सोमवार, 26 दिसंबर 2016

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 27 Dec 2016


👉 आज का सद्चिंतन 27 Dec 2016


👉 सतयुग की वापसी (भाग 22) 27 Dec

🌹 समग्र समाधान—  मनुष्य में देवत्व के अवतरण से

🔴 तात्त्विक दृष्टि से यह प्रगतिशीलता, कुटिलता की पक्षधर बुद्धिवादी मानसिकता को तनिक भी नहीं सुहाती। इसमें उसे प्रत्यक्षत: घाटा ही घाटा दीखता है। अपना और दूसरों का जो कुछ भी उपलब्ध हो, उस सब को हड़प जाना या बिखेर देना ही उस भौतिक दृष्टि का एकमात्र निर्धारण है, जो जनमानस पर प्रमुखतापूर्वक छाई हुई है। संकीर्ण स्वार्थपरता, स्वच्छन्द उपयोग की ललक उभारती है। उसी की प्रेरणा से वह निष्ठुरता पनपती है, जो मात्र हड़पने की ही शिक्षा देती है, जिसके लिए भले ही किसी भी स्तर का अनाचार बरतना पड़े। निष्ठुरता इसी स्थिति की देन है। वही है जो अनावश्यक संचय और अवांछनीय उपभोग के लिए हर समय उकसाती-उत्तेजित करती रहती है। यही है वह मानसिकता जिसकी छाप जहाँ भी पड़ी है, वहीं चित्र-विचित्र संकट एवं विग्रह उत्पन्न होते चले गए हैं। इसी मानसिकता को दूसरे शब्दों में कुटिलता, नास्तिकता अथवा शालीनता को पूरी तरह समाप्त कर देने में समर्थ ओले की वर्षा के समतुल्य भी समझा जा सकता है।     

🔵 प्रदूषण, विकिरण, युद्धोन्माद, दरिद्रता, पिछड़ापन, अपराधों का आधार खोजने पर एक ही निष्कर्ष निकलता है कि उपलब्धियों को दानवी स्वार्थपरता के लिए नियोजित किए जाने पर ही यह संकट उत्पन्न हुए हैं। शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को चौपट करने में असंयम और दुर्व्यसन ही प्रधान कारण हैं। मनुष्यों के मध्य चलने वाले छल-छद्म प्रपंच एवं विश्वासघात के पीछे भी यही मानसिकता काम करती है। इनमें जिन अवांछनीयताओं का अभ्यास मिलता है, वस्तुत: वे सब विकृत मानसिकता की ही देन हैं।   

🔴 दोष न तो विज्ञान का है और न बुद्धिवाद का। बढ़ी-चढ़ी उपलब्धियों को भी वर्तमान अनर्थ के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता। यदि विकसित बुद्धिवाद का, विज्ञान का, वैभव का, कौशल का उपयोग सदाशयता के आधार पर बन पड़ा होता तो खाई-खन्दकों के स्थान पर समुद्र के मध्य प्रकाश स्तम्भ बनकर खड़ी रहने वाली मीनार बनकर खड़ी हो गई होती। कुछ वरिष्ठ कहलाने वाले यदि उपलब्धियों का लाभ कुछ सीमित लोगों को ही देने पर आमादा न हुए होते, तो यह प्रगति जन-जन के सुख सौभाग्य में अनेक गुनी बढ़ोत्तरी कर रही होती। हँसता-हँसाता खिलता-खिलाता जीवन जी सकने की सुविधा हर किसी को मिल गई होती। पर उस विडम्बना को क्या कहा जाए, जिसमें विकसित मानवी कौशल ने उन दुरभिसन्धियों के साथ तालमेल बिठा लिया, जो गिरों को गिराने और समर्थों को सर्वसम्पन्न बनाने के लिए ही उतारू हों।
 
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 गायत्री विषयक शंका समाधान (भाग 5) 27 Dec

