शुक्रवार, 31 मार्च 2017
👉 अनावश्यक वस्तुओं का क्या करूँ?
🔴 बल्लभाचार्य के समय में अनेक वैष्णव भक्त हुए पर उनमें कुंभनदास का नाम आज भी बडी़ श्रद्धा से लिया जाता है। यद्यपि वह परिवार में रहते थे पर परिवार उनमें नहीं। कषि कार्य करने के बाद भी वह इतना समय बचा लेते थे कि जिसमें भक्ति के अनेक सुंदर-सुंदर गीतों की रचना कर सकें।
🔵 जब वे अपने भक्ति-रस से पूर्ण गीतों को मधुर कंठ से गाते थे तो राह चलते लोग खड़े होकर सुनने लगते थे। भगवान् के भक्त निर्धनता को वरदान समझते हैं। उनका विश्वास है कि अभाव का जीवन जीने वाले भक्तों की ईश्वर को याद सदैव आती रहती है।
🔴 हाँ कुंभनदास भी भौतिक संपदाओं से वंचित थे। वह इतने निर्धन थे कि मुख देखने के लिए एक दर्पण तक न खरीद सकते थे। स्नान के बाद जब कभी चंदन लगाने की आवश्यकता होती तो किसी पात्र में जल भरकर अपना चेहरा देखते थे।
🔵 जल से भरे पात्र को सामने रखे कुंभनदास तिलक लगा रहे थे कि महाराजा मानसिंह उनके दर्शन हेतु पधार गये। महाराजा ने आकर अभिवादन में 'जय श्रीकृष्ण' कहा-उत्तर में भक्त ने भी उन्हें पास बैठने का संकेत देते हुए 'जय श्री कृष्ण' कहा। पर जल्दी में उस पात्र का जल फैल गया। अतः कुंभनदास ने अपनी पुत्री से पुनः जल भरकर लाने को कहा। राजा को वस्तु स्थिति समझते देर न लगी। उन्हें यह जानकर बडा दुःख हुआ कि भगवान् का भक्त एक छोटी-सी वस्तु दर्पण के अभाव में कैसा कष्ट उठा रहा है ? राजा मानसिंह ने अपने महल में एक सेवक भेजकर स्वर्णजटित दर्पण मँगवाया और भक्त के चरणों मे अर्पित कर क्षमा माँगी।
🔴 कुंभनदास बोले-'राजन्! हम जैसे निर्धन व्यक्ति के घर में इतनी मूल्यवान वस्तु क्या शोभा दे सकती है ?
🔵 मेरी तरफ से यह तुच्छ भेंट तो आपको स्वीकार ही करनी पडेगी। आपको जिन-जिन वस्तुओं की आवश्यकता हो उनकी सूची दे दीजिए। घर जाकर मैं आपकी सुख-सुविधा का पूर्ण ध्यान रखकर समस्त वस्तुओं की व्यवस्था करवा दूँगा। राजा मानसिंह ने आग्रह के स्वर में अपनी बात कही।
🔴 'राजन् निश्चिंत रहिए और अपनी जनता के प्रति उदार तथा कर्तव्य की भावना बनाए रखिए। मुझे किसी भी वस्तु की आवश्यकता नहीं, भगवान् की कृपा से सब प्रकार आनंद है। आप देखते नहीं भगवान का नाम स्मरण हेतु माला, आचमन और पूजन के लिए पंचपात्र बैठने के लिए आसन आदि सभी उपयोगी वस्तुऐं तो हैं। कृपया आप यह दर्पण वापिस ले जाइए। जिस दिन भक्त भी इसी प्रकार का भोग विलासमय जीवन व्यतीत करने लगेंगे उन दिन उनकी भक्ति समाप्त हो जायेगी।
🔵 जब वे अपने भक्ति-रस से पूर्ण गीतों को मधुर कंठ से गाते थे तो राह चलते लोग खड़े होकर सुनने लगते थे। भगवान् के भक्त निर्धनता को वरदान समझते हैं। उनका विश्वास है कि अभाव का जीवन जीने वाले भक्तों की ईश्वर को याद सदैव आती रहती है।
🔴 हाँ कुंभनदास भी भौतिक संपदाओं से वंचित थे। वह इतने निर्धन थे कि मुख देखने के लिए एक दर्पण तक न खरीद सकते थे। स्नान के बाद जब कभी चंदन लगाने की आवश्यकता होती तो किसी पात्र में जल भरकर अपना चेहरा देखते थे।
🔵 जल से भरे पात्र को सामने रखे कुंभनदास तिलक लगा रहे थे कि महाराजा मानसिंह उनके दर्शन हेतु पधार गये। महाराजा ने आकर अभिवादन में 'जय श्रीकृष्ण' कहा-उत्तर में भक्त ने भी उन्हें पास बैठने का संकेत देते हुए 'जय श्री कृष्ण' कहा। पर जल्दी में उस पात्र का जल फैल गया। अतः कुंभनदास ने अपनी पुत्री से पुनः जल भरकर लाने को कहा। राजा को वस्तु स्थिति समझते देर न लगी। उन्हें यह जानकर बडा दुःख हुआ कि भगवान् का भक्त एक छोटी-सी वस्तु दर्पण के अभाव में कैसा कष्ट उठा रहा है ? राजा मानसिंह ने अपने महल में एक सेवक भेजकर स्वर्णजटित दर्पण मँगवाया और भक्त के चरणों मे अर्पित कर क्षमा माँगी।
🔴 कुंभनदास बोले-'राजन्! हम जैसे निर्धन व्यक्ति के घर में इतनी मूल्यवान वस्तु क्या शोभा दे सकती है ?
