव करते हैं, यह तो स्थूल बुराइयाँ हैं, आत्मा पर पड़ने वाली मलिनता तो इससे अतिरिक्त और अधिक निम्नगामी स्थिति में पटकने वाली होती है।
🔷 माँस के प्रोटीन उपापचय (मेटाबॉलिज्म) पर बुरा प्रभाव डालते हैं। शरीर में आहार पहुँचने से लेकर उसके द्वारा शक्ति बनने तक की क्रिया को उपापचय (मेटाबॉलिज्म) कहते हैं, यह कार्य निःस्रोत ग्रन्थियां (डक्टलेस ग्लैंड्स) पूरा करती हैं। इन ग्रन्थियों द्वारा ही मनुष्य की मनःस्थिति एवं संपर्क में आने वाले लोगों के साथ व्यवहार (रिएक्शन या विक्टैवियर) निर्धारित होता है। प्रोटीन्स की यह जटिलता (काम्प्लेक्सिटी) इन ग्रन्थियों को उत्तेजित करती रहती है, इसलिये ऐसा व्यक्ति किसी भी व्यक्ति के साथ कभी भी कुछ भी बुरा कार्य चोरी, छल, अपमान, लूटपाट, उच्छृंखलता और बलात्कार कर सकता है। पाश्चात्य देशों में यह बुराइयां इतनी सामान्य (कॉमन) हो गई हैं कि लोगों का इस ओर ध्यान ही नहीं रहा कि क्या यह आहार की गड़बड़ी का परिणाम तो नहीं। जिस दिन वहाँ के लोग यह अनुभव कर लेंगे कि मन, आहार की ही एक सूक्ष्म शक्ति है और उनकी मानसिक अशाँति का कारण मानसिक विकृति है, उस दिन सारे पाश्चात्य देश तेजी से इस दुष्प्रवृत्ति हो छोड़ेंगे।
🔶 इतिहास प्रसिद्ध घटना है कि जार्ज बर्नार्ड शा को जब माँसाहार की अनैतिकता मालूम पड़ गई थी, उसी दिन से उन्होंने माँसाहार बन्द कर दिया था। जहाँ इस तरह के पाश्चात्य विचारक माँसाहार से घृणा कर रहे हैं, दुर्भाग्य ही है कि यहाँ हमारे देश के शाकाहारी लोग भी भ्रम में पड़कर माँसाहार को बढ़ावा देते चले जा रहे हैं। उसी का परिणाम है कि पूर्व भी धीरे-धीरे पश्चिम बनता जा रहा है। अपने देश को इससे बचाने के लिये एक व्यापक विचार क्राँति लानी पड़ेगी। माँसाहार करने वालों को इन बुराइयों से अवगत और सचेत किए बिना हमारी आने वाली पीढ़ियों की सुख-शाँति एवं व्यवस्था सुरक्षित न रह पायेगी।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1970 पृष्ठ 27
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1970/January/v1.27
🔷 माँस के प्रोटीन उपापचय (मेटाबॉलिज्म) पर बुरा प्रभाव डालते हैं। शरीर में आहार पहुँचने से लेकर उसके द्वारा शक्ति बनने तक की क्रिया को उपापचय (मेटाबॉलिज्म) कहते हैं, यह कार्य निःस्रोत ग्रन्थियां (डक्टलेस ग्लैंड्स) पूरा करती हैं। इन ग्रन्थियों द्वारा ही मनुष्य की मनःस्थिति एवं संपर्क में आने वाले लोगों के साथ व्यवहार (रिएक्शन या विक्टैवियर) निर्धारित होता है। प्रोटीन्स की यह जटिलता (काम्प्लेक्सिटी) इन ग्रन्थियों को उत्तेजित करती रहती है, इसलिये ऐसा व्यक्ति किसी भी व्यक्ति के साथ कभी भी कुछ भी बुरा कार्य चोरी, छल, अपमान, लूटपाट, उच्छृंखलता और बलात्कार कर सकता है। पाश्चात्य देशों में यह बुराइयां इतनी सामान्य (कॉमन) हो गई हैं कि लोगों का इस ओर ध्यान ही नहीं रहा कि क्या यह आहार की गड़बड़ी का परिणाम तो नहीं। जिस दिन वहाँ के लोग यह अनुभव कर लेंगे कि मन, आहार की ही एक सूक्ष्म शक्ति है और उनकी मानसिक अशाँति का कारण मानसिक विकृति है, उस दिन सारे पाश्चात्य देश तेजी से इस दुष्प्रवृत्ति हो छोड़ेंगे।
🔶 इतिहास प्रसिद्ध घटना है कि जार्ज बर्नार्ड शा को जब माँसाहार की अनैतिकता मालूम पड़ गई थी, उसी दिन से उन्होंने माँसाहार बन्द कर दिया था। जहाँ इस तरह के पाश्चात्य विचारक माँसाहार से घृणा कर रहे हैं, दुर्भाग्य ही है कि यहाँ हमारे देश के शाकाहारी लोग भी भ्रम में पड़कर माँसाहार को बढ़ावा देते चले जा रहे हैं। उसी का परिणाम है कि पूर्व भी धीरे-धीरे पश्चिम बनता जा रहा है। अपने देश को इससे बचाने के लिये एक व्यापक विचार क्राँति लानी पड़ेगी। माँसाहार करने वालों को इन बुराइयों से अवगत और सचेत किए बिना हमारी आने वाली पीढ़ियों की सुख-शाँति एवं व्यवस्था सुरक्षित न रह पायेगी।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1970 पृष्ठ 27
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1970/January/v1.27
सोमवार, 22 अक्टूबर 2018
👉 विरोध का सामना कैसे करें?
🔷 गंगा के तट पर एक संत अपने शिष्यों को शिक्षा दे रहे थे, तभी एक शिष्य ने पुछा..., “ "गुरू जी, यदि हम कुछ नया… कुछ अच्छा करना चाहते हैं परंतु समाज उसका विरोध करता है तो हमें क्या करना चाहिए?”
