आदर्शवादी जीवन जीने का-महानता के प्रगति पथ पर चलने का हर किसी को अवसर मिल सकता है, यदि वासना, तृष्णा पर अंकुश रखा जाय और श्रेष्ठता अभिवर्धन की साध को जीवन्त, ज्योतिर्मय बनाया जाय। यह अति सरल है व कठिन भी। सरल इन अर्थों में कि निर्वाह के साधन सरल हैं, वे महानता के मार्ग पर चलते हुए भी सहज ही उपलब्ध होते रह सकते हैं। कठिन इसलिए कि पशु प्रवृत्तियों से पिण्ड छुड़ाना अति साहस का काम है।
यह सोचना व्यर्थ है कि पारमार्थिक जीवन में हानि अधिक है। सच तो यह है कि पाप-पंक में फँसे रहने पर पग-पग पर, पल-पल पर जो आत्म-प्रताड़ना तथा बाहरी व्यथा-बाधाएँ सहनी पड़ती हैं। उनकी तुलना में दिव्य जीवन में आने वाली विपत्तियाँ नगण्य हैं। यदि कुछ हैं भी तो आदर्शों के लिए किये जाने वाले त्याग, बलिदान के फलस्वरूप मिलने वाले आत्म-संतोष, लोक-सम्मान एवं ईश्वरीय अनुग्रह की उपलब्धियों को देखते हुए अतीव नगण्य हैं।
यदि मनुष्यता को जीवित रहना है तो उसे एकता और आत्मीयता की दिशा में बढ़ना होगा। मतभेदों की दीवारें गिरानी पड़ेंगी तथा चिंतन और कर्तृत्व की एकरूपता प्रस्तुत कर सकने वाला राजमार्ग बनाना पड़ेगा। जीवन और मरण के बीच और कोई विकल्प नहीं। सद्भावपूर्वक निर्वाह करने या मर-कट कर नष्ट हो जाने के अतिरिक्त शान्ति का और कोई मार्ग नहीं। मतभेद जितने भी बने रहेंगे विनाश का असुर उतना ही भयावह होता चलेगा।
गीता एक ऐसे समाज की कल्पना करती है, जिसमें प्रत्येक मानव को स्वतंत्रता और समानता का अधिकार है। मनुष्य और मनुष्य के बीच धर्म, जाति, वर्ण, लिंग और धन की दीवारें नहीं हैं। प्रत्येक मानव अपने स्वभाव के अनुसार अनासक्त और निष्काम होकर मानव जाति की सेवा में लगा रहना अपना कर्त्तव्य समझता है तथा अकर्मण्यता, आलस्य और असुरता को त्याज्य मानता है। उसकी अपनी कामनाएँ नहीं हैं। समाज की प्रगति और संपन्नता ही उसकी प्रगति और संपन्नता है। इस प्रकार के समाज का निर्माण करना प्रत्येक व्यक्ति का कर्त्तव्य है।
यह सोचना व्यर्थ है कि पारमार्थिक जीवन में हानि अधिक है। सच तो यह है कि पाप-पंक में फँसे रहने पर पग-पग पर, पल-पल पर जो आत्म-प्रताड़ना तथा बाहरी व्यथा-बाधाएँ सहनी पड़ती हैं। उनकी तुलना में दिव्य जीवन में आने वाली विपत्तियाँ नगण्य हैं। यदि कुछ हैं भी तो आदर्शों के लिए किये जाने वाले त्याग, बलिदान के फलस्वरूप मिलने वाले आत्म-संतोष, लोक-सम्मान एवं ईश्वरीय अनुग्रह की उपलब्धियों को देखते हुए अतीव नगण्य हैं।
यदि मनुष्यता को जीवित रहना है तो उसे एकता और आत्मीयता की दिशा में बढ़ना होगा। मतभेदों की दीवारें गिरानी पड़ेंगी तथा चिंतन और कर्तृत्व की एकरूपता प्रस्तुत कर सकने वाला राजमार्ग बनाना पड़ेगा। जीवन और मरण के बीच और कोई विकल्प नहीं। सद्भावपूर्वक निर्वाह करने या मर-कट कर नष्ट हो जाने के अतिरिक्त शान्ति का और कोई मार्ग नहीं। मतभेद जितने भी बने रहेंगे विनाश का असुर उतना ही भयावह होता चलेगा।
गीता एक ऐसे समाज की कल्पना करती है, जिसमें प्रत्येक मानव को स्वतंत्रता और समानता का अधिकार है। मनुष्य और मनुष्य के बीच धर्म, जाति, वर्ण, लिंग और धन की दीवारें नहीं हैं। प्रत्येक मानव अपने स्वभाव के अनुसार अनासक्त और निष्काम होकर मानव जाति की सेवा में लगा रहना अपना कर्त्तव्य समझता है तथा अकर्मण्यता, आलस्य और असुरता को त्याज्य मानता है। उसकी अपनी कामनाएँ नहीं हैं। समाज की प्रगति और संपन्नता ही उसकी प्रगति और संपन्नता है। इस प्रकार के समाज का निर्माण करना प्रत्येक व्यक्ति का कर्त्तव्य है।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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