‘‘जीवन की तृष्णा और सुख प्राप्ति की चाहत को दूर करो। किन्तु जो महत्त्वाकांक्षी हैं, उन्हीं की भाँति कठोर श्रम करो। जिन्हें जीवन की तृष्णा है, उन्हीं की भाँति सभी के जीवन का सम्मान करो। जो सुख के लिए जीवन यापन करते हैं, उन्हीं की भाँति सुखी रहो। अपने हृदय के भीतर पनपने वाले पाप के अंकुर को ढूँढक़र, उसे बाहर निकाल फेंको। यह अंकुर शिष्य के हृदय में भी यदा-कदा उसी तरह पनपने लगता है, जैसे कि वासना भरे मानव हृदय में। केवल महान वीर साधक ही उसे नष्ट कर डालने में सफल होते हैं। जो दुर्बल हैं, वे तो उसके बढऩे-पनपने के साथ भी नष्ट हो जाते हैं।’’
यह अनुभव सभी महान् शिष्यों का है। शिष्य के जीवन में तृष्णा और सुख की लालसा की कोई जगह नहीं है। मजे की बात है कि तृष्णा और सुख की लालसा किसी को भी सुखी नहीं कर पाती, हालांकि प्राय: सभी इसमें फँसे-उलझे रहते हैं। ऐसे लोगों के लिए जीवन आज में नहीं है, आने वाले कल में है। भविष्य में जीवन को खोजने वाले अपने वर्तमान से हमेशा असन्तुष्ट, असंतृप्त बने रहते हैं। इस सच्चाई का एक पहलू और भी है, जो तृष्णा और सुख की लालसा से अपने आप को जितना भरता जाता है- वह उतना ही अपने अहंकार को तुष्ट और पुष्ट करता रहता है। जबकि अहंकार का शिष्यत्व की साधना से कोई मेल नहीं है।
शिष्यत्व तो समर्पण की साधना है- जिसका एक ही अर्थ है- अहंकार का अपने सद्गुरु के चरणों में विसर्जन। हालांकि इस समर्पण-विसर्जन के साथ भी कई तरह के भ्रम जनमानस में व्याप्त हैं। कई लोगों का सोचना है कि जब हमने समर्पण कर दिया- तब हम फिर कुछ काम क्यों करें? जब तृष्णा नहीं सुख की लालसा नहीं तब फिर मेहनत किसलिए? ये सवाल दरअसल भ्रमित मन की उपज है। जो जानकार हैं, समझदार हैं वे जानते हैं कि समर्पण और श्रद्धा का मतलब-निकम्मापन या निठल्ले बैठे रहना नहीं है। बल्कि इसका अर्थ है- सत्य के लिए, अपने गुरुदेव के लिए स्वयं को सम्पूर्णरूप से झोंक देना। इस सम्बन्ध में रमण महर्षि कहा करते थे- यह कैसी उलटबांसी है कि मिट्टी की खोज में आदमी सब कुछ लगा देता है- पर अमृत की खोज में कुछ भी नहीं लगाना चाहता। जबकि शिष्य तो वही है- जो गुरु के एक इशारे पर जीवन पर्यन्त अटूट और अथक श्रम करता रहे।
केवल शिष्य ही जीवन का सच्चा ज्ञाता होता है, इसलिए उसे जीवन की महान्ï सम्भावनाओं को उजागर करने में तत्पर रहना चाहिए। यह तभी सम्भव है कि जब उसके मन में अपने और सभी के जीवन का सम्मान हो। साथ ही वह सुख के लिए इधर-उधर भटके नहीं बल्कि अपने कत्र्तव्य पालन में सुख की अनुभूति करे। भगवान् बुद्ध का कथन है कि इस संसार में सुखी वही है, जिसने सुख की वासना छोड़ दी है। वास्तविक दुख तो वासनाओं का है। जो जितना ज्यादा वासनाओं, कामनाओं एवं लालसाओं से भरा है, वह उतना ही ज्यादा दु:खी है। वासनाओं और लालसाओं के छूटते ही अन्तश्चेतना में शान्ति और सुख की बाढ़ आ जाती है। सब तरफ से सुख ही सुख बरसता है। समूची प्रकृति हर पल मन-अन्त:करण को सुख से भिगोती रहती है।
✍🏻 पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
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