मंगलवार, 9 अक्टूबर 2018

👉 आत्मिक प्रगति का स्वर्णिम अवसरः प्रस्तुत नवरात्रि पर्व

🔶 साधना तत्वदर्शन को जानने की इच्छा रखने वाले हर जिज्ञासु को इस अटल तथ्य को भली-भाँति समझ लेना चाहिये कि जीवन साधना– ईश्वराधना हेतु किसी मुहूर्त्त की प्रतीक्षा नहीं की जाती। इन सिद्धान्तों को तो जितना शीघ्र जीवन में उतारा जाय उतना ही उत्तम है, परन्तु क्रमबद्ध रूप से उच्चस्तरीय सोपानों पर चढ़ने वालों को प्रकृति समय विशेषों की महत्ता जानना जरूरी है। उन दिनों आरम्भ किये गये प्रयास संकल्पबल के सहारे शीघ्र ही गति पाते व साधक का वर्चस् बढ़ाते चले जाते हैं। कालचक्र के सूक्ष्म ज्ञाताओं ने प्रकृति के अन्तराल में चल रहे विशिष्ट उभारो को दृष्टिगत रख ही ऋतुओं के मिलन काल की संधिबेला को आश्विन और चैत्र की नवरात्रियों को महत्ता दी है।

🔷 इन दिनों सूक्ष्म जगत से दैवी प्रेरणाएँ अनुदान रूप में बरसती हैं और सुसंस्कारी जागृत आत्माएँ अपने भीतर समुद्र-मन्थन जैसी हलचलें इन दिनों उभरती देखते हैं। इन उमंगों का सुनियोजन का सकने वाली बहुमूल्य रत्न-राशि उपलब्ध करते हैं और कृतकृत्य होते हैं। यों ईश्वरीय अनुग्रह सत्पात्रों पर सर्वदा ही बरसता है, पर ऐसे अवसरों पर बिना अधिक पुरुषार्थ के अधिक लाभान्वित होने का अवसर मिल जाता है। इसी कारण नवरात्रि पर्वों को अध्यात्म विज्ञान में अत्यधिक महत्व दिया जाता है।

🔶 रात्रि और दिन का मिलन प्रातःकालीन और सायंकालीन ‘संध्या’ नाम से प्रख्यात है। मिलन की बेला हर क्षेत्र में उल्लास से भरी होती हैं। मित्रों का मिलन, प्रणय मिलन, आकाँक्षाओं और सफलताओं का मिलन कितना सुखद होता है, सभी जानते हैं। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि आत्मा और परमात्मा का मिलन कितना तृप्तिदायक–आनन्द देने वाला होगा। जैसे ही पुराना वर्ष बीतता है, व नया आता है–नये उल्लास से नव वर्ष मनाया जाता है। कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष के परिवर्तन के दो दिन अमावस्या एवं पूर्णिमा पर्वों के नाम से जाने जाते हैं। अधिकाँश पर्व इसी सन्धि बेला में मनाये जाते हैं। दीपावली, होली, गुरुपूर्णिमा, श्रावणी, हरियाली अमावस्या, शरदपूर्णिमा जैसे प्रधान-प्रधान पर्व इन्हीं ऋतु संध्याओं में आते हैं।

🔷 जब भी ऋतु परिवर्तन होता है–चैत्र में मौसम ठण्डक से बदलकर गर्मी का रूप ले लेता है और आश्विन में गर्मी से ठण्ड का। वैसे इस परिवर्तन में समय तो क्रमिक गति से अधिक लगता है, परन्तु इन नौ दिन विशेषों में प्रकृति का सूक्ष्म अन्तराल व मानवी काया का सूक्ष्म कलेवर एक विशिष्ट परिवर्तन क्रिया से गुजरता है। शरीर में ज्वार-भाटे जैसी हलचलें उत्पन्न होती हैं और जीवनीशक्ति पूरी प्रबलता से देह में जमी विकृतियों को हटाने के लिये तूफानी संघर्ष करती हैं। वैद्यगण इसे लाक्षणिक उभार काल कहते हैं। बहुधा बीमारियाँ इन्हीं समयों पर अधिक होती हैं और शरीर शोधन-विरेचन के उपचार इन दिनों करायें जाने पर विशेष सफल होते हैं। काया-कल्प के विभिन्न प्रयोगों के लिये भी सन्धिकाल की इसी अवधि की प्रतीक्षा करते हैं।

