मंगलवार, 8 मई 2018

👉 "उल्टे हाथ कर लेना"

🔷 एक नगर का राजा जिसे ईश्वर ने सब कुछ दिया एक समृद्ध राज्य सुशील और गुणवती पत्नी, संस्कारी सन्तान सब कुछ था उसके पास पर फिर भी दुःखी का दुःखी रहता!

🔶 एक बार वो घुमते घुमते एक छोटे से गाँव मे पहुँचा जहाँ एक कुम्हार भगवान भोले बाबा के मन्दिर के बाहर मटकीया बेच रहा था और कुछ मटकीयों मे पानी भर रखा था और वही पर लेटे लेटे हरिभजन गा रहा था!

🔷 राजा वहाँ आया और भगवान भोले बाबा के दर्शन किये और कुम्हार के पास जाकर बैठा तो कुम्हार बैठा हुआ और उसने बड़े आदर से राजा को पानी पिलाया! राजा कुम्हार से कुछ प्रभावित हुआ और राजा ने सोचा की ये इतनी सी मटकीयों को बेच कर क्या कमाता होगा?

🔶 तो राजा ने पूछा क्यों भाई प्रजापति जी मेरे साथ नगर चलोगे तो प्रजापति ने कहा नगर चलकर क्या करूँगा राजाजी?

🔷 राजा - वहाँ चलना और वहाँ खुब मटकीया बनाना!

🔶 प्रजापति - फिर उन मटकीयों का क्या करूँगा?

🔷 राजा - अरे क्या करेगा? उन्हे बेचना खुब पैसा आयेगा तुम्हारे पास!

🔶 प्रजापति - फिर क्या करूँगा उस पैसे का?

🔷 राजा - अरे पैसे का क्या करेगा? अरे पैसा ही सबकुछ है!

🔶 प्रजापति - अच्छा राजन अब आप मुझे ये बताईये की उस पैसे से क्या करूँगा?

🔷 राजा - अरे फिर आराम से भगवान का भजन करना और फिर तुम आनन्द मे रहना!

🔶 प्रजापति - क्षमा करना हॆ राजन पर आप मुझे ये बताईये की अभी मै क्या कर रहा हुं और हाँ पुरी ईमानदारी से बताना! काफी सोच विचार किया राजा ने और मानो इस सवाल ने राजा को झकझोर दिया!

🔷 राजा - हाँ प्रजापति जी आप इस समय आराम से भगवान का भजन कर रहे हो और जहाँ तक मुझे दिख रहा है आप पुरे आनन्द मे हो!

🔶 प्रजापति - हाँ राजन यही तो मै आपसे कह रहा हुं की आनन्द पैसे से प्राप्त नही किया जा सकता है!

🔷 राजा - हॆ प्रजापति जी कृपया कर के आप मुझे ये बताने की कृपा करे की आनन्द की प्राप्ति कैसे होगी?

🔶 प्रजापति - बिल्कुल सावधान होकर सुनना और उस पर बहुत गहरा मंथन करना राजन! हाथों को उल्टा कर लिजिये!

🔷 राजा - वो कैसे?

🔶 प्रजापति - हॆ राजन मांगो मत देना सीखो और यदि आपने देना सिख लिया तो समझ लेना आपने आनन्द की राह पर कदम रख लिया! स्वार्थ को त्यागो परमार्थ को चुनो! हॆ राजन अधिकांशतः लोगो के दुःख का सबसे बड़ा कारण यही है की जो कुछ भी उसके पास है वो उसमे सुखी नही है और बस जो नही है उसे पाने के चक्कर मे दुःखी है! अरे भाई जो है उसमे खुश रहना सीख लो दुःख अपने आप चले जायेंगे और जो नही है क्यों उसके चक्कर मे दुःखी रहते हो!

🔷 आत्मसंतोष से बड़ा कोई सुख नही और जिसके पास सन्तोष रूपी धन है वही सबसे बड़ा सुखी है और वही आनन्द मे है और सही मायने मे वही राजा है!

