शुक्रवार, 10 दिसंबर 2021

👉 ईश्वर की पूजा

मन को वश करके प्रभु चरणों मे लगाना बडा ही कठिन है। शुरुआत मे तो यह इसके लिये तैयार  ही नहीं होता है। लेकिन इसे मनाए कैसे? एक शिष्य थे किन्तु उनका मन किसी भी भगवान की साधना में नही लगता था और साधना करने की इच्छा भी मन मे थी।

वे गुरु के पास गये और कहा कि गुरुदेव साधना में मन लगता नहीं और साधना करने का मन होता है। कोई ऐसी साधना बताए जो मन भी लगे और साधना भी हो जाये। गुरु ने कहा तुम कल आना। दुसरे दिन वह गुरु के पास पहुँचा तो गुरु ने कहा सामने रास्ते मे कुत्ते के छोटे बच्चे हैं उसमे से दो बच्चे उठा ले आओ और उनकी हफ्ताभर देखभाल करो।

गुरु के इस अजीब आदेश सुनकर वह भक्त चकरा गया लेकिन क्या करे, गुरु का आदेश जो था। उसने 2 पिल्लों को पकड कर लाया लेकिन जैसे ही छोडा वे भाग गये। उसने फिरसे पकड लाया लेकिन वे फिर भागे।

अब उसने उन्हे पकड लिया और दुध रोटी खिलायी। अब वे पिल्ले उसके पास रमने लगे। हप्ताभर उन पिल्लो की ऐसी सेवा यत्न पूर्वक की कि अब वे उसका साथ छोड नही रहे थे। वह जहा भी जाता पिल्ले उसके पीछे-पीछे भागते, यह देख  गुरु ने दुसरा आदेश दिया कि इन पिल्लों को भगा दो।

भक्त के लाख प्रयास के बाद भी वह पिल्ले नहीं भागे तब गुरु ने कहा देखो बेटा शुरुआत मे यह बच्चे तुम्हारे पास रुकते नही थे लेकिन जैसे ही तुमने उनके पास ज्यादा समय बिताया ये तुम्हारे बिना रहनें को तैयार नही है।

ठीक इसी प्रकार खुद जितना ज्यादा वक्त भगवान के पास बैठोगे, मन धीरे-धीरे भगवान की सुगन्ध, आनन्द से उनमे रमता जायेगा। हम अक्सर चलती-फिरती पूजा करते है तो भगवान में मन कैसे लगेगा?

जितनी ज्यादा देर ईश्वर के पास बैठोगे उतना ही मन ईश्वर रस का मधुपान करेगा और एक दिन ऐसा आएगा कि उनके बिना आप रह नही पाओगे। शिष्य को अपने मन को वश में करने का मर्म समझ में आ गया और वह गुरु आज्ञा से भजन सुमिरन करने चल दिया।

बिन गुरु ज्ञान कहां से पाऊं।।।
सदैव प्रसन्न रहिये।
जो प्राप्त है, पर्याप्त है।।

👉 मानवता का विशिष्ट लक्षण - सहानुभूति (भाग १)

मानव-जीवन की सफलता, सौंदर्य और उपयोगिता में वृद्धि जिन नैतिक सद्गुणों से होती है, उनमें सहानुभूति का महत्व कम नहीं है। शक्ति , सत्यनिष्ठा, व्यवस्था, सच्चाई कर्म-निष्ठा, निष्पक्षता, मितव्ययिता और आत्म-विश्वास के आधार पर सम्मान मिलता है, समृद्धि प्राप्त होती है और जीवन के सभी क्षेत्रों में सफलता के दर्शन होते हैं, किन्तु लौकिक जीवन में जो मधुरता तथा सरसता अपेक्षित है, वह सहानुभूति के अभाव में सम्भव नहीं। सहानुभूति चरित्र की वह गरिमा है, जो दूसरों का मन मोह लेने की क्षमता रखती है। इससे पराये अपने हो जाते हैं। किसी तरह की रुकावट परेशानी मनुष्य जीवन में नहीं आती। सहानुभूति से मन निर्मल होता है, पवित्रता जागती है और बुद्धि-प्रखरता से व्यक्तित्व निखर उठता है।