🌹 स्नान और उसकी अनिवार्यता

🔴 रुग्णता, दुर्बलता से ग्रसित व्यक्ति स्नान की सुविधा न होने पर हाथ-पर, मुंह धोकर काम चला सकते हैं। गीले तौलिये से शरीर को पोंछ लेना भी आधा स्नान माना जाता है। वस्त्र धुले न हों तो ऊनी कपड़े पहन कर यह समझा जा सकता है कि उनके धुले न होने पर भी काम चल सकता है। यों मैल और पसीना तो ऊन को भी स्पर्श करता है और उन्हें भी धोने की या धूप में सुखाने की आवश्यकता पड़ती है। पर चूंकि उनके बाल गन्दगी को अपने अन्दर नहीं सोखते वह बाहर ही चिपकी रह जाती है।

🔵 इस दृष्टि से उसमें अशुद्धि का सम्पर्क कम होने के कारण बिना धुले होने पर भी ऊनी कपड़े पवित्र माने जाते हैं। यो स्वच्छता की दृष्टि से वे भी ऐसे नहीं होते कि बिना धुले होने पर भी सदा प्रयुक्त किये जाते और स्वच्छ माने जाते रहें। इसलिए इतना ही कहा जा सकता है कि व्यक्ति की असुविधा को ध्यान में रखते हुए शरीर और वस्त्रों की स्वच्छता के सम्बन्ध में उतनी ही छूट देनी चाहिए जिसके बिना काम न चलता हो। अश्रद्धा, उपेक्षा, आलस्य, प्रमाद वश स्वच्छता को अनावश्यक मानना और ऐसे ही मनमानी करना उचित नहीं।

🔴 रेशमी वस्त्रों के सम्बन्ध में भी ऐसी ही मान्यता है कि उन्हें धोने की आवश्यकता नहीं। वे बिना धोये ही शुद्ध होते हैं यह मान्यता गलत है। सूत जितनी सोखने की शक्ति न होने से अपेक्षाकृत उसमें अशुद्धि का प्रवेश कम होता है, यह तो माना जा सकता है पर उसे सदा सर्वदा के लिए पवित्र मान लिया जाय और धोया ही न जाय, यह गलत है। धोने के समय को सूती कपड़े की अपेक्षा कुछ अधिक किया जा सकता है, इतना भर ही माना जाना चाहिए। धोया उसे भी जाय।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 गृहस्थ-योग (भाग 46) 27 Dec

🌹 पारिवारिक स्वराज्य

🔵 मधुर भाषण, प्रसन्न रहना, दूसरों को प्रसन्न रखना आवश्यक है और इन सबसे अधिक आवश्यक यह है कि परिवार का खर्च चलाने के लिये ईमानदारी से परिश्रमपूर्वक पैसा कमाया जाय। अनुचित रूप से कमाया हुआ अन्न सब की मन बुद्धि को दूषित करता है और फिर वे दोष नाना प्रकार के कलह, दुर्भाव और दुर्गुणों के रूप में प्रकट होते हैं। ईमानदारी से कमाये हुए अन्न से ऐसा सात्विक रक्त बनता है कि उससे शारीरिक और मानसिक स्वस्थता एवं सात्विकता अपने आप प्रचुर परिमाण में प्राप्त होती है और उसके आधार पर बिना अधिक परिश्रम के सद्भाव बढ़ते रहते हैं।

🔴 गृहस्थ योगी का चाहिये कि अपने परिवार को सेवा-क्षेत्र बनावे। परिजनों को ईश्वर की प्रतिमूर्तियां समझकर उनकी सेवा में दत्तचित्त रहे, उन्हें भीतरी और बाहरी स्वच्छता से समन्वित करके सुशोभित बनावे। इस प्रकार अपनी सेवा-वृत्ति और परमार्थ-भावना का जो नित्य पोषण करता है, उसकी अन्तःचेतना वैसी ही पवित्र हो जाती है जैसे अन्य योग साधकों की। गृहस्थ योगी को वही सद्गति उपलब्ध होती है जिसे अन्य योगी प्राप्त करते हैं।

🌹 अगले अंक में समाप्त
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 "सुनसान के सहचर" (भाग 7)

🌞  हमारा अज्ञातवास और तप-साधना का उद्देश्य

🔵 ब्रह्मचर्य तप का प्रधान अंग माना गया है। बजरंगी हनुमान, बालब्रह्मचारी भीष्मपितामह के पराक्रमों से हम सभी परिचित हैं। शंकराचार्य, दयानन्दप्रभृति अनेकों महापुरुष अपने ब्रह्मचर्य व्रत के आधार पर ही संसार की महान् सेवा कर सके। प्राचीन काल में ऐसे अनेकों ग्रहस्थ होते थे जो विवाह होने पर भी पत्नी समेत अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन करते थे।