🔶 गुरु जी ने कुछ सोचा और बोले..., ”इस प्रश्न का उत्तर मैं कल दूंगा।”
🔷 अगले दिन जब सभी शिष्य नदी के तट पर एकत्रित हुए तो गुरु जी बोले..., “आज हम एक प्रयोग करेंगे… इन तीन मछली पकड़ने वाली डंडियों को देखो, ये एक ही लकड़ी से बनी हैं और बिलकुल एक समान हैं।”
🔶 उसके बाद गुरु जी ने उस शिष्य को आगे बुलाया जिसने कल प्रश्न किया था। गुरु जी ने निर्देश दिया..., “ पुत्र, ये लो इस डंडी से मछली पकड़ो।” शिष्य ने डंडी से बंधे कांटे में आटा लगाया और पानी में डाल दिया। फ़ौरन ही एक बड़ी मछली कांटे में आ फंसी…
🔷 गुरु जी बोले..., ”जल्दी…पूरी ताकत से बाहर की ओर खींचो।“ शिष्य ने ऐसा ही किया, उधर मछली ने भी पूरी ताकत से भागने की कोशिश की…फलतः डंडी टूट गयी। गुरु जी बोले..., “कोई बात नहीं; ये दूसरी डंडी लो और पुनः प्रयास करो…।” शिष्य ने फिर से मछली पकड़ने के लिए काँटा पानी में डाला।
🔶 इस बार जैसे ही मछली फंसी, गुरु जी बोले..., “आराम से… एकदम हल्के हाथ से डंडी को खींचो।” शिष्य ने ऐसा ही किया, पर मछली ने इतनी जोर से झटका दिया कि डंडी हाथ से छूट गयी।
🔷 गुरु जी ने कहा..., “ओह्हो, लगता है मछली बच निकली, चलो इस आखिरी डंडी से एक बार फिर से प्रयत्न करो।” शिष्य ने फिर वही किया। पर इस बार जैसे ही मछली फंसी गुरु जी बोले...,
🔶 “सावधान! इस बार न अधिक जोर लगाओ न कम.. बस जितनी शक्ति से मछली खुद को अंदर की ओर खींचे उतनी ही शक्ति से तुम डंडी को बाहर की ओर खींचो.. कुछ ही देर में मछली थक जायेगी और तब तुम आसानी से उसे बाहर निकाल सकते हो”
🔷 शिष्य ने ऐसा ही किया और इस बार मछली पकड़ में आ गयी। “क्या समझे आप लोग?” गुरु जी ने बोलना शुरू किया…
🔶 ”ये मछलियाँ उस समाज के समान हैं जो आपके कुछ करने पर आपका विरोध करता है। यदि आप इनके खिलाफ अधिक शक्ति का प्रयोग करेंगे तो आप टूट जायेंगे, यदि आप कम शक्ति का प्रयोग करेंगे तो भी वे आपको या आपकी योजनाओं को नष्ट कर देंगे… लेकिन यदि आप उतने ही बल का प्रयोग करेंगे जितने बल से वे आपका विरोध करते हैं तो धीरे-धीरे वे थक जाएंगे… हार मान लेंगे… और तब आप जीत जायेंगे… इसलिए कुछ उचित करने में जब ये समाज आपका विरोध करे तो समान बल प्रयोग का सिद्धांत अपनाइये और अपने लक्ष्य को प्राप्त कीजिये।”
🔶 गुरु जी ने कुछ सोचा और बोले..., ”इस प्रश्न का उत्तर मैं कल दूंगा।”
🔷 अगले दिन जब सभी शिष्य नदी के तट पर एकत्रित हुए तो गुरु जी बोले..., “आज हम एक प्रयोग करेंगे… इन तीन मछली पकड़ने वाली डंडियों को देखो, ये एक ही लकड़ी से बनी हैं और बिलकुल एक समान हैं।”
🔶 उसके बाद गुरु जी ने उस शिष्य को आगे बुलाया जिसने कल प्रश्न किया था। गुरु जी ने निर्देश दिया..., “ पुत्र, ये लो इस डंडी से मछली पकड़ो।” शिष्य ने डंडी से बंधे कांटे में आटा लगाया और पानी में डाल दिया। फ़ौरन ही एक बड़ी मछली कांटे में आ फंसी…
🔷 गुरु जी बोले..., ”जल्दी…पूरी ताकत से बाहर की ओर खींचो।“ शिष्य ने ऐसा ही किया, उधर मछली ने भी पूरी ताकत से भागने की कोशिश की…फलतः डंडी टूट गयी। गुरु जी बोले..., “कोई बात नहीं; ये दूसरी डंडी लो और पुनः प्रयास करो…।” शिष्य ने फिर से मछली पकड़ने के लिए काँटा पानी में डाला।
🔶 इस बार जैसे ही मछली फंसी, गुरु जी बोले..., “आराम से… एकदम हल्के हाथ से डंडी को खींचो।” शिष्य ने ऐसा ही किया, पर मछली ने इतनी जोर से झटका दिया कि डंडी हाथ से छूट गयी।
🔷 गुरु जी ने कहा..., “ओह्हो, लगता है मछली बच निकली, चलो इस आखिरी डंडी से एक बार फिर से प्रयत्न करो।” शिष्य ने फिर वही किया। पर इस बार जैसे ही मछली फंसी गुरु जी बोले...,
🔶 “सावधान! इस बार न अधिक जोर लगाओ न कम.. बस जितनी शक्ति से मछली खुद को अंदर की ओर खींचे उतनी ही शक्ति से तुम डंडी को बाहर की ओर खींचो.. कुछ ही देर में मछली थक जायेगी और तब तुम आसानी से उसे बाहर निकाल सकते हो”
🔷 शिष्य ने ऐसा ही किया और इस बार मछली पकड़ में आ गयी। “क्या समझे आप लोग?” गुरु जी ने बोलना शुरू किया…
🔶 ”ये मछलियाँ उस समाज के समान हैं जो आपके कुछ करने पर आपका विरोध करता है। यदि आप इनके खिलाफ अधिक शक्ति का प्रयोग करेंगे तो आप टूट जायेंगे, यदि आप कम शक्ति का प्रयोग करेंगे तो भी वे आपको या आपकी योजनाओं को नष्ट कर देंगे… लेकिन यदि आप उतने ही बल का प्रयोग करेंगे जितने बल से वे आपका विरोध करते हैं तो धीरे-धीरे वे थक जाएंगे… हार मान लेंगे… और तब आप जीत जायेंगे… इसलिए कुछ उचित करने में जब ये समाज आपका विरोध करे तो समान बल प्रयोग का सिद्धांत अपनाइये और अपने लक्ष्य को प्राप्त कीजिये।”
👉 परिवर्तन के महान् क्षण (भाग 27)
👉 आश्वासन एवं अनुरोध
🔷 सन् ९० की इसी वसन्त पंचमी से एकान्त स्तर की समूचे समय चलने वाली-समग्र अध्यात्म साधना के हमारे भावी कार्यक्रम की जानकारी प्राप्त करने के उपरान्त उन लोगों में कुछ हड़बड़ी उभरी दीख पड़ती है, जो युग निर्माण की अभिनव योजनाओं में अभी-अभी लगे हैं। इन्हें कठिनाई यह दीखती है कि समर्थ सेनानायक का सीधा सम्पर्क रहने पर जो प्रयास सफलतापूर्वक चल रहे थे, वे आगे किस प्रकार चल पाएँगे? साधन कैसे जुटेंगे? प्रोत्साहन और सहयोग कहाँ से मिलेगा? ऐसे सभी लोगों तक सन्देश पहुँचा दिया गया है कि सूक्ष्म स्तर की गतिविधियाँ अपना लेने पर भी हम अपने प्रत्यक्ष उत्तरदायित्वों को निभा सकने में भी समर्थ रहेंगे। वह कार्य स्थूल शरीर द्वारा अपनाई जाने वाली प्रत्यक्ष गतिविधियों जैसा भले ही न हो, पर सूक्ष्म चेतना में इतनी क्षमता मानी ही जानी चाहिए कि वह मात्र सूक्ष्म जगत तक ही सीमाबद्ध नहीं रह जाती, प्रत्यक्ष जगत को प्रभावित करने में भी उसकी सशक्त भूमिका निभती रह सकती है।
🔶 शान्तिकुञ्ज हमारे प्रत्यक्ष शरीर के रूप में विद्यमान है, तो फिर उससे सम्बन्धित लोगों को आवश्यक प्रेरणाएँ और प्रकाश किरणें भी मिलती रहेंगी, जिनकी ऊर्जा और आभा से संसार भर के महत्त्वपूर्ण प्रयोजन गतिशील बने रहेंगे। अगले दिनों सम्भवत: किसी को हमारी अनुपस्थिति अखरेगी नहीं वरन् वह दृश्य दृष्टिगोचर होगा, जिसमें एक बीज वृक्ष बनकर नए हजारों-लाखों बीज उत्पन्न करता है। प्रत्यक्ष भूमिका निभाने की कमी को कोई यह न माने कि मृत्यु हो गई। दिव्य तत्त्व कभी मरते नहीं। शरीर बदल लेने पर आत्मसत्ता का अस्तित्त्व नहीं बदल जाता। यदि वह सशक्त हो, तो स्थूल शरीर का भार एवं बन्धन हट जाने से वह और भी अधिक गतिशीलता का परिचय देने लगता है। यही कारण है कि भारतीय परम्परा में मात्र जन्मदिवस मनाए जाते हैं। मृत्यु दिवस की तो आश्विन पितृपक्ष में ही एक हल्की-फुल्की चर्चा होती हैं।
🔷 स्वामी रामतीर्थ ने मरने के कुछ ही समय पूर्व ‘‘मौत के नाम खत’’ नाम से एक दस्तावेज लिखा है। वह है तो लम्बा और मार्मिक पर उसका सारांश इतना ही है कि ‘‘शरीर का भार लदा रहने से मैं वह नहीं कर पा रहा हूँ, जो कर सकता था। इसलिए इस वजन के अपने ऊपर से हटते ही हवा के साथ, चाँदनी के साथ, किरणों के साथ, वसन्त वर्षा के साथ मिलकर बहुत उपयोगी बन सकूँगा और अधिक प्रसन्नता भरे उल्लास का रसास्वादन कर सकूँगा।’’
