गुरुवार, 20 फ़रवरी 2020

👉 कर्ण की उदारता


👉 विरोध का सामना कैसे करें?

गंगा के तट पर एक संत अपने शिष्यों को शिक्षा दे रहे थे, तभी एक शिष्य ने पुछा, “ गुरू जी, यदि हम कुछ नया… कुछ अच्छा करना चाहते हैं पर समाज उसका विरोध करता है तो हमें क्या करना चाहिए?”

गुरु जी ने कुछ सोचा और बोले ,” इस प्रश्न का उत्तर मैं कल दूंगा।”

अगले दिन जब सभी शिष्य नदी के तट पर एकत्रित हुए तो गुरु जी बोले, “आज हम एक प्रयोग करेंगे… इन तीन मछली पकड़ने वाली डंडियों को देखो, ये एक ही लकड़ी से बनी हैं और बिलकुल एक समान हैं।”

उसके बाद गुरु जी ने उस शिष्य को आगे बुलाया जिसने कल प्रश्न किया था।गुरु जी ने निर्देश दिया - “ पुत्र, ये लो इस डंडी से मछली पकड़ो।” शिष्य ने डंडी से बंधे कांटे में आंटा लगाया और पानी में डाल दिया। फ़ौरन ही एक बड़ी मछली कांटे में आ फंसी…

गुरु जी बोले-” जल्दी…पूरी ताकत से बाहर की ओर खींचो।“ शिष्य ने ऐसा ही किया ,उधर मछली ने भी पूरी ताकत से भागने की कोशिश की…फलतः डंडी टूट गयी।
गुरु जी बोले- “कोई बात नहीं; ये दूसरी डंडी लो और पुनः प्रयास करो…।”

शिष्य ने फिर से मछली पकड़ने के लिए काँटा पानी में डाला।
इस बार जैसे ही मछली फंसी, गुरु जी बोले, “आराम से… एकदम हल्के हाथ से डंडी को खींचो।” शिष्य ने ऐसा ही किया, पर मछली ने इतनी जोर से झटका दिया कि डंडी हाथ से छूट गयी।

गुरु जी ने कहा, “ओह्हो, लगता है मछली बच निकली, चलो इस आखिरी डंडी से एक बार फिर से प्रयत्न करो।” शिष्य ने फिर वही किया। पर इस बार जैसे ही मछली फंसी गुरु जी बोले, “ सावधान! इस बार न अधिक जोर लगाओ न कम.. बस जितनी शक्ति से मछली खुद को अंदर की ओर खींचे उतनी ही शक्ति से तुम डंडी को बाहर की ओर खींचो.. कुछ ही देर में मछली थक जायेगी और तब तुम आसानी से उसे बाहर निकाल सकते हो”

शिष्य ने ऐसा ही किया और इस बार मछली पकड़ में आ गयी।
“क्या समझे आप लोग?” गुरु जी ने बोलना शुरू किया…” ये मछलियाँ उस समाज के समान हैं जो आपके कुछ करने पर आपका विरोध करता है। यदि आप इनके खिलाफ अधिक शक्ति का प्रयोग करेंगे तो आप टूट जायेंगे, यदि आप कम शक्ति का प्रयोग करेंगे तो भी वे आपको या आपकी योजनाओं को नष्ट कर देंगे… लेकिन यदि आप उतने ही बल का प्रयोग करेंगे जितने बल से वे आपका विरोध करते हैं तो धीरे-धीरे वे थक जाएंगे… हार मान लेंगे… और तब आप जीत जायेंगे… इसलिए कुछ उचित करने में जब ये समाज आपका विरोध करे तो समान बल प्रयोग का सिद्धांत अपनाइये और अपने लक्ष्य को प्राप्त कीजिये।”

👉 आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग (भाग २)

नम्र, दयालु, उपकारी और सहायक बनो। यही नहीं कि कभी-कभी यथावकाश इन गुणों का उपयोग किया जावे बल्कि सर्व काल में आपके सारे जीवन में इन्हीं गुणों का अभ्यास होना चाहिये। एक भी शब्द ऐसा मत कहो जिससे दूसरों को ठेस पहुँचे। बोलने से पहले भली प्रकार विचार करो और देख लो कि जो कुछ आप कहने लगे हो वह दूसरों के चित्त को दुखी तो नहीं करेगा-क्या वह बुद्धिसंगत मधुर सत्य तथा प्रिय तो है। पहले से ही ध्यानपूर्वक समझ लो कि आपके विचार शब्दों और कार्यों का क्या प्रभाव होगा। प्रारम्भ में आप कई बार भले ही असफल हो सकते हो परंतु यदि आप अभ्यास करते रहे तो अंतः में आप अवश्य सफल हो जाओगे।

