मंगलवार, 7 फ़रवरी 2017
👉 जीवन देवता की साधना-आराधना (भाग 31) 8 Feb
🌹 जीवन साधना के सुनिश्चित सूत्र-
🔴 हर व्यक्ति की मन:स्थिति परिस्थिति अलग होती है। यही बात दुर्गुणों और सद्गुणों की न्यूनाधिकता के सम्बन्ध में भी है। किसे अपने में क्या सुधार करना चाहिये और किन नई सत्प्रवृत्तियों का संवर्द्धन गुण, कर्म, स्वभाव के क्षेत्र में करना है? यह आत्म-समीक्षा के आधार पर सही विश्लेषण होने के उपरान्त ही सम्भव है। इसके लिये कोई एक निर्धारण नहीं हो सकता है। यह कार्य हर किसी को स्वयं करना होता है। दूसरों को तो थोड़ा-बहुत परामर्श ही काम दे सकता है।
🔵 नित्य-निरन्तर हर कोई किसी के साथ रहता नहीं। फिर रोग का कारण और निदान जानते हुए उपचार का निर्धारण कोई अन्य किस प्रकार कर सके? थोड़े समय तक सम्पर्क में आने वाला केवल उतनी ही बात जान सकता है, जितनी कि मिलन काल में उभरकर सामने आती है। यह सर्वथा अधूरी रहती है। इसलिये अन्यान्यों के परामर्श पर पूरी तरह निर्भर नहीं रहा जा सकता। यह कार्य स्वयं अपने को ही करना पड़ता है। इसमें भी एक कठिनाई यह है कि मानसिक संरचना के अनुसार हर व्यक्ति अपने को निर्दोष मानता है, साथ ही सर्वगुण सम्पन्न भी समझता रहता है।
🔴 यह स्थिति सुधार और विकास दोनों में बाधक है? जब तक कमी का आभास न हो तब तक उसकी पूर्ति का तारतम्य कैसे बने? अस्तु, आत्मविकास के मार्ग पर चलने वाले, जीवन साधना के मार्ग पर अग्रसर होने के इच्छुक प्रत्येक व्यक्ति को चाहिये कि निष्पक्षता की मनोभूमि विकसित की जाये। खासतौर से अपने सम्बन्ध में उतना ही तीखापन होना चाहिये जितना कि आमतौर से दूसरों के दोष-दुर्गुण ढूँढ़ने में हर किसी का रहता है। आरोप लगाने और लांछित करने में हर किसी को प्रवीण पाया जाता है। इस सहज वृत्ति को ठीक उल्टा करने से आत्मसमीक्षा की वह प्राथमिक आवश्यकता पूरी होती है, जिसके बिना व्यक्तित्व का निखार प्राय: असम्भव ही बना रहता है। वह न बन पड़े तो किसी को भी महानता अपनाने और प्रगति के उच्च शिखर तक पहुँच सकने का अवसर मिल ही नहीं सकता।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 हर व्यक्ति की मन:स्थिति परिस्थिति अलग होती है। यही बात दुर्गुणों और सद्गुणों की न्यूनाधिकता के सम्बन्ध में भी है। किसे अपने में क्या सुधार करना चाहिये और किन नई सत्प्रवृत्तियों का संवर्द्धन गुण, कर्म, स्वभाव के क्षेत्र में करना है? यह आत्म-समीक्षा के आधार पर सही विश्लेषण होने के उपरान्त ही सम्भव है। इसके लिये कोई एक निर्धारण नहीं हो सकता है। यह कार्य हर किसी को स्वयं करना होता है। दूसरों को तो थोड़ा-बहुत परामर्श ही काम दे सकता है।
🔵 नित्य-निरन्तर हर कोई किसी के साथ रहता नहीं। फिर रोग का कारण और निदान जानते हुए उपचार का निर्धारण कोई अन्य किस प्रकार कर सके? थोड़े समय तक सम्पर्क में आने वाला केवल उतनी ही बात जान सकता है, जितनी कि मिलन काल में उभरकर सामने आती है। यह सर्वथा अधूरी रहती है। इसलिये अन्यान्यों के परामर्श पर पूरी तरह निर्भर नहीं रहा जा सकता। यह कार्य स्वयं अपने को ही करना पड़ता है। इसमें भी एक कठिनाई यह है कि मानसिक संरचना के अनुसार हर व्यक्ति अपने को निर्दोष मानता है, साथ ही सर्वगुण सम्पन्न भी समझता रहता है।
🔴 यह स्थिति सुधार और विकास दोनों में बाधक है? जब तक कमी का आभास न हो तब तक उसकी पूर्ति का तारतम्य कैसे बने? अस्तु, आत्मविकास के मार्ग पर चलने वाले, जीवन साधना के मार्ग पर अग्रसर होने के इच्छुक प्रत्येक व्यक्ति को चाहिये कि निष्पक्षता की मनोभूमि विकसित की जाये। खासतौर से अपने सम्बन्ध में उतना ही तीखापन होना चाहिये जितना कि आमतौर से दूसरों के दोष-दुर्गुण ढूँढ़ने में हर किसी का रहता है। आरोप लगाने और लांछित करने में हर किसी को प्रवीण पाया जाता है। इस सहज वृत्ति को ठीक उल्टा करने से आत्मसमीक्षा की वह प्राथमिक आवश्यकता पूरी होती है, जिसके बिना व्यक्तित्व का निखार प्राय: असम्भव ही बना रहता है। वह न बन पड़े तो किसी को भी महानता अपनाने और प्रगति के उच्च शिखर तक पहुँच सकने का अवसर मिल ही नहीं सकता।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 शिवजी कोढी बने
🔴 मनुष्य के चिन्तन और व्यवहार से ही आचरण बनता हैं। वातावरण से परिस्थिति बनती है और वही सुख-दुःख, उत्थान-पतन का निर्धारण करती हैं। जमाना बुरा है, कलयुग का दौर है, परिस्थितियाँ कुछ प्रतिकूल बन गयी हैं, भाग्य चक्र कुछ उल्टा चल रहा है-ऐसा कह कर लोग मन को हल्का करते हैं, पर इससे समाधान कुछ नहीं निकलता। जन समाज में से ही तो अग्रदूत निकलते हैं।
🔵 एक बार पार्वती ने शिवजी से पूछा-' भगवन्! लोग इतना कर्मकाण्ड करते हैं फिर भी इन्हें आस्था का लाभ क्यों नहीं मिलता? शिवजी बोले-धार्मिक कर्मकाण्ड होने पर भी मनुष्य जीवन में जो बने आडम्बर छाया है; यहीं अनास्था है। लोग धार्मिकता का दिखावा करते हैं, उनके मन वैसे नहीं है। परीक्षा लेने दोनों धरती पर आये।