🔵 मेरी तरफ से यह तुच्छ भेंट तो आपको स्वीकार ही करनी पडेगी। आपको जिन-जिन वस्तुओं की आवश्यकता हो उनकी सूची दे दीजिए। घर जाकर मैं आपकी सुख-सुविधा का पूर्ण ध्यान रखकर समस्त वस्तुओं की व्यवस्था करवा दूँगा। राजा मानसिंह ने आग्रह के स्वर में अपनी बात कही।
🔴 'राजन् निश्चिंत रहिए और अपनी जनता के प्रति उदार तथा कर्तव्य की भावना बनाए रखिए। मुझे किसी भी वस्तु की आवश्यकता नहीं, भगवान् की कृपा से सब प्रकार आनंद है। आप देखते नहीं भगवान का नाम स्मरण हेतु माला, आचमन और पूजन के लिए पंचपात्र बैठने के लिए आसन आदि सभी उपयोगी वस्तुऐं तो हैं। कृपया आप यह दर्पण वापिस ले जाइए। जिस दिन भक्त भी इसी प्रकार का भोग विलासमय जीवन व्यतीत करने लगेंगे उन दिन उनकी भक्ति समाप्त हो जायेगी।
👉 गायत्री चालीसा का अनुष्ठान
🔵 जो लोग अधिक कार्य व्यस्त हैं, जो अस्वस्थता या अन्य कारणों से नियमित साधन नहीं कर सकते वे गायत्री चालीसा के 108 पाठों का अनुष्ठान कर सकते हैं। 9 दिन नित्य 12 पाठ करने से करने से नवरात्रि में 108 पाठ पूरे हो सकते हैं प्रायः डेढ़ घण्टे में 12 पाठ आसानी से हो जाते हैं। इसके लिए किसी प्रकार के नियम, प्रतिबन्ध, संयम, तप आदि की आवश्यकता नहीं होती। अपनी सुविधा के किसी भी समय शुद्धता पूर्वक उत्तर को मुख करके बैठना चाहिए और 12 पाठ कर लेने चाहिए। अन्तिम दिन 108 या 24 गायत्री चालीसा धार्मिक प्रकृति के व्यक्तियों में प्रसाद स्वरूप बाँट देना चाहिए।
🔴 स्त्रियाँ, बच्चे, रोगी, वृद्ध पुरुष तथा अव्यवस्थित दिनचर्या वाले कार्य व्यस्त लोग इस गायत्री चालीसा के अनुष्ठान को बड़ी आसानी से कर सकते हैं। यों तो गायत्री उपासना सदा ही कल्याणकारक होती है पर नवरात्रि में उसका फल विशेष होता है। गायत्री को भू-लोक की कामधेनु कहा गया है। यह आत्मा की समस्त क्षुधा पिपासाओं को शान्त करती है। जन्म मृत्यु के चक्र से छुड़ाने की सामर्थ्य से परिपूर्ण होने के कारण उसे अमृत भी कहते हैं। गायत्री का स्पर्श करने वाला व्यक्ति कुछ से कुछ हो जाता है इसलिए उसे पारसमणि भी कहते हैं। अभाव, कष्ट, विपत्ति, चिंता, शोक एवं निराशा की घड़ियों गायत्री का आश्रय लेने से तुरन्त शाँति मिलती है, माता की कृपा प्राप्त होने से पर्वत के समान दीखने वाले संकट राई के समान हलके हो जाते हैं और अन्धकार में भी आशा की किरणें प्रकाशमान होती हैं।
🔵 गायत्री को शक्तिमान, सर्वसिद्धि दायिनी सर्व कष्ट निवारिणी कहा गया है। इससे सरल, सुगम, हानि रहित, स्वल्परमसाध्य एवं शीघ्र फलदायिनी साधना और कोई नहीं है। इतना निश्चित है कि कभी किसी की गायत्री साधना निष्फल नहीं जाती। अभीष्ट अभिलाषा की पूर्ति में कोई कर्म फल विशेष बाधक हो तो भी किसी न किसी रूप में गायत्री साधना का सत् परिणाम साधक को मिलकर रहता है। उलटा या हानिकारक परिणाम होने की तो गायत्री साधना में कभी कोई सम्भावना ही नहीं है। यों तो गायत्री साधना सदा ही कल्याणकारक होती है पर नवरात्रि में तो यह उपासना विशेष रूप से श्रेयष्कर होती है। इसलिए श्रद्धापूर्वक अथवा परीक्षा एवं प्रयोग रूप में ही सही-उसे अपनाने के लिए हम प्रेमी पाठकों से अनुरोध करते रहते हैं। गायत्री साधना के सत्य परिणामों पर हमारा अटूट विश्वास है। जिन व्यक्तियों ने भी यदि श्रद्धापूर्वक माता का अंचल पकड़ा है उन्हें हमारी ही भाँति अटूट विश्वास प्राप्त होता है।
🌹 अखण्ड ज्योति मार्च 1996
🔴 स्त्रियाँ, बच्चे, रोगी, वृद्ध पुरुष तथा अव्यवस्थित दिनचर्या वाले कार्य व्यस्त लोग इस गायत्री चालीसा के अनुष्ठान को बड़ी आसानी से कर सकते हैं। यों तो गायत्री उपासना सदा ही कल्याणकारक होती है पर नवरात्रि में उसका फल विशेष होता है। गायत्री को भू-लोक की कामधेनु कहा गया है। यह आत्मा की समस्त क्षुधा पिपासाओं को शान्त करती है। जन्म मृत्यु के चक्र से छुड़ाने की सामर्थ्य से परिपूर्ण होने के कारण उसे अमृत भी कहते हैं। गायत्री का स्पर्श करने वाला व्यक्ति कुछ से कुछ हो जाता है इसलिए उसे पारसमणि भी कहते हैं। अभाव, कष्ट, विपत्ति, चिंता, शोक एवं निराशा की घड़ियों गायत्री का आश्रय लेने से तुरन्त शाँति मिलती है, माता की कृपा प्राप्त होने से पर्वत के समान दीखने वाले संकट राई के समान हलके हो जाते हैं और अन्धकार में भी आशा की किरणें प्रकाशमान होती हैं।
🔵 गायत्री को शक्तिमान, सर्वसिद्धि दायिनी सर्व कष्ट निवारिणी कहा गया है। इससे सरल, सुगम, हानि रहित, स्वल्परमसाध्य एवं शीघ्र फलदायिनी साधना और कोई नहीं है। इतना निश्चित है कि कभी किसी की गायत्री साधना निष्फल नहीं जाती। अभीष्ट अभिलाषा की पूर्ति में कोई कर्म फल विशेष बाधक हो तो भी किसी न किसी रूप में गायत्री साधना का सत् परिणाम साधक को मिलकर रहता है। उलटा या हानिकारक परिणाम होने की तो गायत्री साधना में कभी कोई सम्भावना ही नहीं है। यों तो गायत्री साधना सदा ही कल्याणकारक होती है पर नवरात्रि में तो यह उपासना विशेष रूप से श्रेयष्कर होती है। इसलिए श्रद्धापूर्वक अथवा परीक्षा एवं प्रयोग रूप में ही सही-उसे अपनाने के लिए हम प्रेमी पाठकों से अनुरोध करते रहते हैं। गायत्री साधना के सत्य परिणामों पर हमारा अटूट विश्वास है। जिन व्यक्तियों ने भी यदि श्रद्धापूर्वक माता का अंचल पकड़ा है उन्हें हमारी ही भाँति अटूट विश्वास प्राप्त होता है।
