खिलौनों ने अध्यात्म का सत्यानाश कर दिया
गायत्री मंत्र हमारे साथ- साथ-
ऊँ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
मित्रो! हमने यह क्या कर डाला! अज्ञान के वशीभूत हो करके हमने उस धर्म की जड़ में कुल्हाड़ा दे मारा और उसे काटकर फेंक दिया, जिसका उद्देश्य था कि हमको पाप से डरना चाहिए और श्रेष्ठ काम करना चाहिए। पापों के डर को तो हमने उसी दिन निकाल दिया, जिस दिन हमारे लिए गंगा पैदा हो गई। गंगा नहाइए और पापों का डर खतम। अच्छा साहब! चलिए ,, एक डर तो खतम हुआ। एक झगड़ा और रह गया है। क्या रह गया है? श्रेष्ठ काम कीजिए, त्याग कीजिए, बलिदान कीजिए, समाज सेवा कीजिए, अमुक काम कीजिए।
पर इनका सफाया किसने कर दिया? बेटे! यह सत्यनारायण स्वामी ने कर दिया और महाकाल के मंदिर ने कर दिया। इन खिलौनों को देखिए और बैकुंठ को जाइए। अध्यात्म का सत्यानाश हो गया। अध्यात्म दुष्ट हो गया, अध्यात्म भ्रष्ट हो गया। भ्रष्ट और दुष्ट अध्यात्म को लेकर हम चलते हैं और फिर यह उम्मीद करते हैं कि इसके फलस्वरूप हमें वे लाभ मिलने चाहिए, वे चमत्कार मिलने चाहिए, वे सीढ़ियाँ मिलनी चाहिए और वे वरदान मिलने चाहिए।
साथियों! यह कैसे हो सकता है? नास्तिकता का यह बहुत बुरा तरीका है और बहुत गंदा तरीका है, जो आपने अख्तियार कर रखा है। यह नास्तिकता का तरीका है। इसमें आध्यात्मिकता के मूल सिद्धांतों को काट डाला गया है और कर्मकांडों की लाश को इतना ज्यादा सड़ा दिया गया है, जिस तरह से लाश जब एक बार सड़ जाती है तो उसका फूलना शुरू हो जाता है और फूल करके मुरदा इतना बड़ा हो जाता है कि देखने में मालूम पड़ता है कि मरा हुआ आदमी तिगुना- चौगुना हो गया।
सड़ा हुआ अध्यात्म हमको चौदह- चौदह मंजिल के मंदिरों में दिखाई पड़ता है तथा यह मन आता है कि अभी और चौदह मंजिलें बन गई होतीं, तो हम सीधे बैकुंड चले जाते और बीच में किराया- भाड़ा खरच नहीं करना पड़ता। आध्यात्मिकता की लाश अखंड कीर्तनों के माध्यम से और भंडारों के माध्यम से इतनी फैलती और सड़ती जा रही है कि हमको मालूम पड़ता है कि अध्यात्म अब सड़ गया है। अध्यात्म मर गया, अध्यात्म का प्राण समाप्त हो गया। अब केवल अध्यात्म की लाश का बोलबाला है हर जगह अध्यात्म की लाश बढ़ती चली जाती है।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Pravachaan/prachaavachanpart5/kihloneneaadhiyatmka
गायत्री मंत्र हमारे साथ- साथ-
ऊँ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
मित्रो! हमने यह क्या कर डाला! अज्ञान के वशीभूत हो करके हमने उस धर्म की जड़ में कुल्हाड़ा दे मारा और उसे काटकर फेंक दिया, जिसका उद्देश्य था कि हमको पाप से डरना चाहिए और श्रेष्ठ काम करना चाहिए। पापों के डर को तो हमने उसी दिन निकाल दिया, जिस दिन हमारे लिए गंगा पैदा हो गई। गंगा नहाइए और पापों का डर खतम। अच्छा साहब! चलिए ,, एक डर तो खतम हुआ। एक झगड़ा और रह गया है। क्या रह गया है? श्रेष्ठ काम कीजिए, त्याग कीजिए, बलिदान कीजिए, समाज सेवा कीजिए, अमुक काम कीजिए।
पर इनका सफाया किसने कर दिया? बेटे! यह सत्यनारायण स्वामी ने कर दिया और महाकाल के मंदिर ने कर दिया। इन खिलौनों को देखिए और बैकुंठ को जाइए। अध्यात्म का सत्यानाश हो गया। अध्यात्म दुष्ट हो गया, अध्यात्म भ्रष्ट हो गया। भ्रष्ट और दुष्ट अध्यात्म को लेकर हम चलते हैं और फिर यह उम्मीद करते हैं कि इसके फलस्वरूप हमें वे लाभ मिलने चाहिए, वे चमत्कार मिलने चाहिए, वे सीढ़ियाँ मिलनी चाहिए और वे वरदान मिलने चाहिए।
साथियों! यह कैसे हो सकता है? नास्तिकता का यह बहुत बुरा तरीका है और बहुत गंदा तरीका है, जो आपने अख्तियार कर रखा है। यह नास्तिकता का तरीका है। इसमें आध्यात्मिकता के मूल सिद्धांतों को काट डाला गया है और कर्मकांडों की लाश को इतना ज्यादा सड़ा दिया गया है, जिस तरह से लाश जब एक बार सड़ जाती है तो उसका फूलना शुरू हो जाता है और फूल करके मुरदा इतना बड़ा हो जाता है कि देखने में मालूम पड़ता है कि मरा हुआ आदमी तिगुना- चौगुना हो गया।
सड़ा हुआ अध्यात्म हमको चौदह- चौदह मंजिल के मंदिरों में दिखाई पड़ता है तथा यह मन आता है कि अभी और चौदह मंजिलें बन गई होतीं, तो हम सीधे बैकुंड चले जाते और बीच में किराया- भाड़ा खरच नहीं करना पड़ता। आध्यात्मिकता की लाश अखंड कीर्तनों के माध्यम से और भंडारों के माध्यम से इतनी फैलती और सड़ती जा रही है कि हमको मालूम पड़ता है कि अध्यात्म अब सड़ गया है। अध्यात्म मर गया, अध्यात्म का प्राण समाप्त हो गया। अब केवल अध्यात्म की लाश का बोलबाला है हर जगह अध्यात्म की लाश बढ़ती चली जाती है।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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