🔴 मां पार्वती ने सुन्दरी साध्वी पत्नी का व शिवजी ने कोढ़ी का रूप धारण किया। मन्दिर की सीढ़ियों के समीप वे पति को लेकर बैठ गयीं। दानदाता दर्शनार्थ आते रहे व रुककर कुछ पल पार्वती जी को देखकर आगे बढ़ जाते। बेचारे शिवजी को गिनें चुनें कुछ सिक्के मिल पाये। कुछ दान दाताओं ने तो संकेत भी किया कि कहाँ इस कोढ़ी पति के साथ बैठी हो। इन्हें छोड दो। पार्वतीजी सहन नहीं कर पायीं, बोलीं-! प्रभु! लौट चलिए अब कैलाश पर। सहन नहीं होता इन पाखण्डियों के यह कुत्सित स्वरूप।
🔵 इतने में ही एक दीन-हीन भक्त आया, पार्वतीजी के चरण हुए और बोला- माँ! आप धन्य हैं जो पति परायण हो इनकी सेवा में लगी है। आइये! मैं इनके घावों को धो दूँ। फिर मेरे पास जो भी कुछ सतू आदि हैं, आप हम साथ-साथ खा लें। ब्राह्मण यात्री ने घावों पर पट्टी बाँधी, सतू थमा पुन: प्रणाम, कर ज्योंही आगे बढ़ा वैसे ही शिवजी ने कहा-' यही है भार्ये एकमात्र भक्त, जिसने मन्दिर में प्रवेश से पूर्व निष्कपट भाव से सेवा धर्म को प्रधानता दी।
🔴 ऐसे लोग गिने चुने हैं। शेष तो सब आत्म प्रवंचना भर करते है व अवगति को प्राप्त होते हैं। शिव-पार्वती ने अपने वास्तविक स्वरूप में उस भक्त को दर्शन दिये। परमगति का अनुदान दिया व वापस लौट गये।
🔵 एक बार पार्वती ने शिवजी से पूछा-' भगवन्! लोग इतना कर्मकाण्ड करते हैं फिर भी इन्हें आस्था का लाभ क्यों नहीं मिलता? शिवजी बोले-धार्मिक कर्मकाण्ड होने पर भी मनुष्य जीवन में जो बने आडम्बर छाया है; यहीं अनास्था है। लोग धार्मिकता का दिखावा करते हैं, उनके मन वैसे नहीं है। परीक्षा लेने दोनों धरती पर आये।
🔴 मां पार्वती ने सुन्दरी साध्वी पत्नी का व शिवजी ने कोढ़ी का रूप धारण किया। मन्दिर की सीढ़ियों के समीप वे पति को लेकर बैठ गयीं। दानदाता दर्शनार्थ आते रहे व रुककर कुछ पल पार्वती जी को देखकर आगे बढ़ जाते। बेचारे शिवजी को गिनें चुनें कुछ सिक्के मिल पाये। कुछ दान दाताओं ने तो संकेत भी किया कि कहाँ इस कोढ़ी पति के साथ बैठी हो। इन्हें छोड दो। पार्वतीजी सहन नहीं कर पायीं, बोलीं-! प्रभु! लौट चलिए अब कैलाश पर। सहन नहीं होता इन पाखण्डियों के यह कुत्सित स्वरूप।
🔵 इतने में ही एक दीन-हीन भक्त आया, पार्वतीजी के चरण हुए और बोला- माँ! आप धन्य हैं जो पति परायण हो इनकी सेवा में लगी है। आइये! मैं इनके घावों को धो दूँ। फिर मेरे पास जो भी कुछ सतू आदि हैं, आप हम साथ-साथ खा लें। ब्राह्मण यात्री ने घावों पर पट्टी बाँधी, सतू थमा पुन: प्रणाम, कर ज्योंही आगे बढ़ा वैसे ही शिवजी ने कहा-' यही है भार्ये एकमात्र भक्त, जिसने मन्दिर में प्रवेश से पूर्व निष्कपट भाव से सेवा धर्म को प्रधानता दी।
🔴 ऐसे लोग गिने चुने हैं। शेष तो सब आत्म प्रवंचना भर करते है व अवगति को प्राप्त होते हैं। शिव-पार्वती ने अपने वास्तविक स्वरूप में उस भक्त को दर्शन दिये। परमगति का अनुदान दिया व वापस लौट गये।
👉 पक्षपात किया जाए तो इस तरह
🔴 किसी ने आक्षेप लगाया संत विनोबा पर "विनोबा जी तो शत्रु का पक्ष लेने की बात कहते हैं।" विनोबा जी ने सुना और एक स्थान पर उसका स्पष्टीकरण भी दे दिया। उन्होंने बतलाया पक्ष न लिया जाए यह अच्छा है किन्तु यदि लेना पडे तो शत्रु का ही लेने योग्य है। मित्र का क्या पक्ष लिया जाए-वह तो अपना है ही। मित्र के पक्ष में तो बुद्धि सहज हो जाती? प्रयासपूर्वक शत्रु के पक्ष मे लगाने पर ही पक्षपात से आंशिक मुक्ति पाई जा सकती है।
🔵 समाधान बहुत प्रमाणिक तथा विवेकपूर्ण ढंग से किया गया है। संत विनोबा की बुद्धि तथा विवेक पर लोग लट्टू हो जाते है। होना भी चाहिए, किन्तु बुद्धि के केवल क्रियाशील होने से ही उसकी श्रेष्ठता प्रमाणित नहीं होती, उसकी दिशा भी सही होनी चाहिए। विनोबा जी की बुद्धि को जो श्रेष्ठता प्राप्त थी, वह उसकी सही दिशा के कारण ही है। तीव्र बुद्धि के व्यक्ति तो समाज में और भी बहुत हैं। अपने बौद्धिक चमत्कारों से दुनिया को नित नई समस्याओं में डालने वाले कम नहीं हैं। बुद्धि की दिशा गलत होने पर के कारण न उसका समाज को लाभ मिल पाता हे और न उन्हें ही श्रेय।
🔴 इस प्रकार की दिशा बुद्धि को दिए जाने का श्रेय विनोबा अपनी माता को देते थे। सामान्य जीवन में सहज घटित एक घटना ने उनके अंदर वह अंकुर पैदा कर दिया, जो उन्हें आज नई-नई सूझ इस दिशा में देता था।
🔵 घटना उनके बचपन की है। उनके साथ बहुधा कोइ सबंधी या मित्र बालक भी उनके घर में रहा करता था। उस बालक को भी धर में विनोबा के समान ही सुविधाएँ थी। भोजन आदि भी साथ-साथ समान स्तर का मिलता था।
🔴 कभी-कभी घरों मे बासी भोजन यथा रहना भी स्वाभाविक है। उनकी माता भोजन फेंके जाने के विरुद्ध थीं। अस्तु वह भोजन मिल-जुलकर थोडा़-थोडा़ खा लिया जाता था। ऐसे अवसर पर माता विनोबा को बासी भोजन देकर दूसरे को ताजा खिलाने का प्रयास करती थी। विनोबा को इस पर कोई आंतरिक विरोध नहीं था, सहज सद्भावना का शिक्षण उन्हें प्रारभ से ही मिला था। किंतु परिहास में एक दिन उन्होंने माँ से कहा आपके मन में अभी भेद है।'' माँ प्रश्नवाचक दृष्टि से उनकी ओर देख उठी। विनोबा ने हँसते हुए कहा हाँ देखो न आप मुझे बासी भोजन देती है तथा अमुक साथी को ताजा।