🌹 अखण्ड ज्योति मार्च 1996
👉 अपनी नवरात्रि की साधना को प्रखर करे
🔵 जीवन में साधना, स्वाध्याय, संयम एवं सेवा के सूत्रों के समग्र समावेश का एक न्यूनतम कार्यक्रम बनाना चाहिए, जिसमें कि आत्म निर्माण के साथ परिवार एवं सामाजिक उत्तरदायित्वों के भी बखूबी निर्वाह की समग्र रूपरेखा निर्मित हो। यदि इस तरह भावी जीवन की एक स्पष्ट एवं परिष्कृत रूपरेखा बन सकी और उसे व्यवहार में उतारने का साहस जग सका तो समझना चाहिए कि उतने ही परिमाण में गायत्री माता का प्रसाद तत्काल मिल गया। यह सुनिश्चित मानकर चलना चाहिए कि श्रेष्ठ गतिविधियों को अपनाते हुए ही हम अपनी श्रेष्ठ सम्भावनाओं को साकार कर सकते हैं और ईश्वरीय अनुग्रह के सुपात्र-अधिकारी बन सकते हैं।
🔴 अपनी नवरात्रि की साधना को प्रखर करने के लिए कुछ साधना सूत्रों का कड़ाई से पालन करना चाहिए। इनमें प्रमुख है-उपवास, ब्रह्मचर्य, कठोर बिछौने पर शयन करना, किसी से सेवा न लेना एवं दिनचर्या को पूर्णतया नियमित एवं अनुशासित रखना।
🔵 इसके साथ मानसिक धरातल पर दिन भर उपासना के क्षणों के भावप्रवाह को बनाये रखने का प्रयास करें। अपने दैनिक कर्तव्य-दायित्व में संलग्न रहते हुए अधिक से अधिक अपने ईष्ट चिंतन में निमग्न रहें। ईर्ष्या-द्वेष, परिचर्चा-निन्दा आदि से दूर ही रहें। प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपना मानसिक संतुलन बनाये रखें। विपरीत परिस्थितियों को आदिशक्ति जगज्जननी माँ गायत्री व परम कृपालु गुरुदेव का कृपा प्रसाद मानकर प्रसन्न रहने का प्रयास करें।
🔴 सबके प्रति आत्मीयतापूर्ण सद्भाव रखें। सृष्टि के सभी प्राणी जगन्माता गायत्री की संतानें हैं। सबमें माँ ही समाई है, ऐसी भावानुभूति में जीने का प्रयास करें। स्वयं संयम, स्वाध्याय, साधना एवं सेवा के सत्मार्ग पर बढ़ें, दूसरों को भी इस पर बढ़ने के लिए प्रेरित करें। अपने स्तर पर सत्पात्र की सहायता करें।
🔵 इस भावभूमि में उपरोक्त सूत्रों के साथ सम्पन्न नवरात्रि की साधना निश्चित रूप से साधक पर गायत्री महाशक्ति एवं गुरुसत्ता के अजस्र अनुदानों को बरसाने वाली सिद्ध होगी और साधक अभीष्ट सिद्धि के साथ अनुष्ठान को सम्पन्न होते देखेगा। पूर्णाहुति के दिन साधक हवन में अवश्य भाग ले। प्रत्येक आहुति के साथ भाव करे कि देव परिवार के सदस्यों के सामूहिक साधनात्मक पुरुषार्थ से चहुँओर संव्याप्त विषम प्रवाह छँट रहा है और उज्ज्वल भविष्य की सुखद सम्भावनाएँ साकार हो रही हैं।
🌹 ~अखण्ड ज्योति मार्च 2004
🔴 अपनी नवरात्रि की साधना को प्रखर करने के लिए कुछ साधना सूत्रों का कड़ाई से पालन करना चाहिए। इनमें प्रमुख है-उपवास, ब्रह्मचर्य, कठोर बिछौने पर शयन करना, किसी से सेवा न लेना एवं दिनचर्या को पूर्णतया नियमित एवं अनुशासित रखना।
🔵 इसके साथ मानसिक धरातल पर दिन भर उपासना के क्षणों के भावप्रवाह को बनाये रखने का प्रयास करें। अपने दैनिक कर्तव्य-दायित्व में संलग्न रहते हुए अधिक से अधिक अपने ईष्ट चिंतन में निमग्न रहें। ईर्ष्या-द्वेष, परिचर्चा-निन्दा आदि से दूर ही रहें। प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपना मानसिक संतुलन बनाये रखें। विपरीत परिस्थितियों को आदिशक्ति जगज्जननी माँ गायत्री व परम कृपालु गुरुदेव का कृपा प्रसाद मानकर प्रसन्न रहने का प्रयास करें।
🔴 सबके प्रति आत्मीयतापूर्ण सद्भाव रखें। सृष्टि के सभी प्राणी जगन्माता गायत्री की संतानें हैं। सबमें माँ ही समाई है, ऐसी भावानुभूति में जीने का प्रयास करें। स्वयं संयम, स्वाध्याय, साधना एवं सेवा के सत्मार्ग पर बढ़ें, दूसरों को भी इस पर बढ़ने के लिए प्रेरित करें। अपने स्तर पर सत्पात्र की सहायता करें।
🔵 इस भावभूमि में उपरोक्त सूत्रों के साथ सम्पन्न नवरात्रि की साधना निश्चित रूप से साधक पर गायत्री महाशक्ति एवं गुरुसत्ता के अजस्र अनुदानों को बरसाने वाली सिद्ध होगी और साधक अभीष्ट सिद्धि के साथ अनुष्ठान को सम्पन्न होते देखेगा। पूर्णाहुति के दिन साधक हवन में अवश्य भाग ले। प्रत्येक आहुति के साथ भाव करे कि देव परिवार के सदस्यों के सामूहिक साधनात्मक पुरुषार्थ से चहुँओर संव्याप्त विषम प्रवाह छँट रहा है और उज्ज्वल भविष्य की सुखद सम्भावनाएँ साकार हो रही हैं।
🌹 ~अखण्ड ज्योति मार्च 2004
👉 नवरात्रि साधना का तत्वदर्शन (भाग 2)
🔵 क्या नौ दिन काफी मात्र नहीं हैं? नहीं- नौ दिन काफी नहीं हैं। यह अभ्यास है सारे जीवन को कैसा जिया जाना चाहिए, उसका। आप इस शिविर में आकर और कुछ सीख पाए कि नहीं पर एक बात अवश्य नोट करके जाना। क्या? वह है अध्यात्म की परिभाषा- अध्यात्म अर्थात् “साइंस ऑफ सोल”। अपने आपको सुधारने की विधा, अपने आपको सँभालने की विधा, अपने आपको समुन्नत करने की विधा। आपने तो यह समझा है कि अध्यात्म अर्थात् देवता को जाल में फँसाने की विधा, देवता की जेब काटने की विधा। आपने यही समझ रखा है न। मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि आप जो सोचते हैं बिल्कुल गलत है। जब तक बेवकूफी से भरी बेकार की बातें आप अपने दिमाग में जड़ जमाए बैठे रहेंगे, झख ही झख मारते रहेंगे।