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 9 May 2018


👉 आज का सद्चिंतन 9 May 2018


👉 सत्य की शोध कीजिए (भाग 3)

🔷 मैं जिस बात का समर्थन करना चाहता हूँ वह यह है कि इस उपेक्षित सत्य को लोग जीते जागते रूप में स्वीकार करें कि धर्म की वास्तविकता का आधार बहुत आवश्यक और विश्वव्यापी आवश्यकता के रूप में मानव प्रकृति की सत्यता में है और इसीलिए मानव प्रकृति के द्वारा उस धर्म की वास्तविकता की लगातार परीक्षा होती रहनी चाहिए। जहाँ पर यह उस आवश्यकता की उपेक्षा और तर्क का उल्लंघन करती है वहाँ पर यह स्वयं अपने औचित्य को दूर भगा देती है।

🔶 मुझे इस कथन को मध्यकालीन भारतवर्ष के बहुत बड़े रहस्यवादी कवि कबीर, जिन्हें मैं अपने देश के सर्वप्रधान आध्यात्मिक विशेष बुद्धिमानों में से एक व्यक्ति मानता हूँ, की कुछ निम्नलिखित पंक्तियों को देते हुए समाप्त करने दीजिए।

🔷 “रत्न कीचड़ में खो गया है और सब लोग उसे ढूँढ़ रहे हैं। कुछ लोग पूरब की ओर खोजते हैं, कुछ पश्चिम की ओर। कुछ लोग पानी में खोजते हैं और कुछ पत्थरों में। किन्तु दास कबीर ने उस के सच्चे मूल्य को जान लिया है और स्वयं अपने हृदयरूपी वस्त्र के एक आँचल में उसे बड़े यत्न के साथ लपेट रखा है।”

✍🏻 विश्व कवि श्री रवीन्द्रनाथ जी टैगोर
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर 1950 पृष्ठ 9

👉 Science and spirituality

🔷 The discovery of the powers of Nature, their organisation and the skills that make them useful is called science. Science can thus be called the unison of matter and consciousness. Science has made possible the progress of the human civilisation.
It should be noted that the knowledge of the use of matter is not enough; its righteous use should also be considered. The same criterion also applies to consciousness. In the absence of their righteous use, matter and consciousness are abused. The attraction of immediate gains is such that its long-term effects are not appreciated and this shortsighted judgement prompts man to misuse power. Ultimately, he creates a web in which he gets trapped, just like a fish caught in a net. This is accompanied by suffering, public anger and self-destruction, and yet it is a practice generally adopted by people. The society and the government rarely succeed in preventing such practices.

🔶 Science can be credited for the current progress and prosperity, but it is incapable of differentiating between use and abuse. The only way to control its misuse is to incorporate wisdom based on foresightedness and the greatness associated with human glory. This is the essence of spirituality. Spirituality means, “centred and established on the soul”, that is, activities in life are designed keeping the welfare of the soul as the aim. The soul is the consciousness present in the human body.

🔷 Consciousness is more powerful than matter. As discussed earlier, it is the miracle of consciousness that organises matter in a useful state. However, unrestrained consciousness has drawbacks too. For example, it is easy to find faults in others, but does anyone try to inspect their own self for their own faults? Usually, an individual is biased towards his shortcomings and considers himself the best. A person trying to prove himself will present several arguments in his favour. This distorts the reality and generates undesirable thoughts.

🔶 The dual accomplishment of the righteous use of science and the refinement of consciousness is possible only through spirituality.

📖 Akhand Jyoti Jan 2001

👉 कर्मयोग का रहस्य (भाग 1)

🔷 मनुष्य−समाज की स्वार्थहीन सेवा कर्मयोग है। यह हृदय को शुद्ध करके अन्तःकरण को आत्मज्ञान रूपी दिव्य ज्योति प्राप्त करने योग्य बना देता है। विशेष बात तो यह है कि बिना किसी आसक्ति अथवा अहंभाव के आपको मानव−जाति की सेवा करनी होगी। कर्मयोग में कर्मयोगी सारे कर्मों और उनके फल को भगवान के अर्पण कर देता है। ईश्वर में एकता रखते हुए, आसक्ति को दूर करके सफलता व निष्फलता में समान रूप से रह कर कर्म करते रहना कर्म−योग है।