🔵 माँ की उदारता को पक्षपात की संज्ञा देकर विनोबा ने परिहास किया था, किंतु माता ने उसे दूसरे ही ढंग से लिया। बोली बेटा तू ठीक कहता है। मानवीय दुर्बलताऐं मुझमें भी है। तू मुझे अपना बेटा दीखता है तथा अभ्यागत अतिथि। इसे ईश्वर रूप अतिथि मानकर सहज ही मेरे द्वारा यह पक्षपात का व्यवहार हो जाता है। तुझे बेटा मानने के कारण तरे प्रति अनेक प्रकार का स्नेह मन में उठता है। जब तुझे भी सामान्य दृष्टि से देख सकूँगी, तब पक्षपात की आवश्यकता नहीं रह जायेगी।
🔴 बात कहीं की कहीं पहुँच गई थी, पर विनोबा को प्रसन्नता हुई। माता का एक और उज्जवल पक्ष उनके सामने आया था। समाज के संतुलन तथा आध्यात्मिकता की पकड़ का महत्वपूर्ण सूत्र उन्हें मिल गया था। लोग संतुष्टि के प्रयास में असतुष्ट होते क्यों दिखाई दिया करते हैं ? इसके कारण की वह खोज करते थे। आज उन्हें उसका एक विशिष्ट पक्ष दिखा। पक्षपात मनुष्य के अंतःकरण को सहन नहीं होता। व्यक्ति अभाव स्वीकार कर लेता है, पक्षपात नहीं। अपने को पक्षपात से मुक्त अनुभव करने वाला अंतकरण ही संतोष का अनुभव करता है। संत विनोबा ने माता की शिक्षा गाँठ में बाँध ली। आज वही गुण विकसित होकर, समाज में व्यापक प्रभाव डाल रहा है।
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 13, 14
🔵 समाधान बहुत प्रमाणिक तथा विवेकपूर्ण ढंग से किया गया है। संत विनोबा की बुद्धि तथा विवेक पर लोग लट्टू हो जाते है। होना भी चाहिए, किन्तु बुद्धि के केवल क्रियाशील होने से ही उसकी श्रेष्ठता प्रमाणित नहीं होती, उसकी दिशा भी सही होनी चाहिए। विनोबा जी की बुद्धि को जो श्रेष्ठता प्राप्त थी, वह उसकी सही दिशा के कारण ही है। तीव्र बुद्धि के व्यक्ति तो समाज में और भी बहुत हैं। अपने बौद्धिक चमत्कारों से दुनिया को नित नई समस्याओं में डालने वाले कम नहीं हैं। बुद्धि की दिशा गलत होने पर के कारण न उसका समाज को लाभ मिल पाता हे और न उन्हें ही श्रेय।
🔴 इस प्रकार की दिशा बुद्धि को दिए जाने का श्रेय विनोबा अपनी माता को देते थे। सामान्य जीवन में सहज घटित एक घटना ने उनके अंदर वह अंकुर पैदा कर दिया, जो उन्हें आज नई-नई सूझ इस दिशा में देता था।
🔵 घटना उनके बचपन की है। उनके साथ बहुधा कोइ सबंधी या मित्र बालक भी उनके घर में रहा करता था। उस बालक को भी धर में विनोबा के समान ही सुविधाएँ थी। भोजन आदि भी साथ-साथ समान स्तर का मिलता था।
🔴 कभी-कभी घरों मे बासी भोजन यथा रहना भी स्वाभाविक है। उनकी माता भोजन फेंके जाने के विरुद्ध थीं। अस्तु वह भोजन मिल-जुलकर थोडा़-थोडा़ खा लिया जाता था। ऐसे अवसर पर माता विनोबा को बासी भोजन देकर दूसरे को ताजा खिलाने का प्रयास करती थी। विनोबा को इस पर कोई आंतरिक विरोध नहीं था, सहज सद्भावना का शिक्षण उन्हें प्रारभ से ही मिला था। किंतु परिहास में एक दिन उन्होंने माँ से कहा आपके मन में अभी भेद है।'' माँ प्रश्नवाचक दृष्टि से उनकी ओर देख उठी। विनोबा ने हँसते हुए कहा हाँ देखो न आप मुझे बासी भोजन देती है तथा अमुक साथी को ताजा।
🔵 माँ की उदारता को पक्षपात की संज्ञा देकर विनोबा ने परिहास किया था, किंतु माता ने उसे दूसरे ही ढंग से लिया। बोली बेटा तू ठीक कहता है। मानवीय दुर्बलताऐं मुझमें भी है। तू मुझे अपना बेटा दीखता है तथा अभ्यागत अतिथि। इसे ईश्वर रूप अतिथि मानकर सहज ही मेरे द्वारा यह पक्षपात का व्यवहार हो जाता है। तुझे बेटा मानने के कारण तरे प्रति अनेक प्रकार का स्नेह मन में उठता है। जब तुझे भी सामान्य दृष्टि से देख सकूँगी, तब पक्षपात की आवश्यकता नहीं रह जायेगी।
🔴 बात कहीं की कहीं पहुँच गई थी, पर विनोबा को प्रसन्नता हुई। माता का एक और उज्जवल पक्ष उनके सामने आया था। समाज के संतुलन तथा आध्यात्मिकता की पकड़ का महत्वपूर्ण सूत्र उन्हें मिल गया था। लोग संतुष्टि के प्रयास में असतुष्ट होते क्यों दिखाई दिया करते हैं ? इसके कारण की वह खोज करते थे। आज उन्हें उसका एक विशिष्ट पक्ष दिखा। पक्षपात मनुष्य के अंतःकरण को सहन नहीं होता। व्यक्ति अभाव स्वीकार कर लेता है, पक्षपात नहीं। अपने को पक्षपात से मुक्त अनुभव करने वाला अंतकरण ही संतोष का अनुभव करता है। संत विनोबा ने माता की शिक्षा गाँठ में बाँध ली। आज वही गुण विकसित होकर, समाज में व्यापक प्रभाव डाल रहा है।
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 13, 14
👉 आत्मचिंतन के क्षण 8 Feb 2017
🔵 मनुष्य के चिन्तन और व्यवहार से ही आचरण बनता हैं। वातावरण से परिस्थिति बनती है और वही सुख- दुःख, उत्थान- पतन का निर्धारण करती हैं। जमाना बुरा है, कलयुग का दौर है, परिस्थितियाँ कुछ प्रतिकूल बन गयी हैं, भाग्य चक्र कुछ उल्टा चल रहा है- ऐसा कह कर लोग मन को हल्का करते हैं, पर इससे समाधान कुछ नहीं निकलता। जब समाज में से ही तो अग्रदूत निकलते हैं। प्रतिकूलता का दोषी मूर्धन्य राजनेताओं को भी ठहराया जा सकता है। पर भूलना नहीं चाहिए कि इन सबका उद्गम केन्द्र मानवों अन्तराल ही है। आज की विषम परिस्थितियों को बदलने की जो आवश्यकता समझते हैं, उन्हें कारण तह तक जाना होगा। अन्यथा सूखे पेड़, मुरझाते वृक्ष को हरा बनाने के लिए जड़ की उपेक्षा करके पत्ते सींचने जैसी विडम्बना ही चलती रहगी।