🔴 आत्मबल प्राप्त करके तपस्वी लोग उस तप बल से न केवल अपना आत्म कल्याण करते थे वरन् अपनी थोड़ी सी शक्ति अपने शिष्यों को देकर उनको भी महापुरुष बना देते थे। विश्वामित्र के आश्रम में रह कर रामचन्द्र जी का, संदीपन ऋषि के गुरुकुल में पढ़कर कृष्णचन्द्र जी का ऐसा निर्माण हुआ कि भगवान ही कहलाये। समर्थ गुरु रामदास के चरणों में बैठकर एक मामूली सा मराठा बालक, छत्रपति शिवाजी बना। रामकृष्ण परमहंस से शक्ति कण पाकर नास्तिक नरेन्द्र, संसार का श्रेष्ठ धर्म प्रचारक विवेकानन्द कहलाया। प्राण रक्षा के लिए मारे-मारे फिरते हुए इन्द्र को महर्षि दधीचि ने अपनी हड्डियां देकर उसे निर्भय बनाया, नारद का जरासा उपदेश पाकर डाकू बाल्मीकि महर्षि बाल्मीकि बन गया।

🔵 उत्तम सन्तान प्राप्त करने के अभिलाषी भी तपस्वियों के अनुग्रह से सौभाग्यान्वित हुए हैं। श्रृंगी ऋषि द्वारा आयोजित पुत्रेष्टि यज्ञ के द्वारा तीन विवाह कर लेने पर भी संतान न होने पर राजा दशरथ को चार पुत्र प्राप्त हुए। राजा दिलीप ने चिरकाल तक अपनी रानी समेत वशिष्ठ के आश्रम में रहकर गौ चरा कर जो अनुग्रह प्राप्त किया उसके फलस्वरूप ही डूबता वंश चला, पुत्र प्राप्त हुआ। पाण्डु जब सन्तानोत्पादन में असमर्थ रहे तो व्यास जी के अनुग्रह से परम प्रतापी पांच पाण्डव उत्पन्न हुए। श्री जवाहरलाल नेहरू के बारे में कहा जाता है कि उनके पिता मोतीलाल नेहरू जब चिरकाल तक संतान से वंचित रहे तो उनकी चिन्ता दूर करने के लिए हिमालय निवासी एक तपस्वी ने अपना शरीर त्यागा और उनका मनोरथ पूर्ण किया। अनेकों ऋषि-कुमार अपने माता-पिता के प्रचण्ड आध्यात्मबल को जन्म से ही साथ लेकर पैदा होते थे और वे बालकपन में वे कर्म कर लेते थे जो बड़ों के लिए भी कठिन होते हैं। लोमश ऋषि के पुत्र श्रृंगी ऋषि ने राजा परीक्षत द्वारा अपने पिता के गले में सर्प डाला जान देखकर क्रोध में शाप दिया कि सात दिन में यह कुकृत्य करने वाले को सर्प काट लेगा। परीक्षत की सुरक्षा के भारी प्रयत्न किये जाने पर सर्प से काटे जाने का ऋषि कुमार का शाप सत्य ही होकर रहा।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 "हमारी वसीयत और विरासत" (भाग 7)

🌞 जीवन के सौभाग्य का सूर्योदय

🔴 शिष्य गुरुओं की खोज में रहते हैं। मनुहार करते हैं। कभी उनकी अनुकम्पा भेंट-दर्शन हो जाए, तो अपने को धन्य मानते हैं। उनसे कुछ प्राप्त करने की आकाँक्षा रखते हैं। फिर क्या कारण है कि मुझे अनायास ही ऐसे सिद्ध पुरुष का अनुग्रह प्राप्त हुआ? यह कोई छद्म तो नहीं है? अदृश्य में प्रकटीकरण की बात भूत-प्रेत से सम्बंधित सुनी जातीं हैं और उनसे भेंट होना किसी अशुभ अनिष्ट का निमित्त कारण माना जाता है। दर्शन होने के उपरान्त मन में यही संकल्प उठने लगे। संदेह उठा, किसी विपत्ति में फँसने जैसा कोई अशुभ तो पीछे नहीं पड़ा।