सन्त वेलूदलकाक्स का कथन है, “जब अपनी ओर देखो तो सख्ती से काम लो, दूसरों की ओर देखो तो नम्रता का उद्गार प्रकट करो। अनुचित छोटाकशी से परहेज करो- दोष-दर्शन साधारण मनुष्यों का कार्य है। इसमें सन्देह नहीं है कि दूसरों को गिराने, नीचा दिखाने की वृत्ति आत्म-हीनता की परिचायक है। निकृष्ट विचार-धारा के लोग सदैव समाज में कलह और कटुता के बीज बोते हैं। इससे सभी उनका निरादर करने लगते हैं। उनका विश्वास उठ जाता है और मुसीबत पड़ने पर कोई साथ तक नहीं देता। बीमार पड़े हैं, पर दवा का कहीं इन्तजाम नहीं । दूध माँगते हैं पर कोई पानी देने को भी तैयार नहीं होता । बड़ी दुर्दशा होती है, कोई पास तक नहीं आता। पर किया क्या जाए, जिसने दूसरों के साथ उदारता, करुणा, शालीनता, सभ्यता, मुक्तहस्तता एवं दयालुता का कभी भी रुख न अपनाया हो, उसको आड़े वक्त कोई सहयोग न करे, सहायता न दे तो इसमें आश्चर्य करने की कौन-सी बात है।

दूसरों को जीतने के लिये सहानुभूति एक रामबाण हैं। ‘सह’ का अर्थ है साथ-साथ, अर्थात् उस जैसा। अनुभूति का अर्थ है अनुभव, बोध। जैसी उसकी अवस्था हो वैसी ही अपनी, इसी का नाम सहानुभूति है। एक व्यक्ति पीड़ा से छटपटा रहा है, गहरी चोट लग गई, है इससे बेचारे का पाँव टूट गया है, कष्ट के मारे तड़फड़ा रहा है। एक दूसरा व्यक्ति उसकी बगल में खड़ा है, उससे यह दृश्य देखा नहीं जाता। यह कष्ट मुझे होता तो कितनी तकलीफ होती, वह इस भावना मात्र से छटपटा उठता है। उसकी भी दशा ठीक वैसी ही हो जाती है, जैसी चोट खाये व्यक्ति की। झट डॉक्टर को बुलाता है, घाव साफ करता है और दवा लगाता है। दूसरों की कठिनाई मुसीबतों को अपना दुःख समझ कर सेवा करने का नाम सहानुभूति है। यह मानवता का उच्च नैतिक गुण है। वाल्ट विटमैन के शब्दों से यह और भी स्पष्ट हो जाता है कि सहानुभूति किसे कहते हैं। उन्होंने लिखा है, “मैं विपत्तिग्रस्त मनुष्य से यह नहीं पूछता कि तुम्हारी दशा कैसी है वरन्-मैं स्वयं भी आपदग्रस्त बन जाता हूँ।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति फरवरी 1965 पृष्ठ १५

👉 भक्तिगाथा (भाग ८९)

भगवान और भक्त में भेद कैसा?

कुछ पल की शान्ति के बाद वे बोले- ‘‘जिन दिनों मैं गोमन्त जनपद में रहकर विद्याध्ययन कर रहा था उन्हीं दिनों वहाँ एक चरवाहा रहता था-मनसुखा। वह गुरुकुल की गायों को चराया करता था। गुरुकुल के वातावरण में रहने पर भी उसकी पढ़ाई में कोई रुचि न थी। हाँ, गुरुकुल के कुलपति ऋषि बृहत्साम जब भगवती महामाया की कथाएँ कहते तो वह अवश्य ध्यानपूर्वक सुनने आ जाता। यदा-कदा स्वयं भी ऋषिश्रेष्ठ से आग्रह करके जगदम्बा के चरित सुनता था। इसके अतिरिक्त उसमें अन्य कोई विशेष बात न थी। बस वह महर्षि के सौंपे गए कार्यों को निष्ठापूर्वक किया करता। कुछ विशेष न होने पर भी ऋषि बृहत्साम उस चरवाहे मनसुखा को अपने पुत्र से भी कहीं अधिक प्यार करते थे। उसके प्रति महर्षि की यह अतिरिक्त उदारता किसी को समझ में न आती थी।

उन्हीं दिनों मेरा स्वास्थ्य खराब हुआ। प्रारम्भ में तो गुरुकुल के आचार्यों ने औषधीय चिकित्सा की, परन्तु उससे कुछ लाभ न हुआ। इस तरह लाभ न हुआ तो कुछ मन्त्रवेत्ता आचार्यों ने मन्त्र प्रयोग किए, परन्तु ये सब विफल रहे। सदा सफल होने वाले मन्त्रों का विफल होना सभी के लिए आश्चर्य का विषय था। मेरी स्थिति दिन पर दिन बिगड़ती जा रही थी। अब तो चलना-फिरना सब बन्द हो गया था। भोजन, पथ्य यहाँ तक कि औषधि का सेवन भी सम्भव न हो रहा था क्योंकि जो कुछ ग्रहण करने की कोशिश करता, उसी का वमन हो जाता। ज्योतिष के मर्मज्ञ मनीषी भी आश्रम में थे। उन्होंने ग्रह गणना करके मेरा मारकेश एवं मृत्युयोग घोषित कर दिया। इन मनीषी आचार्यों के ज्ञान को सभी अकाट्य एवं अटल मानते थे। मेरी स्थिति मरणासन्न थी। सो मैं तो कुछ करने की स्थिति या सोचने की दशा में ही नहीं था।

