मंगलवार, 27 अक्तूबर 2020

👉 क्षुद्रता की ठंडी आग से बचें

आज इसी प्रकार की क्षुद्र मनोवृत्तियों क  साम्राज्य है। कुढ़न और ईर्ष्या की आग में झुलसते रहने वाले व्यक्ति अपना मानसिक अहित तो करते ही हैं अपनी जलन बुझाने के लिए जो षडयंत्र रचते हैं उसमें उनकी उनकी इतनी शक्ति खर्च होती रहती है जिसकी बचत करके उपयोगी मार्ग में लगाया गया होता तो अपनी बहुत उन्नति हुई होती। लोगों का जितना समय और मनोयोग इन दुष्प्रवृत्तियों में लगता है यदि उतना आत्म−कल्याण अथवा दूसरों की सेवा-सहायता में लगता तो कितना बड़ा हित साधन हो सकता था। ईर्ष्या और कुढ़न की मूर्खता पर जितना ही गम्भीरता से विचार किया जाता है उतनी ही उसकी व्यर्थता और हानि स्पष्ट रूप से परिलक्षित होने लगती है।

इन द्वेष वृत्तियों का परित्याग करके यदि मनुष्य अपने अन्दर सत्प्रवृत्तियों को बढ़ाने में लग जाय तो उसकी दुनियाँ आज की अपेक्षा कल दूसरी ही हो सकती है। दृष्टिकोण के बदलने से दृश्य बदलते हैं। नाव के मुड़ने से किनारे पलट जाते हैं। हमें इस प्रकार का सुधार अपने आप में निरन्तर करते चलना चाहिए। सुधार के लिए हर दिन शुभ है उसके लिए कोई आयु अधिक नहीं। बूढ़े और मौत के मुँह में खड़े हुए व्यक्ति भी यदि अपने में सुधार करें तो उन्हें भी आशाजनक सफलता प्राप्त हो सकती है। फिर जिनके सामने अभी लम्बा जीवन पड़ा है वे तो इस आत्म−सुधार की प्रक्रिया को धीरे−धीरे चलाते रहें तो भी अपने जीवन क्रम का कायाकल्प ही कर सकते हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जून 1962 

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ५६)

समर्पण से सहज ही मिल सकती है—सिद्घि
    
परम पू. गुरुदेव ने अपनी व्यक्तिगत चर्चाओं के क्रम में एक दिन बताया था कि श्रद्धा वह अलौकिक तत्त्व है, जिससे पल-पल चमत्कार घटित होते हैं। एक शिष्य की जिज्ञासा में उन्होंने कहा-श्रद्धा क्या है? कैसी है? इसे लोग जानते ही कहाँ हैं बेटा! बस खाली जबान से श्रद्धा-श्रद्धा रटते रहते हैं, इसकी सच्चाई से कहाँ कोई वाकिफ है! यह सच्चाई समझ में आ जाये, तो फिर बाकी क्या बचता है। सब कुछ अपने आप ही हो जाता है। महायोगी परम पू. गुरुदेव के शब्दों में कहें, तो जिस प्रकार संकल्प सूक्ष्म शरीर की ऊर्जा है, उसी प्रकार श्रद्धा कारण शरीर की ऊर्जा की घनीभूत स्थिति है।

साधक जब अपने कारण शरीर पर केन्द्रित होता है, तो श्रद्धा जन्म लेती है। यह स्थिति भावुकता से विपरीत है। भावुकता भावनाओं की चंचल और अस्थिर स्थिति में उठती हैं, जबकि श्रद्धा के जन्मते ही भावनाएँ स्थिर, एकाग्र एवं लक्ष्य परायण होने लगती हैं। श्रद्धा की सघनता के क्रम में ये सभी तत्व बढ़ते हैं। साधक स्मरण रखे कि कारण शरीर हमारी मानवीय चेतना का केन्द्र है। हमारे अस्तित्व का गहनतम तल है। यहाँ संघनित होने वाली ऊर्जा का अन्य सभी तलों की ऊर्जा की अपेक्षा सर्वोपरि महत्त्व है। इसकी सामर्थ्य भी कहीं ज्यादा बढ़ी-चढ़ी है। यहाँ जो हो सकता है, वह कहीं और नहीं हो सकता।
    