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 परिवर्तन के महान् क्षण पृष्ठ 30
🔷 सन् ९० की इसी वसन्त पंचमी से एकान्त स्तर की समूचे समय चलने वाली-समग्र अध्यात्म साधना के हमारे भावी कार्यक्रम की जानकारी प्राप्त करने के उपरान्त उन लोगों में कुछ हड़बड़ी उभरी दीख पड़ती है, जो युग निर्माण की अभिनव योजनाओं में अभी-अभी लगे हैं। इन्हें कठिनाई यह दीखती है कि समर्थ सेनानायक का सीधा सम्पर्क रहने पर जो प्रयास सफलतापूर्वक चल रहे थे, वे आगे किस प्रकार चल पाएँगे? साधन कैसे जुटेंगे? प्रोत्साहन और सहयोग कहाँ से मिलेगा? ऐसे सभी लोगों तक सन्देश पहुँचा दिया गया है कि सूक्ष्म स्तर की गतिविधियाँ अपना लेने पर भी हम अपने प्रत्यक्ष उत्तरदायित्वों को निभा सकने में भी समर्थ रहेंगे। वह कार्य स्थूल शरीर द्वारा अपनाई जाने वाली प्रत्यक्ष गतिविधियों जैसा भले ही न हो, पर सूक्ष्म चेतना में इतनी क्षमता मानी ही जानी चाहिए कि वह मात्र सूक्ष्म जगत तक ही सीमाबद्ध नहीं रह जाती, प्रत्यक्ष जगत को प्रभावित करने में भी उसकी सशक्त भूमिका निभती रह सकती है।
🔶 शान्तिकुञ्ज हमारे प्रत्यक्ष शरीर के रूप में विद्यमान है, तो फिर उससे सम्बन्धित लोगों को आवश्यक प्रेरणाएँ और प्रकाश किरणें भी मिलती रहेंगी, जिनकी ऊर्जा और आभा से संसार भर के महत्त्वपूर्ण प्रयोजन गतिशील बने रहेंगे। अगले दिनों सम्भवत: किसी को हमारी अनुपस्थिति अखरेगी नहीं वरन् वह दृश्य दृष्टिगोचर होगा, जिसमें एक बीज वृक्ष बनकर नए हजारों-लाखों बीज उत्पन्न करता है। प्रत्यक्ष भूमिका निभाने की कमी को कोई यह न माने कि मृत्यु हो गई। दिव्य तत्त्व कभी मरते नहीं। शरीर बदल लेने पर आत्मसत्ता का अस्तित्त्व नहीं बदल जाता। यदि वह सशक्त हो, तो स्थूल शरीर का भार एवं बन्धन हट जाने से वह और भी अधिक गतिशीलता का परिचय देने लगता है। यही कारण है कि भारतीय परम्परा में मात्र जन्मदिवस मनाए जाते हैं। मृत्यु दिवस की तो आश्विन पितृपक्ष में ही एक हल्की-फुल्की चर्चा होती हैं।
🔷 स्वामी रामतीर्थ ने मरने के कुछ ही समय पूर्व ‘‘मौत के नाम खत’’ नाम से एक दस्तावेज लिखा है। वह है तो लम्बा और मार्मिक पर उसका सारांश इतना ही है कि ‘‘शरीर का भार लदा रहने से मैं वह नहीं कर पा रहा हूँ, जो कर सकता था। इसलिए इस वजन के अपने ऊपर से हटते ही हवा के साथ, चाँदनी के साथ, किरणों के साथ, वसन्त वर्षा के साथ मिलकर बहुत उपयोगी बन सकूँगा और अधिक प्रसन्नता भरे उल्लास का रसास्वादन कर सकूँगा।’’
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 परिवर्तन के महान् क्षण पृष्ठ 30
👉 Significance of Symbolism & Customs of Indian Culture (Part 1)
🔷 Indian Culture is often criticized for its ‘unmindful rituals’ of worshiping everything – rivers, trees, mountains, rocks, soil, animals, birds, etc, and its ‘vague imaginations’ and ‘philosophical ideas’ that associate auspiciousness and mystic faith with specific symbols. The critics should pay attention to the fact that this culture emanates from the Vedas that are regarded as most ancient and comprehensive source of knowledge on transcendental as well as manifested realms of eternal Consciousness-Force, and all forms and dimensions of life, Nature, and its material existence.
Symbolism in Indian Culture:
🔶 Symbolism has been a part of human life since the inception of human culture and civilization e.g. to mark conceptualization of unknown forces of the universe, identification of natural objects, ‘syllables’ of sign-language, etc. Every religion has some sacred symbols – e.g. the holy stone at Kaaba (al-Ka’bah) in Mecca for Muslims, holy Cross for Christians, etc. National flag is a symbol of patriotic dignity, sovereignty and pride for every country.
🔷 The Vedic spiritual philosophy — the essence of supreme knowledge, advocates formless, non-dual, omnipresent, eternal Consciousness Force (Brahm) as the ultimate reality of The Supreme Being (God). However, considering the difficulties of most people in realization of the formless infinity, the teachings of the Vedic religion and cultural texts emphasized the importance and necessity of the devotion and worship of God in some ‘visible’ symbolic form for the psychological and spiritual upliftment of humankind. The specific forms (idols) of deities worshiped under Vedic (Indian) Culture symbolize specific divine qualities and powers of the manifestations of God and also incorporate ethical teachings. Because of its spiritual origin, the Indian Culture also emphasizes several symbols linked with the science and philosophy of spirituality.
To be continued...
Symbolism in Indian Culture:
🔶 Symbolism has been a part of human life since the inception of human culture and civilization e.g. to mark conceptualization of unknown forces of the universe, identification of natural objects, ‘syllables’ of sign-language, etc. Every religion has some sacred symbols – e.g. the holy stone at Kaaba (al-Ka’bah) in Mecca for Muslims, holy Cross for Christians, etc. National flag is a symbol of patriotic dignity, sovereignty and pride for every country.
🔷 The Vedic spiritual philosophy — the essence of supreme knowledge, advocates formless, non-dual, omnipresent, eternal Consciousness Force (Brahm) as the ultimate reality of The Supreme Being (God). However, considering the difficulties of most people in realization of the formless infinity, the teachings of the Vedic religion and cultural texts emphasized the importance and necessity of the devotion and worship of God in some ‘visible’ symbolic form for the psychological and spiritual upliftment of humankind. The specific forms (idols) of deities worshiped under Vedic (Indian) Culture symbolize specific divine qualities and powers of the manifestations of God and also incorporate ethical teachings. Because of its spiritual origin, the Indian Culture also emphasizes several symbols linked with the science and philosophy of spirituality.
To be continued...