🔶 नवरात्रियों को देवत्व के धरती पर उतरने का, जागृतात्माओं में देवी प्रेरणा फूँकने वाला समय माना गया है। इन अवसरों पर देव प्रकृति की साधना परायण आत्माएँ अदृश्य प्रेरणा शक्ति से बरबस प्रेरित हो आत्मकल्याण व लोक-मंगल के क्रिया-कलापों में नियोजित हो जाती हैं। इन दिनों न केवल मानवी चेतना को प्रभावित करने वाली वरन् अनुकूलन उत्पन्न करने वाली परिस्थितियाँ भी अनायास ही बन जाती हैं। अन्य जीवधारियों में प्रजनन की उत्तेजना इस समय ही सताती है और वे गर्भाधान की क्रिया सम्पन्न करते हैं। सूत्र–संचालन तो कोई अदृश्य सत्ता ही करती है, प्राणीमात्र कठपुतली की भूमिका निभाते हैं। इन दिनों वातावरण प्रकृति इस प्रकार का बनता है कि आत्मिक प्रगति के लिये अन्तःप्रेरणा सहज ही उठने लगती है।

🔷 इस प्रकृति के दो ही गुण माने गये हैं–तम् और सत्। तम् अर्थात् जड़, सत् अर्थात् चेतन। दोनों अपनी स्थिति में पूर्ण हैं। पर जब इन दोनों का मिलन होता है, एक नई हलचल उठ खड़ी होती है जिसे रज कहते हैं। मनुष्य के अन्दर इच्छा, आकाँक्षा, भोग, तृप्ति, अहंता, संग्रह, हर्ष, स्पर्धा आदि चित्त को उद्विग्न किये रहने वाले और विविध बहिर्मुखी क्रिया कलापों में उलझाने वाले प्रवाह ‘रज’ की ही प्रतिक्रियाएँ हैं। साधना की आवश्यकता इस ‘रज’ के निविड़ बन्धनों से शरीर चेतना को मुक्त करने के लिये ही पड़ती है। तम से बना जड़ शरीर तो समय समाप्त होने पर नष्ट हो जाता है और उसे जलाकर उसके स्थूल स्वरूप की इतिश्री कर ली जाती है। चेतन आत्मा सत् का अंश है–ईश्वर का अंश होने से निर्मल है। मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार से बनी जड़ चेतन मिश्रित जीव चेतना ही हर घड़ी अशान्त बनी रहती है। इसी के परिमार्जन परिशोधन हेतु योग साधना एवं तपश्चर्या की जाती है और इसके लिये संध्याकाल की नवरात्रि बेला से श्रेष्ठ और कोई समय नहीं।

🔶 रज वस्तुतः सत् और तम् का सम्मिश्रण ही है जिसमें उत्पादन की अद्भुत शक्ति है। नारी का नारीत्व उसकी ‘रज’ चेतना पर ही टिका हुआ है। यही गर्भधारण और सृष्टि विस्तार का मूल आधार है। रज प्रधान ऋतुमती मार्दा ही गर्भधारण करती है। प्रकृति जगत में भी ऋतुएँ वर्ष में दो बार ऋतुमती होती हैं। सर्दी-गर्मी प्रधानतः दो ही ऋतुएँ हैं। वर्षा इनके बीच आँख-मिचौनी खेलती रहती हैं। दोनों प्रधान ऋतुओं का ऋतुकाल नौ-नौ दिन का होता है, इसी को नवरात्रि कहते हैं। इसी समय प्रकृति का रज तत्व भी अपने पूरे यौवन पर होता है।