स्थूल शरीर का सम्बन्ध कर्म जगत् यानि कि व्यवहार जगत् है, सूक्ष्म शरीर सीधे विचार जगत् यानि कि चिंतन जगत् से जुड़ा है, जबकि कारण शरीर सीधा महाकारण अर्थात् ब्राह्मी चेतना से है। यहाँ होने वाली हलचलें विचारों एवं कर्मों की दिशा तय करती है। ध्यान रहे, विचार हमें समर्पण के लिए प्रेरित तो कर सकते हैं, परन्तु समर्पण करा नहीं सकते। कर्म और विचार यानि कि स्थूल व सूक्ष्म की सभी शक्तियाँ मिलाकर भी कारण शरीर का मुकाबला नहीं कर सकती, जबकि कारण शरीर में उपजी हलचलें सूक्ष्म व स्थूल यानि कि कर्म व विचारों को अपने पीछे आने के लिए बाध्य व विचार कर सकती है।    
    
यही कारण है कि श्रद्धा व समर्पण परस्पर जुड़े है। सम्पूर्ण श्रद्धा सम्पूर्ण समर्पण को साकार करती है। और यह समर्पण या तो ईश्वर के प्रति होता है अथवा ईश्वरीय भावनाओं के प्रति जिसके साकार व सघन स्वरूप गुरुदेव होते हैं। श्रद्धा अपनी सघनता के अनुक्रम में ब्राह्मी चेतना में घुलने-मिलने लगती है। इस घुलने-मिलने का अर्थ है-ब्राह्मी चेतना के प्रवाह का साधक में प्रवाहित होना। ऐसी स्थिति बन पड़े, तो फिर सभी असम्भव स्वयं ही सम्भव बन जाते हैं। कृष्ण और मीरा का मिलन इसी तल पर हुआ था। श्री रामकृष्ण माँ काली से चेतना के इसी सर्वोच्च शिखर पर मिले थे। ऐसा होने पर समाधि सहज सम्भव होती है। क्योंकि जो प्रभु अर्पित है-जो ईश्वर की शरण में हैं, उनके लिए सब कुछ भगवान् स्वयं करते हैं। समाधि तो इस क्रम में बहुत ही सामान्य बात है।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ ९७
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

👉 सिद्धान्तों और व्यवहार कुशलता में सामञ्जस्य हो

एक जंगल में एक महात्मा रहा करते थे। वे नित्य अपने शिष्यों को उपदेश दिया करते थे। एक दिन उन्होंने अपने शिष्यों को उपदेश दिया कि सर्वप्राणियों में परमात्मा का निवास है। अतः सभी का सम्मान करो और नमन करो। एक दिन उनका एक शिष्य बन में लकड़ियाँ लेने गया। उस दिन वहाँ यह शोर मचा हुआ था कि जंगल में एक पागल हाथी घूम रहा है। उससे बचने के लिए भागो। शिष्य ने सोचा कि हाथी में भी तो परमात्मा का निवास है मुझे क्यों भागना चाहिए। वह वहाँ ही खड़ा रहा। हाथी उसी की ओर चला आ रहा था। लोगों ने उसे भागने को कहा किन्तु वह टस से मस नहीं हुआ। इतने में हाथी पास में आया और उसे सूँड़ से पकड़कर दूर फेंक दिया। शिष्य चोट खाकर बेहोश हो गया। यह खबर गुरु को लगी तो वे उसे तलाश करते हुए जंगल में पहुँचे। कई शिष्यों ने उसे उठाया और आश्रम में ले आये और आवश्यक चिकित्सा की तब कहीं शिष्य होश में आया। एक शिष्य ने कुछ समय बाद उससे पूछा “क्यों भाई जब पागल हाथी तुम्हारी ओर आ रहा था तो तुम वहाँ से भागे क्यों नहीं?” उसने कहा—

“गुरुजी ने कहा था कि सब भूतों में नारायण का वास है यही सोचकर मैं भागा नहीं वरन् खड़ा रहा।” गुरुजी ने कहा “बेटा हाथी नारायण आ रहे थे यह ठीक है किन्तु अन्य लोगों ने जो भी नारायण ही थे तुम्हें भागने को कहा तो क्यों नहीं भागे?”

सब भूतों में परमात्मा का वास है यह तो ठीक है किन्तु मेल−मिलाप भले और अच्छे आदमियों से ही करना चाहिए। व्यावहारिक जगत में साधु−असाधु, भक्त −अभक्त , सज्जन-दुर्जनों का ध्यान रखकर व्यवहार व सम्बन्ध रखना चाहिए। जैसे किसी जल से भगवान की पूजा होती है, किसी से नहा सकते हैं, किसी से कपड़ा धोने एवं बर्तन माँजने का ही काम चलाते हैं। किसी जल को व्यवहार में ही नहीं लाते। वैसे जल देवता एक ही है। इसी प्रकार संसार में भी व्यवहार करना चाहिए।

📖 अखण्ड ज्योति अप्रैल 1962  

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