👉 माँसाहार का पाप पूर्व को भी पश्चिम न बना दे। (भाग 3)
🔷 हाथी माँस नहीं खाता, बैल और भैंसे माँस नहीं खाते, साँभर नील गाय शाकाहारी जीव हैं, यह शक्ति में किसी से कम नहीं होते। भारतवर्ष संसार के देशों में एक ऐसा देश है जिसमें अधिकाँश लोग अभी भी शाकाहार करते हैं यह प्रत्यक्ष उदाहरण है कि भारतीयों जैसा शौर्य संसार की किसी भी जाति में नहीं है। यदि किसी में है भी तो वह चील−झपट्टे जैसा है। आकस्मिक प्रहार तो एक बच्चे का भी प्राण घातक हो सकता है, उसे शौर्य कभी नहीं कहा जा सकता। वीरता आत्मा की पवित्रता का गुण है और वह माँसाहार से कदापि विकसित नहीं हो सकता।
🔶 किन्हीं अंशों में ऐसा न भी हो तो भी मनुष्य का पाचन संस्थान माँसाहारी प्राणियों के पाचन संस्थान की तरह कठोर और बलवान् नहीं होता। वह कम अम्लीय प्रकृति (एसिडिक नेचर) का ही आहार पचा सकता है। माँस में क्लिष्ट प्रोटीनों (काम्प्लेक्स प्रोटीन्स) की मात्रा अधिक होती है, अधिक प्रोटीन युक्त भोजन वैसे ही रक्त को अधिक अम्लीय बना देते हैं। माँसाहारी जन्तुओं का पाचन संस्थान काफी शक्तिशाली होता है। इनका माँस पचता है, तब काफी मात्रा में एमीनो एसिड बन जाता है, उसी एमीनो एसिड को यकृत (लिवर) प्रोटीन्स में बदल देते हैं। इसीलिये लगता है माँसाहार में शक्ति अधिक है।
🔷 किन्तु एमीनो एसिड में यूरिया (मूत्र) की मात्रा भी कम नहीं होती। सार्कोलैक्टिक एसिड भी माँसाहार से बनता है। यह दोनों पदार्थ रक्त में उसी मात्रा में शोषित (आब्जर्व) हो जाते हैं। ऐसा दूषित रक्त जब मस्तिष्क में परिभ्रमण करते हुये पहुँचता है, तब अधिक अम्लीय होने के कारण नाड़ी संस्थान (नर्वस सिस्टम) के नियंत्रक मस्तिष्क (पिट्युटरी ग्लैंड) में थकावट (फटीग) और अशुद्धता उत्पन्न करता है। इस थकावट और अशुद्धता को दूर करने के लिये अधिक रक्त की आवश्यकता आ पड़ती है, फलस्वरूप हृदय की धड़कन गति बढ़ जाती है और मस्तिष्क को ज्यादा खून पहुँचने लगता है। इसी कारण रक्त चाप (ब्लड प्रेशर) की बीमारी उठ खड़ी होती है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1970 पृष्ठ 27
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1970/January/v1.27
🔶 किन्हीं अंशों में ऐसा न भी हो तो भी मनुष्य का पाचन संस्थान माँसाहारी प्राणियों के पाचन संस्थान की तरह कठोर और बलवान् नहीं होता। वह कम अम्लीय प्रकृति (एसिडिक नेचर) का ही आहार पचा सकता है। माँस में क्लिष्ट प्रोटीनों (काम्प्लेक्स प्रोटीन्स) की मात्रा अधिक होती है, अधिक प्रोटीन युक्त भोजन वैसे ही रक्त को अधिक अम्लीय बना देते हैं। माँसाहारी जन्तुओं का पाचन संस्थान काफी शक्तिशाली होता है। इनका माँस पचता है, तब काफी मात्रा में एमीनो एसिड बन जाता है, उसी एमीनो एसिड को यकृत (लिवर) प्रोटीन्स में बदल देते हैं। इसीलिये लगता है माँसाहार में शक्ति अधिक है।
🔷 किन्तु एमीनो एसिड में यूरिया (मूत्र) की मात्रा भी कम नहीं होती। सार्कोलैक्टिक एसिड भी माँसाहार से बनता है। यह दोनों पदार्थ रक्त में उसी मात्रा में शोषित (आब्जर्व) हो जाते हैं। ऐसा दूषित रक्त जब मस्तिष्क में परिभ्रमण करते हुये पहुँचता है, तब अधिक अम्लीय होने के कारण नाड़ी संस्थान (नर्वस सिस्टम) के नियंत्रक मस्तिष्क (पिट्युटरी ग्लैंड) में थकावट (फटीग) और अशुद्धता उत्पन्न करता है। इस थकावट और अशुद्धता को दूर करने के लिये अधिक रक्त की आवश्यकता आ पड़ती है, फलस्वरूप हृदय की धड़कन गति बढ़ जाती है और मस्तिष्क को ज्यादा खून पहुँचने लगता है। इसी कारण रक्त चाप (ब्लड प्रेशर) की बीमारी उठ खड़ी होती है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1970 पृष्ठ 27
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1970/January/v1.27
शनिवार, 20 अक्टूबर 2018
👉 मुसीबत से डरकर भागो मत, उसका सामना करो
🔶 एक बार बनारस में स्वामी विवेकनन्द जी मां दुर्गा जी के मंदिर से निकल रहे थे कि तभी वहां मौजूद बहुत सारे बंदरों ने उन्हें घेर लिया। वे उनसे प्रसाद छिनने लगे वे उनके नज़दीक आने लगे और डराने भी लगे। स्वामी जी बहुत भयभीत हो गए और खुद को बचाने के लिए दौड़ कर भागने लगे। वो बन्दर तो मानो पीछे ही पड़ गए और वे भी उन्हें पीछे पीछे दौड़ाने लगे।
🔷 पास खड़े एक वृद्ध सन्यासी ये सब देख रहे थे, उन्होनें स्वामी जी को रोका और कहा – रुको! डरो मत, उनका सामना करो और देखो क्या होता है। वृद्ध सन्यासी की ये बात सुनकर स्वामी जी तुरंत पलटे और बंदरों के तरफ बढऩे लगे। उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब उनके ऐसा करते ही सभी बन्दर तुरंत भाग गए। उन्होनें वृद्ध सन्यासी को इस सलाह के लिए बहुत धन्यवाद किया।
🔶 इस घटना से स्वामी जी को एक गंभीर सीख मिली और कई सालों बाद उन्होंने एक संबोधन में इसका जिक्र भी किया और कहा – यदि तुम कभी किसी चीज से भयभीत हो, तो उससे भागो मत, पलटो और सामना करो। वाकई, यदि हम भी अपने जीवन में आये समस्याओं का सामना करें और उससे भागें नहीं तो बहुत सी समस्याओं का समाधान हो जायेगा!
📖 स्वामी विवेकानन्द के जीवन के प्रेरक प्रसंग
🔷 पास खड़े एक वृद्ध सन्यासी ये सब देख रहे थे, उन्होनें स्वामी जी को रोका और कहा – रुको! डरो मत, उनका सामना करो और देखो क्या होता है। वृद्ध सन्यासी की ये बात सुनकर स्वामी जी तुरंत पलटे और बंदरों के तरफ बढऩे लगे। उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब उनके ऐसा करते ही सभी बन्दर तुरंत भाग गए। उन्होनें वृद्ध सन्यासी को इस सलाह के लिए बहुत धन्यवाद किया।
🔶 इस घटना से स्वामी जी को एक गंभीर सीख मिली और कई सालों बाद उन्होंने एक संबोधन में इसका जिक्र भी किया और कहा – यदि तुम कभी किसी चीज से भयभीत हो, तो उससे भागो मत, पलटो और सामना करो। वाकई, यदि हम भी अपने जीवन में आये समस्याओं का सामना करें और उससे भागें नहीं तो बहुत सी समस्याओं का समाधान हो जायेगा!
📖 स्वामी विवेकानन्द के जीवन के प्रेरक प्रसंग
शुक्रवार, 19 अक्टूबर 2018
👉 विजयादशमी की शुभकामनाएँ।
🔶 भीतर के रावण को जो, आग स्वयं लगायेंगे ।
सही मायनों में वे ही, दशहरा मनायेंगे।।
🔷 अधर्म पर धर्म की विजय, असत्य पर सत्य की विजय !
बुराई पर अच्छाई की विजय,पाप पर पुण्य की विजय !!
🔶 अत्याचार पर सदाचार की विजय, क्रोध पर क्षमा की विजय !
कठोरता पर उदारता की विजय, अज्ञान पर ज्ञान की विजय !!
🔷 अंधकार पर प्रकाश की विजय, पाश्चात्य पर सनातन की विजय !
अविवेक पर विवेक की विजय, अविद्या पर विद्या की विजय !!
🔶 दुर्बुद्धि पर बुद्धि की विजय, अविश्वास पर विश्वास की विजय !
आसक्ति पर अनासक्ति की विजय, नफरत पर प्रेम की विजय !!
🔷 दुःख पर सुख की विजय, कुसंस्कारों पर संस्कार की विजय !
विकृति पर सुकृति की विजय, दुर्गंध पर सुगंध की विजय !!
🔶 कांटो पर पुष्प की विजय, कुसंस्कृति पर संस्कृति की विजय !
स्वार्थ पर परमार्थ की विजय, असंवेदन पर संवेदन की विजय !!
🔷 अहंकार पर समत्व की विजय, अमर्यादा पर मर्यादा की विजय।
'रावण' पर "श्रीराम"की विजय विजय के प्रतीक पावन पर्व !!
सही मायनों में वे ही, दशहरा मनायेंगे।।
🔷 अधर्म पर धर्म की विजय, असत्य पर सत्य की विजय !
बुराई पर अच्छाई की विजय,पाप पर पुण्य की विजय !!