🔷 उमँगें मनुष्य की स्व उपार्जित सम्पदा नहीं है। वे इन नवरात्रि के समय विशेषों में तो अविज्ञात उभार के दौर के रूप में विशेषतः सक्रिय पायी जाती हैं। इन दिनों चिन्तन ही नहीं, कर्म भी ऐसी दिशा विशेष में बढ़ने लगते हैं जिसकी किसी को कभी सम्भावना नहीं होती। युग सन्धि की बेला और उस पर भी नवरात्रि एक अप्रत्याशित अवसर–अपवाद के रूप में ही मानी जानी चाहिये। जो अवसर को पहचानते हैं, वे कभी चूकते नहीं। आत्मिक प्रगति की व्यवस्था बनाने व अन्तः की प्रगति हेतु आत्मिक पुरुषार्थ के लिए इस वर्ष की नवरात्रियाँ एक असामान्य अवसर के रूप में आयी हैं। इन दिनों वस्तुतः अदृश्य से अप्रत्याशित अनुदान बरसने व उससे व्यापक जन समूह के उससे लाभान्वित होने की आशा की जा सकती है, आवश्यकता मात्र यही है कि इस पुरुषार्थ से कोई भी नैष्ठिक साधक छूटने न पाये।

🔶 यों तो सारा समय ही भगवान का है, सभी दिन पवित्र हैं। शुभ कर्म करने के लिये हर घड़ी शुभमुहूर्त्त है और अशुभ कर्म के लिये अनेकानेक बन्धन बताये जा सकते हैं। सामान्य या विशेष किसी भी कालचक्र की प्रतिक्रिया से लाभ उठाना बुद्धिमत्ता ही माना जायेगा। बसन्त के दिनों में उस उत्सव के अनुरूप ही सूक्ष्म प्रवाह वातावरण में बह रहे होते हैं, अस्तु उनकी सहायता से यह पर्व मानने के लिये सभी की उल्लास मय मनःस्थिति अनायास ही बन जाती हैं।

🔷 मध्यकाल में तन्त्र प्रयोजनों की मान्यता अत्यधिक थी। अधिकाँश कर्मकाण्डों को–मन्त्र सफल बनाने की साधनाओं को तंत्रवेत्ता इन नवरात्रियों में ही सम्पन्न करते थे। वाममार्गी साधक अभी भी अभीष्ट इच्छापूर्ति हेतु इस अवसर की ही प्रतीक्षा करते हैं। सतोगुणी साधनाओं को अपनाने वाले–आत्मिक प्रगति के इच्छुक साधकों को तो इसे एक विशिष्ट अनुदान रूप में ही मानकर अपनी तप साधना का सुयोग बिठाना चाहिये। गायत्री साधना इस दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ है एवं आज के समय की आवश्यकता को देखते हुए तो अनिवार्य भी। प्रज्ञायोग के मर्म को जानने–समझने की रुचि रखने वालों को इस वर्ष की नवरात्रि की गायत्री साधना को पिछले कई वर्ष से मनाते-देखते चले आ रहे पर्वों से अलग व विशिष्टता मानकर चलना होगा। नवरात्रि साधना की विशिष्टता यह है कि यह संकल्पित साधना है। अनुष्ठान शब्द की परिभाषा यदि दी जाय तो वह इस प्रकार ही होगी–”अतिरिक्त आध्यात्मिक सामर्थ्य उत्पन्न करने के लिये संकल्पपूर्वक नियत प्रतिबन्धों और तपश्चर्याओं के साथ विशिष्ट उपासना।” ये सर्वसाधारण के लिये ही है। उपासना क्रम ऐसा है जिसका पालन कर सकना सर्वसुलभ हो– मन्त्रोपचार के किन्हीं भी पेचीदा विधि-विधानों का दबाव न हों। पुरश्चरण कड़े होते हैं और उन्हीं के लिये उपयुक्त पड़ते हैं जो पूरा समय–पूरा मनोयोग उसी कार्य में नियोजित रखे रह सकते हों व कड़ी तपश्चर्या का पालन कर सकते हों। इसी कारण लिये सर्व श्रेष्ठ है। लम्बे समय तक व्रत पालन करते रहने के लिये सुदृढ़ मनोबल चाहिये। संकल्प किसी बहाने से टूटे या उपेक्षापूर्वक चिन्ह पूजा की जाय इस से उत्तम यही है कि छोटे संकल्प लिए जायें। नियम यही ठीक है मनोभूमि में जितनी दृढ़ता हो उतना ही बड़ा संकल्प लिया जाय।