🔴 आप जीवन के प्रति अपनी धारणा बदल डालिए। विश्वास तथा ज्ञान में ही अपना जीवन भवन निर्माण कीजिए। यदि वर्तमान आपत्तिग्रस्त है, तो उसका यह अर्थ नहीं है कि भविष्य भी अन्धकारमय है। आपका भविष्य उज्ज्वल है। विचारपूर्वक देखिए कि जो कुछ आपके पास है, उसका सबसे अच्छा उपयोग कर रहे हैं अथवा नहीं? क्योंकि यदि प्रस्तुत साधनों का दुरुपयोग करते हैं, तो चाहे वह कितनी ही तुच्छ और सारहीन क्यों न हो, आप उसके भी अधिकारी न रहेंगे। वह भी आपसे दूर भाग जायेंगे या छीन लिए जावेंगे।
🔵 हर मनुष्य में अपने प्रति पक्षपात करने की दुर्बलता पाई जाती है। आँखें बाहर को देखती हैं, भीतर का कुछ पता नहीं। कान बाहर के शब्द सुनते हैं, अपने हृदय और फेफडों से कितना अनवरत ध्वनि प्रवाह गुंजित होता है, उसे सुन ही नहीं पाते। इसी प्रकार दूसरों के गुण-अवगुण देखने में रुचि भी रहती है और प्रवीणता भी, पर ऐसा अवसर कदाचित ही आता है जब अपने दोषों को निष्पक्ष रूप से देखा और स्वीकारा जा सके। आमतौर से अपने गुण ही गुण दीखते हैं, दोष तो एक भी नजर नहीं आता। कोई दूसरा बताता है तो वह शत्रुवत् प्रतीत होता है। आत्म समीक्षा कोई कब करता है। वस्तुतः दोष दुर्गुणों के सुधर के लिए अपने आपसे संघर्ष करने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं।
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 आप जीवन के प्रति अपनी धारणा बदल डालिए। विश्वास तथा ज्ञान में ही अपना जीवन भवन निर्माण कीजिए। यदि वर्तमान आपत्तिग्रस्त है, तो उसका यह अर्थ नहीं है कि भविष्य भी अन्धकारमय है। आपका भविष्य उज्ज्वल है। विचारपूर्वक देखिए कि जो कुछ आपके पास है, उसका सबसे अच्छा उपयोग कर रहे हैं अथवा नहीं? क्योंकि यदि प्रस्तुत साधनों का दुरुपयोग करते हैं, तो चाहे वह कितनी ही तुच्छ और सारहीन क्यों न हो, आप उसके भी अधिकारी न रहेंगे। वह भी आपसे दूर भाग जायेंगे या छीन लिए जावेंगे।
🔵 हर मनुष्य में अपने प्रति पक्षपात करने की दुर्बलता पाई जाती है। आँखें बाहर को देखती हैं, भीतर का कुछ पता नहीं। कान बाहर के शब्द सुनते हैं, अपने हृदय और फेफडों से कितना अनवरत ध्वनि प्रवाह गुंजित होता है, उसे सुन ही नहीं पाते। इसी प्रकार दूसरों के गुण-अवगुण देखने में रुचि भी रहती है और प्रवीणता भी, पर ऐसा अवसर कदाचित ही आता है जब अपने दोषों को निष्पक्ष रूप से देखा और स्वीकारा जा सके। आमतौर से अपने गुण ही गुण दीखते हैं, दोष तो एक भी नजर नहीं आता। कोई दूसरा बताता है तो वह शत्रुवत् प्रतीत होता है। आत्म समीक्षा कोई कब करता है। वस्तुतः दोष दुर्गुणों के सुधर के लिए अपने आपसे संघर्ष करने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं।
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 सद्विचारों की सृजनात्मक शक्ति (भाग 3)
🌹 विचार शक्ति सर्वोपरि
🔴 यों संसार में शारीरिक, सामाजिक, राजनीतिक और सैनिक—बहुत सी शक्तियां विद्यमान हैं। किन्तु इन सब शक्तियों से भी बढ़कर एक शक्ति है, जिसे विचार-शक्ति कहते हैं। वह सर्वोपरि है।
🔵 उसका एक मोटा-सा कारण तो यह है कि विचार-शक्ति निराकार और सूक्ष्मातिसूक्ष्म होती है और अन्य शक्तियां स्थूलतर। स्थूल की अपेक्षा सूक्ष्म में अनेक गुना शक्ति अधिक होती है। पानी की अपेक्षा वाष्प और उससे उत्पन्न होने वाली बिजली बहुत शक्तिशाली होती है। जो वस्तु स्थूल से सूक्ष्म की ओर जितनी बढ़ती जाती है, उसकी शक्ति भी उसी अनुपात में बढ़ती जाती है।
🔴 मनुष्य जब स्थूल शरीर से सूक्ष्म, सूक्ष्म से कारण-शरीर, कारण-शरीर से आत्मा और आत्मा से परमात्मा की ओर ज्यों-ज्यों बढ़ता है, उसकी शक्ति की उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है। यहां तक कि अन्तिम कोटि में पहुंच कर वह सर्वशक्तिमान बन जाता है। विचार सूक्ष्म होने के कारण संसार के अन्य किसी भी साधन से अधिक शक्तिशाली होते हैं। उदाहरण के लिए हम विभिन्न धर्मों के पौराणिक आख्यानों की ओर जा सकते हैं।
🔵 बहुत बार किसी ऋषि, मुनि और महात्मा ने अपने शाप और वरदान द्वारा अनेक मनुष्यों का जीवन बदल दिया। ईसाई धर्म के प्रवर्तक ईसा-मसीह के विषय में प्रसिद्ध है कि उन्होंने न जाने कितने अपंगों, रोगियों और मरणासन्न व्यक्तियों को पूरी तरह आशीर्वाद देकर ही भला-चंगा कर दिया। विश्वामित्र जैसे ऋषियों ने अपनी विचार एवं संकल्प शक्ति से दूसरे संसार की ही रचना प्रारम्भ कर दी थी। और इस विश्व ब्रह्माण्ड की, जिसमें हम रह रहे हैं, रचना भी ईश्वर के विचार-स्फुरण का ही परिणाम है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 यों संसार में शारीरिक, सामाजिक, राजनीतिक और सैनिक—बहुत सी शक्तियां विद्यमान हैं। किन्तु इन सब शक्तियों से भी बढ़कर एक शक्ति है, जिसे विचार-शक्ति कहते हैं। वह सर्वोपरि है।
🔵 उसका एक मोटा-सा कारण तो यह है कि विचार-शक्ति निराकार और सूक्ष्मातिसूक्ष्म होती है और अन्य शक्तियां स्थूलतर। स्थूल की अपेक्षा सूक्ष्म में अनेक गुना शक्ति अधिक होती है। पानी की अपेक्षा वाष्प और उससे उत्पन्न होने वाली बिजली बहुत शक्तिशाली होती है। जो वस्तु स्थूल से सूक्ष्म की ओर जितनी बढ़ती जाती है, उसकी शक्ति भी उसी अनुपात में बढ़ती जाती है।