ज्योतिष विद्या में पारंगत आचार्यों ने भी मारकेश निवारण के कई कठिन प्रयोग किए परन्तु कोई सफलता न मिली। आश्रम के सभी आचार्यों एवं सहपाठियों का मुझ पर विशेष प्रेम था, सो चिन्तित सभी थे परन्तु किसी से कुछ भी न हो पा रहा था। इनमें कई लोगों ने कुलपति ऋषि बृहत्साम से अनुमति लेकर कई चमत्कारी एवं तन्त्रज्ञान के प्रसिद्ध विशेषज्ञों को बुलाया परन्तु जटिल एवं दुष्कर तान्त्रिक क्रियाएँ भी विफल रहीं। अब तो सभी ने मान लिया कि मरण सुनिश्चित है। ज्योतिष विद्या के आचार्य उसी रात्रि को मेरा मरणयोग बता रहे थे। कुलपति ऋषि बृहत्साम स्वयं चिन्तित थे लेकिन कुछ भी बोल नहीं रहे थे।

ऋषि बृहत्साम की धर्मपरायण पत्नी और हम सबकी ममतामयी गुरुमाता पौलोमी मुझे अपने पुत्र की भांति स्नेह करती थीं। वे तो बिलखकर रोने लगीं। फिर उन्होंने कुलपति ऋषि बृहत्साम को एकान्त में ले जाकर  पूछा- क्या अब कुछ भी सम्भव नहीं है? उनके कथन पर बृहत्साम ने कहा- पुत्र विश्वसामः का अटल मृत्युयोग है, इसे कोई भी टाल नहीं सकता। क्या कोई भी नहीं? गुरुमाता ने जानना चाहा? हाँ, कोई भी नहीं, क्योंकि यह प्रारब्ध एवं प्रकृति का अकाट्य विधान है।

परन्तु आप तो कहते हैं कि भगवती सब कुछ करने में समर्थ हैं। हाँ, सो तो है। ऋषि बृहत्साम बोले- पर उन्हें ऐसा करने के लिए विवश कौन करेगा? फिर वे स्वयं ही बोले- अरे मनसुखा। वह तो माँ भवानी का सबसे लाडला बेटा है। वह कुछ मांगेगा तो माता इन्कार नहीं कर सकेंगी। ऋषि बृहत्साम के इतना कहते ही मनसुखा की खोज शुरू हुई। वह स्वयं भी मेरी बीमारी से व्यथित था। खोजने पर पास के अरण्य में मिल गया।

ऋषि पुकार रहे हैं, सुनकर वह दौड़ा भागा चला आया। उसके आने पर ऋषि ने कहा- पुत्र! तुम माँ से विश्वसामः का जीवन मांग लो। वह तुम्हारी पुकार अनसुनी नहीं करेंगी। ऋषि बृहत्साम के इस कथन पर सभी को अविश्सनीय आश्चर्य हुआ। परन्तु मनसुखा तो मेरे पास बैठकर करूण स्वर में बोला- माँ! विश्वसामः को स्वस्थ कर दो। ऐसा कहते हुए उसने मेरे मस्तक पर हाथ रखा। उसके संजीवनी स्पर्श से मेरी सुप्त होती जा रही चेतना जाग्रत हो गयी। मुझमें जीवन के लक्षण वापस लौटने लगे। सभी इस चमत्कार पर चकित हुए। ज्योतिष विद्या के मर्मज्ञ, तन्त्रवेत्ता, मन्त्रवेत्ता, औषधि देने वाले आचार्य इसे असम्भव मान रहे थे परन्तु प्रत्यक्ष को कौन नकारता। सत्य सम्मुख था। इन सबको चकित होते देख आचार्य ने कहा- भक्त स्वयं अपने भगवान का स्वरूप हो जाता है। सर्वदा भगवती का स्मरण करने वाले मनसुखा की चेतना भवानी में अन्तर्लीन हो गयी है। स्वस्थ होने पर मुझे यह कथा विस्तार से पता चली। तब मैंने निश्चय किया मैं मनसुखा की तरह भक्त बनूँगा। वैसा ही सरल, निश्छल, निर्दोष, निष्कपट, जिसके एक बार माँ कहने मात्र पर विश्वजननी द्रवित हो जाती हैं।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १६८

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