🔶 नियत दिनों में नियत जप संख्या, ब्रह्मचर्य व्रत पालन भोजन में उपवास तत्व का समावेश, जैसी स्थिति जिसमें अपनी शरीर सेवा दूसरों से कम से कम करायी जाय भूमिशयन-कमवस्त्र-चमड़े का परित्याग जैसी तितिक्षाएं, अन्त में हवन की पूर्णाहुति–ये अनुष्ठान की सामान्य मर्यादाएँ हैं। लघु अनुष्ठान, जिसमें 24 हजार जप 9 दिन में पूरा करना होता है–ही सर्वसुलभ साधना विधान है।

🔷 गायत्री अनुष्ठान की महत्ता नवरात्रि में सर्वाधिक मानी जाती है। गायत्री ‘गुरुमन्त्र’ है। देव मन्त्र कितने ही हैं–सम्प्रदाय भेद से कई प्रकार के मन्त्रों के उपासना विधान हैं, पर जहाँ तक ‘गुरुमन्त्र’ शब्द का सम्बन्ध है वह मात्र गायत्री के साथ जुड़ा है। इस्लाम में कलमा, ईसाई में बपतिस्मा को जो स्थान प्राप्त है वही हिन्दू धर्म में अनादि गुरु मन्त्र गायत्री को प्राप्त हैं। साधना की दृष्टि से गायत्री को ही सर्वांगपूर्ण माना जाता है। त्रिपदा के रूप में इसकी तीन सिद्धियों अमृत (आनन्द-उल्लास से भरा अन्तःकरण–चिरयौवन), पारस (उत्कृष्टतावादी प्रगतिशील सत्साहस) तथा कल्पवृक्ष (परिष्कृत चिन्तन-सद्बुद्धि प्राप्त होने तथा आप्तकाम होने का सौभाग्य अनुदान) के माध्यम इसकी महिमा शास्त्रों में गायी है। राम, कृष्ण आदि अवतारों की–देवताओं की–ऋषि-ऋषिकाओं का उपासना पद्धति भी गायत्री ही रही है। इस सर्वसाधारण का उपासना अनुशासन मानकर इसकी उपेक्षा करने वालों की कटु भर्त्सना की गयी है। सामान्य दैनिक उपासनात्मक नित्यकर्म से लेकर विशिष्ट प्रयोजनों के लिये की जाने वाली तपश्चर्याओं तक में गायत्री को समान रूप में महत्व मिला है। गायत्री, गंगा, गीता, गौ और गोविंद हिन्दू धर्म के पाँच आधार माने गये हैं। जिनमें गायत्री सर्वप्रथम है। यही नहीं, इसमें जिन तथ्यों का समावेश है, उन्हें देखते हुए निकट भविष्य में इसके मानव जाति का सार्वभौम मंत्र माने जाने की पूरी-पूरी सम्भावना है। देश, धर्म, जाति, समाज और भाषा की सीमाओं से ऊपर इसे सार्वजनीन उपासना कहा जा सकता है। जब भी कभी मानवी एकता के सूत्रों को चुना जायगा तो निश्चिततः गायत्री को ही महामन्त्र के रूप में स्वीकारा जायगा।