🔶 अत्याचार पर सदाचार की विजय, क्रोध पर क्षमा की विजय !
कठोरता पर उदारता की विजय, अज्ञान पर ज्ञान की विजय !!
🔷 अंधकार पर प्रकाश की विजय, पाश्चात्य पर सनातन की विजय !
अविवेक पर विवेक की विजय, अविद्या पर विद्या की विजय !!
🔶 दुर्बुद्धि पर बुद्धि की विजय, अविश्वास पर विश्वास की विजय !
आसक्ति पर अनासक्ति की विजय, नफरत पर प्रेम की विजय !!
🔷 दुःख पर सुख की विजय, कुसंस्कारों पर संस्कार की विजय !
विकृति पर सुकृति की विजय, दुर्गंध पर सुगंध की विजय !!
🔶 कांटो पर पुष्प की विजय, कुसंस्कृति पर संस्कृति की विजय !
स्वार्थ पर परमार्थ की विजय, असंवेदन पर संवेदन की विजय !!
🔷 अहंकार पर समत्व की विजय, अमर्यादा पर मर्यादा की विजय।
'रावण' पर "श्रीराम"की विजय विजय के प्रतीक पावन पर्व !!
बुधवार, 17 अक्टूबर 2018
मंगलवार, 16 अक्टूबर 2018
सोमवार, 15 अक्टूबर 2018
👉 मनःस्थिति के अनुरूप ही चुनाव
🔷 एक सिद्ध पुरुष नदी में जान कर रहे थे। एक चुहिया पानी में बहती आई। उनने उसे निकाल लिया। कुटिया में ले आये और वह वहीं पल कर बड़ी होने लगी।
🔶 चुहिया सिद्ध सिद्ध पुरुष की करामातें देखती रही, सो उसके मन में भी कुछ वरदान पाने की इच्छा हुई। एक दिन अवसर पाकर बोली- ''मैं बड़ी हो गई, किसी वर से मेरा विवाह करा दीजिए।''
🔷 संत ने उसे खिड़की में से झाँकते सूरज को दिखाया और कहा-''इससे करा दें।'' चुहिया ने कहा-''यह तो आग का गोला है। मुझे तो ठंडे स्वभाव का चाहिए।'' संत ने बादल की बात कही-''वह ठंडा भी है, सूरज से बड़ा भी। वह आता है, तो सूरज को अंचल में छिपा लेता है।'' चुहिया को यह प्रस्ताव भी रुचा नहीं। वह इससे बड़ा दूल्हा चाहती थी।
🔶 संत ने पवन को बादल से बड़ा बताया, जो देखते- देखते उसे उड़ा ले जाता है। उससे बड़ा पर्वत बताया, जो हवा को रोक कर खड़ा ले जाता है। जब चुहिया ने इन दोनों को भी अस्वीकार कर दिया, तो- सिद्ध पुरुष ने पूरे जोश-खरोश के साथ पहाड़ में बिल बनाने का प्रयास करते चूहे को दिखाया। चुहिया ने उसे पसंद कर लिया, कहा-''चूहा पर्वत से भी श्रेष्ठ है; वह बिल बनाकर पर्वतों की जड़ खोखली करने और उसे इधर से उधर लुढ़का देने में समर्थ रहता है।
🔷 एक मोटा चूहा बुलाकर संत ने चुहिया की शादी रचा दी। उपस्थित दर्शकों को संबोधित करते हुएसंत ने कहा-''मनुष्य को भी इसी तरह अच्छे से अच्छे अवसर दिए जाते हैं, पर वह अपनी मन:स्थिति के अनुरूप ही चुनाव करता है।''
📖 प्रज्ञा पुराण भाग 2 पृष्ठ 8
🔶 चुहिया सिद्ध सिद्ध पुरुष की करामातें देखती रही, सो उसके मन में भी कुछ वरदान पाने की इच्छा हुई। एक दिन अवसर पाकर बोली- ''मैं बड़ी हो गई, किसी वर से मेरा विवाह करा दीजिए।''
🔷 संत ने उसे खिड़की में से झाँकते सूरज को दिखाया और कहा-''इससे करा दें।'' चुहिया ने कहा-''यह तो आग का गोला है। मुझे तो ठंडे स्वभाव का चाहिए।'' संत ने बादल की बात कही-''वह ठंडा भी है, सूरज से बड़ा भी। वह आता है, तो सूरज को अंचल में छिपा लेता है।'' चुहिया को यह प्रस्ताव भी रुचा नहीं। वह इससे बड़ा दूल्हा चाहती थी।
🔶 संत ने पवन को बादल से बड़ा बताया, जो देखते- देखते उसे उड़ा ले जाता है। उससे बड़ा पर्वत बताया, जो हवा को रोक कर खड़ा ले जाता है। जब चुहिया ने इन दोनों को भी अस्वीकार कर दिया, तो- सिद्ध पुरुष ने पूरे जोश-खरोश के साथ पहाड़ में बिल बनाने का प्रयास करते चूहे को दिखाया। चुहिया ने उसे पसंद कर लिया, कहा-''चूहा पर्वत से भी श्रेष्ठ है; वह बिल बनाकर पर्वतों की जड़ खोखली करने और उसे इधर से उधर लुढ़का देने में समर्थ रहता है।
🔷 एक मोटा चूहा बुलाकर संत ने चुहिया की शादी रचा दी। उपस्थित दर्शकों को संबोधित करते हुएसंत ने कहा-''मनुष्य को भी इसी तरह अच्छे से अच्छे अवसर दिए जाते हैं, पर वह अपनी मन:स्थिति के अनुरूप ही चुनाव करता है।''
📖 प्रज्ञा पुराण भाग 2 पृष्ठ 8
👉 धर्म और आधुनिक विज्ञान
“स्पष्ट है कि जो भी धर्म अथवा दर्शन आधुनिक विज्ञान के प्रतिकूल होगा वह पाखण्ड और दम्भ बनकर रह जाएगा। यदि हम मानव प्रगति को दृढ़ आधार पर सुरक्षित रखना चाहते है तो विज्ञान और धर्म तथा राजनीति और धर्म के बीच पाई जाने वाली समस्त विसंगति का अन्त किया जाना चाहिये। जिससे समन्वित विचार और भावनाओं की प्रतिष्ठा हो सके। भारत में एक धर्म मूलक दर्शन प्रस्तुत है जो स्वयं सभ्यता के समान पुरातन है। वह विज्ञान के असाधारण अनुकूल है, यद्यपि विदेशियों को यह दावा विलक्षण प्रतीत हो सकता है। उस धर्म मूलक दर्शन से एक नीतिशास्त्र विकसित हुआ है, जो अधिक न्यायपूर्ण सामाजिक तथा आर्थिक संगठन का दृढ़ आध्यात्मिक आधार बनने योग्य है। यह एक असाधारण बात है कि विकास के सिद्धान्त का और नियम के शासन का- जिस रूप में उसे वैज्ञानिक जानते है- निरूपण हिन्दू धर्म में पहले ही कर दिया गया है। वेदान्त का परमात्मा मनुष्य की कल्पना द्वारा उत्पन्न और मानव-रूप-आरोपित परमात्मा नहीं है। गीता में ईश्वर के प्रभुत्व की व्याख्या ऐसी भाषा में की गई है, जिसमें आधुनिक विज्ञान द्वारा धार्मिक विश्वोत्पत्ति शास्त्र के विरुद्ध उठाई गई आपत्तियों का अनुमान और समाधान निहित है।”
~ राजगोपालचार्य
~ राजगोपालचार्य
👉 परिवर्तन के महान् क्षण (भाग 26)
👉 भक्ति से जुड़ी शक्ति
🔷 सतयुग-ऋषियुग था। ऋषियों के पास तपोबल ही एकमात्र शस्त्र था। वृत्तासुर के अनाचार पर दधीचि ऋषि की अस्थियों से बना वज्र इतना प्रचण्ड प्रहार कर सका था कि उसे इन्द्र वज्र का नाम दिया गया और उसने वृत्तासुर की व्यापक अवांछनीयता को निरस्त करके रख दिया। अपने समय में विश्वामित्र ने भी ऐसा तपयज्ञ सम्पन्न किया था, जिससे उस समय की व्यापक असुरता का निराकरण सम्भव हुआ और त्रेता में सतयुग की सुसंस्कारिता वापिस लौट आई। भगीरथ का तप ऐसे ही सत्परिणामों का माध्यम बना था।