🔵 मेरे इस असमंजस को उन्होंने जाना। रुष्ट नहीं हुए। वरन् वस्तु स्थिति को जानने के उपरान्त किसी निष्कर्ष पर पहुँचने और बाद में कदम उठाने की बात उन्हें पसंद आई। यह बात उनकी प्रसन्न मुख-मुद्रा को देखने से स्पष्ट झलकती थी। कारण पूछने में समय नष्ट करने के स्थान पर उन्हें यह अच्छा लगा कि अपना परिचय, आने का कारण और मुझे पूर्व जन्म की स्मृति दिलाकर विशेष प्रयोजन निमित्त चुनने का हेतु स्वतः ही समझा दें। कोई घर आता है, तो उसका परिचय और आगमन का निमित्त कारण पूछने का लोक व्यवहार भी है। फिर कोई वजनदार आगंतुक जिसके घर आते हैं, उसका भी वजन तोलते हैं। अकारण हल्के और ओछे आदमी के यहाँ जा पहुँचना उनका महत्त्व भी घटाता है और किसी तर्क बुद्धि वाले के मन में ऐसा कुछ घटित होने के पीछे कोई कारण न होने की बात पर संदेह होता है और आश्चर्य भी।

🔴 पूजा की कोठरी में प्रकाश-पुंज उस मानव ने कहा-‘‘तुम्हारा सोचना सही है। देवात्माएँ जिनके साथ सम्बन्ध जोड़ती हैं, उन्हें परखती हैं। अपनी शक्ति और समय खर्च करने से पूर्व कुछ जाँच-पड़ताल भी करती हैं। जो भी चाहे उसके आगे प्रकट होने लगे और उसका इच्छित प्रयोजन पूरा करने लगें, ऐसा नहीं होता। पात्र-कुपात्र का अंतर किए बिना चाहे जिसके साथ सम्बन्ध जोड़ना किसी बुद्धिमान और सामर्थ्यवान के लिए कभी कहीं सम्भव नहीं होता। कई लोग ऐसा सोचते तो हैं कि किसी सम्पन्न महामानव के साथ सम्बन्ध जोड़ने में लाभ है, पर यह भूल जाते हैं कि दूसरा पक्ष अपनी सामर्थ्य किसी निरर्थक व्यक्ति के निमित्त क्यों गँवाएँगे?’’

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 58)

🌹 राजनीति और सच्चरित्रता

🔴 आज की परिस्थितियों में शासन सत्ता की शक्ति बहुत अधिक है। इसलिये उत्तरदायित्व भी उसी पर अधिक है। राष्ट्रीय चरित्र के उत्थान और पतन में भी शासन-तंत्र अपनी नीतियों के कारण बहुत कुछ सहायक अथवा बाधक हो सकता है। नीचे कुछ ऐसे सुझाव प्रस्तुत किए जाते हैं जिनके आधार पर राजनीति के क्षेत्र से चरित्र निर्माण की दिशा में बहुत काम हो सकता है। हम लोग आज की प्रत्यक्ष राजनीति में भाग नहीं लेते पर एक मतदाता और राष्ट्र के उत्तरदायी नागरिक होने के नाते इतना कर्तव्य तो है ही कि शासन तंत्र में आवश्यक उत्कृष्टता लाने के लिए प्रयत्न करें।

🔵 जो लोग आज चुने हुए हैं उन तक यह विचार पहुंचाए जाएं और जो आगे चुने जाएं उन्हें इन विचारों की उपयोगिता समझाई जाय। चुने हुए लोगों का बहुमत तो इस दिशा में बहुत कुछ कर सकता है। अल्प मत के लोग भी बहुमत को प्रभावित तो कर ही सकते हैं। जन आन्दोलन के रूप में यह विचारधारा यदि सरकार तक पहुंचाई जाय तो उसे भी इस ओर ध्यान देने और आवश्यक सुधार करने का अवसर मिलेगा। हमें रचनात्मक प्रयत्न करने चाहिये और शासन में चरित्र-निर्माण के उपयुक्त वातावरण रहे इसके लिये प्रयत्न करते रहना ही चाहिए।

🔴 नीचे कुछ विचार प्रस्तुत हैं। इनके अतिरिक्त तथा विकल्प में भी अनेक विचार हो सकते हैं जिनके आधार पर राष्ट्र का चारित्रिक विकास हो सके। उनको भी सामने लाना चाहिए।

