मंगलवार, 17 अप्रैल 2018

👉 उसे देख लिया

🔷 रज्‍जब मुसलमान थे। पठान थे। किसी युवती के प्रेम में थे। विवाह का दिन आ गया। बारात सजी। बारात चली। रज्‍जब घोड़े पर सवार। मौर बाँधा हुआ सिर पर। बाराती साथ है, बैंड बाजा है इत्र का छिड़काव है, फूलों की मालाएँ है। और बीच बाजार में अपनी ससुराल के करीब पहुंचने को ही थे। दस पाँच कदम शेष‍ रह गये थे। प्रेयसी से मिलने जा रहे था। प्रेम तो तैयार था, जरा सा रूख बदलने भर की बात थी।

🔶 यह मौका ठीका मौका है। लोहा जब गर्म हो तब चोट करनी चाहिए। एक तरह से देखो तो यह मौका एक दम ठीक था कि अचानक घोड़े के पास एक आदमी आया उसका पहनाव बड़ा अजीब था। कोई फक्‍कड़ दिखाई दे रहा था। बारात के सामने आ कर खड़ा हो गया। और उसने गौर से रज्‍जब को देखा। आँख से आँख मिली। वे चार आंखें संयुक्‍त हो गयी। उस क्षण में क्रांति घटी।

🔷 वह आदमी रज्‍जब के होने वाला गुरु थे—-- और जो कहा दादू दयाल जी ने वे शब्‍द बड़े अद्भुत है। उन छोटे से शब्‍दों में सारी क्रांति छिपी है।

🔶 दादू दयाल ने भर आँख रज्‍जब की तरफ देखा, आँख मिली ओर दादू जी ने कहा—

रज्‍जब तैं गज्‍जब किया, सिर पर बांधा मौर।
आया था हरी भजन कुं, करे नरक की ठौर

🔷 बस इतनी सी बात। देर न लगी, रज्‍जब घोड़े से नीचे कूद पड़ा, मौर उतार कर फेंक दिया, दादू के पैर पकड़ लिए। और कहा कि चेता दिया समय पर चेता दिया....और सदा के लिए दादू के हो गये छाया की तरह दादू दयाल के साथ रहे रज्‍जब, उनकी सेवा में !!वे चरण उसके लिए सब कुछ हो गये। उन चरणों में उसने सब पा लिया। अद्भुत प्रेमी रज्‍जब। जब दादू दयाल अंतर्धान हो गये।

🔶 जब उन्‍होंने शरीर छोड़ा, तो तुम चकित हो जाओगे…..शिष्‍य हो तो ऐसा हो। रज्‍जब ने आँख बंद कर लीं। तो फिर कभी आँख नहीं खोली।

🔷 कई वर्षों तक रज्‍जब जिंदा रहे , दादू दयाल के मरने के बाद। लेकिन कभी आँख नहीं खोली। लोगों ने लाख समझाया ये बात ठीक नहीं है। लोग कहते कि आंखे क्‍यों नहीं खोलते??? तो रज्जब कहते देखने योग्‍य जो था उसे देख लिया, अब देखने को क्‍या है? जो दर्शनीय था, उसका दर्शन कर लिया। उन आंखें में पूर्णता का सौंदर्य देख लिया। अब देखने योग्‍य क्‍या है इस संसार में अब आँख का काम खत्‍म हो गया। क्‍या करना खोल कर, क्‍या देखना है।

🔶 रज्‍जब तो कोहिनूर थे। जब बूंद सागर में गिरती है तो सागर हो जाती है।

👉 आज का सद्चिंतन 18 April 2018


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 18 April 2018

👉 The first and foremost pillar of dharma and its foundation

🔷 The first or most important pillar of dharma is having faith in God. Its foundation or basis lies in believing that the God is present everywhere, even-handed and always imparts fair justice. Such belief is fully capable of restraining the evil tendencies of people. Our actions, thoughts and feelings, whether seen or unseen, can never ever remain concealed from the Omnipresent God. It may be possible to fool society or police but not the God pervading everything and everywhere.