🔴 खाली हाथ मारे-मारे फिरेंगे। आप देवता को समझते क्या हैं? देवता को कबूतर समझ रखा है जो दाना फला दिया और चुपके-चुपके कबूतर आने लगे। बहेलिया रास्ते में छिपकर बैठ गया, झटका दिया और कबूतर रूपी देवता फँस गया। दाना फेंककर, नैवेद्य फेंककर, धूपबत्ती फेंककर बहेलिये के तरीके से फँसाना चाहते हैं, उसका कचूमर निकालना चाहते हैं? इसी का नाम भजन है? तपश्चर्या, साधना क्या इसी को कहते हैं? योगाभ्यास सिद्धान्त यही है? मैं आपसे ही पूछता हूँ, जरा बताइए तो सही।
🔵 आप देवियों को क्या समझते हैं? हम तो मछली समझते हैं । आटे की गोली बनाकर फेंकी व बगुले की तरह झट से उसे निगल लिया । धन्य हैं आप। आपके बराबर दयालु कोई नहीं हो सकता । मछली को पकड़ा तो कहा कि बहनजी आइए जरा। आपको सिंहासन पर बैठाएँगे आपकी आरती उतारेंगे और आपका जुलूस निकालेंगे। ऐसी ऐसी बाते करते हैं और जीवन भर इसी प्रवंचना में उलझे रहते हैं। देवियाँ कौन हैं? मछलियाँ । देवता कौन हैं? कबूतर। आप कौन हैं? बहेलिया । यही धन्धा है। चुप । बहेलिये का मछली मार का धन्धा करता है कहता है हम भजन करते हैं हम देवी के भक्त हैं । हम आस्तिक हैं। चुप, खबरदार। कभी मत कहना ऐसी बात। इसी को भजन कहते हैं तो हम यह कहेंगे कि यह भजन नहीं हों सकता आप ध्यान रखिएगा। आप अपने ख्यालातों को सही कीजिए अपने विचारों को सही कीजिए, अपने सोचने के तरीके को बदलिए यह हम आपको कहते हैं।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 अखण्ड ज्योति अप्रैल 1992 पृष्ठ 55
🔴 खाली हाथ मारे-मारे फिरेंगे। आप देवता को समझते क्या हैं? देवता को कबूतर समझ रखा है जो दाना फला दिया और चुपके-चुपके कबूतर आने लगे। बहेलिया रास्ते में छिपकर बैठ गया, झटका दिया और कबूतर रूपी देवता फँस गया। दाना फेंककर, नैवेद्य फेंककर, धूपबत्ती फेंककर बहेलिये के तरीके से फँसाना चाहते हैं, उसका कचूमर निकालना चाहते हैं? इसी का नाम भजन है? तपश्चर्या, साधना क्या इसी को कहते हैं? योगाभ्यास सिद्धान्त यही है? मैं आपसे ही पूछता हूँ, जरा बताइए तो सही।
🔵 आप देवियों को क्या समझते हैं? हम तो मछली समझते हैं । आटे की गोली बनाकर फेंकी व बगुले की तरह झट से उसे निगल लिया । धन्य हैं आप। आपके बराबर दयालु कोई नहीं हो सकता । मछली को पकड़ा तो कहा कि बहनजी आइए जरा। आपको सिंहासन पर बैठाएँगे आपकी आरती उतारेंगे और आपका जुलूस निकालेंगे। ऐसी ऐसी बाते करते हैं और जीवन भर इसी प्रवंचना में उलझे रहते हैं। देवियाँ कौन हैं? मछलियाँ । देवता कौन हैं? कबूतर। आप कौन हैं? बहेलिया । यही धन्धा है। चुप । बहेलिये का मछली मार का धन्धा करता है कहता है हम भजन करते हैं हम देवी के भक्त हैं । हम आस्तिक हैं। चुप, खबरदार। कभी मत कहना ऐसी बात। इसी को भजन कहते हैं तो हम यह कहेंगे कि यह भजन नहीं हों सकता आप ध्यान रखिएगा। आप अपने ख्यालातों को सही कीजिए अपने विचारों को सही कीजिए, अपने सोचने के तरीके को बदलिए यह हम आपको कहते हैं।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 अखण्ड ज्योति अप्रैल 1992 पृष्ठ 55
👉 याद करते ही आ पहुँचे शान्तिकुंज के देवदूत
🔴 सन् २००१ ई. की बात है। मुझे कुछ ऐसी बीमारी हो गई कि मैं अन्दर ही अन्दर कमजोर होती जा रही थी। कुछ ही दिनों में चलना- फिरना कठिन हो गया। कई जगहों पर इलाज करवाया, मगर बीमारी ठीक होने का नाम नहीं ले रही थी। स्थिति जब असहाय- सी हो गई, तो दिल्ली के अपोलो अस्पताल में दिखाया गया। वहाँ काफी दिनों तक इलाज चला मगर वहाँ भी अपेक्षित लाभ नहीं मिल पाया। उतने महँगे इलाज से भी जब स्वस्थ न हो सकी, तो घर के लोग काफी निराश हो गए। तभी किसी ने उड़ीसा से आए हुए एक डाक्टर के बारे में बताया। काफी नाम था उनका। उन्हीं के पास इलाज शुरू हुआ। वहाँ भी एक साल बीत गया,
🔵 सभी डाक्टर अंतिम रूप में जवाब दे चुके थे। सभी डॉक्टर यही कह रहे थे कितना भी इलाज कर लिया जाए, चलना- फिरना सम्भव न हो सकेगा। इलाज से केवल इतना ही किया जा सकता है कि आगे तकलीफ न बढ़े। उनका कहना था कि स्पाइनल कॉर्ड और मस्तिष्क के बीच का सम्बन्ध ठीक से स्थापित नहीं हो पा रहा है, जिससे हाथ पैर की पेशियों को मस्तिष्क से आदेश प्राप्त नहीं हो रहा। इसी वजह से उनमें गति नियंत्रण नहीं हो पा रहा है। सारे कामकाज, सारी सामाजिक गतिविधियाँ स्थगित पड़ी थीं। घर में पड़े- पड़े दिन भर समय काटना मुझे बोझ- सा लगने लगा। कोई इष्ट मित्र मिलने आते तो लगता उन्हें जाने न दूँ, पकड़ कर अपने पास बैठाए रखूँ। अब तो मिलने के लिए भी कोई कभी कभी ही आते थे।