🔵 87. गीता के माध्यम से जनजागरण— जिस प्रकार भागवत् कथा सप्ताहों के धार्मिक अनुष्ठान होते हैं उसी प्रकार गीता कथा सप्ताहों के माध्यम से जन जागरण के आयोजन किये जायें। युग-निर्माण योजना के अन्तर्गत जिस आर्ष-विचारधारा का प्रतिपादन है वह गीता में समग्र रूप से विद्यमान हैं। मोह-ग्रस्त अर्जुन को जिस प्रकार भगवान कृष्ण ने गीता का सन्देश सुनाकर उसे कर्तव्य पथ पर संलग्न किया था उसी प्रकार प्रस्तुत भारत को जागृत करने के लिये जन-जीवन में गीता ज्ञान का प्रवेश कराया जाना चाहिए।

🔴 इस प्रकार गीता प्रवचनों के प्रशिक्षण के लिये एक विशेष योजना तैयार की गई है। गीता श्लोकों से संगति रखने वाली रामायण की चौपाइयों में इतिहास पुराणों की कथाओं का समावेश करके ऐसी पुस्तकें तैयार की गई हैं जिनके माध्यम से गीता की कथा को बाल, वृद्ध, नर, नारी, शिक्षित, अशिक्षित सभी के लिए आकर्षक, प्रबोधक एवं हृदयस्पर्शी बनाया जा सकता है। राधेश्याम तर्ज पर गीता का ऐसा पद्यानुवाद भी छापा गया है जिसे कीर्तन भजन की तरह गाया जा सकता है। आयोजनों में भाग लेने वाले व्यक्ति दो भागों में विभक्त होकर बारी-बारी इन पद्यानुवादों का सामूहिक पाठ करें तो वह गीता परायण बहुत ही आकर्षक बन सकता है। किस श्लोक के साथ किस युग-निर्माण सिद्धान्त का समावेश किया जाय और उसका प्रतिपादन किस प्रकार हो यह विधान इस गीता सप्ताह साहित्य में समाविष्ट कर दिया गया है। ऐसे प्रवचन कर्ताओं को व्यवहारिक शिक्षा देने के लिए मथुरा में एक एक महीने के शिक्षण शिविर भी होते हैं, जिनमें प्रशिक्षण प्राप्त कर गीता के माध्यम से जन-जागरण के लिये नई पीढ़ी के नये प्रवचनकर्त्ता—कथा-व्यास तैयार किये जा सकते हैं।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 गृहस्थ-योग (भाग 45) 26 Dec

🌹 पारिवारिक स्वराज्य

🔵 यदि कोई गलती कर रहा हो तो एकान्त में उसे प्रेम पूर्वक उसकी ऊंच, नीच, लाभ, हानि समझनी चाहिए। सबके सामने कड़ा विरोध करना, अपमान करना, गाली बकना, मारना पीटना बहुत अनुचित है। इससे सुधार कम और बिगाड़ अधिक होता है। द्वेष दुर्भाव और घृणा की वृद्धि होती है, यह सब होना एक अच्छे परिवार के लिए लज्जाजनक है। समझाने से आदमी मान जाता है और अपमानित करने से वह क्रुद्ध होकर प्रतिशोध लेता एवं उपद्रव खड़े करता है।

🔴 दूसरों की आंख बचाकर अपने लिये अधिक लेना बुरा है। बाजार में चुपके से स्वादिष्ट पदार्थ चट कर आना, चुपके चुपके निजी कोष बनाना, अपने मनोरंजन, शौक या फैशन के लिए अधिक खर्च करना घर भर को ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, आत्मसंतोष और निन्दा के लिए आमंत्रित करना है। बाहर व्यवसाय क्षेत्र में काम करने के लिए यदि बढ़िया कपड़ों की आवश्यकता है तो सब लोगों को यह अनुभव करना चाहिए कि यह शौक या फैशन के लिए नहीं आवश्यकता के लिए किया गया है।