🔶 जैमिनी ऋषि के मतानुसार अग्निहोत्रादि वैदिक कर्म ही कर्म है। भगवद्गीता के अनुसार निष्काम भाव से किया हुआ कोई भी कार्य कर्म है। भगवान् कृष्ण ने कहा है निरन्तर कर्म करते रहो, आपका धर्म फल की चाहना न रखते हुए कर्म करते रहना ही है। गीता का प्रधान उपदेश कर्म में अनासक्ति है। श्वास लेना, खाना, देखना, सुनना, सोचना सब कर्म हैं।

🔷 अपने गुरु या किसी महात्मा की सेवा कर्मयोग का सर्वोच्च रूप है। इससे आपका चित्त जल्दी शुद्ध हो जावेगा। उनकी सेवा करने से उनके दिव्य तेज का आप के ऊपर बड़ा प्रभाव पड़ेगा। आपको उनसे दैवी प्रेरणा प्राप्त होगी। शनैः शनैः आप उनके सद्गुणों को ग्रहण कर लोगे।

✍🏻 श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज
📖 अखण्ड ज्योति, मार्च 1955 पृष्ठ 6

👉 शिष्यत्व का समर्पण

🔷 शिष्यत्व का समर्पण आध्यात्मिक जीवन का सौभाग्य शिखर है। बड़े ही पुण्यवान् जनों के हृदयों में शिष्यत्व अंकुरित होता है। यह अंकुरण सहज नहीं है। अनेकों जन्मों के तप, व्रत, जप, दान और अनगिन शुभ कर्मों के सुयोग से हृदय भूमि इतनी उर्वर हो पाती है कि उसमें शिष्यत्व अंकुरित हो सके। इस अद्भुत-अलौकिक अंकुरण का बड़े जतन से रख-रखाव करना पड़ता है। एक तरफ सांसारिक विषय-वासना की विपदाओं से बचना पड़ता है, तो दूसरी ओर बड़ी आध्यात्मिक विकलता से सद्गुरु को टेर लगानी पड़ती है। बड़े ही भाव-विह्वल हृदय से उन्हें पुकारना पड़ता है। सद्गुरु की पुकार के अमृत जल से ही शिष्यत्व का यह बिरवा पल्लवित-पुष्पित होता है।
  
🔶 विकसित होते शिष्यत्व में बड़ा ही दैवी आकर्षण होता है। समस्त मानवीय सद्गुण अपने आप ही इस ओर खिंचे चले आते हैं। आध्यात्मिक शक्तियाँ और अनुभूतियाँ, दिव्य लोकों के ऋषि व देवगण अनायास ही इस पर अपनी कृपा वृष्टि करते हैं। लेकिन शिष्यत्व तो बस अपने सद्गुरु के चरणों का चंचरीक होता है। गुरु प्रेम की पुकार उसके प्राणों में बसती है। गुरुभक्ति में उसकी भावनाएँ पलती हैं। गुरुश्रद्धा उसका सर्वस्व होती है। उसे तो बस एक ही धुन रहती है कब मेरे समर्पण को पूर्णता मिलेगी? कब मेरे आराध्य मेरे समूचे अस्तित्त्व को स्वीकारेंगे? कब वह मेरे हृदय की भावनाओं को अपनी भावना बनाएँगे?
  
🔷 इस धुन में शिष्यत्व दिव्यता का महाचुम्बकत्व सघन हो जाता है। उसमें न लोक की कोई चाहत बचती है और न परलोक की। अब उसे न कोई कामना सताती है, न कोई वासना। स्वर्ग, मुक्ति, ज्ञान, ध्यान सबके सब गुरु प्रेम में विलीन हो जाते हैं। उसके प्रत्येक कर्म के कौशल में, विचारों के संवेदन में, भावनाओं की विह्वलता में बस समर्पण के स्वर गूंजते हैं। ‘सद्गुरु कृपा हि केवलम्, न हि अन्यत्र मे जीवनम्’ प्राणों में बस यही एक गीत पलता है। शिष्यत्व की कोई मांग नहीं होती, उसकी कोई शर्त नहीं होती। वह तो अपने प्रभु पर न्योछावर हो जाना चाहता है। स्वयं को उन पर लुटा देना चाहता है। उनके प्रत्येक संकेत व आदेश पर सौ-सौ बार जीना-मरना चाहता है। उसके इस समर्पण को पूर्णता देने के लिए परम कृपालु गुरुदेव उसकी अन्तर्चेतना में अवतरित होते हैं।

✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ 108

👉 गुरुगीता (भाग 104)

👉 गुरूगीता का प्रत्येक अक्षर मंत्रराज है

🔷 इस परम रहस्यमयी गुरूकथा को आगे बढ़ाते हुए भगवान् भोलेनाथ माँ जगदम्बा से कहते हैं-

🔶 इदं तु भक्तिभावेन पठते श्रृणुते यदि। लिखित्वा तत्प्रदातव्यं तत्सर्वं सफलं भवेत्॥ १३१॥
गुरूगीतात्मकं देवि शुद्धतत्त्वं मयोदितम्। भवव्याधिविनाशार्थं स्वयमेव जपेत्सदा॥ १३२॥
गुरूगीताक्षरैकं तु मंत्रराजमिमं जपेत्। अन्ये च विविधा मंत्राः कलां नार्हन्ति षोडशीम्॥ १३३॥
अनन्तफलमाप्रोति गुरूगीताजपेन तु। सर्वपापप्रशमनं सर्वदारिद्रयनाशनम्॥१३४॥

🔷 गुरूगीता का भक्तिपूर्वक पठन, श्रवण एवं इसका लेखन तथा दूसरों को इसे देने से सर्वसुफल प्राप्त होते हैं॥१३१॥ प्रभु कहते हैं- हे देवि! गुरूगीता रूपी इस शुद्ध तत्त्व को मैंने आपके सामने कहा है। इसका विधिपूर्वक जप सभी सांसारिक कठिनाइयों का विनाश करने वाला है॥ १३२॥ गुरूगीता का प्रत्येक अक्षर मंत्रराज है। अन्य सभी मंत्र मिलकर भी इसकी सोलहवीं कला भी नहीं हैं॥ १३३॥ इस गुरूगीता की मंत्रमाला के जप का अनन्तफल है। इसका पाठ करने वाला इस अनन्त फल को प्राप्त करता है। ऐसा करने से उसके सभी पापों का एवं सभी तरह की दरिद्रता का विनाश होता है॥१३४॥

🔶 भगवान् शिव के इस कथन में गुरूगीता के मांत्रिक महत्त्व का संकेत है। इसमें इसके पाठ के महत्त्व का वर्णन है। जिस तरह से श्रीमद्भगवद्गीता स्वयं योगेश्वर कृष्ण के मुखारविन्द से उपदेशित होने के कारण सर्वशास्त्रमयी है, उसी तरह गुरूगीता सभी योगियों के परम आराध्य योगीश्वर भगवान् शिव के श्रीमुख से उच्चरित है। एक अर्थ में इसका महत्व श्रीमद् भगवत् गीता से भी बढ़कर है और वह इस तरह कि श्रीमद् भगवद्गीता के श्रोता के रूप में अर्जुन हैं, जो कि मोहग्रस्त एवं किंकर्तव्यविमूढ़ अवस्था में इसे सुनना प्रारम्भ करते हैं। जबकि गुरूगीता की श्रोता भगवती आदिशक्ति जगदम्बा स्वयं हैं। जो कि सम्पूर्ण सृष्टि को अपने गर्भ में धारण करती हैं। जिनकी चित् शक्ति से ही यह सृष्टि चेतना एवं शक्ति प्राप्त करती है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 गुरुगीता पृष्ठ 158

👉 विचारों का केन्द्र बिंदु- ’क्यों’?