आपको कोई काम निरुत्साह से, लापरवाही से, बेमन से नहीं करना चाहिए यदि मन की ऐसी वृत्ति रखोगे तो जल्दी उन्नति नहीं कर सकते। सम्पूर्ण चित्त, मन, बुद्धि आत्मा उस काम में लगा होना चाहिये। तभी आप उसे योग या ईश्वर पन कह सकते हो। कुछ मनुष्य हाथों से काम करते हैं और उनका मन कलकत्ते के बाजार में होता है, बुद्धि दफ्तर में होती है और आत्मा स्त्री या पुत्र में संलग्न रहती है। यह बुरी आदत है। आपको कोई भी काम हो उसे योग्य सन्तोषप्रद ढंग से करना चाहिये। आपका आदर्श यह होना चाहिये कि एक समय में एक ही काम अच्छे ढंग से किया जाये। यदि आपके गुरु मित्र आपसे तौलिया धोने को कहें तो आपको ना उन्हें बताए हुए ही उनके और कपड़ों को भी धो डालने चाहिए।

लगातार असफलता होने से आपको साहस नहीं छोड़ना चाहिए असफलता के द्वारा आपको अनुभव मिलता है। आपको वे कारण मालूम होंगे जिनसे असफलता हुई है और भविष्य में उनसे बचने के लिये सचेत रहोगे। आपको बड़ी-बड़ी होशियारी से उन कारणों से रक्षा करनी होगी। इन्हीं असफलताओं की कमजोरी में से आपको शक्ति मिलेगी। असफल होते हुए भी आपको अपने सिद्धान्त, लक्ष्य, निश्चय और साधन का दृढ़ मति होकर पालन और अनुसरण करना होगा। आप कहिये “कुछ भी हो मैं अवश्य पूरी सफलता प्राप्त करूंगा, मैं इसी जीवन में-नहीं नहीं, इसी क्षण आत्म साक्षात्कार करूंगा। कोई असफलता मेरे मार्ग में रुकावट नहीं डाल सकती।”

प्रयत्न और कोशिश आपकी ओर से होनी चाहिये भूखे मनुष्य हो आप ही खाना पड़ेगा। प्यासे को पानी पीना ही पड़ेगा। आध्यात्मिक सीढ़ी पर आपको हर एक कदम अपने अपने आप ही रखना होगा। इस बात को भली प्रकार स्मरण रखिये। साहसी बनो। यद्यपि बेरोजगार हो कुछ खाने को नहीं हो, तन पर वस्त्र भी न होवे तब भी सदा प्रसन्न रहो। आपका यथार्थ स्वभाव सच्चिदानन्द है। यह बाह्य नाशवान स्थूल शरीर तो माया का ही कार्य हैं मुस्कुराओ, सीटी बजाओ, हँसो कूदो और आनन्द में मग्न होकर नाचो।

.... क्रमशः जारी
📖 अखण्ड ज्योति दिसम्बर 1950 पृष्ठ 7

👉 MISCELLANEOUS Quotation & Answer (Part 6)

Q.6. I have been doing Gayatri Sadhana regularly. Nevertheless, at times, I feel depressed and dissatisfied with my progress. What is the remedy?

Ans. The feelings of occasional depression, dissatisfaction with progress and momentary loss of interest are not uncommon in course of Sadhana. In order to understand this paradoxical phenomenon, it is  necessary to understand three successively higher phases of spiritual evolution. These are known as :-

(1) The Mantra Diksha or Initiation
This is the initial Kindergarten stage - the ‘Bhuha’ stage of Dikcha, in which the ‘Acharya’ - a representative of Guru, introduces the novice to the concept of Gayatri disciplines through ‘Baikhari Vani’ (by speaking). Any contemplative, spiritually- wise, high-character, talented, person may assume the charge of an ‘Acharya’. Nevertheless, this is a great responsibility, since after establishing the spiritual relationship, sins and virtues of the disciple are shared by the Guru. Since the Guru, by definition, is sinless, his displeasure on any dereliction by the devotee is quite natural. Besides, it must also be very clearly understood, that merely admission to the school of Sadhana through Mantra Dikcha is not sufficient. The devotee must persistently endeavour to qualify for the higher stages of Diksha.

(2) Agni Diksha or Pran Diksha
This is the ‘Bhuwaha’ stage of Dikcha carried out extra-sensorially, through ‘Madhyama’ and pashyanti Vani (Telepathic and soul-to-soul communication). In this case the Guru undertakes refinement and development of the Sukchma Sharir - the conscious and supra-conscious levels of mind (‘Man’: ‘Budhi’, ‘Chitta’ and ‘Ahankar’) of the devotee.

