🔶 चुनाव दो में से एक का करना है। निकृष्ट विचार रखकर घिनौना जीवन जिया जाय, संकीर्ण स्वार्थपरता की सड़ी कीचड़ में कुलबुलाते-तिलमिलाते कीड़ों जैसा शिश्नोदर परायण बना जाय या फिर उत्कृष्ट स्तर की विचारणा अपनाकर सादगी का सौम्य सात्विक निस्पृह रहकर महानता को वरण किया जाय। दोनों में मौलिक अन्तर एक ही है। निकृष्टता आरम्भ में आकर्षक लगती है किन्तु परिणाम की दृष्टि से विघातक, विष जैसी कष्ट दायक सिद्ध होती है। इसके विपरीत उत्कृष्टता का मार्ग है जिसका आरम्भ बीज की तरह गलने जैसा होता है किन्तु कुछ समय उपरान्त, अंकुरित होने, लहलहाने एवं फूलने-फलने के अवसर निश्चित रूप में उपलब्ध होने लगते हैं। अदूरदर्शी तात्कालिक आकर्षण के लिए आतुर होते है और आटे के लोभ में गला फँसाकर बेमौत मरने वाली मछली का उदाहरण बनते हैं। दूसरे वे है जो किसान माली, विद्यार्थी या व्यवसायी की तरह अपनी श्रम साधना सत्प्रयोजन के लिए लगाते और अन्ततः बहुमूल्य फसल से अपने कोठे भरते हैं।
🔷 सादा जीवन उच्च विचार का राजमार्ग हर किसी के लिए श्रेयस्कर है। उसमें आवश्यकताओं और सुविधाओं पर इतना अंकुश लगाना पड़ता है, जिसमें शरीर को मात्र औसत नागरिक जितनी व्यवस्था जुट सके। वैयक्तिक आकाँक्षाओं को इतना ही स्वल्प एवं सीमित रहना चाहिए ताकि संसार में जितने साधन हैं उन्हें मिल बाँटकर खाया जा सके। हर किसी के हिस्से में गुजारे जितना आ सके। ऊँची दीवार उठाने के लिए कहीं न कहीं गड्ढा करना पड़ता है। अमीर बनने में, विलास वैभव जुटाने में जिस सम्पदा की आवश्यकता पड़ती है उसका संचय बिना दूसरों का रक्त पीये अपनी कोठी तिजोरी की शोभा बढ़ाने के लिए जमा हो ही नहीं सकती।
🔶 जो अधिक उपार्जन करने योग्य हैं उनके ऊपर एक अतिरिक्त उत्तरदायित्व यह आता है कि सादगी से गुजारा करने के उपरान्त जो बचता है उसे सत्प्रयोजनों के लिए हाथों हाथ लौटा दें। वरिष्ठता के बदले श्रेय मिलने का सौभाग्य ही पर्याप्त है। उपार्जन अभिवर्धन की, कौशल व्यवस्था और सूझबूझ की विशेषता का प्रतिफल इतना ही हो सकता है कि उन्हें सराहा, सम्मानित किया और श्रेय दिया जाय। इसके बदले उन्हें अधिक सम्पदा सुविधाओं जैसे लाभों की न तो माँग ही करनी चाहिए और न वैसा कुछ उन पर लादकर गरिमा का अपहरण ही होना चाहिए।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(गुरुदेव के बिना पानी पिए लिखे हुए फोल्डर-पत्रक से)
🔷 सादा जीवन उच्च विचार का राजमार्ग हर किसी के लिए श्रेयस्कर है। उसमें आवश्यकताओं और सुविधाओं पर इतना अंकुश लगाना पड़ता है, जिसमें शरीर को मात्र औसत नागरिक जितनी व्यवस्था जुट सके। वैयक्तिक आकाँक्षाओं को इतना ही स्वल्प एवं सीमित रहना चाहिए ताकि संसार में जितने साधन हैं उन्हें मिल बाँटकर खाया जा सके। हर किसी के हिस्से में गुजारे जितना आ सके। ऊँची दीवार उठाने के लिए कहीं न कहीं गड्ढा करना पड़ता है। अमीर बनने में, विलास वैभव जुटाने में जिस सम्पदा की आवश्यकता पड़ती है उसका संचय बिना दूसरों का रक्त पीये अपनी कोठी तिजोरी की शोभा बढ़ाने के लिए जमा हो ही नहीं सकती।
🔶 जो अधिक उपार्जन करने योग्य हैं उनके ऊपर एक अतिरिक्त उत्तरदायित्व यह आता है कि सादगी से गुजारा करने के उपरान्त जो बचता है उसे सत्प्रयोजनों के लिए हाथों हाथ लौटा दें। वरिष्ठता के बदले श्रेय मिलने का सौभाग्य ही पर्याप्त है। उपार्जन अभिवर्धन की, कौशल व्यवस्था और सूझबूझ की विशेषता का प्रतिफल इतना ही हो सकता है कि उन्हें सराहा, सम्मानित किया और श्रेय दिया जाय। इसके बदले उन्हें अधिक सम्पदा सुविधाओं जैसे लाभों की न तो माँग ही करनी चाहिए और न वैसा कुछ उन पर लादकर गरिमा का अपहरण ही होना चाहिए।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(गुरुदेव के बिना पानी पिए लिखे हुए फोल्डर-पत्रक से)