🔶 जीवन एक विकट समस्या है इसमें न जाने कितने उतार- चढ़ाव आते हैं और स्मृति में विलीन हो जाते हैं। इनमें से कुछ ही विचार थोड़े समय के लिए हमारी स्मृति में रह पाते हैं पर उन पर भी हम सरसरी नजर भर डाल लेते हैं, गहराई से नहीं सोच पाते अन्यथा जीवन सबसे अधिक अध्ययन का विषय एवं ज्ञान का भंडार है। जीवन की प्रत्येक घटना के पीछे कार्यकारण परम्परा का अद्भुत रहस्य छिपा है। विचार करने पर छोटी से छोटी साधारण घटना जीवन का काया पलट कर देती है और विचार नहीं करने पर बड़ी से बड़ी घटनाओं का भी कोई असर नहीं हो पाता।

🔷 कथाओं में हम प्रायः पढ़ते हैं कि अमुक व्यक्ति को बादलों के रंग देखकर वैराग्य हो गया। अमुक को रोगी, दीन, वृद्ध एवं मृतक को देखकर संसार से उदासीनता हो गई, पर हम इनको रात दिन देखते है। फिर भी हम पर इनका असर नहीं होता, आखिर ऐसा क्यों? इस पर विचार करना आवश्यक है। एक घोर पापी किसी महात्मा के एक उपदेश वाक्य से सजग हो उठा पर हमने उनके वाक्यों को अनेक बार पढ़ा और मनन किया फिर भी कोई परिवर्तन नहीं हुआ। एक ही बात एक को भोग की ओर आकर्षित करने वाली होती है और दूसरे को त्याग की ओर। इससे स्पष्ट है कि वह शक्ति घटनाओं में नहीं, हमारे विचारों में ही है।

🔶 विचारों से ही मनुष्य बनता है और उन्हीं से बिगड़ता भी है। अतः जीवन की हर एक समस्या- हर एक घटना पर, चाहे वह कितनी ही तुच्छ और साधारण क्यों न जान पड़े मनन करना आवश्यक है। उसका महत्त्व समझना आवश्यक है। प्रत्येक कार्य के कारण पर विचार किया जाय कि ऐसा हुआ तो क्यों हुआ? और ऐसा नहीं हुआ तो क्यों नहीं हुआ?

🔷 अमुक मनुष्य कार्य कर सकता है तो मैं क्यों नहीं कर सकता? उसमें और मुझमें किन- किन बातों का क्या अन्तर है? मेरी और उसकी कार्य प्रणाली में कहाँ सामंजस्य हैं? कहाँ विषमता है? मेरी त्रुटि कहाँ है? मैं कैसे वैसा कर सकता हूँ या बन सकता हूँ? मैंने अमुक समय में वह कार्य किया तो क्यों किया? मुझे अमुक विचार आया तो क्यों आया? और अमुक कार्य या विचार नहीं हुआ तो क्यों नहीं हुआ? इस प्रकार “क्यों” की विचारधारा को आगे बढ़ाते जाने पर नया प्रकाश मिलता जायगा। नई समस्याओं के नये हल मिलेंगे और नए हलों के लिये नई समस्याएँ। क्यों एवं कैसे- विचारों के विकास का मूल मंत्र है उसे अपना कर आप लाभ उठाइये, विचारक बनिए।

🌹 अखण्ड ज्योति-अप्रैल 1949 पृष्ठ 12

http://awgpskj.blogspot.in/2017/06/blog-post_70.html

👉 एक दृश्य-एक तथ्य

🔶 संध्या का समय था। सूर्य अस्ताचल को ओढ़कर अपना मुँह ढाँकने का प्रयत्न कर रहा था। मन्द-मन्द हवा बह रही थी और उसी के साथ भगवती भागीरथी का जल-कल कर बह रहा था। तट पर, एक शिला पर बैठे स्वामी दयानन्द आत्म-चिन्तन में निरत थे- परमात्मा की यह सृष्टि कितनी सुन्दर है और सर्वेश्वर की कृति आनन्दप्रद। पक्षी दिन भर के श्रम से थक कर आये अपने घोंसलों में विश्राम से पूर्व चहक रहे थे। लगता था वे अपने बच्चों के साथ बैठ कर सन्ध्या गीत गा रहे हो।

🔷 हे अनन्त के सृष्टा और आनन्द के दाता तुझे कोटिशः प्रणाम-महर्षि प्रणत भाव से बुदबुदा उठे। प्रकृति भी सन्ध्या की मन्द शीतल पवन के हिलोरों से मुदित होकर शयन की तैयारी कर रही थी। चारों ओर एकान्त था। ध्वनियाँ थी तो केवल पक्षियों की चोंच से निकले स्वर व सरिता के बहते हुए नीर की, जैसे आनन्द का संगीत बज रहा हो और ऋषि के हृदय में भी उसी आनन्द की वीणा बज रही थी। वे प्राणायाम करते, दीर्घश्वास सोच्छवास छोड़ते पुनः प्राण ग्रहण करते और समाधिस्थ हो जाते।