🔶 दैवी आह्वान को सुना जाय और तद्नुसार ही आचरण किया जाय, यही उत्तम है। साधकों को उपासना के चमत्कार देखना हो तो वैज्ञानिक और भावनात्मक दोनों ही आधारों की कसौटी पर नवरात्रि की गायत्री साधनावधि में कसकर देख सकते हैं। व्यक्तित्व का परिष्कार, अन्तराल से विभूतियों के रत्नों का निकल पड़ना व विपत्ति बाधाओं का निराकरण ये प्रत्यक्ष प्रति फलों से रूप में मिलते देखे जा सकते हैं।

🔷 इस देव पर्व पर देवत्व की प्रेरणा व दैवी अनुकम्पा निरन्तर बहती है। सतर्क–प्रयत्नशील मनस्वी साधक ऐसे ही शुभ मुहूर्त का लाभ उठाते व अन्यों को भी इसके लिये प्रेरित करते हैं। देवत्व की विभूतियों के जीवनचर्या में समावेश के रूप में इस अनुदान वर्षा को सहज ही देखा जा सकता हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति मार्च 1982 पृष्ठ 45
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1982/March/v1.45

👉 नवरात्रि की साधना

🔶 इस नवरात्रि के दिव्य संक्रमण काल पर अपना आध्यात्मिक उत्थान चाहने वालों को अवश्य ही पूरी पवित्रता और एकाग्रता से साधना में दत्तचित्त हो जाना चाहिये। संख्या पूरी करने की हड़बड़ी छोड़कर प्रेम और एकाग्रता को अपनाना चाहिये। कम से कम दोनों काल (प्रातः सायं) में तीन घंटा समय निकाल कर 27 माला प्रति दिन नियमित समय पर जपना चाहिए। 10 से 12 माला जपने में साधारणतया एक घंटे का समय लगता है। इस भाँति 24000 का लघु अनुष्ठान पूरा करना चाहिये। जो इतना भी अपनी विविध व्यस्तताओं के कारण नहीं कर सकें, उन्हें कम से कम प्रति दिन दोनों सन्ध्या में 11 माला तो अवश्य ही जप कर लेना चाहिये। जो समय नवरात्रि की साधना में लगेगा, वह कदापि निष्फल न होगा।

🔷 साधना के नियम साधारण ही हैं। शौच स्नान से निवृत्त होकर शुद्धतापूर्वक प्रातःकालीन उपासना पूर्व मुख एवं सन्ध्या काल की पश्चिम मुख होकर करनी चाहिये। जप के समय घी का दीप या कम से कम धूपबत्ती जलती रहे। जल का पात्र निकट में रहे। नित्य सन्ध्या कर लेने के उपरान्त गायत्री माता और गुरु का पूजन करके जप प्रारम्भ कर देना चाहिये। नियमित जप समाप्त कर सूर्य के सम्मुख जल चढ़ा देना चाहिये।