🔶 The good or bad action definitely yields its consequences sooner or later in form of a reward or a punishment. This belief keeps inducing everyone to abide by principles and obey duties in personal and social life. If someone doesn’t get any praise, recognition or success for doing something good, the God will surely reward him/her in future. This belief would not let anything dampen individual’s spirits and keep him/her following the path of righteousness even in event of being unsuccessful. Likewise, anyone doing bad things too can never remain free from the fear of its bad consequences.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 Yug Nirman Yojana: Darshan, swaroop va karyakram 66:6.10

👉 Amrit Chintan 18 April

🔷 The human life is the finest gift of the creator, if we use it properly and sincerely. One can attain all successes and not only that but also can achieve realization in one life. Self restrain and high human values can make any one to attend that stage in his own life.

🔶 If this realization that every man on this earth is a part of the infinite super-consciousness is attained, he will develop true love for all animates and inanimate on this earth. Then he can not remain selfish and will love everyone. The compassion for others – is true bliss in life. Divinity is other name of soul consciousness.

🔷 Temples are not important because there is an Idol of God or goddesses. They represent God in some kind of shape. It is simply a way to put your concentration on some figure. Real thing is to grow in self through the figure is to develop high emotions and service to humanity. Temple is to meet with the worshipers and find ways for self development.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya

👉 युग परिवर्तन में भूमिका

🔷 मित्रो! आत्मपरिवर्तन के साथ- साथ यही जाग्रत आत्माएँ विश्व परिवर्तन की भूमिका प्रस्तुत करेंगी। प्रकाशवान ही प्रकाश दे सकता है। आग से आग उत्पन्न होती है। जागा हुआ ही दूसरों को जगा सकता है। जागरण की भूमिका जाग्रत आत्माएँ ही निभाएँगी। आत्मपरिवर्तन की चिनगारियाँ ही युग परिवर्तन के प्रचण्ड दावानल का रूप धारण करेंगी। यही सब तो इन दिनों हो रहा है। जाग्रत आत्माओं में एक असाधारण हलचल इन दिनों उठ रही है।

🔶 उनकी अन्तरात्मा उन्हें पग- पग पर बेचैन कर रही है, ढर्रे का पशु जीवन नहीं जिएँगे, पेट और प्रजनन के लिए- वासना और तृष्णा के लिए जिन्दगी के दिन पूरे करने वाले नरकीटों की पंक्ति में नहीं खड़े रहेंगे, ईश्वर के अरमान और उद्देश्य को निरर्थक नहीं बनने देंगे, लोगों का अनुकरण नहीं करेंगे, उनके लिए स्वतः अनुकरणीय आदर्श बनकर खड़े होंगे। यह आन्तरिक समुद्र मन्थन इन  दिनों हर जीवित और जाग्रत आत्मा के अन्दर इतनी तेजी से चल रहा है कि वे सोच नहीं पा रहे कि आखिर यह हो क्या रहा है वे पुराने ही हैं पर भीतर कौन घुस पड़ा जो उन्हें ऊँचा सोचने के लिए ही नहीं, ऊँचा करने के लिए भी विवश, बेचैन कर रहा है। निश्चित रूप से यह ईश्वरीय प्रेरणा का अवतरण है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 युग निर्माण योजना दर्शन,स्वरूप व कार्य पृष्ठ- २.१४

👉 गुरुगीता (भाग 88)

👉 गुरुभक्ति ही साधना, वही है सिद्धि

🔷 भगवान् नीलकण्ठ इस भक्ति कथा के अगले प्रकरण में कहते हैं-

आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं परमात्मस्वरूपकम्। स्थावरं जंगमं चैव प्रणमामि जगन्मयम्॥ १११॥
वन्देऽहं सच्चिदानन्दं भेदातीतं सदा गुरुम्। नित्यं पूर्णं निराकारं निर्गुणं स्वात्मसंस्थितम्॥ ११२॥