🔴 अक्सर मन में यह प्रश्र उठता रहता कि क्या इसी तरह पूरी जिन्दगी कटेगी। निराशा की इसी स्थिति में एक दिन पूजा स्थल पर गुरुदेव के चित्र के सामने बैठकर फूट- फूट कर रोने लगी। रोते- रोते दुःख और हताशा के आवेग में मैं फट पड़ी। पिता होकर बेटी का यह दुःख साल भर से देख रहे हैं। आपको दया नहीं आती, क्या मैं इसी तरह अकेली पड़ी रहूँगी? इतने दिन हो गए मैं बीमार पड़ी हूँ और शान्तिकुञ्ज से कोई देखने तक नहीं आया। रोते- रोते मैं यहाँ तक कह गई कि मैं आपकी बेटी हूँ। इस तरह निकम्मी बनकर पड़ी नहीं रह सकती। या तो उठा ही लीजिए, नहीं तो पूरी तरह से ठीक कर दीजिये। अगर मैं ठीक हो गई, तो दूने उत्साह से आपका काम करूँगी।
🔵 इसी तरह रोते- रोते मन का गुबार निकालती हुई कब शांत होकर सो गई, मुझे पता ही नहीं चला। शाम को समाचार मिला कि शांतिकुंज से दो प्रतिनिधि आए हुए हैं। कुछ ही देर में वे शक्तिपीठ से लड्डा जी और दो अन्य प्रतिनिधियों को साथ लेकर मेरे आवास पर आए। वे आते ही मुझ पर बुरी तरह बरस पड़े कि पिछले तीन माह से कोई हिसाब नहीं मिला है। न ही कोई प्रगति रिपोर्ट मिली। मैंने अपनी स्थिति बताई और कहा कि ये सारी सूचनाएँ और हिसाब- किताब श्रीमती पूर्णिमा के पास है, क्योंकि मेरी अनुपस्थिति में सब काम- काज वही देख रही हैं। लड्डा जी ने जोर देकर कहा कि इसी वक्त चलिये पूर्णिमा जी के पास। मैंने अपनी असमर्थता जताई- मैं चल नहीं सकती। उन्होंने अनसुना करते हुए कहा- चलो उठो तैयार हो जाओ, जल्दी।
🔴 मैं स्लीपिंग गाउन पहने लेटी थी। उनके आने पर बिस्तर पर बैठकर बातें कर रही थी। मैंने कहा- कपड़े बदल लेती हूँ। लड्डा जी ने कहा कपड़े बदलने की कोई जरूरत नहीं। इसी तरह चलो, मुझे ये सारी जानकारियाँ अभी, इसी वक्त चाहिए। शायद उन्हें लग रहा था कि मैं बहाना बना रही हूँ। मुझे अपनी स्थिति पर रोना आ गया। मुझे तो बिस्तर से उठने में, घर के अन्दर चलने- फिरने में भी तकलीफ होती है। कैसे समझाऊँ इन्हें? किसी तरह संयत स्वर में मैंने कहा- थोड़ी देर बैठिए, मैं चलती हूँ आपके साथ।
🔵 लड्डा जी क्रोध से तमतमा उठे। उन्होंने एक- एक शब्द पर जोर देते हुए कहा- चलना तो तुमको अभी पड़ेगा। सहसा मुझे ऐसा लगा जैसे उनके भीतर सूक्ष्म रूप से पूज्य गुरुदेव ही प्रविष्ट हो गए हैं। मैं अचम्भे से उनके चेहरे की ओर देखने लगी। ऐसा आभास हुआ, जैसे सामने लड्डा जी नहीं स्वयं गुरुदेव ही खड़े हैं। उन्होंने मुझे बाँह पकड़ कर उठाया और बिस्तर से उठाकर लगभग घसीटते हुए पूजा घर में ले गए। उन्होंने मेरे माथे पर तिलक लगाकर शान्तिपाठ के साथ अभिसिंचन किया।
🔴 मेरे पूरे शरीर में जैसे बिजली की एक लहर दौड़ गई। उन्होंने कहा- अब चलो। मैंने जल्दी में शरीर पर एक शाल डाला और उनके साथ चल पड़ी। मैं आगे- आगे जा रही थी, मेरे ठीक पीछे लड्डा जी थे। और पीछे वे सारे परिजन, जो साथ आए थे। हम सभी पूर्णिमा के घर पहुँचे। उसने सारी रिपोर्ट लाकर दी। फिर बात- चीत के क्रम में उन्होंने मुझसे पूछा- तुम इतने दिनों से शक्तिपीठ क्यों नहीं आती हो? मैंने बताया- साल भर से मैं बीमार थी। चलना- फिरना मुश्किल हो गया है।
🔵 इतना कहते ही मुझे ध्यान आया कि अभी पूर्णिमा के घर तक तो बड़े आराम से चलकर आ गई हूँ और प्राण ऊर्जा से भरी हुई हूँ। अपने- आपको काफी स्वस्थ महसूस कर रही हूँ। इस आकस्मिक परिवर्तन को लक्ष्य करते हुए मैंने कहा- कल मैं जरूर आऊँगी।
🔴 अगले दिन सुबह पाँच बजे शक्तिपीठ जाकर मैंने हवन किया और उसी समय मेरी लम्बी बीमारी की इतिश्री हो गई। आदरणीय लड्डा जी को माध्यम बनाकर मुझे पल भर में नया जीवन देने वाली गुरुसत्ता के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए मेरे पास कोई शब्द नहीं हैं।
🌹 श्रीमती रेखा थम्मन सोनारी, जमशेदपुर (झारखण्ड)
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Wonderful/yaaden.1
🔵 सभी डाक्टर अंतिम रूप में जवाब दे चुके थे। सभी डॉक्टर यही कह रहे थे कितना भी इलाज कर लिया जाए, चलना- फिरना सम्भव न हो सकेगा। इलाज से केवल इतना ही किया जा सकता है कि आगे तकलीफ न बढ़े। उनका कहना था कि स्पाइनल कॉर्ड और मस्तिष्क के बीच का सम्बन्ध ठीक से स्थापित नहीं हो पा रहा है, जिससे हाथ पैर की पेशियों को मस्तिष्क से आदेश प्राप्त नहीं हो रहा। इसी वजह से उनमें गति नियंत्रण नहीं हो पा रहा है। सारे कामकाज, सारी सामाजिक गतिविधियाँ स्थगित पड़ी थीं। घर में पड़े- पड़े दिन भर समय काटना मुझे बोझ- सा लगने लगा। कोई इष्ट मित्र मिलने आते तो लगता उन्हें जाने न दूँ, पकड़ कर अपने पास बैठाए रखूँ। अब तो मिलने के लिए भी कोई कभी कभी ही आते थे।
🔴 अक्सर मन में यह प्रश्र उठता रहता कि क्या इसी तरह पूरी जिन्दगी कटेगी। निराशा की इसी स्थिति में एक दिन पूजा स्थल पर गुरुदेव के चित्र के सामने बैठकर फूट- फूट कर रोने लगी। रोते- रोते दुःख और हताशा के आवेग में मैं फट पड़ी। पिता होकर बेटी का यह दुःख साल भर से देख रहे हैं। आपको दया नहीं आती, क्या मैं इसी तरह अकेली पड़ी रहूँगी? इतने दिन हो गए मैं बीमार पड़ी हूँ और शान्तिकुञ्ज से कोई देखने तक नहीं आया। रोते- रोते मैं यहाँ तक कह गई कि मैं आपकी बेटी हूँ। इस तरह निकम्मी बनकर पड़ी नहीं रह सकती। या तो उठा ही लीजिए, नहीं तो पूरी तरह से ठीक कर दीजिये। अगर मैं ठीक हो गई, तो दूने उत्साह से आपका काम करूँगी।
