👉 प्रतिभा परिवर्धन के तथ्य और सिद्धांत
🔷 प्रतिभा परिष्कार के कुछ मूलभूत सिद्धांत हैं। इन्हें उन सभी को हृदयंगम करने का प्रयत्न करना चाहिए, जो समुन्नत, सुसंस्कृत एवं यशस्वी सफल जीवन जीने के लिए उत्सुक हैं।
🔶 प्रथम सिद्धांत अथवा आधार है- क्षमताओं का अभिवर्धन। उनके लिए निरंतर तत्परता का, तन्मयता का सुनियोजन। आलस्य-प्रमाद से बचकर सदा जागरूक और स्फूर्तिवान बने रहना। एक-एक क्षण को बहुमूल्य मानकर उन्हें सदुद्देश्यों में सुनियोजित रखने के लिए योजनाबद्ध आकलन। यही है वह मन:स्थिति जिसे ‘महाजागरण’ कहते हैं। आमतौर से लोग अर्द्ध तंद्रा की स्थिति में जिंदगी को दर्द की तरह जीते हैं। निर्वाह साधन पा लेने भर से उन्हें संतोष हो जाता है। वे भाव-तरंगें उठती ही नहीं, जो आज की तुलना में कल को अधिक परिष्कृत बनाने के लिए लालायित रहती हैं और प्रयत्नरत होती हैं। प्रतिभा के उपासक इस दलदल से उबरते हैं और अपनी निखरती क्षमताओं को बचाकर, मूल्यवान पूँजी की तरह एकत्रित करते हैं। जो हस्तगत है, उसका श्रेष्टतम सदुपयोग करते हैं। यही है कल्पवृक्ष का उत्पादन एवं उसका उद्देश्यपूर्ण सदुपयोग क्रियान्वयन।
🔷 दूसरा चरण है— अपने व्यक्तित्व को चुंबकीय, आकर्षक एवं विश्वस्त स्तर का विकसित करना। यह मनुष्यता के साथ जुड़ने वाला प्राथमिक गुण है। इसके लिए अपना रहन-सहन ऐसा बनाना पड़ता है जैसा जागरूक, जिम्मेदार और सज्जनता संपन्नों का होना चाहिए। शरीर और मन की स्वच्छता, साथ ही शिष्टाचार का निर्वाह और वाणी में मधुरता का गहरा पुट लगाए रहना भी आवश्यक है। इसके लिए अपनी नम्रता का परिचय देना और दूसरों को सम्मान देना आवश्यक है। उसे वे ही कर पाते हैं, जो दूसरों के गुण देखकर उनसे प्रेरणा ग्रहण करते रहते हैं, साथ ही अपनी त्रुटियों को खोजते एवं उनके निष्कासन-परिष्कार में लगे रहते हैं। ओछे अपनी शेखी बघारते और दूसरों के दोष गिनाते रहते हैं। उसी जंजाल में उनका चिंतन एवं वर्चस्व घटता और समाप्त होता रहता है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार पृष्ठ 17
🔷 प्रतिभा परिष्कार के कुछ मूलभूत सिद्धांत हैं। इन्हें उन सभी को हृदयंगम करने का प्रयत्न करना चाहिए, जो समुन्नत, सुसंस्कृत एवं यशस्वी सफल जीवन जीने के लिए उत्सुक हैं।
🔶 प्रथम सिद्धांत अथवा आधार है- क्षमताओं का अभिवर्धन। उनके लिए निरंतर तत्परता का, तन्मयता का सुनियोजन। आलस्य-प्रमाद से बचकर सदा जागरूक और स्फूर्तिवान बने रहना। एक-एक क्षण को बहुमूल्य मानकर उन्हें सदुद्देश्यों में सुनियोजित रखने के लिए योजनाबद्ध आकलन। यही है वह मन:स्थिति जिसे ‘महाजागरण’ कहते हैं। आमतौर से लोग अर्द्ध तंद्रा की स्थिति में जिंदगी को दर्द की तरह जीते हैं। निर्वाह साधन पा लेने भर से उन्हें संतोष हो जाता है। वे भाव-तरंगें उठती ही नहीं, जो आज की तुलना में कल को अधिक परिष्कृत बनाने के लिए लालायित रहती हैं और प्रयत्नरत होती हैं। प्रतिभा के उपासक इस दलदल से उबरते हैं और अपनी निखरती क्षमताओं को बचाकर, मूल्यवान पूँजी की तरह एकत्रित करते हैं। जो हस्तगत है, उसका श्रेष्टतम सदुपयोग करते हैं। यही है कल्पवृक्ष का उत्पादन एवं उसका उद्देश्यपूर्ण सदुपयोग क्रियान्वयन।
🔷 दूसरा चरण है— अपने व्यक्तित्व को चुंबकीय, आकर्षक एवं विश्वस्त स्तर का विकसित करना। यह मनुष्यता के साथ जुड़ने वाला प्राथमिक गुण है। इसके लिए अपना रहन-सहन ऐसा बनाना पड़ता है जैसा जागरूक, जिम्मेदार और सज्जनता संपन्नों का होना चाहिए। शरीर और मन की स्वच्छता, साथ ही शिष्टाचार का निर्वाह और वाणी में मधुरता का गहरा पुट लगाए रहना भी आवश्यक है। इसके लिए अपनी नम्रता का परिचय देना और दूसरों को सम्मान देना आवश्यक है। उसे वे ही कर पाते हैं, जो दूसरों के गुण देखकर उनसे प्रेरणा ग्रहण करते रहते हैं, साथ ही अपनी त्रुटियों को खोजते एवं उनके निष्कासन-परिष्कार में लगे रहते हैं। ओछे अपनी शेखी बघारते और दूसरों के दोष गिनाते रहते हैं। उसी जंजाल में उनका चिंतन एवं वर्चस्व घटता और समाप्त होता रहता है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार पृष्ठ 17