When the devotee graduates to this next higher class of ‘Agni Dikcha’, the Guru extra-sensorally transmits a part of the spiritual charge (Pran) to the devotee, from his own spiritual battery accumulated after prolonged Tapascharya.

The ‘concepts’ planted and developed during the Mantra Dikcha are now translated into ‘action’ by this new acquisition of powerful energy (Pran). At this stage, there is a great turmoil in the inner-self of the devotee, which he/ she apparently feels as a fast growing dissatisfaction with his / her progress, uneasiness and momentary depression. These external symptoms are, in fact, an indication of the churning, taking place within deeper levels of the soul.  Hence, unless the devotee feels this turmoil, it is to be assumed that the activation by the Guru has become feeble, because of some shortcomings in the devotee’s Sadhana.
    
After Agni Dikcha, the devotee becomes more enlightened and is able to discern his / her personal faults, however trivial they are. The term Agni Dikcha owes its nomenclature to the process of ‘Incineration in the inner-self by the fire of discernment’. The phenomenon is parallel to the exercise of Tapascharya for the purification of physical body.

There are three clear signs of a person undergoing Agni Dikcha. (1) A strong inclination to perform ‘Tap’ for self-purification, (2) A feeling of discontentment with one’s progress and a desire for speedy innergrowth and  (3) realisation of many shortcomings in  one’s thoughts, behaviour and nature.

Here, it must be emphasised that ‘Only that Guru can give Dikcha, who has himself earned and conserved sufficient spiritual charge by performing Tapascharya’.

(3) Pran Dikcha (‘Swaha’ stage)
This is the highest level of Dikcha in course of which the transfer of spiritual energy takes place from the soul of the Guru to the soul of the devotee. This is the process through which the Guru hands over spiritual succession to the most deserving disciple. In other words, it means appointing the spiritual successor.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 Gayatri Sadhna truth and distortions Page 84

👉 शून्यता

मन की उठती-गिरती लहरों में अपने को ढूँढ़ने की बहुत कोशिश की, लेकिन यह न मिला। विद्वानों द्वारा रचित शास्त्र पढ़े, ज्ञानियों की बातें सुनी, पर इससे भी कुछ न हुआ। बस चेतना बोझिल होती गयी, भावनाओं में भारीपन आ गया। अपने को हल्का करने के लिए यूँ ही घूमने निकला। पश्चिमोन्मुख सूरज थोड़ी देर पहले ही बादलों में छुप गया था। लेकिन रात का द्वार रोकने के लिए साँझ अभी तक ठहरी हुई थी। मैं अभी तक स्वयं की खोज कर रहा था। पर वहाँ तो एक शून्यता थी। और जहाँ शून्यता होती है, वहाँ कुछ भी नहीं होता।
  
थोड़ी ही दूर पर बैठी एक बुढ़िया प्याज छील रही थी। उसने एक बड़ी सी प्याज की गाँठ हाथ में ली और छीलने लगी। परतों पर परतें निकलती गयी। मोटी-खुरदरी परतें, फिर मुलायम-चिकनी परतें और फिर कुछ भी नहीं। प्याज छिलते-छिलते उस बुढ़िया के हाथ कुछ भी न बचा। अपनी इस स्थिति पर वह जोर से हँस दी। उसे देखकर लगा कि अपना मन भी तो कुछ ऐसा ही है। इसे उघाड़ते चलें- पहले स्थूल परतें, फिर सूक्ष्म परतें, फिर शून्य। विचार, वासनाएँ और अहंकार, फिर कुछ भी नहीं। बस शून्यता ही बची रहती है। इस शून्यता को जो उघाड़ते हैं, वही ध्यान में प्रवेश करते हैं।
  
यह ध्यान ही परिचय कराता है हमारा अपने आपसे। यह शून्य गहनता ही हमारा अपना स्वरूप है। फिर उसे आत्मा कहें या कुछ और। पर यह सच है कि विचार, वासना, अहंकार जहाँ नहीं है, वहीं वह है- ‘जो है’। पश्चिमी दुनिया के एक बड़े विचारक ने लिखा है कि जब भी मैं अपने में जाता, कोई मैं मुझे वहाँ नहीं मिलता। या तो किसी विचार से टकराव होता है या किसी वासना अथवा फिर किसी याद से। उनकी यह बात कुछ हद तक ठीक है। पर परतों से लौट आना तो भूल है। प्याज हाथ में लिया है तो पूरा ही छील लें। सारी परतें उघड़ जाने पर टकराने के लिए कुछ भी न बचेगा। बची रहेगी तो बस शून्यता। यही तो अपना परिचय है। सतह पर संसार के सब रंग हैं, परन्तु केन्द्र में शून्य नीरवता है। जहाँ स्वयं का ज्ञान, स्वयं की उपलब्धि होती है।

✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ १९४

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...