🔵 अधिक परिश्रम की क्षतिपूर्ति के लिए यदि कुछ विशेष खुराक की जरूरत है तो दूसरों को यह महसूस होने देना चाहिए कि यह चटोरेपन के लिए नहीं जीवन-रक्षा के लिये किया गया है। भावनाएं छिपती नहीं, चटोरापन या फैशनपरस्ती बात-बात में टपकती है, विशेष आवश्यकता की विशेष पूर्ति केवल विशेष अवसर पर ही रहती है शेष आचरण सबके साथ घुला−मिला और समान रहता है। जिसे जो विशेष सुविधा प्राप्त करनी हो वह प्रकट रूप से होनी चाहिये।

🌹 अगले अंक में समाप्त
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 गायत्री विषयक शंका समाधान (भाग 4) 26 Dec

🌹 स्नान और उसकी अनिवार्यता

🔴 गायत्री जप बिना स्नान किये भी हो सकता है या नहीं? इस प्रश्न के उत्तर में समझा जाना चाहिए कि प्रत्येक अध्यात्म प्रयोजन के लिए शास्त्रों में शरीर को स्नान से शुद्ध करके और धुले हुए कपड़े पहन कर बैठने का विधान है। अधिक कपड़े पहनने पर सभी कपड़े नित्य धुले हुए हों, यह व्यवस्था करना कठिन पड़ता है। इसलिए धोती-दुपट्टा पहन कर बैठने की परम्परा है। ठंड लगती हो तो बनियान आदि पहन सकते हैं। पर वे भी धुले ही होने चाहिए। यह पूर्ण विधान हुआ।

🔵 अब कठिनाई वश इस व्यवस्था में व्यवधान उत्पन्न होने पर क्या करना चाहिए? इसका उत्तर यह है कि शास्त्रकारों ने कठिनाई की स्थिति में लचीली नीति रखी है। ऐसे कड़े प्रतिबन्ध नहीं लगाये जिनके कारण स्नान एवं धुले वस्त्र की व्यवस्था न बन पड़ने पर जप जैसा पुनीत कार्य भी बन्द कर दिया जाय। इसमें तो दुहरी हानि हुई। नियम इसलिए बने थे कि उपासना काल में अधिकतम पवित्रता रखने का प्रयत्न किया जाय। यदि नियम इतना कड़ा हो जाय कि स्नानादि न बन पड़ने पर जप, साधना का पुण्य उपार्जन ही बन्द हो जाय तब तो बात उलटी हो गई। नियमों की कड़ाई ने ही साधना, उपासना कृत्य से वंचित करके कठिनाई का हल निकालने के स्थान पर, रही बची संभावना भी समाप्त कर दी। जो आधा-अधूरा लाभ मिल सकता था उसकी सम्भावना भी समाप्त हो गई।

🔴 शास्त्र-विधान यह है कि शरीर, वस्त्र, पात्र, उपकरण, पूजा सामग्री, देव प्रतिमा, आसन, स्नान आदि सभी को अधिकतम स्वच्छ बनाकर उपासना कृत्य करने पर जोर दिया जाय। इसमें आलस्य, प्रमाद को हटाने और स्वच्छता को उपासना का अंग मानने की बात कही गई है। फिर भी कारणवश ऐसी कठिनाइयां हो सकती हैं जिनमें साधक की मनःस्थिति और परिस्थिति पर ध्यान देते हुए विधान-प्रक्रिया को उस सीमा तक ढीला किया जाय, जितना किये बिना गाड़ी रुक जाने का खतरा हो। स्वच्छता की नीति पूरी तरह तो समाप्त नहीं करनी चाहिए, पर जहां तक अधिकाधिक सम्भव हो उतना करने-कराने की ढील देकर क्रम को किसी प्रकार गतिशील रखा जा सकता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

!! अखिल विश्व गायत्री परिवार का शहीद उधम सिंह को शत शत प्रणाम !!

 13 अप्रैल 1919 को घटित जलियांवाला बाग़ के दोषी जनरल डायर को उधम सिंह ने लन्दन में जाकर गोली मारी और निर्दोषों की मौत का बदला लिया। हँसते हँसते फांसी के तख्ते पर चढ़ कर शहीद उधम सिंह ने देश के लिए अपने प्राणों की कुर्बानी दी थी ।

अखिल विश्व गायत्री परिवार शहीद उधम सिंह को उनकी 117वीं जयंती (26 Dec) पर शत शत प्रणाम करता है।

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...