🔴 मनुष्य जब स्थूल शरीर से सूक्ष्म, सूक्ष्म से कारण-शरीर, कारण-शरीर से आत्मा और आत्मा से परमात्मा की ओर ज्यों-ज्यों बढ़ता है, उसकी शक्ति की उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है। यहां तक कि अन्तिम कोटि में पहुंच कर वह सर्वशक्तिमान बन जाता है। विचार सूक्ष्म होने के कारण संसार के अन्य किसी भी साधन से अधिक शक्तिशाली होते हैं। उदाहरण के लिए हम विभिन्न धर्मों के पौराणिक आख्यानों की ओर जा सकते हैं।
🔵 बहुत बार किसी ऋषि, मुनि और महात्मा ने अपने शाप और वरदान द्वारा अनेक मनुष्यों का जीवन बदल दिया। ईसाई धर्म के प्रवर्तक ईसा-मसीह के विषय में प्रसिद्ध है कि उन्होंने न जाने कितने अपंगों, रोगियों और मरणासन्न व्यक्तियों को पूरी तरह आशीर्वाद देकर ही भला-चंगा कर दिया। विश्वामित्र जैसे ऋषियों ने अपनी विचार एवं संकल्प शक्ति से दूसरे संसार की ही रचना प्रारम्भ कर दी थी। और इस विश्व ब्रह्माण्ड की, जिसमें हम रह रहे हैं, रचना भी ईश्वर के विचार-स्फुरण का ही परिणाम है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 मन: स्थिति बदले तो परिस्थिति बदले (भाग 11)
🌹 तीनों उद्यान फलेंगे और निहाल करेंगे
🔵 जिस तिस से सहारा पाने की भी समय कुसमय आवश्यकता पड़ सकती है, पर उसकी उपयोगिता उतनी ही स्वल्प है, जितनी संकट ग्रस्तों को कठिनाई से उबारने में कभी-कभी उदारचेताओं की सहानुभूति काम दे जाती है। उसी के सहारे जिन्दगी की लम्बी मञ्जिल को पार करना और बढ़ी चढ़ी सफलताओं के अनुदान-वरदान प्रस्तुत कर सकना सम्भव नहीं होता।
🔴 आज की अदृश्य किन्तु दो महती समस्याओं में से एक यह है कि लोग परावलम्बन के अभ्यस्त हो चले हैं। दूसरों का ऊटपटाँग अनुकरण करते ही उनसे बन पड़ता है। निजी विवेक इतना तक नहीं जागता कि स्वतन्त्र चिन्तन के सहारे जो उपयुक्त है, उसे अपनाने और जो अनुपयुक्त है, उसे बुहार फेंकने तक का साहस जुटा सकें। यह परावलम्बन यदि छोड़ते बन पड़े, तो मनुष्य का उपयुक्तता को अपनाने का साहस भीतर से ही उठ सकता है और ‘‘एकला चलो रे’’ का गीत गुनगुनाते हुए उपर्युक्त तीनों क्षेत्रों में निहाल कर सकने वाली सम्पदा उपार्जित कर सकता है।
🔵 आज की सबसे बड़ी, सबसे भयावह समस्या एक ही है, मानवी चेतना का परावलम्बन, अन्त:स्फुरणा का मूर्छाग्रस्त होना, औचित्य को समझ न पाना और कँटीली झाड़ियों में भटक जाना। अगले दिन इस स्थिति से उबरने के हैं। उज्ज्वल भविष्य की समस्त सम्भावनाएँ इसी आधार पर विनिर्मित होंगी। अगले दिनों लोग दीन-हीन मनो-मलीन उद्विग्न-विक्षिप्त स्थिति में रहना स्वीकार न करेंगे। सभी आत्मावलम्बी होंगे और किसी एक पुरुषार्थ को अपनाकर ओजस्वी, तेजस्वी, वर्चस्वी बन सकने में पूरी तरह सफल होंगे। वातावरण मनुष्य को बनाता है, यह उक्ति गये गुजरें लोगों पर ही लागू होती है। वास्तविकता यह है कि आत्मबल के धनी, अपनी सङ्कल्प-शक्ति और प्रतिभा के सहारे अभीष्ट वातावरण बना सकने में पूरी तरह सफल होते हैं।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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🔵 जिस तिस से सहारा पाने की भी समय कुसमय आवश्यकता पड़ सकती है, पर उसकी उपयोगिता उतनी ही स्वल्प है, जितनी संकट ग्रस्तों को कठिनाई से उबारने में कभी-कभी उदारचेताओं की सहानुभूति काम दे जाती है। उसी के सहारे जिन्दगी की लम्बी मञ्जिल को पार करना और बढ़ी चढ़ी सफलताओं के अनुदान-वरदान प्रस्तुत कर सकना सम्भव नहीं होता।
🔴 आज की अदृश्य किन्तु दो महती समस्याओं में से एक यह है कि लोग परावलम्बन के अभ्यस्त हो चले हैं। दूसरों का ऊटपटाँग अनुकरण करते ही उनसे बन पड़ता है। निजी विवेक इतना तक नहीं जागता कि स्वतन्त्र चिन्तन के सहारे जो उपयुक्त है, उसे अपनाने और जो अनुपयुक्त है, उसे बुहार फेंकने तक का साहस जुटा सकें। यह परावलम्बन यदि छोड़ते बन पड़े, तो मनुष्य का उपयुक्तता को अपनाने का साहस भीतर से ही उठ सकता है और ‘‘एकला चलो रे’’ का गीत गुनगुनाते हुए उपर्युक्त तीनों क्षेत्रों में निहाल कर सकने वाली सम्पदा उपार्जित कर सकता है।
🔵 आज की सबसे बड़ी, सबसे भयावह समस्या एक ही है, मानवी चेतना का परावलम्बन, अन्त:स्फुरणा का मूर्छाग्रस्त होना, औचित्य को समझ न पाना और कँटीली झाड़ियों में भटक जाना। अगले दिन इस स्थिति से उबरने के हैं। उज्ज्वल भविष्य की समस्त सम्भावनाएँ इसी आधार पर विनिर्मित होंगी। अगले दिनों लोग दीन-हीन मनो-मलीन उद्विग्न-विक्षिप्त स्थिति में रहना स्वीकार न करेंगे। सभी आत्मावलम्बी होंगे और किसी एक पुरुषार्थ को अपनाकर ओजस्वी, तेजस्वी, वर्चस्वी बन सकने में पूरी तरह सफल होंगे। वातावरण मनुष्य को बनाता है, यह उक्ति गये गुजरें लोगों पर ही लागू होती है। वास्तविकता यह है कि आत्मबल के धनी, अपनी सङ्कल्प-शक्ति और प्रतिभा के सहारे अभीष्ट वातावरण बना सकने में पूरी तरह सफल होते हैं।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 युग परिवर्तन (भाग 1)
👉 युग ऋषि की अमृतवाणी