🔶 ध्यान टूटा तो पास हो कहीं से आती हुई सिसकियों से। लगता था कोई किसी से सदा के लिए बिछुड़ रहा हो और सिसकने वाला जाने वाले को भगवती जाह्नवी को सौंप कर अन्तिम विदा दे रहा हो।

🔷 ऋषि ने उस ओर देखा जिस ओर से कि सिसकी आ रही थी। न अधिक दूर और न अधिक समीप। एक दीन-हीन जीर्ण वस्त्र पहने कंगाल मात्र नारी देह अपने शिशु का शव जल समाधि देने के जिए झुकी।

🔶 शिशिर की शीत समीर के मन्द झोंके और जाह्नवी के शीतल जल की ठण्डक ने माँ को जैसे कंपकंपा कर रख दिया! उससे भी अधिक पुत्र विछोह ने कँपा कर रख दिया होगा। वह अबला इन्हीं शीतल झोंकों के कारण पानी में लुढ़कते-लुढ़कते बची थी। उसकी एकमात्र ओढ़नी जिसका उपयोग उसने कफ़न के लिए भी किया था भीग चुका था और पुत्र के तैरते हुए शव को किनारे पर बैठी वह फटी-फटी आँखों से निहार रही थी। शव जब आँखों से ओझल हो गया तो दुःख, विलाप ओर विवशता की त्रिवेणी में डूबती हुई वह माँ लौटने लगी।

🔷 ऋषि ने समीप जाकर पूछा- देवी क्या इस शिशु का पिता साथ नहीं आया।’

🔶 फूट पड़ी वह। बड़ी कठिनता से बोली- वृद्ध पति अभी दो माह पूर्व ही मुझे अकेली छोड़कर चले गये हैं तथा अब वह यह पुत्र भी।’

🔷 आयु में तो वह अभी युवती ही दिखाई दे रही थी और अपने पति के साथ वृद्ध का सम्बोधन अनायास ही लगाकर ऋषि हृदय को झकझोर दिया था, अपनी स्थिति का कारण बताकर।

🔶 ‘हे सर्वेश्वर! अब तू मुझे माताओं का इस रूप में दर्शन करा रहा है- ऋषि के ओष्ठ फड़फड़ाये। वे भाव मग्न से हो गये थे ओर स्त्री जा चुकी थी।

🔷 पर ऋषि को एक नयी दृष्टि देकर।

🔶 अब वे चैन से नहीं बैठ सके। उन्होंने संकल्प लिया कि- माताओं की यह दुर्दशा करने वाली परिस्थितियों को बदल कर रहूँगा। अकेले अपना कल्याण कर लिया तो मुझ सा स्वार्थी ओर कौन होगा? जिसने माँ का दूध पिया, उसके आँचल की छाया में रहा यह मात्र स्वार्थ ही नहीं कृतघ्नता भी है।

🔷 और अतीत बताता है। पहली बार अब से शताधिक वर्ष अनमेल विवाह जैसी कुरीतियों को चुनौती दी तथा उन्हें हटाने के लिए आजीवन संघर्षरत रहे, एक हम हैं जो आये दिन अपनी आँखों से बुराइयाँ देखते हैं, पर उनसे जूझने से कतराते ही रहते हैं।

📖 अखंड ज्योति जनवरी 1977

👉 आज का सद्चिंतन 8 May 2018

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 8 May 2018


👉 सत्य की शोध कीजिए (भाग 2)

🔶 साँप्रदायिकता की उद्धत भावना को जो कि बहुधा सक्रिय अथवा निष्क्रिय उत्तेजनापूर्ण अथवा विनम्र पीड़ा पहुँचाने वाले ढंगों से बहुत ही कम अथवा बिना क्रोध युक्त उत्तेजना के काम में आती हैं तथा तथ्य का स्मरण दिलाने की जरूरत है कि कविता के ही समान धर्म केवल विचार नहीं है वरन् विचारों का प्रकटीकरण है।

