गुरुवार, 18 फ़रवरी 2016

👉 शिष्य संजीवनी (भाग 5)


सबसे पहले शिष्य अपनी महत्त्वाकांक्षा छोड़े

जो इस महासाधना के लिए तैयार है, उनके लिए शिष्य संजीवनी का प्रथम सूत्र है- महात्त्वाकांक्षाको दूर करो। क्योंकि शिष्यों के लिए महात्त्वाकांक्षा पहला अभिशाप है। जो कोई अपने साधना पथ पर आगे बढ़ रहा है, उसे यह मोहित करके पथ से विचलित कर देती है। सत्कर्मों एवं पुण्यों को समाप्त करने का यह सबसे सरल साधन है। बुद्धिमान, परम समर्थ एवं महातपस्वी लोग भी इसके जाल मेंफंस कर बराबर अपनी उच्चतम सम्भावनाओं से स्खलित होते रहते हैं। महात्त्वाकांक्षा कितनी भी सम्मोहक व आकर्षक क्यों न हो, पर इसके फल चखते समय मुँह में राख और धूल बन जाते हैं। मृत्यु और विछोह की ही भाँति इससे भी यही सीख मिलती है कि स्वार्थ के लिए अहं के विस्तार के लिए कार्य करने से परिणाम में केवल निराशा ही मिलती है। महत्त्वाकांक्षा प्रकारान्तर से साधना का महाविनाश ही है।

यह अनुभव उन सभी का है, जिन्होंने शिष्य की गहनतम व सफलतम साधना की है। महात्त्वाकांक्षाएवं शिष्यत्व का कोई मेल नहीं है। शिष्य बनने के लिए अपने को गलाना, जलाना और मिटाना पड़ता है, ताकि खाली हुआ जा सके। पात्र बना जा सके और इस पात्रता को सद्गुरु के अनुदानों से परिपूर्ण किया जा सके। महात्त्वाकांक्षा इस प्रक्रिया की एकदम विरोधी है। यह कुछ होने की वासना है। अपनी क्षुद्रताओं को पोषित करने का पागलपन है।

महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति सदा ही अपनी क्षुद्रताओं से घिरा रहता है। महात्त्वाकांक्षा में निहित सत्य का यदि मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करें तो यही तथ्य उजागर होता है कि जो जितना अधिक आत्महीनता से ग्रस्त है, वह उतना ही इसके पाश में जकड़ जाता है। ऐसा व्यक्ति हमेशा ही दूसरे के धन, पद, स्वास्थ्य, वैभव को देखकर ललचाता रहता है। उसे हर क्षण यही लगता रहता है कि इसके जैसा बन जाऊँ, उसके जैसा बन जाऊँ। यह भटकन उसे सदा ही आत्मविमुख बनाये रखती है। इस मनोदशा में अपनी सम्भावनाओं को जानने, खोजने, इन्हें साकार करने की सुधि ही नहीं आती।

क्रमशः जारी
- डॉ. प्रणव पण्डया
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