गुरुवार, 10 मार्च 2016

खिलौनों ने अध्यात्म का सत्यानाश कर दिया

गायत्री मंत्र हमारे साथ- साथ-
ऊँ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

मित्रो! हमने यह क्या कर डाला! अज्ञान के वशीभूत हो करके हमने उस धर्म की जड़ में कुल्हाड़ा दे मारा और उसे काटकर फेंक दिया, जिसका उद्देश्य था कि हमको पाप से डरना चाहिए और श्रेष्ठ काम करना चाहिए। पापों के डर को तो हमने उसी दिन निकाल दिया, जिस दिन हमारे लिए गंगा पैदा हो गई। गंगा नहाइए और पापों का डर खतम। अच्छा साहब! चलिए ,, एक डर तो खतम हुआ। एक झगड़ा और रह गया है। क्या रह गया है? श्रेष्ठ काम कीजिए, त्याग कीजिए, बलिदान कीजिए, समाज सेवा कीजिए, अमुक काम कीजिए।

पर इनका सफाया किसने कर दिया? बेटे! यह सत्यनारायण स्वामी ने कर दिया और महाकाल के मंदिर ने कर दिया। इन खिलौनों को देखिए और बैकुंठ को जाइए। अध्यात्म का सत्यानाश हो गया। अध्यात्म दुष्ट हो गया, अध्यात्म भ्रष्ट हो गया। भ्रष्ट और दुष्ट अध्यात्म को लेकर हम चलते हैं और फिर यह उम्मीद करते हैं कि इसके फलस्वरूप हमें वे लाभ मिलने चाहिए, वे चमत्कार मिलने चाहिए, वे सीढ़ियाँ मिलनी चाहिए और वे वरदान मिलने चाहिए।

साथियों! यह कैसे हो सकता है? नास्तिकता का यह बहुत बुरा तरीका है और बहुत गंदा तरीका है, जो आपने अख्तियार कर रखा है। यह नास्तिकता का तरीका है। इसमें आध्यात्मिकता के मूल सिद्धांतों को काट डाला गया है और कर्मकांडों की लाश को इतना ज्यादा सड़ा दिया गया है, जिस तरह से लाश जब एक बार सड़ जाती है तो उसका फूलना शुरू हो जाता है और फूल करके मुरदा इतना बड़ा हो जाता है कि देखने में मालूम पड़ता है कि मरा हुआ आदमी तिगुना- चौगुना हो गया।

सड़ा हुआ अध्यात्म हमको चौदह- चौदह मंजिल के मंदिरों में दिखाई पड़ता है तथा यह मन आता है कि अभी और चौदह मंजिलें बन गई होतीं, तो हम सीधे बैकुंड चले जाते और बीच में किराया- भाड़ा खरच नहीं करना पड़ता। आध्यात्मिकता की लाश अखंड कीर्तनों के माध्यम से और भंडारों के माध्यम से इतनी फैलती और सड़ती जा रही है कि हमको मालूम पड़ता है कि अध्यात्म अब सड़ गया है। अध्यात्म मर गया, अध्यात्म का प्राण समाप्त हो गया। अब केवल अध्यात्म की लाश का बोलबाला है हर जगह अध्यात्म की लाश बढ़ती चली जाती है।

क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Pravachaan/prachaavachanpart5/kihloneneaadhiyatmka

👉 शिष्य संजीवनी (भाग 21)

स्वयं का स्वामी ही सच्चा स्वामी

शिष्य संजीवनी का सेवन करने वालों का आध्यात्मिक वैभव बढ़ने लगा है। ऐसा अनेकों साधकों की अनुभूतियां कहती हैं। इन अनुभूतियों के हर पन्ने में एक अलग अहसास है। निखरते शिष्यत्व की एक अलग चमक है। महकती साधना की एक अनूठी खुशबू है। समर्पण की सरगम इनमें हर कहीं सुनी जा सकती है। जिन्होंने भी शिष्य संजीवनी के सत्त्व को, सार को पिया है- उन सभी में शिष्यत्व की नयी ऊर्जा जगी है।

कइयों ने गुरुवर की चेतना को अपने में उफनते-उमगते-उमड़ते पाया है। कुछ ने गुरुदेव के रहस्यमय स्वरों को अपनी भाव चेतना में सुना है। अनेकों का साधना जीवन उच्चस्तरीय चेतना के संकेतों-संदेशों से धन्य हुआ है। निश्चित ही बड़भागी हैं ये सब जिनका जीवन शिष्यत्व की सघन भावनाओं से आवृत्त हुआ है। उनसे भी धन्यभागी हैं वे जो इन पंक्तियों को पढ़ते हुए सच्चे शिष्यत्व के लिए प्रयासरत हो रहे हैं।

इस प्रयास को तीव्र से तीव्रतर बनाने के लिए शिष्य संजीवनी का यह छठा सूत्र बड़ा ही गुणकारी है। इसमें कहा गया है- ‘शक्ति की उत्कट अभीप्सा करो। लेकिन ध्यान रहे कि जिस शक्ति की कामना शिष्य करेगा, वह शक्ति ऐसी होगी जो उसे लोगों की दृष्टि में ना कुछ जैसा बना देगी। इसी के साथ शान्ति की अदम्य अभीप्सा भी करो। पर ध्यान रहे कि जिस शान्ति की कामना तुम्हें करनी है, वह ऐसी पवित्र शान्ति है, जिसमें कोई विघ्र न डाल सकेगा।

और इस शान्ति के वातावरण में आत्मा उसी प्रकार विकसित होगी, जैसे शान्त सरोवर में पवित्र कमल विकसित होता है। शक्ति और शान्ति के साथ ही स्वामित्व की भी अपूर्व अभीप्सा करो। परन्तु ये सम्पत्तियाँ केवल शुद्ध आत्मा की हों। और इसलिए सभी शुद्ध आत्मा इनकी समान रूप से स्वामी हों।’

क्रमशः जारी
डॉ. प्रणव पण्डया
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Devo/i

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