🔴 थोड़ी सी बातें ऐसी, जो आपको गाँठ बाँध करके रखनी चाहिए और कभी भूलना नहीं चाहिये। इसको आप गाँठ बाँध करके रखना, कभी भूलना मत। एक बात मुझे आपसे ये कहनी थी, आप एक विशेष उद्देश्य को लेकर के, विशेष प्रयोजन के लिये, इस विशेष समय पर पैदा हुए हैं। ये युग के परिवर्तन की वेला है। आपको दिखाई तो नहीं पड़ता, पर मैं आपको कह सकता हूँ और मुझे कहना चाहिये। आप जिस समय में पैदा हुए हैं, ये साधारण समय नहीं है, असाधारण समय है। इस समय में युग तेजी के साथ में बदल रहा है। आपने देखा नहीं, किस तरीके से परिवर्तन विश्व की समस्याओं में बदलते हुए जा रहे हैं? विज्ञान की प्रगति को आप देख नहीं रहे क्या? ऐसी-ऐसी चीजें बनती हुई चली जा रही हैं। एक किरण-एक्स रे के तरीके से, एक्स-रे की किरण फेंकी जाती है।
🔵 किरण फेंकी जाय, न गैस फेंकने की जरूरत है, न कुछ फेंकने की जरूरत है, सारे का सारा इलाका जो मनुष्य रह रहा है, वहाँ बैठे के बैठे रह जायेंगे, उठे के उठे रह जायेंगे, चलने-फिरने के लिये कोई मौका नहीं आयेगा। ऐसे-ऐसे वैज्ञानिक हथियार तैयार हो रहे हैं, जो दुनिया का सफाया करना हो तो बहुत जल्दी सफाया हो सकता है। विनाश की दिशा में विज्ञान के बढ़ते हुए चरण जिस तेजी से बढ़ रहे हैं, अगर चाहे तो एक खराब दिमाग का मनुष्य सारी दुनिया को इस सुन्दर वाले भूमण्डल को, जिसको बनाने में लाखों वर्षों तक मनुष्य को श्रम करना पड़ा, इसका सफाया किया जा सकता है। आज ऐसा वक्त है। इन्सान जितना घटिया होता चला जाता है, उतना घटिया आदमी पहले कभी नहीं हुआ था।
🔴 दुनिया के पर्दे में, इतिहास ये बताता है कि मनुष्य इतना घटिया आदमी कभी नहीं हुआ। आदमी समझदारी के हिसाब से बढ़ रहा है, विद्या उसके पास ज्यादा आ रही है, समझदारी उसके पास ज्यादा आ रही है, पैसा उसके पास ज्यादा आ रहा है, अच्छे मकान ज्यादा आ रहे हैं, सब चीज ज्यादा आ रही है, पर ईमान के हिसाब से और दृष्टिकोण के हिसाब से आदमी इतना कमजोर, इतना घटिया, इतना स्वार्थी, इतना चालाक, इतना बेईमान, इतना कृपण, इतना ठग होता हुआ चला जा रहा है, कि मुझे शक है कि आदमी की यही ठगी, यही कृपणता और यही स्वार्थपरता, जो आज हमारे और आपके ऊपर हावी हो गई है।
🔵 इसी हिसाब से, इसी क्रम से, चाल से चली तो एक आदमी, दूसरे आदमी को जिंदा निगल जायेगा। आदमी को अपनी छाया पर विश्वास नहीं रहेगा कि ये मेरी छाया है कि नहीं और ये मेरी छाया मेरी सहायता करेगी कि नहीं। आज ऐसी ही विचित्र स्थिति है बेटे! हम कुछ कह नहीं सकते। जैसी दुनिया की विचित्र स्थिति है, भयानकता, आज हमारे सामने खड़ी है। युग का एक पक्ष विनाश के लिये मुँह फाड़कर खड़ा है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/amart_vachan_jivan_ke_sidha_sutra/yug_parivartan
🔴 थोड़ी सी बातें ऐसी, जो आपको गाँठ बाँध करके रखनी चाहिए और कभी भूलना नहीं चाहिये। इसको आप गाँठ बाँध करके रखना, कभी भूलना मत। एक बात मुझे आपसे ये कहनी थी, आप एक विशेष उद्देश्य को लेकर के, विशेष प्रयोजन के लिये, इस विशेष समय पर पैदा हुए हैं। ये युग के परिवर्तन की वेला है। आपको दिखाई तो नहीं पड़ता, पर मैं आपको कह सकता हूँ और मुझे कहना चाहिये। आप जिस समय में पैदा हुए हैं, ये साधारण समय नहीं है, असाधारण समय है। इस समय में युग तेजी के साथ में बदल रहा है। आपने देखा नहीं, किस तरीके से परिवर्तन विश्व की समस्याओं में बदलते हुए जा रहे हैं? विज्ञान की प्रगति को आप देख नहीं रहे क्या? ऐसी-ऐसी चीजें बनती हुई चली जा रही हैं। एक किरण-एक्स रे के तरीके से, एक्स-रे की किरण फेंकी जाती है।
🔵 किरण फेंकी जाय, न गैस फेंकने की जरूरत है, न कुछ फेंकने की जरूरत है, सारे का सारा इलाका जो मनुष्य रह रहा है, वहाँ बैठे के बैठे रह जायेंगे, उठे के उठे रह जायेंगे, चलने-फिरने के लिये कोई मौका नहीं आयेगा। ऐसे-ऐसे वैज्ञानिक हथियार तैयार हो रहे हैं, जो दुनिया का सफाया करना हो तो बहुत जल्दी सफाया हो सकता है। विनाश की दिशा में विज्ञान के बढ़ते हुए चरण जिस तेजी से बढ़ रहे हैं, अगर चाहे तो एक खराब दिमाग का मनुष्य सारी दुनिया को इस सुन्दर वाले भूमण्डल को, जिसको बनाने में लाखों वर्षों तक मनुष्य को श्रम करना पड़ा, इसका सफाया किया जा सकता है। आज ऐसा वक्त है। इन्सान जितना घटिया होता चला जाता है, उतना घटिया आदमी पहले कभी नहीं हुआ था।
🔴 दुनिया के पर्दे में, इतिहास ये बताता है कि मनुष्य इतना घटिया आदमी कभी नहीं हुआ। आदमी समझदारी के हिसाब से बढ़ रहा है, विद्या उसके पास ज्यादा आ रही है, समझदारी उसके पास ज्यादा आ रही है, पैसा उसके पास ज्यादा आ रहा है, अच्छे मकान ज्यादा आ रहे हैं, सब चीज ज्यादा आ रही है, पर ईमान के हिसाब से और दृष्टिकोण के हिसाब से आदमी इतना कमजोर, इतना घटिया, इतना स्वार्थी, इतना चालाक, इतना बेईमान, इतना कृपण, इतना ठग होता हुआ चला जा रहा है, कि मुझे शक है कि आदमी की यही ठगी, यही कृपणता और यही स्वार्थपरता, जो आज हमारे और आपके ऊपर हावी हो गई है।
🔵 इसी हिसाब से, इसी क्रम से, चाल से चली तो एक आदमी, दूसरे आदमी को जिंदा निगल जायेगा। आदमी को अपनी छाया पर विश्वास नहीं रहेगा कि ये मेरी छाया है कि नहीं और ये मेरी छाया मेरी सहायता करेगी कि नहीं। आज ऐसी ही विचित्र स्थिति है बेटे! हम कुछ कह नहीं सकते। जैसी दुनिया की विचित्र स्थिति है, भयानकता, आज हमारे सामने खड़ी है। युग का एक पक्ष विनाश के लिये मुँह फाड़कर खड़ा है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/amart_vachan_jivan_ke_sidha_sutra/yug_parivartan
👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 97)
🌹 आदर्श विवाहों के लिए 24 सूत्री योजना
🔴 (8) लोक सेवी युग-निर्माता की धर्म सेवा— संसार में जितने भी महत्वपूर्ण जन-आन्दोलन चले और सफल हुए हैं उनके पीछे भावनाशील, उच्च चरित्र, आदर्शवादी लोक सेवकों की शक्ति ही प्रधान आधार रही है। इस बल के अभाव में अन्य साधन कितने ही अधिक होने पर भी कोई बड़ा काम, खास तौर से नव-निर्माण जैसा महान अभियान सफल नहीं हो सकता। इसलिए हमें इस बात का घोर प्रयत्न करना होगा कि कुछ व्यक्ति भजन करके स्वर्ग प्राप्ति के लिए लाल कपड़े वाले बाबाजी नहीं वरन् युग रचना के लिए जनता जनार्दन की आराधना करने वाले विवेकशील त्यागी तपस्वी लोग कर्म क्षेत्र में उतरें और भौतिक एकताओं से ऊंचे उठकर सच्चे महामानवों की तरह अपनी हस्ती विश्व मंगल के लिए लगा दें।
🔵 जिनके बच्चे समर्थ होकर कमाने खाने लगे हैं, जिनके ऊपर ईश्वर की कृपा से ही कमाने की या बच्चों की जिम्मेदारी नहीं है वे वानप्रस्थ की तरह अपने घर रहते हुए भी अपने क्षेत्र में प्रकाश स्तम्भ की तरह काम कर सकते हैं। जिनके ऊपर पारिवारिक जिम्मेदारियां हैं वे भी अवकाश का थोड़ा बहुत समय समाज सेवा के लिए लगा सकते हैं। इन समयदानी लगनशील लोगों के भागीरथ प्रयत्नों से ही आदर्श विवाहों की प्रथा का प्रचलन सम्भव हो सकेगा।
🔴 युग-निर्माण योजना के सदस्यों को इस धर्म-सेना में सम्मिलित होना चाहिए। इस सेना में भर्ती की शर्त लोक मंगल के लिए नियमित रूप से समय दान करने लगना है। जो पारिवारिक जिम्मेदारियों से निवृत्त हैं उनका धर्म कर्तव्य यह है कि लोक और मोह के बन्धनों को काट कर जनता जनार्दन की सेवा के लिए एक सच्चे तपस्वी की तरह काम करने का व्रत धारण करलें। जिनके पास बहुत जिम्मेदारियां हैं वे भी एक दो घण्टे का समय तो नित्य लगा ही सकते हैं। अपना काम काज करते हुए भी सम्पर्क में आने वाले व्यक्तियों को इस मिशन की प्रेरणा दे सकते हैं। छुट्टी का पूरा दिन इस कार्य के लिए दे सकते हैं।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 (8) लोक सेवी युग-निर्माता की धर्म सेवा— संसार में जितने भी महत्वपूर्ण जन-आन्दोलन चले और सफल हुए हैं उनके पीछे भावनाशील, उच्च चरित्र, आदर्शवादी लोक सेवकों की शक्ति ही प्रधान आधार रही है। इस बल के अभाव में अन्य साधन कितने ही अधिक होने पर भी कोई बड़ा काम, खास तौर से नव-निर्माण जैसा महान अभियान सफल नहीं हो सकता। इसलिए हमें इस बात का घोर प्रयत्न करना होगा कि कुछ व्यक्ति भजन करके स्वर्ग प्राप्ति के लिए लाल कपड़े वाले बाबाजी नहीं वरन् युग रचना के लिए जनता जनार्दन की आराधना करने वाले विवेकशील त्यागी तपस्वी लोग कर्म क्षेत्र में उतरें और भौतिक एकताओं से ऊंचे उठकर सच्चे महामानवों की तरह अपनी हस्ती विश्व मंगल के लिए लगा दें।
🔵 जिनके बच्चे समर्थ होकर कमाने खाने लगे हैं, जिनके ऊपर ईश्वर की कृपा से ही कमाने की या बच्चों की जिम्मेदारी नहीं है वे वानप्रस्थ की तरह अपने घर रहते हुए भी अपने क्षेत्र में प्रकाश स्तम्भ की तरह काम कर सकते हैं। जिनके ऊपर पारिवारिक जिम्मेदारियां हैं वे भी अवकाश का थोड़ा बहुत समय समाज सेवा के लिए लगा सकते हैं। इन समयदानी लगनशील लोगों के भागीरथ प्रयत्नों से ही आदर्श विवाहों की प्रथा का प्रचलन सम्भव हो सकेगा।
🔴 युग-निर्माण योजना के सदस्यों को इस धर्म-सेना में सम्मिलित होना चाहिए। इस सेना में भर्ती की शर्त लोक मंगल के लिए नियमित रूप से समय दान करने लगना है। जो पारिवारिक जिम्मेदारियों से निवृत्त हैं उनका धर्म कर्तव्य यह है कि लोक और मोह के बन्धनों को काट कर जनता जनार्दन की सेवा के लिए एक सच्चे तपस्वी की तरह काम करने का व्रत धारण करलें। जिनके पास बहुत जिम्मेदारियां हैं वे भी एक दो घण्टे का समय तो नित्य लगा ही सकते हैं। अपना काम काज करते हुए भी सम्पर्क में आने वाले व्यक्तियों को इस मिशन की प्रेरणा दे सकते हैं। छुट्टी का पूरा दिन इस कार्य के लिए दे सकते हैं।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 45)
🌹 गुरुदेव का प्रथम बुलावा-पग-पग पर परीक्षा
🔴 वहीं बहते निर्झर में स्नान किया। संध्या वंदन भी। जीवन में पहली बार ब्रह्म कमल और देवकमल देखा। ब्रह्मकमल ऐसा जिसकी सुगंध थोड़ी देर में ही नींद कहें या योग निद्रा ला देती है। देवकंद वह जो जमीन में शकरकंद की तरह निकलता है। सिंघाड़े जैसे स्वाद का। पका होने पर लगभग पाँच सेर का, जिससे एक सप्ताह तक क्षुधा निवारण का क्रम चल सकता है। गुरुदेव के यही दो प्रथम प्रत्यक्ष उपहार थे। एक शारीरिक थकान मिटाने के लिए और दूसरा मन में उमंग भरने के लिए।
🔵 इसके बाद तपोवन पर दृष्टि दौड़ाई। पूरे पठार पर मखमली फूलदार गलीचा सा बिछा हुआ था। तब तक भारी बर्फ नहीं पड़ी थी। जब पड़ती है, तब यह फूल सभी पककर जमीन पर फैल जाते हैं, अगले वर्ष उगने के लिए।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/hari/gur.3