🔷 ईश्वर का आत्म-प्रकटी-करण सृष्टि की विभिन्नता में है और असीम के प्रकटी-करण में हमारी भावना में भी व्यक्तिगत रूप की ऐसी विभिन्नता होनी चाहिए जो अविरल और अनन्त हो। जब किसी धर्म में समस्त मानव-जाति पर अपने ही मत को लादने की महत्वाकाँक्षा उत्पन्न हो जाती है। तब उसका पतन हो जाता है और वह अत्याचार करने लगता है तथा साम्राज्यवाद का एक रूप बन जाता है। यही कारण है कि जिससे हम मार्मिक मामलों में फैजिज्म के एक विवेकशून्य को संसार के अधिकाँश भागों में फैलते हुए तथा मनुष्य की आत्मशक्ति के विस्तार को अपने अनुभव ज्ञान विहीन तलुवों से खूब कुचलते हुए करते हैं।

🔶 अपने ही एक धर्म को सभी देशों और सभी दलों में प्रधान बना देने का प्रयत्न ऐसे ही लोगों में देखा जाता है जिन्हें साँप्रदायिकता का व्यसन जाता है।

🔷 यह कहना उनको बुरा मालूम होता है। प्रेम के वितरण करने में ईश्वर उदार है तथा मनुष्यों के साथ आदान-प्रदान करने के उसके साधन एक ऐसी गली में परिमित नहीं हैं जो इतिहास के एक संकीर्ण स्थान पर जाकर अकस्मात् समाप्त हो जाती है।

✍🏻 विश्व कवि श्री रवीन्द्रनाथ जी टैगोर
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर 1950 पृष्ठ 8

👉 Amrit Chintan 8 May

🔶 We have found the solution of all the problems of the present era. The problems are due to lack of use of true wisdom of life and short sightedness. The solution will be based on scientific facts and evidences. Real step will be to free our self from superstitious traditions and by adopting good virtues and values of life. Strong will and courage will achieve the great revolution for a golden era.

🔷 Self introspection and self development is the only process in life for cultural development. But to attain the ideality in life one will have to do something more – that is that we will have to work to develop the new generation to adopt ideality in life. That process will add feathers to the society you are living in.

🔶 Devotees of Gayatri are “Pragya Putra” i.e. volunteers in action. The duties assigned to them is a collective effort similar to that when Rishis collected their blood (put their collective efforts) which was represented by appearance of Sita in box found by King Janak while ploughing to raise grain for food in famine. Finally this effort results in destroying the power of evil represented by king Raven of Lanka.

🔷 Similar circumstances have appeared in the mass which needs the awakened people to understand their role to establish harmony and peace in life of human beings Pragya Putra devotion will be measured on that scale.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya

👉 साहसी आगे आये

🔶 जिनमें साहस हो, आगे आवें। हमारा निज का कुछ भी कार्य या प्रयोजन नहीं है। मानवता का पुनरुत्थान होने जा रहा है। ईश्वर उसे पूरा करने ही वाले हैं। दिव्य आत्माएँ उस दिशा में कार्य कर भी रही हैं। उज्ज्वल भविष्य की आत्मा उदय हो रही है, पुण्य प्रभात का उदय होना सुनिश्चित है। हम चाहें तो उसका श्रेय ले सकते हैं और अपने आप को यशस्वी बना सकते हैं।

🔷 देश को स्वाधीनता मिली, उसमें योगदान देने वाले अमर हो गए। यदि वे नहीं भी आगे आते तो भी स्वराज्य तो आता ही, पर वे बेचारे और अभागे मात्र बनकर रह जाते। ठीक वैसा ही अवसर अब है। बौद्धिक, नैतिक एवं सामाजिक क्रांति अवश्यंभावी है। उसका मोर्चा राजनीतिक लोग नहीं धार्मिक कार्यकर्त्ता सँभालेंगे। यह प्रक्रिया युग निर्माण योजना के रूप में आरंभ हुई है। हम चाहते हैं इसके संचालन का भार मजबूत हाथों में चला जाए। ऐसे लोग अपने परिवार में जितने भी हों, जो भी हों, जहाँ भी हों, एकत्रित हो जाएँ और अपना काम सँभाल लें। उत्तरदायित्व सौंपने को प्रतिनिधि नियुक्त करने की योजना के पीछे हमारा यही उद्देश्य है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति, जनवरी 1965 पृष्ठ 52  