🔵 इसी तरह रोते- रोते मन का गुबार निकालती हुई कब शांत होकर सो गई, मुझे पता ही नहीं चला। शाम को समाचार मिला कि शांतिकुंज से दो प्रतिनिधि आए हुए हैं। कुछ ही देर में वे शक्तिपीठ से लड्डा जी और दो अन्य प्रतिनिधियों को साथ लेकर मेरे आवास पर आए। वे आते ही मुझ पर बुरी तरह बरस पड़े कि पिछले तीन माह से कोई हिसाब नहीं मिला है। न ही कोई प्रगति रिपोर्ट मिली। मैंने अपनी स्थिति बताई और कहा कि ये सारी सूचनाएँ और हिसाब- किताब श्रीमती पूर्णिमा के पास है, क्योंकि मेरी अनुपस्थिति में सब काम- काज वही देख रही हैं। लड्डा जी ने जोर देकर कहा कि इसी वक्त चलिये पूर्णिमा जी के पास। मैंने अपनी असमर्थता जताई- मैं चल नहीं सकती। उन्होंने अनसुना करते हुए कहा- चलो उठो तैयार हो जाओ, जल्दी।
🔴 मैं स्लीपिंग गाउन पहने लेटी थी। उनके आने पर बिस्तर पर बैठकर बातें कर रही थी। मैंने कहा- कपड़े बदल लेती हूँ। लड्डा जी ने कहा कपड़े बदलने की कोई जरूरत नहीं। इसी तरह चलो, मुझे ये सारी जानकारियाँ अभी, इसी वक्त चाहिए। शायद उन्हें लग रहा था कि मैं बहाना बना रही हूँ। मुझे अपनी स्थिति पर रोना आ गया। मुझे तो बिस्तर से उठने में, घर के अन्दर चलने- फिरने में भी तकलीफ होती है। कैसे समझाऊँ इन्हें? किसी तरह संयत स्वर में मैंने कहा- थोड़ी देर बैठिए, मैं चलती हूँ आपके साथ।
🔵 लड्डा जी क्रोध से तमतमा उठे। उन्होंने एक- एक शब्द पर जोर देते हुए कहा- चलना तो तुमको अभी पड़ेगा। सहसा मुझे ऐसा लगा जैसे उनके भीतर सूक्ष्म रूप से पूज्य गुरुदेव ही प्रविष्ट हो गए हैं। मैं अचम्भे से उनके चेहरे की ओर देखने लगी। ऐसा आभास हुआ, जैसे सामने लड्डा जी नहीं स्वयं गुरुदेव ही खड़े हैं। उन्होंने मुझे बाँह पकड़ कर उठाया और बिस्तर से उठाकर लगभग घसीटते हुए पूजा घर में ले गए। उन्होंने मेरे माथे पर तिलक लगाकर शान्तिपाठ के साथ अभिसिंचन किया।
🔴 मेरे पूरे शरीर में जैसे बिजली की एक लहर दौड़ गई। उन्होंने कहा- अब चलो। मैंने जल्दी में शरीर पर एक शाल डाला और उनके साथ चल पड़ी। मैं आगे- आगे जा रही थी, मेरे ठीक पीछे लड्डा जी थे। और पीछे वे सारे परिजन, जो साथ आए थे। हम सभी पूर्णिमा के घर पहुँचे। उसने सारी रिपोर्ट लाकर दी। फिर बात- चीत के क्रम में उन्होंने मुझसे पूछा- तुम इतने दिनों से शक्तिपीठ क्यों नहीं आती हो? मैंने बताया- साल भर से मैं बीमार थी। चलना- फिरना मुश्किल हो गया है।
🔵 इतना कहते ही मुझे ध्यान आया कि अभी पूर्णिमा के घर तक तो बड़े आराम से चलकर आ गई हूँ और प्राण ऊर्जा से भरी हुई हूँ। अपने- आपको काफी स्वस्थ महसूस कर रही हूँ। इस आकस्मिक परिवर्तन को लक्ष्य करते हुए मैंने कहा- कल मैं जरूर आऊँगी।
🔴 अगले दिन सुबह पाँच बजे शक्तिपीठ जाकर मैंने हवन किया और उसी समय मेरी लम्बी बीमारी की इतिश्री हो गई। आदरणीय लड्डा जी को माध्यम बनाकर मुझे पल भर में नया जीवन देने वाली गुरुसत्ता के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए मेरे पास कोई शब्द नहीं हैं।
🌹 श्रीमती रेखा थम्मन सोनारी, जमशेदपुर (झारखण्ड)
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Wonderful/yaaden.1
👉 नवरात्रि पर्व और गायत्री की विशेष तप−साधना
🔵 गायत्री का विज्ञान और भी अधिक महत्वपूर्ण है उसके शब्दों का गुँथन स्वर शास्त्र के अनुसार सूक्ष्म विज्ञान के रहस्यमय तथ्यों के आधार पर हुआ है। इसका जप ऐसे शब्द कंपन उत्पन्न करता है जो उपासक की सत्ता में उपयोगी हलचलें उत्पन्न करे−प्रसुप्त दिव्य शक्तियों को जगाये और सत्प्रवृत्तियाँ अपनाने की उमंग उत्पन्न करे। गायत्री जप के कम्पन साधक के शरीर से निसृत जाकर समस्त वातावरण में ऐसी हलचलें उत्पन्न करते हैं जिनके आधार पर संसार में सुख−शान्ति की परिस्थितियां उत्पन्न हो सकें।
🔴 भारतीय धर्म की उपासना में प्रातः सायं की जाने वाली ‘संध्या विधि’ मुख्य है। संख्या कृत्य यों सम्प्रदाय मद में कई प्रकार किये जाते हैं, पर उन सब में गायत्री का समावेश अनिवार्य रूप से होता है। गायत्री को साथ लिए बिना संध्या सम्पन्न नहीं हो सकती। गायत्री को गुरु मन्त्र कहा गया है। यज्ञोपवीत धारण करते समय गुरु मन्त्र देने का विधान है। देव मन्त्र कितने ही हैं। सम्प्रदाय भेद से कई प्रकार के मन्त्रों के उपासना विधान हैं पर जहाँ तक गुरु मन्त्र शब्द का सम्बन्ध है वह गायत्री के साथ ही जुड़ा हुआ है। कोई गुरु किसी अन्य मन्त्र की साधना सिखाये तो उसे गुरु का दिया मन्त्र तो कहा जा सकता है, पर जब भी गुरु मन्त्र शब्द को शास्त्रीय परंपरा के अनुसार प्रयुक्त किया जायगा तो उसका तात्पर्य गायत्री मन्त्र से ही होगा। इस्लाम धर्म में कलमा का −ईसाई धर्म में बपतिस्मा का जो अर्थ है वही हिन्दू धर्म में अनादि गुरु मंत्र गायत्री को प्राप्त है।