🔶 जिस भाँति उपयुक्त नक्षत्र, तिथि एवं दिवसों में बोये बीज, अनुकूल वृष्टि, सिंचाई एवं खाद प्राप्त कर एक विशेष रूप में पुष्ट और उन्नत फल प्रदान करते हैं, उसी प्रकार नवरात्रि की उपासना अन्य समयों में की गई उपासना की अपेक्षा अधिक बलशालिनी और फलवती होती है। जैसे दिन-रात्रि का मिलन काल-सन्ध्या, आध्यात्मिक उपासना करने के लिये अधिक उपयुक्त होती है, उसी प्रकार शीत और शीत की मिलन-वेला आश्विन नवरात्रि होती है। इस संक्रमण काल में जिस भाँति भौतिक प्रकृति अपने विशाल क्षेत्र में एक अवस्था से दूसरी में प्रवेश करती है, उसी भाँति सूक्ष्म प्रकृति के क्षेत्रों में भी उस समय संक्रमण काल उपस्थित होता है। ऐसे समय में जो साधक सावधान और एकाग्र चेतना से उपासना करता है, उसे सहसा ही अपना निचला स्तर छोड़कर ऊर्ध्व के स्तर में जाने की सर्वव्यापिनी शक्ति द्वारा बल, सहायता और गति प्रदान की जाती है। जिसे अन्य समय में वह अपनी वैयक्तिक उपासना के बल पर पाने में असमर्थ था, वह अनायास ही उपलब्ध हो जाता है। इस भाँति नवरात्रि उपासना का विशाल परिणाम निष्ठावान एवं सच्चे उपासकों को मिलता रहता है।

🔷 नवरात्रि उपासना में ब्रह्मचर्य पालन अत्यावश्यक है। जो कर सकें, वे उपवास भी करें, परिमित फल और दूध लेना भी उपवासवत् ही है। जिनसे ऐसा नहीं बन पड़े, वे भी सात्विक-परिमित भोजन करें। स्वाद के लिये न खायें, अतः यथासम्भव नमक और मीठा (चीनी मिष्ठानादि) छोड़ दें। यह भी श्रेष्ठ व्रत ही है। इसके अतिरिक्त, पूरा या नियमित समय तक मौन, भूमि-शयन, चमड़े की बनी वस्तु का त्याग, पशुओं की सवारी का त्याग, अपनी शारीरिक सेवायें स्वयं करना, अपनी हजामत, वस्त्र धोना, भोजन बनाना आदि सेवायें दूसरे से न लेने का व्रत भी निभाने का प्रयत्न करें। अपनी सुख-सुविधाओं को यथासम्भव त्याग कर उपासना में लीन होना ही तप है।

📖 अखण्ड ज्योति अप्रैल 1956 पृष्ठ 47

👉 Some Key-Aspects of Navaratri Sadhana - Amritvani

Sisters and Brothers,

🔶 Your sadhana1 session here in the auspicious period of Navaratri2 is coming to an end. Let us now take stock of what we did in this period and why?  While discussing the answers to these two questions it will also become clear to you what should be the effect of this sadhana and what benefits should be expected from it?

🔷 So let us first have a look at your strict routine here. In your homes most of you, as per the modern routine, prefer or are used to sleeping late in the night and getting up still later next morning. (What to say, if it happens to be a holiday!). And here?  The strict schedules here have compelled you to get up at 3:30 am! Not only getting up early, you also have to take bath quickly. What is that? You have been taught to bring drastic changes in your habits for your own betterment. Now there is no place for laziness in your entire day.

🔶 Other important change is that in the quality and timings of your food. I do not know what you often used to eat at your place. But I suppose usually people like to eat spicy, fried, lavish food; the meals everyday are also full of oily stuffs, and pickles and chatanis, papads and what not. Sweet-dish is also taken quite frequently! But here we have constrained you!  You are to eat austere and almost tasteless (by your standards) food here. Back home you used to eat casually whatever and whenever you feel like.

🔷 Your other activities are also restrained. You see, now you are made to sit at least for about three hours everyday to complete the assigned number (twenty-seven rosaries, i.e., 27X108 times) of japa3 of the sacred Gayatri Mantra.  This is part of the discipline of your Gayatri Anushthan Sadhana. You are told that, if you break the discipline, your sadhana will be disturbed which will amount to annoying the Goddess Gayatri and hence be regarded as a sin. This is part of psychological conditioning of your mind. Your faith together with this warning has alarmed your mind so much that it has suddenly become somewhat obedient these days!          

