खुली, धूप, ताजी हवा और अंग संचालन के आवश्यक शारीरिक परिश्रम का अभाव साधन सम्पन्न लोगों की थकान का मुख्य कारण है। इसके लिये बाहर से बहुत आकर्षक लगने वाले दफ्तर वास्तव में बहुत ही खतरनाक हैं। वातानुकूलित करने जरा-सी गर्मी में पंखों की तेज चाल- कूलर- खश के पर्दे, बर्फ मिला पानी- जाड़े में हीटर- गरम चाय- ऊनी कपड़ों का कसाव देखने में बड़े आदमी होने का चिह्न लगाते हैं और तात्कालिक सुविधा भी देते हैं पर इनका परिणाम अन्ततः बहुत बुरा होता है। त्वचा अपनी सहन शक्ति खो बैठती है। अवयवों में प्रतिकूलता से लड़ने की क्षमता घट जाती है। फलस्वरूप ऋतु प्रभाव को सहन न कर पाने से आये दिन जुकाम, खाँसी, लू लगना, ताप, सिर दर्द, अनिद्रा, अपच जैसी शिकायतें समाने खड़ी रहती हैं। सूर्य की किरणें और स्वच्छ हवा में जो प्रचुर परिमाण में जीवन तत्व भरे पड़े हैं उनसे वञ्चित रहा जाय तो उसकी पूर्ति ‘विटामिन, मिनिरल और प्रोटीन’ भरे खाद्य पदार्थों की प्रचुर मात्रा भी नहीं कर सकती। साधन सम्पन्न लोग ही तात्कालिक सुविधा देखते हैं और दूरगामी क्षति को भूल जाते हैं। फलतः वह आरामतलबी का रवैया बहुत भारी पड़ता है और थकान तथा उससे उत्पन्न अनेक विग्रहों का सामना करना पड़ता है।
म्यूनिख (जर्मनी) की वावेरियन एकेडमी आफ लेवर एण्ड सोशल येडीशन संस्था की शोधों का निष्कर्ष यह है कि कठोर शारीरिक श्रम करने वाले मजदूरों की अपेक्षा दफ्तरों की बाबूगीरी स्वास्थ्य की दृष्टि से अधिक खतरनाक है।
स्वास्थ्य परीक्षण- तुलनात्मक अध्ययन आँकड़ों के निष्कर्ष और शरीर रचना तथ्यों को सामने रखकर शोध कार्य करने वाली इस संस्था के प्रमुख अधिकारी श्री एरिफ हाफमैन का कथन है कि कुर्सियों पर बैठे रहकर दिन गुजारना अन्य दृष्टियों से उपयोगी हो सकता है पर स्वास्थ्य की दृष्टि से सर्वथा हानिकारक है। इससे माँस पेशियों के ऊतकों एवं रक्त वाहिनियों को मिली हुई स्थिति में रहना पड़ता है, वे समुचित श्रम के अभाव में शिथिल होती चली जाती है फलतः उनमें थकान और दर्द की शिकायत उत्पन्न होती है। रक्त के नये उभार में, उठती उम्र में यह हानि उतनी अधिक प्रतीत नहीं होती पर जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है वैसे वैसे आन्तरिक थकान के लक्षण बाहर प्रकट होने लगते हैं और उन्हें कई बुरी बिमारियों के रूप में देखा जा सकता है। कमर का दर्द (लेवैगो), कूल्हे का दर्द (साइटिका) गर्दन मुड़ने में कंधा उचकाने में दर्द, शिरा स्फीति (वेरी कजोवेन्स), बवासीर, स्थायी कब्ज, आँतों के जख्म, दमा जैसी बीमारियों के मूल में माँस पेशियों और रक्त वाहिनियों की निर्बलता ही होती है, जो अंग सञ्चालन, खुली धूप और स्वच्छ हवा के अभाव में पैदा होती है। इन उभारों को पूर्व रूप की थकान समझा जा सकता है।
बिजली की तेज रोशनी में लगातार रहना, आँखों पर ही नहीं आन्तरिक अवयवों पर भी परोक्ष रूप से बुरा प्रभाव डालता है। आँखें एक सीमा तक ही प्रकाश की मात्रा को ग्रहण करने के हिसाब से बनी हैं। प्रकृति ने रात्रि के अन्धकार को आँखों की सुविधा के हिसाब से ही बनाया है। प्रातः सायं भी मन्द प्रकाश रहता है। उसमें तेजी सिर्फ मध्याह्न काल को ही आती है। सो भी लोग उससे टोप, छाया, छाता, मकान आदि के सहारे बचाव कर लेते हैं। आंखें सिर्फ देखने के ही काम नहीं आतीं वे प्रकाश की अति प्रबल शक्ति को भी उचित मात्रा में शरीर में भेजने की अनुचित मात्रा को रोकने का काम करती हैं। यह तभी सम्भव है जब उन पर प्रकाश का उचित दबाव रहे पर यदि दिन रात उन्हें तेज रोशनी में काम करना पड़े तो देखने की शक्ति में विकार उत्पन्न होना तो छोटी बात है। बड़ी हानि यह है कि प्रकाश की अनुचित मात्रा देह में भीतर जाकर ऐसी दुर्बलता पैदा करती है जिससे थकान ही नहीं कई अन्य प्रकार की तत्सम्बन्धित बीमारियाँ भी पैदा होती हैं।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर 1972