👉 गुरुगीता (भाग 103)

👉 गुरूगीता का प्रत्येक अक्षर मंत्रराज है

🔶 गुरूगीता परम दिव्य शास्त्र है। इसका अर्थ एवं इसके शब्द दोनों ही दिव्य हैं। इसके अर्थ में परम गम्भीर एवं गूढ़ तत्त्वज्ञान की झाँकी है। आध्यात्मिक साधना के शिखर अनुभवों की झलक है। इतना ही नहीं, गुरूगीता के अर्थ में ज्ञान, कर्म व भक्ति तथा हठ एवं राजयोग की दुर्लभ साधनाएँ प्रकाशित होती हैं। इनमें से किसी एक साधना विधि का साधन करने वाला आध्यात्मिक जीवन की दुर्लभ, दुर्लभतर एवं दुर्लभतम विभूतियों को पा सकता है। ऐसा कहने का आधार लेखकीय कल्पना नहीं, वरन् शास्त्रों व सन्त जीवन चरित का स्वाध्याय व अध्यात्म पुरूषों के सत्संग का अनुभव है। यह सत्य इतना प्रामाणिक है, जिसे कोई साधक अपने स्वयं के अनुभव में बदल सकता है। कतिपय भाग्यशाली ऐसा कर भी रहे है।

🔷 अर्थ जितनी ही दिव्यता- गुरूगीता के शब्दों और अक्षरों में है। हालाँकि यह सत्यबुद्धि एवं सभी तर्कों से परे है। सच तो यही है कि गुरूगीता के अक्षरों व शब्दों के महत्त्व को जानना, समझना, इसके अर्थ को समझने से ज्यादा दुष्कर व दुरूह है। क्योंकि अर्थ में तो तर्क, दर्शन एवं ज्ञान का संयोजन है। इसे बुद्धि एवं अन्तर्प्रज्ञा से जाना जा सकता है। परन्तु अक्षरों व शब्दों के संयोजन में छुपी हुई दिव्यता को पहचानना केवल श्रद्धासिक्त हृदय से ही सम्भव है। इसी बलबूते पर गुरूगीता की यह मांत्रिक सामर्थ्य प्रकट होती है। गुरूगीता का सम्पूर्ण ग्रन्थ अपने आप में मंत्रशास्त्र है। इसके कई दुर्लभ प्रयोग हैं, जो अलग -अलग ढ़ंग से सिद्ध एवं सम्पन्न किए जाते हैं। इस क्रम में महत्त्वपूर्ण बात यह भी है कि इसे जानने वाले भी विरल एवं दुर्लभ हैं। साधकों एवं सिद्धों के समुदाय में विरल जन ही ऐसे हैं, जो मंत्रमयी गुरूगीता के मंत्रों का प्रयोग करने की सामर्थ्य रखते हैं।

🔶 हालाँकि गुरूगीता में इसके पर्याप्त संकेत मिलते हैं। गुरूगीता के पिछले क्रम में भी कुछ ऐसे ही गूढ़ निर्देशों की चर्चा की गयी है। इसमें भगवान् सदाशिव ने जगन्माता भवानी को बताया है कि हे देवि! गुरूगीता द्वारा उपदेशित मार्ग ही मुक्तिदायक है। लेकिन इन सभी साधनाओं का उपयोग साधक को लोक कल्याण के लिए करना चाहिए, न कि लौकिक कामनाओं को पूरा करने के लिए। जो ज्ञानहीन लोग इन महत्त्वपूर्ण ,दुर्लभ एवं गोपनीय साधनाओं का उपयोग सांसारिक कामों के लिए करते हैं, उन्हें बार- बार भवसागर में गिरना पड़ता है। परन्तु जो ज्ञानी अपनी निष्कामता क साथ इन साधनाओं का उपयोग करते हैं, वे सभी कर्म बन्धनों से मुक्त रहते हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 गुरुगीता पृष्ठ 157

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...