🔶 Duration of this sadhana session is nine days only.  But this is only a short-term training and exposure to different aspects of sadhana. This is to teach you and give you a first-hand exposure of how you should discipline your life to achieve something worthwhile. I am not quite sure whether you could really learn anything. But you must take note of one thing. What is that? You must understand the definition of ‘Spirituality’ — adhyatma, the Science of Soul.
Generally people think of it as an occult subject matter of spirituality or a ritualistic religious practice of pleasing some deity and fetching Her blessings for worldly gains. This is all baseless. Do you think God is some dumb pleasure-hungry Being that showers blessings upon listening to your devotional chants and prayers in His praise and upon receiving your offerings made for his worship? Or, is He an invisible magician whose idol will be enshrined by you on some silver or gold-made throne in grand temple and then you will decorate it, offer lavish food as ‘puja prasada’, garlands and valuables and ‘pray’ for fulfilling your long list of desires and wishes?

🔷 Do you think of spirituality or spiritual practices of japa etc, as some tool to press your appeals, demands or needs before Him for some special favors?  All this is meaningless.  Don’t make fool of yourself and don’t degrade your religious faith. Do you think the Omniscient is a ‘pigeon’ that will be attracted to eat the ‘grains’ of your offerings of worship rituals, flowers, incense sticks, sweets, alms, etc?  Is the Almighty a ‘fish’ that may be caught in the ‘net’ of your so-called spiritual practices?

🔶 Do you think the principles of our great science of yoga, the purpose of immense life-long ascetic practices (tapashcharya) and devout sadhanas carried out by our divine rishis (Vedic Sages) and their teachings based on self-experiences are so shallow or hypocritical?

🔷 You better get rid of your crazy conceptions and illusory convictions of spirituality and God.  Also wane out your religious prejudices. Otherwise, you will keep wandering in the labyrinth of your own folly and achieve nothing for the whole life.  No amount of your efforts of worship, chanting, or pilgrimage would render you any result. Your superficial ‘religiosity’ and ostentatious devotion may swell your false pride but in reality it will only weaken your inner self and retard your spiritual progress.

🔶 I therefore insist that you must, I repeat, you must, learn at least one thing from this session. And that is – you must now be aware of the true meaning, principles and purpose of spirituality and spiritual sadhanas. So please note! Spirituality is the science of soul. It is the science of purifying and awakening the inner self and orienting the activities of life according to the soul-voice. Do not confuse it with any occult subject of ghosts, etc or, with any kind of magic or astonishing experience. Nor should you dream of attaining supernatural powers or potentials from spiritual endeavors of sadhanas.

🔷 In simplest terms, spirituality is a science of elevation, enlightenment and evolution of human life.  It trains you in the art of carving a fulfilling and praiseworthy life. It teaches you how to be a better person, how to improve your thoughts and actions in the righteous direction so as to make best use of your capabilities and excel your qualities and potentials to the highest levels.

🔶 Savants say that there is no problem that does not have a solution, no hardship that cannot be overcome by a prepared mind.  If you get rid of your shortcomings and learn to manage your resources and abilities efficiently, then you will be able to resolve most of the problems in your life. Thus, spirituality provides you solutions to tackle all problems in your life.

🔷 Let us try to understand how it happens. So let us consider some common problems faced by people today. Suppose you have some physical health problems. I will now explain how the principles and practices of spirituality help you eliminate this problem. Have you ever thought why does a disease attack some persons and not some others living in almost similar environmental conditions?  Once someone asked the ‘diseases’ – “Why do you keep wandering and spreading here and there and troubling the people?  This is not fair”. They (the diseases) responded — “We go only to those who invite us by imbalanced and uncontrolled life-style”.

