परमात्मा के मार्ग पर चलने के लिए जो उत्सुक होते हैं वे प्रायः आत्मपीड़न को साधना समझ लेते हैं। उनकी यही भूल उनके जीवन को विषाक्त कर देती है। प्रभु प्राप्ति सन्सार के निषेध का रूप ले लेती है। इस निषेध के कारण आत्मा की साधना शरीर को नष्ट करने का सरन्जाम जुटाने लगती है। इस नकारात्मक दृष्टि से उनका जीवन नष्ट होने लगता है और उन्हें होश भी नहीं आ पाता कि जीवन का विरोध परमात्मा के साक्षात्कार का पर्यायवाची नहीं है।
सच्चाई तो यह है कि देह के उत्पीड़क भी देहवादी ही होते हैं। उन्हें आत्म चिन्तन सूझता ही नहीं है। सन्सार के विरोधी कहीं न कहीं सुक्ष्मरुप से सन्सार से ही बंधे होते हैं। अनुभव यही कहता है कि सन्सार के प्रति भोग दृष्टि जितना सन्सार से बांधती है, सन्सार से विरोध दृष्टि भी उससे कुछ कम नहीं बल्कि उससे ज्यादा बांधती है।
साधना संसार व शरीर का विरोध नहीं बल्कि इनका अतिक्रमण एवं उत्क्रान्ति है। यह दिशा न तो भोग की है और न दमन की है। यह तो इन दोनों दिशाओं से भिन्न एक तीसरी ही दिशा है। यह दिशा आत्म संयम की है। दोनों बिन्दुओं के बीच मध्य बिंदु खोज लेना संयम है। पूरी तरह से जो मध्य में है वही अतिक्रमण या उपरामता है। इन दोनों के पार चले जाना है।
भोग का दमन की अति असंयम है, मध्य संयम है। अति विनाश है, मध्य जीवन है। जो अति को पकड़ता है वह नष्ट हो जाता है। भोग हो या दमन दोनों ही जीवन को नष्ट कर देते हैं। अति ही अज्ञान है, यही अन्धकार है, यही विनाश है। जो इस सच को जान जाता है वह भोग औेर दमन दोनों को ही छोड़ देता है। ऐसा करते ही उसके सब तनाव स्वाभाविक ही विलीन हो जाते हैं। उसे अनायास ही मिल जाता है --- स्वाभाविक, सहज एवं स्वस्थ जीवन। संयम को उपलब्ध होते ही जीवन शान्त व निर्भार हो जाता है। उसकी मुस्कुराहट कभी मुरझाती नहीं। जिसने स्वयं में संयम की समझ पैदा कर ली वह खुशियों की खिलखिलाहट से भर उठता है।
📖 अखण्ड ज्योति जुलाई 2010 पृष्ठ-3
सच्चाई तो यह है कि देह के उत्पीड़क भी देहवादी ही होते हैं। उन्हें आत्म चिन्तन सूझता ही नहीं है। सन्सार के विरोधी कहीं न कहीं सुक्ष्मरुप से सन्सार से ही बंधे होते हैं। अनुभव यही कहता है कि सन्सार के प्रति भोग दृष्टि जितना सन्सार से बांधती है, सन्सार से विरोध दृष्टि भी उससे कुछ कम नहीं बल्कि उससे ज्यादा बांधती है।
साधना संसार व शरीर का विरोध नहीं बल्कि इनका अतिक्रमण एवं उत्क्रान्ति है। यह दिशा न तो भोग की है और न दमन की है। यह तो इन दोनों दिशाओं से भिन्न एक तीसरी ही दिशा है। यह दिशा आत्म संयम की है। दोनों बिन्दुओं के बीच मध्य बिंदु खोज लेना संयम है। पूरी तरह से जो मध्य में है वही अतिक्रमण या उपरामता है। इन दोनों के पार चले जाना है।
भोग का दमन की अति असंयम है, मध्य संयम है। अति विनाश है, मध्य जीवन है। जो अति को पकड़ता है वह नष्ट हो जाता है। भोग हो या दमन दोनों ही जीवन को नष्ट कर देते हैं। अति ही अज्ञान है, यही अन्धकार है, यही विनाश है। जो इस सच को जान जाता है वह भोग औेर दमन दोनों को ही छोड़ देता है। ऐसा करते ही उसके सब तनाव स्वाभाविक ही विलीन हो जाते हैं। उसे अनायास ही मिल जाता है --- स्वाभाविक, सहज एवं स्वस्थ जीवन। संयम को उपलब्ध होते ही जीवन शान्त व निर्भार हो जाता है। उसकी मुस्कुराहट कभी मुरझाती नहीं। जिसने स्वयं में संयम की समझ पैदा कर ली वह खुशियों की खिलखिलाहट से भर उठता है।
📖 अखण्ड ज्योति जुलाई 2010 पृष्ठ-3