🔴 वहीं बहते निर्झर में स्नान किया। संध्या वंदन भी। जीवन में पहली बार ब्रह्म कमल और देवकमल देखा। ब्रह्मकमल ऐसा जिसकी सुगंध थोड़ी देर में ही नींद कहें या योग निद्रा ला देती है। देवकंद वह जो जमीन में शकरकंद की तरह निकलता है। सिंघाड़े जैसे स्वाद का। पका होने पर लगभग पाँच सेर का, जिससे एक सप्ताह तक क्षुधा निवारण का क्रम चल सकता है। गुरुदेव के यही दो प्रथम प्रत्यक्ष उपहार थे। एक शारीरिक थकान मिटाने के लिए और दूसरा मन में उमंग भरने के लिए।
🔵 इसके बाद तपोवन पर दृष्टि दौड़ाई। पूरे पठार पर मखमली फूलदार गलीचा सा बिछा हुआ था। तब तक भारी बर्फ नहीं पड़ी थी। जब पड़ती है, तब यह फूल सभी पककर जमीन पर फैल जाते हैं, अगले वर्ष उगने के लिए।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/hari/gur.3
👉 "सुनसान के सहचर" (भाग 45)
🌞 हिमालय में प्रवेश (सुनसान की झोंपड़ी)
🔵 मस्तिष्क ने अब दार्शनिक ढंग से सोचना आरम्भ कर दिया—स्वार्थी लोग अपने आपको अकेला मानते हैं, अकेले के लाभ हानि की ही बात सोचते हैं, उन्हें अपना कोई नहीं दीखता, इसलिए वे सामूहिक के आनन्द से वंचित रहते हैं। उनका अन्तिम सूने मरघट की तरह सांय-सांय करता रहता है। ऐसे अनेकों परिचित व्यक्तियों के जीवन चित्र सामने आ खड़े हुए जिन्हें धन-वैभव की, श्री समृद्धि की कमी नहीं, पर स्वार्थ सीमित होने के कारण सभी उन्हें पराये लगते हैं, सभी की उन्हें शिकायत और कष्ट है।
🔴 विचार प्रवाह अपनी दिशा में तीव्र गति से दौड़ा चला जा रहा था। लगता था वह सूनेपन को अनुपयुक्त ही नहीं हानिकर और कष्टदायक भी सिद्ध करके छोड़ेगा। तब अभिरुचि अपना प्रस्ताव उपस्थित करेगी—इस मूर्खता में पड़े रहने से क्या लाभ? अकेले में रहने की अपेक्षा जन-समूह में रह कर ही जो काम्य है, वह सब क्यों न प्राप्त किया जाय?
🔵 विवेक ने मन की गलत दौड़ को पहचाना और कहा—यदि सूनापन ऐसा ही अनुपयुक्त होता तो ऋषि और मुनि, साधक और सिद्ध, विचारक और वैज्ञानिक क्यों उसे खोजते? क्यों उस वातावरण में रहते? यदि एकान्त में कोई महत्व न होता, तो समाधि-सुख और आत्म-दर्शन के लिये उसकी तलाश क्यों होती? स्वाध्याय और चिन्तन के लिए, तप और ध्यान के लिए क्यों सूनापन ढूंढ़ा जाता? दूरदर्शी महापुरुषों का मूल्यवान् समय क्यों उस असुखकर अकेलेपन में व्यतीत होता?
🔴 लगाम खींचने पर जैसे घोड़ा रुक जाता है उसी प्रकार वह सूनेपन को कष्ट कर सिद्ध करने वाला विचार प्रवाह भी रुक गया। निष्ठा ने कहा—एकान्त साधना की आत्म-प्रेरणा असत् नहीं हो सकती। निष्ठा ने कहा—जो शक्ति इस मार्ग पर खींच लाई है, वह गलत मार्ग-दर्शन नहीं कर सकती। भावना ने कहा—जीव अकेला आता है, अकेला जाता है, अकेला ही अपनी शरीर रूपी कोठरी में बैठा रहता है, क्या इस निर्धारित एकान्त विधान में उसे कुछ असुखकर प्रतीत होता है? सूर्य अकेला चलता है, चन्द्रमा अकेला उदय होता है, वायु अकेला बहती है। इसमें उन्हें कुछ कष्ट है?
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔵 मस्तिष्क ने अब दार्शनिक ढंग से सोचना आरम्भ कर दिया—स्वार्थी लोग अपने आपको अकेला मानते हैं, अकेले के लाभ हानि की ही बात सोचते हैं, उन्हें अपना कोई नहीं दीखता, इसलिए वे सामूहिक के आनन्द से वंचित रहते हैं। उनका अन्तिम सूने मरघट की तरह सांय-सांय करता रहता है। ऐसे अनेकों परिचित व्यक्तियों के जीवन चित्र सामने आ खड़े हुए जिन्हें धन-वैभव की, श्री समृद्धि की कमी नहीं, पर स्वार्थ सीमित होने के कारण सभी उन्हें पराये लगते हैं, सभी की उन्हें शिकायत और कष्ट है।
🔴 विचार प्रवाह अपनी दिशा में तीव्र गति से दौड़ा चला जा रहा था। लगता था वह सूनेपन को अनुपयुक्त ही नहीं हानिकर और कष्टदायक भी सिद्ध करके छोड़ेगा। तब अभिरुचि अपना प्रस्ताव उपस्थित करेगी—इस मूर्खता में पड़े रहने से क्या लाभ? अकेले में रहने की अपेक्षा जन-समूह में रह कर ही जो काम्य है, वह सब क्यों न प्राप्त किया जाय?
🔵 विवेक ने मन की गलत दौड़ को पहचाना और कहा—यदि सूनापन ऐसा ही अनुपयुक्त होता तो ऋषि और मुनि, साधक और सिद्ध, विचारक और वैज्ञानिक क्यों उसे खोजते? क्यों उस वातावरण में रहते? यदि एकान्त में कोई महत्व न होता, तो समाधि-सुख और आत्म-दर्शन के लिये उसकी तलाश क्यों होती? स्वाध्याय और चिन्तन के लिए, तप और ध्यान के लिए क्यों सूनापन ढूंढ़ा जाता? दूरदर्शी महापुरुषों का मूल्यवान् समय क्यों उस असुखकर अकेलेपन में व्यतीत होता?
🔴 लगाम खींचने पर जैसे घोड़ा रुक जाता है उसी प्रकार वह सूनेपन को कष्ट कर सिद्ध करने वाला विचार प्रवाह भी रुक गया। निष्ठा ने कहा—एकान्त साधना की आत्म-प्रेरणा असत् नहीं हो सकती। निष्ठा ने कहा—जो शक्ति इस मार्ग पर खींच लाई है, वह गलत मार्ग-दर्शन नहीं कर सकती। भावना ने कहा—जीव अकेला आता है, अकेला जाता है, अकेला ही अपनी शरीर रूपी कोठरी में बैठा रहता है, क्या इस निर्धारित एकान्त विधान में उसे कुछ असुखकर प्रतीत होता है? सूर्य अकेला चलता है, चन्द्रमा अकेला उदय होता है, वायु अकेला बहती है। इसमें उन्हें कुछ कष्ट है?
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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