🔶 Did you get the point? Indeed, the root-cause of all infirmities, all diseases, all kinds of physical sicknesses is — unrestrained use, even misuse of the natural power of sense-organs and adoption of irregular, haphazard life-styles. These are the obvious cause of weakening of the sense organs and the associated components inside the body and further disturbing the digestive system. It also shatters the defense mechanism (immune system) of the body]. Have you ever heard or read in any scientific books of wild animals falling ill? No, they only die their natural death or are killed by their predators. Because they live in perfect consonance with what Nature has set for them.  So whatever be the name of the disease and the ‘characterization’ of its cause, the fact is that at the root of all this is your negligence, your indiscipline.

🔷 It is up to what you invite (by your actions). If you invite diseases or associated adversities, you will get them. Now if you want to get rid of these you should uproot this primary cause. You may get ‘cured’ by heavy doses of medication but don’t forget it would only be a suppression of symptoms, a temporary relief. Unless you set your system right and take preventive measures, it will recur or occur in some other form. So, most importantly, you should control the greed of the tongue and also restrain the misuse of other sense organs as well.  Also, set a schedule for everyday to make thoughtful, industrious and productive use of your time. And strictly follow what you have scheduled for the day.  Then see who dares make you sick?

🔶 Mahatma Gandhi was in the early thirties of his age when he had severe problem of constipation. He had so much difficulty, as though his intestines had shrunk; he had to take anima almost every day for excretion. He was in South Africa around that time. He has written in his diary that he used to think he would survive only for four to five years more. If suppose his anima set is stolen or misplaced, or if he were stuck in some forest during a tour, then he would have an untimely death due to this problem, he used to think.  He used to be worried about his health. But, as we all know, nothing of this sort happened. Instead of getting depressed he faced the challenge boldly.

🔷 He took support of naturopathy and followed its principles throughout his life thereafter. He disciplined his diet and routine and gradually healed the problem himself. Though thin, he remained physically strong thereafter. He used to say that he would survive upto the age of hundred and twenty years. I think, he would have certainly, had he not been shot dead at the age of eighty.

🔶 If Gandhiji’s intestines could become healthy, his sickness could be healed, then why not yours? Why can’t it happen with you? Do you know who the nearest enemy of your health is, or what is the biggest barrier that hinders your efforts of disciplining yourself? It is your own tongue that you have let free like a wild cat.

🔷 It may sound bitter but it is true in one way or the other that it is the avarice of your tongue which eats your stamina, maligns your blood, ‘squeezes’ your blood and weakens your crucial body-functions like metabolism and immune response. Germs and viruses might be there, atmospheric environment might be polluted, but these would not have affected you, had your body’s resistance and vitality been strong.  I can vouch on behalf of the diseases that if you restrain your tongue, discipline the other sense organs and make adequate use of your physical labor, diseases dare not assail you.

🔶 There are many examples where people not only got rid of their health problems but also became very stout. They observed the above disciplines to live in consonance with the natural system of human-body and made extra efforts to strengthen their immune system. Chandgiram suffered from tuberculosis in his young age. No medicines could check his disease and his doctors had almost lost the hopes of his ever getting cured. One of his acquaintances, who had come to see this patient, advised him to eat balanced and healthy food at regular timings and go for walk regularly. He also advised the specific type of healthy food intake and some exercises and told – “If you love death then continue your present routine and if you love healthy life, then follow what I have suggested”.  The patient followed the wise advice and continued the disciplined diet and physical exercises even after he was cured. Gradually he gained strength and increased the exercises so much that this thin and weak TB patient eventually became the well known wrestler “Master Chandgiram”. 

🔷 All of you have the hidden potential of gaining and sustaining good health and becoming strong like a wrestler. You can mold the circumstances in your favor; you can be happy and hearty even in this stressful world of today. But what to say friends! You are very good at observing the shortcomings of others, but hardly notice your own weaknesses. You often remain unaware of your bad habits; even if you do, you prefer finding some excuses and don’t make substantial efforts to change or improve them.  You don’t even feel to restrain yourself.  That is why you can’t be the followers or seekers of spirituality. You may only be called weak, helpless slaves of your own habits.

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/2010/Sep_Oct/v1.12

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