🔵 साधना की दृष्टि से गायत्री को सर्वांगपूर्ण एवं सर्व समर्थ कहा गया है। अमृत, पारस, कल्प−वृक्ष और कामधेनु के रूप में इसी महाशक्ति की चर्चा हुई है। पुराणों में ऐसे अनेकानेक कथा प्रसंग भरे पड़े हैं जिनमें गायत्री उपासना द्वारा भौतिक ऋद्धियाँ एवं आत्मिक सिद्धियाँ प्राप्त करने का उल्लेख है। साधना विज्ञान में गायत्री उपासना को सर्वोपरि माना जाता रहा है। उसके माहात्म्यों का वर्णन सर्वसिद्धिप्रद कहा गया है और लिखा है कि तराजू के एक पलड़े पर गायत्री को और दूसरे पर समस्त अन्य उपासनाओं को रखकर तोला जाय तो गायत्री ही भारी बैठती है। राम, कृष्ण आदि अवतारों की−देवताओं और ऋषियों की उपासना पद्धति गायत्री ही रही है। उसे सर्वसाधारण के लिए उपासना अनुशासन माना गया है और उसकी उपेक्षा करने वाली की कटु शब्दों में भर्त्सना हुई है।
🔴 सामान्य दैनिक उपासनात्मक नित्यकर्म से लेकर विशिष्ट प्रयोजनों के लिए की जाने वाली तपश्चर्याओं तक में गायत्री को समान रूप से महत्व मिला है। गायत्री, गंगा, गीता, गौ और गोविन्द हिन्दू धर्म के पाँच प्रधान आधार माने गये हैं, इनमें गायत्री प्रथम है। बाल्मीक रामायण और श्रीमद्भागवत में एक−एक शब्द का सम्पुट लगा हुआ है। इन दोनों ग्रन्थों में वर्णित रामचरित्र और कृष्णचरित्र को गायत्री का कथा प्रसंगात्मक वर्णन बताया जाता है इन सब कथनोपकथनों का निष्कर्ष यही निकलता है कि गायत्री मन्त्र के लिए भारतीय धर्म में निर्विवाद रूप से सर्वोपरि मान्यता मिली है।
🔵 उसमें जिन तथ्यों का समावेश है उन्हें देखते हुए निकट भविष्य में मानव जाति का सार्वभौम मन्त्र माने जाने की पूरी−पूरी सम्भावना है। देश धर्म, जाति समाज और भाषा की सीमाओं से ऊपर उसे सर्वजनीय उपासना कहा जा सकता है। जब कभी मानवी एकता से सूत्रों को चुना जाय तो आशा की जानी चाहिए गायत्री को महामन्त्र के रूप में स्वीकारा जायगा। हिन्दू धर्म के वर्तमान बिखराव को समेटकर उसके केन्द्रीकरण की एक रूपता की बात सोची जाय तो उपासना क्षेत्र में गायत्री को ही प्रमुखता देनी होगी।
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 ~अखण्ड ज्योति फरवरी 1976
🔴 भारतीय धर्म की उपासना में प्रातः सायं की जाने वाली ‘संध्या विधि’ मुख्य है। संख्या कृत्य यों सम्प्रदाय मद में कई प्रकार किये जाते हैं, पर उन सब में गायत्री का समावेश अनिवार्य रूप से होता है। गायत्री को साथ लिए बिना संध्या सम्पन्न नहीं हो सकती। गायत्री को गुरु मन्त्र कहा गया है। यज्ञोपवीत धारण करते समय गुरु मन्त्र देने का विधान है। देव मन्त्र कितने ही हैं। सम्प्रदाय भेद से कई प्रकार के मन्त्रों के उपासना विधान हैं पर जहाँ तक गुरु मन्त्र शब्द का सम्बन्ध है वह गायत्री के साथ ही जुड़ा हुआ है। कोई गुरु किसी अन्य मन्त्र की साधना सिखाये तो उसे गुरु का दिया मन्त्र तो कहा जा सकता है, पर जब भी गुरु मन्त्र शब्द को शास्त्रीय परंपरा के अनुसार प्रयुक्त किया जायगा तो उसका तात्पर्य गायत्री मन्त्र से ही होगा। इस्लाम धर्म में कलमा का −ईसाई धर्म में बपतिस्मा का जो अर्थ है वही हिन्दू धर्म में अनादि गुरु मंत्र गायत्री को प्राप्त है।
🔵 साधना की दृष्टि से गायत्री को सर्वांगपूर्ण एवं सर्व समर्थ कहा गया है। अमृत, पारस, कल्प−वृक्ष और कामधेनु के रूप में इसी महाशक्ति की चर्चा हुई है। पुराणों में ऐसे अनेकानेक कथा प्रसंग भरे पड़े हैं जिनमें गायत्री उपासना द्वारा भौतिक ऋद्धियाँ एवं आत्मिक सिद्धियाँ प्राप्त करने का उल्लेख है। साधना विज्ञान में गायत्री उपासना को सर्वोपरि माना जाता रहा है। उसके माहात्म्यों का वर्णन सर्वसिद्धिप्रद कहा गया है और लिखा है कि तराजू के एक पलड़े पर गायत्री को और दूसरे पर समस्त अन्य उपासनाओं को रखकर तोला जाय तो गायत्री ही भारी बैठती है। राम, कृष्ण आदि अवतारों की−देवताओं और ऋषियों की उपासना पद्धति गायत्री ही रही है। उसे सर्वसाधारण के लिए उपासना अनुशासन माना गया है और उसकी उपेक्षा करने वाली की कटु शब्दों में भर्त्सना हुई है।
🔴 सामान्य दैनिक उपासनात्मक नित्यकर्म से लेकर विशिष्ट प्रयोजनों के लिए की जाने वाली तपश्चर्याओं तक में गायत्री को समान रूप से महत्व मिला है। गायत्री, गंगा, गीता, गौ और गोविन्द हिन्दू धर्म के पाँच प्रधान आधार माने गये हैं, इनमें गायत्री प्रथम है। बाल्मीक रामायण और श्रीमद्भागवत में एक−एक शब्द का सम्पुट लगा हुआ है। इन दोनों ग्रन्थों में वर्णित रामचरित्र और कृष्णचरित्र को गायत्री का कथा प्रसंगात्मक वर्णन बताया जाता है इन सब कथनोपकथनों का निष्कर्ष यही निकलता है कि गायत्री मन्त्र के लिए भारतीय धर्म में निर्विवाद रूप से सर्वोपरि मान्यता मिली है।
🔵 उसमें जिन तथ्यों का समावेश है उन्हें देखते हुए निकट भविष्य में मानव जाति का सार्वभौम मन्त्र माने जाने की पूरी−पूरी सम्भावना है। देश धर्म, जाति समाज और भाषा की सीमाओं से ऊपर उसे सर्वजनीय उपासना कहा जा सकता है। जब कभी मानवी एकता से सूत्रों को चुना जाय तो आशा की जानी चाहिए गायत्री को महामन्त्र के रूप में स्वीकारा जायगा। हिन्दू धर्म के वर्तमान बिखराव को समेटकर उसके केन्द्रीकरण की एक रूपता की बात सोची जाय तो उपासना क्षेत्र में गायत्री को ही प्रमुखता देनी होगी।