परात्परं सदा ध्येयं नित्यमानन्दकारकम्। हृदयाकाशमध्यस्थं शुद्धस्फटिकसन्निभम्॥ ११३॥
स्फटिकप्रतिमारूपं दृश्यते दर्पणे यथा। तथात्मनि चिदाकारं आनन्दं सोऽहमित्युत॥ ११४॥

🔶 ब्रह्मा से लेकर तिनके तक सभी जड़-चेतन परमात्मा का स्वरूप है और सद्गुरु परमात्ममय है। इसीलिए यह सम्पूर्ण जगत् उन्हीं का रूप है। ऐसा जानकर मैं उन्हें प्रणाम करता हूँ। शिष्य ऐसा भाव रखे॥ १११॥ शिष्य को चाहिए कि वह सच्चिदानन्द सभी भेद से परे गुरुतत्त्व को अनुभव करे और नित्य, पूर्ण, निराकार, निर्गुण और आत्मस्थित गुरुतत्त्व की वन्दना करे॥ ११२॥ श्री गुरुदेव आनन्द प्रदायक, नित्य एवं परात्पर हैं, उनके इसी शुद्ध स्फटिक स्वरूप का हृदयाकाश मध्य में ध्यान करना चाहिए॥ ११३॥ जिस तरह से दर्पण में स्फटिक की प्रतिमा दिखाई देती है, उसी तरह से आत्मा में चिदाकार आनन्दमय सद्गुरु का दर्शन होता है॥ ११४॥

🔷 गुरुगीता के साधना प्रकरण में सद्गुरु ध्यान की अनेक विधियाँ बतायी गयी हैं। इनमें से प्रत्येक विधि का अपना महत्त्व है। बस विधि का प्रयोग करने वाले में गहरी आस्था और दृढ़ गुरुभक्ति होनी चाहिए। शिष्य को हर पल इस सत्य का ध्यान रखना चाहिए कि सच्चे शिष्य व साधक के लिए गुरुभक्ति ही साधना है और यही सिद्धि है। जब कोई शिष्य इस सत्य को भूल जाता है, तो उसकी साधना में भटकाव के दौर आते हैं। कभी यह भटकाव किन्हीं सिद्धियों को पाने की लालसा में होता है, तो कभी अन्य किसी सांसारिक आकांक्षाओं के कारण। लेकिन कृपालु सद्गुरु अपने शिष्य को इस भटकाव से चेताते हैं, बचाते हैं और उबारते-उद्धार करते हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 गुरुगीता पृष्ठ 133

👉 शिक्षा बढ़ रही है पर मूढ़ता जहाँ की तहाँ हैं

🔶 नशेबाजी, माँसाहार, व्यभिचार, जुआ, चोरी जैसे दुर्व्यसन घट नहीं बढ़ रहे हैं । शिक्षा बढ़ रही है पर मूढ़ता जहाँ की तहाँ हैं । पढ़े-लिखे लोग भी दहेज के लिए जिद करें तो समझना चाहिए शिक्षा के नाम पर उन्हें कागज चरना ही सिखाया गया है ।

🔷 धर्म जैसी चरित्र निर्मात्री शक्ति आज केवल कुछ व्यवसाइयों के लिए भोले लोगों को फँसाने का जाल-जंजाल भर रह गई है । इन परिस्थितियों को मूक दर्शक की तरह देखते नहीं रहा जा सकता, इनके विरुद्ध जूझना ही एकमात्र उपाय है । अर्जुन की तरह हमें इस धर्म-युद्ध के लिए गाण्डीव उठाना ही पड़ेगा।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 युग निर्माण योजना - दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम-६६ (३.६१)

👉 Education is improving yet foolishness lingers on

🔶 Evil practices such as addiction, non-vegetarianism, adultery,gambling, theft, etc. have been increasing rather than decreasing.Education is improving yet foolishness lingers on. If educated people too insist on dowry, it must be assumed that they have only flipped through the books in the name of education but in reality, learned nothing worthwhile!

