जब क्रोध का आवेग आता है तो उसका एक ही लक्ष्य होता है, जो अपनी कामनाओं में बाधक बना है उसे नुकसान पहुँचाना। मार-पीट कर, सामान को नष्ट कर, काम में रोड़ा अटकाकर जैसे भी बने क्रोध का लक्ष्य दूसरे को हानि पहुँचाना ही होता है। वह भले ही किसी भी रूप में पहुँचाई जाय। कभी-कभी लोग क्रोध से प्रेरित होकर अपना ही सिर फोड़ने लगते हैं। अंग भंग, आत्महत्या तक कर लेने को उद्यत हो जाते हैं, ऐसे लोग। किन्तु इसका आधार भी अपने कुटुम्बियों, स्नेह, सम्बन्धियों को वर्तमान या भविष्य में हानि पहुँचाना ही होता है। स्मरण रहे ऐसी हरकतें बेगानों के साथ कभी नहीं की जातीं। ऐसा मनुष्य तभी करता है जब दूसरों को इस प्रपंच की परवाह होती है वे इस क्रोध प्रदर्शन से प्रभावित होते हैं।
भय के लिये कारण निर्दिष्ट होना जरूरी नहीं है। मानसिक कमजोरी, दुःख या हानि की काल्पनिक आशंका से ही प्रायः लोग भयभीत रहते हैं। सही कारण तो बहुत थोड़े होते हैं। कोई सह-कर्मचारी इतना कह दे कि आप नौकरी से निकाल दिये जायेंगे, इतने ही से आप डरने लगते हैं। कोई मूर्ख पण्डित कह दे कि अमुक नक्षत्र में अति वृष्टि योग है बस फसल नष्ट होने की आशंका से किसानों का दम फूलने लगता है। नौकरी छूट ही जायेगी या जल गिरेगा ही यह बात यद्यपि निराधार है केवल अपनी कल्पना में ऐसा सत्य मान लिया है, इसी के कारण भयभीत होते हैं। इस अवास्तविक भय का कारण मनुष्य की मानसिक कमजोरी है, इसका निराकरण भी संभव है। मनुष्य इसे मिटा भी सकता है।
जो मनुष्य सामाजिक जीवन में रहकर मन और इन्द्रियों पर नियंत्रण नहीं रखता वन में जीने या घर बार छोड़ देने से उसका मन भी बदल जायगा। वहाँ भी वह अपने पाप के नये-नये तरीके ढूंढ़ लेगा। और नहीं कुविचारों के रहते हुए भला उसे आत्म-शान्ति कैसे मिलेगी ? इधर घर वालों की कलपती हुई आत्माओं से निकली हुई दुर्भावनायें भी क्या उसे चैन से रहने देंगी। सामाजिक जीवन कर्त्तव्य के अनेकों रास्ते होते हैं जिनमें लगा रहकर मनुष्य मन और इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर सकता है और आसानी से अपना पारमार्थिक लक्ष्य पूरा कर सकता है। अन्यत्र रह कर पाप के कीचड़ में फिसल जाने का भी खतरा हो सकता है किन्तु उपयुक्त गृहस्थ जीवन में ऐसी तो कोई भी आशंका नहीं होती।
भय के लिये कारण निर्दिष्ट होना जरूरी नहीं है। मानसिक कमजोरी, दुःख या हानि की काल्पनिक आशंका से ही प्रायः लोग भयभीत रहते हैं। सही कारण तो बहुत थोड़े होते हैं। कोई सह-कर्मचारी इतना कह दे कि आप नौकरी से निकाल दिये जायेंगे, इतने ही से आप डरने लगते हैं। कोई मूर्ख पण्डित कह दे कि अमुक नक्षत्र में अति वृष्टि योग है बस फसल नष्ट होने की आशंका से किसानों का दम फूलने लगता है। नौकरी छूट ही जायेगी या जल गिरेगा ही यह बात यद्यपि निराधार है केवल अपनी कल्पना में ऐसा सत्य मान लिया है, इसी के कारण भयभीत होते हैं। इस अवास्तविक भय का कारण मनुष्य की मानसिक कमजोरी है, इसका निराकरण भी संभव है। मनुष्य इसे मिटा भी सकता है।
जो मनुष्य सामाजिक जीवन में रहकर मन और इन्द्रियों पर नियंत्रण नहीं रखता वन में जीने या घर बार छोड़ देने से उसका मन भी बदल जायगा। वहाँ भी वह अपने पाप के नये-नये तरीके ढूंढ़ लेगा। और नहीं कुविचारों के रहते हुए भला उसे आत्म-शान्ति कैसे मिलेगी ? इधर घर वालों की कलपती हुई आत्माओं से निकली हुई दुर्भावनायें भी क्या उसे चैन से रहने देंगी। सामाजिक जीवन कर्त्तव्य के अनेकों रास्ते होते हैं जिनमें लगा रहकर मनुष्य मन और इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर सकता है और आसानी से अपना पारमार्थिक लक्ष्य पूरा कर सकता है। अन्यत्र रह कर पाप के कीचड़ में फिसल जाने का भी खतरा हो सकता है किन्तु उपयुक्त गृहस्थ जीवन में ऐसी तो कोई भी आशंका नहीं होती।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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