🔶 अभी कुछ दिन पूर्व योगी अरविन्द, महर्षि रमण, रामकृष्ण परमहंस स्तर की आत्माओं ने प्रचण्ड अध्यात्म का मार्ग अपनाया और इसी कारण भारत को नया आश्वासन देने वाले दर्जनों महामानव एक साथ उत्पन्न हुए थे। बुद्ध की साधना को भी तत्कालीन वातावरण में भारी हेर-फेर कर सकने वाली माना जा सकता है।
🔷 विगत ५० वर्षों में इतने सहयोगी, अनुगामी उत्पन्न हुए हैं कि उनके ऊपर भौतिक स्तर पर महाक्रान्ति की जिम्मेदारी सौंपी जा सकती है और हमें उच्चस्तरीय तपश्चर्या के लिए अवसर मिल सकता है। सो मार्गदर्शक के अनुसार सन् ९० के वसन्त से अपने लिए एक मात्र कार्य सूक्ष्म जगत में भावनात्मक परिवर्तन लाने के लिए आज की परिस्थितियों के अनुरूप विशिष्ट स्तर की तप-साधना करने के लिए निर्देश मिला है। सो, उसी दिन से उस प्रयोग को तत्काल अपना लिया गया है। सैनिक अनुशासन पालने वाले के लिए और कोई ननुनच करने जैसा विकल्प है भी तो नहीं।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 परिवर्तन के महान् क्षण पृष्ठ 28
🔷 सतयुग-ऋषियुग था। ऋषियों के पास तपोबल ही एकमात्र शस्त्र था। वृत्तासुर के अनाचार पर दधीचि ऋषि की अस्थियों से बना वज्र इतना प्रचण्ड प्रहार कर सका था कि उसे इन्द्र वज्र का नाम दिया गया और उसने वृत्तासुर की व्यापक अवांछनीयता को निरस्त करके रख दिया। अपने समय में विश्वामित्र ने भी ऐसा तपयज्ञ सम्पन्न किया था, जिससे उस समय की व्यापक असुरता का निराकरण सम्भव हुआ और त्रेता में सतयुग की सुसंस्कारिता वापिस लौट आई। भगीरथ का तप ऐसे ही सत्परिणामों का माध्यम बना था।
🔶 अभी कुछ दिन पूर्व योगी अरविन्द, महर्षि रमण, रामकृष्ण परमहंस स्तर की आत्माओं ने प्रचण्ड अध्यात्म का मार्ग अपनाया और इसी कारण भारत को नया आश्वासन देने वाले दर्जनों महामानव एक साथ उत्पन्न हुए थे। बुद्ध की साधना को भी तत्कालीन वातावरण में भारी हेर-फेर कर सकने वाली माना जा सकता है।
🔷 विगत ५० वर्षों में इतने सहयोगी, अनुगामी उत्पन्न हुए हैं कि उनके ऊपर भौतिक स्तर पर महाक्रान्ति की जिम्मेदारी सौंपी जा सकती है और हमें उच्चस्तरीय तपश्चर्या के लिए अवसर मिल सकता है। सो मार्गदर्शक के अनुसार सन् ९० के वसन्त से अपने लिए एक मात्र कार्य सूक्ष्म जगत में भावनात्मक परिवर्तन लाने के लिए आज की परिस्थितियों के अनुरूप विशिष्ट स्तर की तप-साधना करने के लिए निर्देश मिला है। सो, उसी दिन से उस प्रयोग को तत्काल अपना लिया गया है। सैनिक अनुशासन पालने वाले के लिए और कोई ननुनच करने जैसा विकल्प है भी तो नहीं।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 परिवर्तन के महान् क्षण पृष्ठ 28
👉 माँसाहार का पाप पूर्व को भी पश्चिम न बना दे। (भाग 2)
🔷 माँस मनुष्य का स्वाभाविक आहार नहीं हो सकता। हम इस संसार में सुख−शाँति और निर्द्वंद्वता का जीवन जीने के लिये आये हैं। आहार हमारे जीवन धारण की सामर्थ्य को बढ़ाता है, इसलिये पोषण और शक्ति प्रदान करने वाला आहार तो चुना जा सकता है, किन्तु जो आहार हमारी मानसिक, बौद्धिक एवं आत्मिक शक्तियों को नष्ट करता हो, वह पौष्टिक होकर भी स्वाभाविक नहीं हो सकता। हमारे जीवन की सुख−शाँति शरीर पर उतनी अवलम्बित नहीं, जितना इनका संबंध मन, बुद्धि और आत्मा की शुद्धता से है। इसलिये जो आहार इन तीनों को शुद्ध नहीं रख सकता, वह हमारा स्वाभाविक आहार कभी भी नहीं हो सकता।
🔶 बहुत स्पष्ट बात है। जंगल के शेर, चीते, भेड़िये भालू, लकड़बग्घे माँसाहार करते हैं, इन्हें देखकर लोग कहते हैं कि शक्तिशाली होने के लिये माँसाहार आवश्यक है। उनकी एक दलील यह भी होती है कि माँस खाने की प्रेरणा स्वयं प्रकृति ने दी है, समुद्र की बड़ी मछलियाँ छोटी मछलियों को जंगल के बड़े जन्तु छोटे जीवों को मारकर खाते रहते हैं? प्रकृति ने मानवेत्तर प्राणियों की संख्या न बढ़ने देने के लिये ऐसी व्यवस्था की है पर मनुष्य उन परिस्थितियों से सर्वथा भिन्न है, जिनमें अन्य जीव−जन्तु जन्म लेते, बढ़ते और विकसित होते हैं।
🔷 शेर, चीते माँसाहारी होने के कारण बलवान् होते हैं पर उनमें इस कारण दुष्टता और अशाँति से जो संशयशीलता उत्पन्न होती है, वह उन्हें भयग्रस्त और कायर बना देती है। शेर दिन भर भय ग्रस्त रहता है। चीते और भेड़िये खूँखार होने के अतिरिक्त समय केवल इसी प्रयत्न में रहते हैं कि कहाँ छिपे रहें, जिससे कोई उन्हें देख न ले या मार न डाले। साँप चलते हुए इतना भय ग्रस्त होता है कि सामान्य सी खुटक से भी वह बुरी तरह घबड़ा जाता है। मनुष्य भी यदि माँसाहार करता है तो उसमें भी स्वभावतः ऐसी संशयशीलता, अविश्वास और भय की भावना होनी चाहिये। यह बुराइयाँ मनुष्य को सदैव ही अधःपतित करती रही हैं।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1970 पृष्ठ 26
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1970/January/v1.26
🔶 बहुत स्पष्ट बात है। जंगल के शेर, चीते, भेड़िये भालू, लकड़बग्घे माँसाहार करते हैं, इन्हें देखकर लोग कहते हैं कि शक्तिशाली होने के लिये माँसाहार आवश्यक है। उनकी एक दलील यह भी होती है कि माँस खाने की प्रेरणा स्वयं प्रकृति ने दी है, समुद्र की बड़ी मछलियाँ छोटी मछलियों को जंगल के बड़े जन्तु छोटे जीवों को मारकर खाते रहते हैं? प्रकृति ने मानवेत्तर प्राणियों की संख्या न बढ़ने देने के लिये ऐसी व्यवस्था की है पर मनुष्य उन परिस्थितियों से सर्वथा भिन्न है, जिनमें अन्य जीव−जन्तु जन्म लेते, बढ़ते और विकसित होते हैं।