🔷 Religion is actually a power capable of building people’s worthy character but it has become reduced to a mere tool employed by a few commercially interested crafty people to trick innocent citizens. We cannot be just silent viewers of these pathetic situations. There is only one option remaining and that is to tackle them head-on. This is the battle of righteousness in which we must forge ahead and do our duty in the same way as Arjuna had done in the great battle of Mahabharata.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 Yug Nirman Yojna - philosophy, format and program -66 (3.61)

👉 Amrit Chintan 17 April

🔶 Man is a master of his destiny. By developing own virtues and abilities, one can progress to any extent. If any one can achieve that progress – why you cannot. The human body is the finest gift of the creator, the only thing we need is to make good use of that body and mind.

🔷 At present the only social service is to change the thinking of people. Which have become totally materialist and sensual? If we can bring changes in thinking pattern of masses - the change of the entire world from hell to heaven will automatically appear on this earth. It is the sincere service in the society which will bring this change in every field.

🔶 To my scholars,
To develop our character we need to adopt good thoughts in our mind. Our believes and habits must develop in that direction which should achieve high aim, and earn honor in life. The need of the time is to practice those good thoughts in practice also. The bright future is 21st century can only manifest its glory when we practice in our life – the high character and values of life.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya

👉 गुरुगीता (भाग 87)

👉 गुरुभक्ति ही साधना, वही है सिद्धि

🔶 गुरुगीता की मंत्रमाला में आध्यात्मिक साधना की प्रक्रियाएँ और तत्त्वज्ञान दोनों पिरोये हैं। जो आध्यात्मिक प्रक्रियाओं को श्रद्धा व समर्पित भाव से सम्पन्न करते हैं, उन्हीं को तत्त्वज्ञान की अनुभूति होती है। जिनमें आध्यात्मिक प्रक्रियाओं के प्रति रुचि नहीं है, उनके लिए सच्ची अभीप्सा नहीं है, वे तत्त्वज्ञान की अनुभूति नहीं कर पाते। तत्त्वज्ञान के गं्रथ-शब्द उनके लिए बौद्धिक विचार, तर्कजाल व वाणी विलास का विषय बनकर रह जाते हैं। ऐसे लोग शब्दों को तो पढ़ते, कहते व सुनते हैं, पर इनका अर्थ खोजने में असफल रहते हैं। इस खोज के लिए साधना का होना, तप परायण बनना अनिवार्य है। यथार्थ में तत्त्वज्ञान तप साधना का निष्कर्ष है। इसे कठिन साधनाओं को करने वाले लोग ही प्राप्त करते हैं और उन्हीं में इसके  समझने की सही योग्यता विकसित होती है।

🔷 पूर्वोक्त मंत्र में भगवान् सदाशिव ने शिष्यों को सावधान किया है कि कहीं इधर-उधर भटको मत। ‘गुरु’ ये दो अक्षर स्वयं में महामंत्र हैं। यह महामंत्र अन्य सभी मंत्रों से श्रेष्ठतम व सर्वोत्तम है। सभी शास्त्र वचनों का मर्म यही है। अपने प्यारे सद्गुरु की सेवा में लीन शिष्य ही सच्चा संन्यासी है। गुरु से विमुख व्यक्ति को कहीं कोई ठौर नहीं है। परमात्मतत्त्व का बोध केवल सद्गुरु की कृपा से मिलता है। जिस तरह से दीप से दीप जलता है, उसी तरह से सद्गुरु-शिष्य के अन्तःकरण में ब्रह्मज्ञान की ज्योति जला देते हैं। शिष्य का कर्त्तव्य है कि वह अपने सद्गुरु की कृपा की छाँव में आत्मतत्त्व का चिंतन करे। ऐसा करते-करते गुरुदेव द्वारा दिखाये मार्ग से स्वतः ही आत्मज्ञान हो जायेगा।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 गुरुगीता पृष्ठ 132

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 17 April 2018


👉 आज का सद्चिंतन 17 April 2018


👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...