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 ~अखण्ड ज्योति फरवरी 1976
👉 नवरात्रि अनुष्ठान
🔵 नवरात्रि अनुष्ठान में मन को एकाग्र तन्मय बनाने के साथ जप के साथ ध्यान की प्रक्रिया को सशक्त बनाया जाता है। मातृभाव में ध्यान तुरंत लग जाता है व जप स्वतः होठों से चलता रहता है। ध्यान तब माला की गिनती की ओर नहीं जाता। उँगलियों से माला के मन के बढ़ते जाते हैं, ध्यान मातृसत्ता का अनन्त स्नेह व ऊर्जा देने वाले पयपान की ओर लगा रहता है। इस अवधि में आत्मचिन्तन विशेष रूप से करना चाहिए। मन को चिन्ताओं से जितना खाली रखा जा सके-अस्तव्यस्तता से जितना मुक्त हुआ जा सकें, उसके लिए प्रयासरत रहना चाहिएं आत्मचिन्तन में अब तक के जीवन की समीक्षा करके उसकी भूलों को समझने और प्रायश्चित के द्वारा परिशोधन की रूपरेखा बनानी चाहिए। वर्तमान की गतिविधियों का नये सिरे से निर्धारण करना चाहिए।
🔴 उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्त्तव्य अपने क्रियाकलापों में अधिकतम मात्रा में कैसे जुड़ा रह सकता है, उसका ढांचा स्वयं ही खड़ा करना चाहिए और उसे दृढ़तापूर्वक निबाहने का संकल्प करना चाहिए। भावी जीवन की रूपरेखा ऐसी निर्धारित की जाय जिसमें शरीर और परिवार के प्रति कर्त्तव्यों का निर्वाह करते हुए आत्मकल्याण के लिए कुछ करते रहने की गुंजाइश बनी रहे। साधना-स्वाध्याय-संयम-सेवा, यही है आत्मोत्कर्ष के चार चरण। इनमें एक भी ऐसा नहीं है, जिसे छोड़ा जा सके और एक भी ऐसा नहीं है जिस अकेले के बल पर आत्मकल्याण का लक्ष्य पूरा किया जा सके।
🔵 अस्तु मनन और चिन्तन द्वारा इन्हें किस प्रकार कितनी मात्रा में अपनी दिनचर्या में सम्मिलित रखा गया, इस पर अति गम्भीरतापूर्वक विचार करते रहना चाहिए। यदि इससे भावी जीवन की कोई परिष्कृत रूपरेखा बन सकी और उसे व्यवहार में उतारने का साहस जग सका तो समझना चाहिए कि उतने ही परिमाण में गायत्री माता का प्रसाद तत्काल मिल गया। यह सुनिश्चित मानना चाहिए कि श्रेष्ठता भरी गतिविधियाँ अपनाते हुए ही भगवान की शरण में पहुँच सकना और उनका अनुग्रह प्राप्त करना सम्भव हो सकता है।
🔴 गायत्री परम सतोगुणी-शरीर और आत्मा में दिव्य तत्वों का आध्यात्मिक विशेषताओं का अभिवर्धन करने वाली महाशक्ति है। वर्ष की दो नवरात्रियों को गायत्री माता के दो आयातित वरदान मानकर हर व्यक्ति द्वारा सम्पन्न किया जाना चाहिए। इस अवधि में उनका कोमल प्राण धरती पर प्रवाहित होता है, वृक्ष वनस्पति नवलल्लव धारण करते हैं, जीवन-जन्तुओं में नई चेतना इन्हीं दिनों आती है। विधिपूर्वक सम्पन्न नवरात्रि साधना से स्वास्थ्य की नींव तक हिल जाती हैं एवं असाध्य बीमारियाँ तक इस नवरात्रि अनुष्ठान से दूर होती देखी गयी हैं।
अखण्ड ज्योति मार्च 1996
🔴 उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्त्तव्य अपने क्रियाकलापों में अधिकतम मात्रा में कैसे जुड़ा रह सकता है, उसका ढांचा स्वयं ही खड़ा करना चाहिए और उसे दृढ़तापूर्वक निबाहने का संकल्प करना चाहिए। भावी जीवन की रूपरेखा ऐसी निर्धारित की जाय जिसमें शरीर और परिवार के प्रति कर्त्तव्यों का निर्वाह करते हुए आत्मकल्याण के लिए कुछ करते रहने की गुंजाइश बनी रहे। साधना-स्वाध्याय-संयम-सेवा, यही है आत्मोत्कर्ष के चार चरण। इनमें एक भी ऐसा नहीं है, जिसे छोड़ा जा सके और एक भी ऐसा नहीं है जिस अकेले के बल पर आत्मकल्याण का लक्ष्य पूरा किया जा सके।
🔵 अस्तु मनन और चिन्तन द्वारा इन्हें किस प्रकार कितनी मात्रा में अपनी दिनचर्या में सम्मिलित रखा गया, इस पर अति गम्भीरतापूर्वक विचार करते रहना चाहिए। यदि इससे भावी जीवन की कोई परिष्कृत रूपरेखा बन सकी और उसे व्यवहार में उतारने का साहस जग सका तो समझना चाहिए कि उतने ही परिमाण में गायत्री माता का प्रसाद तत्काल मिल गया। यह सुनिश्चित मानना चाहिए कि श्रेष्ठता भरी गतिविधियाँ अपनाते हुए ही भगवान की शरण में पहुँच सकना और उनका अनुग्रह प्राप्त करना सम्भव हो सकता है।
🔴 गायत्री परम सतोगुणी-शरीर और आत्मा में दिव्य तत्वों का आध्यात्मिक विशेषताओं का अभिवर्धन करने वाली महाशक्ति है। वर्ष की दो नवरात्रियों को गायत्री माता के दो आयातित वरदान मानकर हर व्यक्ति द्वारा सम्पन्न किया जाना चाहिए। इस अवधि में उनका कोमल प्राण धरती पर प्रवाहित होता है, वृक्ष वनस्पति नवलल्लव धारण करते हैं, जीवन-जन्तुओं में नई चेतना इन्हीं दिनों आती है। विधिपूर्वक सम्पन्न नवरात्रि साधना से स्वास्थ्य की नींव तक हिल जाती हैं एवं असाध्य बीमारियाँ तक इस नवरात्रि अनुष्ठान से दूर होती देखी गयी हैं।
अखण्ड ज्योति मार्च 1996
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👉 महिमा गुणों की ही है
🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...