🔷 शेर, चीते माँसाहारी होने के कारण बलवान् होते हैं पर उनमें इस कारण दुष्टता और अशाँति से जो संशयशीलता उत्पन्न होती है, वह उन्हें भयग्रस्त और कायर बना देती है। शेर दिन भर भय ग्रस्त रहता है। चीते और भेड़िये खूँखार होने के अतिरिक्त समय केवल इसी प्रयत्न में रहते हैं कि कहाँ छिपे रहें, जिससे कोई उन्हें देख न ले या मार न डाले। साँप चलते हुए इतना भय ग्रस्त होता है कि सामान्य सी खुटक से भी वह बुरी तरह घबड़ा जाता है। मनुष्य भी यदि माँसाहार करता है तो उसमें भी स्वभावतः ऐसी संशयशीलता, अविश्वास और भय की भावना होनी चाहिये। यह बुराइयाँ मनुष्य को सदैव ही अधःपतित करती रही हैं।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1970 पृष्ठ 26
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1970/January/v1.26
रविवार, 14 अक्टूबर 2018
👉 वासना स्वभाव नहीं विकार मात्र
🔶 राजकुमार युयुत्स सहित राजदरबार के अनेक श्री सामन्तों ने भी श्रावणी पर्व में भाग लिया। महर्षि आँगिरस उस दिन प्रजा से हेमाद्रि संकल्प कराया करते थे। पिछले वर्ष भर किसी ने पाप और बुराइयाँ की होतीं, जब तक उसका प्रायश्चित नहीं करा लेते थे, वे नया यज्ञोपवीत किसी को भी नहीं प्रदान करते थे।
🔷 आज अनहोनी हो गई। एक वर्ष तक लगातार उच्चस्तरीय साधना और तपश्चर्या करने के कारण निषाद कुल में जन्मे बटुक काँदीवर को उन्होंने क्षत्रियत्व प्रदान कर राज्य की सेना में प्रवेश का अधिकार दे दिया, जबकि राजकुमार युयुत्स को उन्होंने असंयमी ठहराकर एक वर्ष के लिये क्षत्रियत्व का अधिकार छीन लिया। उन्होंने बताया—“राजकुमार ने अनेक महिलाओं का शील भंग कर उन्हें व्यभिचारिणी बनाया है, उन्हें 1 वर्ष तक नंगे पाँव, उघारे बदन राज्य की गौयें चरानी चाहियें और दुग्ध कल्प करके शरीर शुद्ध करना चाहिये। जब तक वे वह प्रायश्चित नहीं कर लेते, उन्हें राजकुमार के सम्मानित संबोधन से भी वंचित रखा जायेगा। उन्हें केवल युयुत्स कहकर पुकारा जायेगा।
🔶 काँदीवर को क्षत्रियत्व और अपने आपको पदच्युत होते देखकर युयुत्स का दम्भ उग्र हो उठा। उसने याचना की गुरुवर! वासना मनुष्य का स्वभाव है। स्वाभाविक बातें अपराध नहीं गिनी जानी चाहियें। इस पर मनुष्य का अपना वश नहीं, इसलिए वासना व्यक्ति के लिये क्षम्य है।
🔷 आंगिरस तत्त्वदर्शी थे और दूरदर्शी भी। उन्होंने कहा—“युयुत्स! समाज और जातिगत स्वाभिमान से गिराने वाला कोई भी कर्म पाप ही गिना जाता है, फिर चाहे वह किसी की सहमति से ही क्यों न हो। जिन कुमारियों को तुमने भ्रष्ट किया है, वे एक दिन सुहागिनें बनेंगी। क्या उनके पतियों के साथ यह अपराध न होगा? तुम्हारी यह स्वाभाविकता क्या समाज के असंयम और पथ भ्रष्टता का कारण नहीं बनी?”
🔶 महर्षि आंगिरस अंत तक दृढ़ रहे। युयुत्स पराजित होकर लौटे। उनके कंधे पर पड़ा यज्ञोपवीत व्यभिचार के अपराध में छीन लिया गया।
🔷 चोट खाया सर्प जिस तरह फुँकार मारकर आक्रमण करता है, युयुत्स का हृदय भी ऐसे ही प्रतिशोध से जलने लगा। वह महर्षि को नीचा दिखाने के उपक्रम खोजने लगा।
🔶 राजधानी में संस्कृति समारोह आयोजित किया गया। उसका संचालन किसकी इच्छा से हो रहा है, यह किसी ने नहीं जाना। अच्छे−अच्छे संभ्रांत व्यक्ति आमन्त्रित किये गये। महर्षि आंगिरस प्रधान अतिथि के रूप में आमन्त्रित किये गये थे।
🔷 मरकत−मणियों से जगमगाते राजमहल की आभा उस समय और भी द्विगुणित हो गई, जब श्रीसामन्तों के मध्य प्रवेश किया नृत्याँगना काँचीबाला ने। झीने रेशमी वस्त्रों पर षोडश शृंगार देखते ही बनता था। काम−रूप थी काँचीबाला उसे देखते ही राजाओं के मन स्खलित हो−हो जाते थे।
🔶 नृत्य प्रारम्भ हुआ, पाँव थिरकने लगे, साज गति देने लगा। ताल के साथ नृत्य करती काँचीबाला ने अपनी चूनर उतार फेंकी। दर्शकों की साँसें गर्म हुईं पर फिर नृत्य में अटक गईं। अन्ततः उसने अपने संपूर्ण वस्त्राभूषण उतार फेंके। साज बन्द हो गया, दर्शक न जाने कहाँ चले गये। अकेले, आंगिरस और काँचीबाला। एक कामुक दृष्टि डाली नृत्याँगना ने महर्षि पर और प्रश्न किया—“नारी अभिसार क्यों करती है ऋषिवर!?” महर्षि बोले—“पुरुष की आत्म−दर्शन की जिज्ञासा को उद्दीप्त करने के लिये भद्रे! आज तुम्हारे सौन्दर्य में सचमुच अलौकिक बाल रूप है।” काँचीवाला आई थी, भ्रष्ट करने, पर आप गलकर पानी हो गई। यह सब युयुत्स का प्रबंध था। पर उससे महर्षि का क्या बिगड़ता। युयुत्स को अन्ततः तप और प्रायश्चित के लिये जाना ही पड़ा।
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1970 पृष्ठ 15
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1970/January/v1.15
🔷 आज अनहोनी हो गई। एक वर्ष तक लगातार उच्चस्तरीय साधना और तपश्चर्या करने के कारण निषाद कुल में जन्मे बटुक काँदीवर को उन्होंने क्षत्रियत्व प्रदान कर राज्य की सेना में प्रवेश का अधिकार दे दिया, जबकि राजकुमार युयुत्स को उन्होंने असंयमी ठहराकर एक वर्ष के लिये क्षत्रियत्व का अधिकार छीन लिया। उन्होंने बताया—“राजकुमार ने अनेक महिलाओं का शील भंग कर उन्हें व्यभिचारिणी बनाया है, उन्हें 1 वर्ष तक नंगे पाँव, उघारे बदन राज्य की गौयें चरानी चाहियें और दुग्ध कल्प करके शरीर शुद्ध करना चाहिये। जब तक वे वह प्रायश्चित नहीं कर लेते, उन्हें राजकुमार के सम्मानित संबोधन से भी वंचित रखा जायेगा। उन्हें केवल युयुत्स कहकर पुकारा जायेगा।
🔶 काँदीवर को क्षत्रियत्व और अपने आपको पदच्युत होते देखकर युयुत्स का दम्भ उग्र हो उठा। उसने याचना की गुरुवर! वासना मनुष्य का स्वभाव है। स्वाभाविक बातें अपराध नहीं गिनी जानी चाहियें। इस पर मनुष्य का अपना वश नहीं, इसलिए वासना व्यक्ति के लिये क्षम्य है।
🔷 आंगिरस तत्त्वदर्शी थे और दूरदर्शी भी। उन्होंने कहा—“युयुत्स! समाज और जातिगत स्वाभिमान से गिराने वाला कोई भी कर्म पाप ही गिना जाता है, फिर चाहे वह किसी की सहमति से ही क्यों न हो। जिन कुमारियों को तुमने भ्रष्ट किया है, वे एक दिन सुहागिनें बनेंगी। क्या उनके पतियों के साथ यह अपराध न होगा? तुम्हारी यह स्वाभाविकता क्या समाज के असंयम और पथ भ्रष्टता का कारण नहीं बनी?”
🔶 महर्षि आंगिरस अंत तक दृढ़ रहे। युयुत्स पराजित होकर लौटे। उनके कंधे पर पड़ा यज्ञोपवीत व्यभिचार के अपराध में छीन लिया गया।
🔷 चोट खाया सर्प जिस तरह फुँकार मारकर आक्रमण करता है, युयुत्स का हृदय भी ऐसे ही प्रतिशोध से जलने लगा। वह महर्षि को नीचा दिखाने के उपक्रम खोजने लगा।
🔶 राजधानी में संस्कृति समारोह आयोजित किया गया। उसका संचालन किसकी इच्छा से हो रहा है, यह किसी ने नहीं जाना। अच्छे−अच्छे संभ्रांत व्यक्ति आमन्त्रित किये गये। महर्षि आंगिरस प्रधान अतिथि के रूप में आमन्त्रित किये गये थे।
🔷 मरकत−मणियों से जगमगाते राजमहल की आभा उस समय और भी द्विगुणित हो गई, जब श्रीसामन्तों के मध्य प्रवेश किया नृत्याँगना काँचीबाला ने। झीने रेशमी वस्त्रों पर षोडश शृंगार देखते ही बनता था। काम−रूप थी काँचीबाला उसे देखते ही राजाओं के मन स्खलित हो−हो जाते थे।
🔶 नृत्य प्रारम्भ हुआ, पाँव थिरकने लगे, साज गति देने लगा। ताल के साथ नृत्य करती काँचीबाला ने अपनी चूनर उतार फेंकी। दर्शकों की साँसें गर्म हुईं पर फिर नृत्य में अटक गईं। अन्ततः उसने अपने संपूर्ण वस्त्राभूषण उतार फेंके। साज बन्द हो गया, दर्शक न जाने कहाँ चले गये। अकेले, आंगिरस और काँचीबाला। एक कामुक दृष्टि डाली नृत्याँगना ने महर्षि पर और प्रश्न किया—“नारी अभिसार क्यों करती है ऋषिवर!?” महर्षि बोले—“पुरुष की आत्म−दर्शन की जिज्ञासा को उद्दीप्त करने के लिये भद्रे! आज तुम्हारे सौन्दर्य में सचमुच अलौकिक बाल रूप है।” काँचीवाला आई थी, भ्रष्ट करने, पर आप गलकर पानी हो गई। यह सब युयुत्स का प्रबंध था। पर उससे महर्षि का क्या बिगड़ता। युयुत्स को अन्ततः तप और प्रायश्चित के लिये जाना ही पड़ा।
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1970 पृष्ठ 15
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1970/January/v1.15
👉 परिवर्तन के महान् क्षण (भाग 25)
👉 भक्ति से जुड़ी शक्ति
🔶 इस आशा की एक झलक झाँकी के उपरान्त तत्काल दूसरा पक्ष समझ में आता है कि उसने भौतिक उपलब्धियों से कुछेक समर्थों के लिए बढ़-चढ़कर सुविधा-साधन उपलब्ध करने के अतिरिक्त और कोई ऐसा आधार प्रस्तुत नहीं किया है, जिससे मानसिक क्षेत्र में घुसी हुई विकृतियों का निराकरण हो सके और मानवी व्यवहार में सद्भावना का अभिवर्धन हो सके। ऐसी दशा में आगे भी विज्ञान के आधार पर जो और भी प्रगति होगी, वह वर्तमान प्रचलन को ही उत्तेजित करेगी। उसमें मानवी उत्कृष्टता का न तो कोई पक्ष जुड़ सका है और न ऐसा कुछ बन पड़ने की सम्भावना है, जिससे जन साधारण को मानवी गरिमा की मर्यादाओं में अनुबन्धित किया जा सके। यदि ऐसा न बन पड़ा, तो सम्पन्नता और समर्थता के साथ-साथ अनीति भी बढ़ती ही जाएगी और अन्तत: प्रस्तुत प्रगति योजनाएँ भयावह विपन्नता के अतिरिक्त और कुछ उपलब्ध न कर सकेंगी।
🔷 समस्याएँ प्रत्यक्षवाद के साथ जुड़ी हुई अनैतिकता के कारण उत्पन्न हुई हैं। जड़ को काटे बिना विषवृक्ष की कुछेक पत्तियाँ तोड़ देने भर से क्या कुछ बनने वाला है? एक नाम रूप वाली विपत्तियाँ दूसरे नाम रूप से सामने आएँ, इसके अतिरिक्त वैज्ञानिक उपचारों से और कुछ हेर-फेर बन पड़ने वाला नहीं है।
🔶 स्मरण पुरातन सतयुग का आता है, जब साधनों की आज की तुलना में कहीं अधिक कमी थी, पर साथ ही सद्भावनाओं के समुन्नत रहने पर लोग उस स्थिति में भी इस प्रकार रह लेते थे, जिन्हें आज भी स्वर्गोपम होने का प्रतिपादन इतिहासकार करते हैं। उन परिस्थितियों का जन्म तपस्वियों द्वारा सूक्ष्म जगत का, चेतना-क्षेत्र का परिष्कार कर सकने पर ही सम्भव हुआ था। आज भी वही एक मात्र विकल्प है, जिसे अपनाकर मनुष्य की देवोपम सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों को उभारा जा सकता है और इसी अवरोध के कारण उत्पन्न हुई सभी विकृतियों का, सभी समस्याओं का समाधान हो सकता है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 परिवर्तन के महान् क्षण पृष्ठ 27
🔶 इस आशा की एक झलक झाँकी के उपरान्त तत्काल दूसरा पक्ष समझ में आता है कि उसने भौतिक उपलब्धियों से कुछेक समर्थों के लिए बढ़-चढ़कर सुविधा-साधन उपलब्ध करने के अतिरिक्त और कोई ऐसा आधार प्रस्तुत नहीं किया है, जिससे मानसिक क्षेत्र में घुसी हुई विकृतियों का निराकरण हो सके और मानवी व्यवहार में सद्भावना का अभिवर्धन हो सके। ऐसी दशा में आगे भी विज्ञान के आधार पर जो और भी प्रगति होगी, वह वर्तमान प्रचलन को ही उत्तेजित करेगी। उसमें मानवी उत्कृष्टता का न तो कोई पक्ष जुड़ सका है और न ऐसा कुछ बन पड़ने की सम्भावना है, जिससे जन साधारण को मानवी गरिमा की मर्यादाओं में अनुबन्धित किया जा सके। यदि ऐसा न बन पड़ा, तो सम्पन्नता और समर्थता के साथ-साथ अनीति भी बढ़ती ही जाएगी और अन्तत: प्रस्तुत प्रगति योजनाएँ भयावह विपन्नता के अतिरिक्त और कुछ उपलब्ध न कर सकेंगी।
🔷 समस्याएँ प्रत्यक्षवाद के साथ जुड़ी हुई अनैतिकता के कारण उत्पन्न हुई हैं। जड़ को काटे बिना विषवृक्ष की कुछेक पत्तियाँ तोड़ देने भर से क्या कुछ बनने वाला है? एक नाम रूप वाली विपत्तियाँ दूसरे नाम रूप से सामने आएँ, इसके अतिरिक्त वैज्ञानिक उपचारों से और कुछ हेर-फेर बन पड़ने वाला नहीं है।
🔶 स्मरण पुरातन सतयुग का आता है, जब साधनों की आज की तुलना में कहीं अधिक कमी थी, पर साथ ही सद्भावनाओं के समुन्नत रहने पर लोग उस स्थिति में भी इस प्रकार रह लेते थे, जिन्हें आज भी स्वर्गोपम होने का प्रतिपादन इतिहासकार करते हैं। उन परिस्थितियों का जन्म तपस्वियों द्वारा सूक्ष्म जगत का, चेतना-क्षेत्र का परिष्कार कर सकने पर ही सम्भव हुआ था। आज भी वही एक मात्र विकल्प है, जिसे अपनाकर मनुष्य की देवोपम सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों को उभारा जा सकता है और इसी अवरोध के कारण उत्पन्न हुई सभी विकृतियों का, सभी समस्याओं का समाधान हो सकता है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 परिवर्तन के महान् क्षण पृष्ठ 27
सदस्यता लें
संदेश (Atom)
👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024
All World Gayatri Pariwar Official Social Media Platform > 👉 शांतिकुंज हरिद्वार के प्रेरणादायक वीडियो देखने के लिए Youtube Channel `S...