प्रज्ञावतार ही निष्कलंक अवतार हैं। उसके प्रतिपादनों और समर्थकों को लोक श्रद्धा कैसे मिले? इसके रचनात्मक आधार तो कितने ही हैं, पर एक विरोधात्मक आधार भी हैं .. आसुरी आक्रमण। इसके पश्चात् ही किसी महान् व्यक्ति या आन्दोलन को प्रौढ़ता का पता चलता हैं। कलंक कालिका का दौर और अवरोध आक्रमणों का क्रम ही वह स्थिति उत्पन्न करेगा। जिससे निष्कलंक भगवान का सर्वत्र जय-जयकार होने लगे।
यह क्रम अपने अभियान में भी निश्चित रूप से चलेगा। चलता भी रहा है। प्रतिगामी निहित स्वार्थ द्वारा तरह-तरह के आक्षेप लगाये जाते रहे हैं। बदनाम करने का कोई अवसर उन्होंने नहीं छोड़ा। अश्रद्धा उत्पन्न करने के लिए जो कुछ कहा जा सकता था - जो कुछ किया या कराया जा सकता था, उसमें की कुछ कमी नहीं रहने दी गई हैं। यह सारा उत्पात उन आसुरी तत्वों हैं जो अवांछनियताओं की सड़ी कीचड़ में ही डाँस, मच्छरों की तरह अपनी जिन्दगी देखते हैं। कुछ ईर्ष्यालु हैं, जिन्हें अपने अतिरिक्त किसी अन्य का यश वर्चस्व सहन ही नहीं होता। इसके अतिरिक्त सड़े टिमाटरों का भी एक वर्ग हैं जो पेट में रहने वाले कीड़ों की-चारपाई पर साथ सोने वाले खटमलों की-आस्तीन में पलने वाले साँपों की तरह आश्रय पाते हैं वहीं खोखला भी करते हैं। बिच्छू अपनी माँ के पेट का माँस खाकर ही बढ़ते और पलते हैं, माता का प्राण हरण करने के उपरान्त ही जन्म धारण करते हैं। कृतघ्नों और विश्वासघातियों का वर्ग इस युग में जिस तेजी से पनपा हैं उतना संभवतः इतिहास भी इससे पहले कभी भी नहीं देखा गया।
अवाँछनीयता हर क्षेत्र में अड्डा डाले और जड़ जमाये बैठी हैं। युग परिवर्तन की प्रक्रिया भी उसे उखाड़ने की उसी क्रम अनुपात से चलेगी जिससे कि सृजनात्मक सत्प्रवृत्तियों का संवर्धन। ऐसी दिशा में दुष्प्रवृत्तियों के सामने जीवन-मरण का प्रश्न उपस्थित होगा। अभियान को जब तक दुर्बल समझा जायगा तब तक उसे उपहास उपेक्षा का पात्र बने रहने दिया जायगा। व्यंग तिरस्कार बरसते रहेंगे। किन्तु जब उसकी समर्थता और सफलता का आभास होने लगेगा तो विरोध एवं आक्रमण का सिलसिला चल पड़ेगा। अन्ततः वह देवासुर संग्राम उतना ही प्रचण्ड हो जायगा जितना कि सृजन प्रत्यावर्तन। इसके लिए प्रत्येक सृजन शिल्पी को पहले से ही तैयार रहना होगा। किसान का मुख्य काम अन्न उपजाना है, विभुक्षा का समाधान करना हैं। तो भी उसे इस कार्य क्षेत्र में आये दिन सर्प, बिच्छुओं, दीमकों, सुअर, भेड़ियों से मुठभेड़ के साधन सँजोकर रखने होते हैं। स्वयं श्रेष्ठ कर्म से निरत हैं। यह इस बात की गारंटी नहीं कि दुष्ट दुरात्माओं के आक्रमण होंगे ही नहीं। सज्जनता सामने से ही अनाक्रम दीखती है, पर परोक्ष रूप से उसमें भी दुष्टता की विघातक सामर्थ्य परिणाम में भरी पड़ी है। असुर वस्तुस्थिति को समझता हैं इसलिए देव पर कुछ प्रत्यक्ष कारण न रहने पर भी आक्रमण करने से चूकता नहीं। प्रकाश के उदय में अन्धकार की मृत्यु है। इसलिए सूर्योदय से पूर्व एक बार सघन तमिस्रा जमा होती है और प्रकाश से जूझने का उपक्रम करती हैं, भले ही उसे अन्ततः मुँह की ही क्यों न खानी पड़े।
युग निर्माण अभियान की प्रज्ञावतार प्रक्रिया उन समस्त सम्भावनाओं से भरी हुई है। सहयोग उसे प्रचुर परिणाम में मिलना हैं किन्तु ऐसी घटनाएँ भी कम नहीं होंगी जा प्रत्यक्ष आक्रमण में कठिनाई और परोक्ष दुरभिसन्धि रचने में सरलता देखकर उसी मार्ग को अपनाये। अन्तः क्षेत्र से उभरने वाले और बाहरी क्षेत्र से आक्रमण करने वाली दोनों ही स्तर की दुरभिसन्धियों से अभियान की सुरक्षा का प्रबन्ध करना चाहिए। इस संदर्भ में बरती जाने वाली जागरूकता, साहसिकता एवं शूर-वीरता उतनी ही आवश्यक हैं जितनी कि सृजन प्रयोजनों के लिए बरती जाने वाली उदार सेवा-साधना एवं भाव भरी परमार्थ परायणता।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति अगस्त 1979 पृष्ठ 55
यह क्रम अपने अभियान में भी निश्चित रूप से चलेगा। चलता भी रहा है। प्रतिगामी निहित स्वार्थ द्वारा तरह-तरह के आक्षेप लगाये जाते रहे हैं। बदनाम करने का कोई अवसर उन्होंने नहीं छोड़ा। अश्रद्धा उत्पन्न करने के लिए जो कुछ कहा जा सकता था - जो कुछ किया या कराया जा सकता था, उसमें की कुछ कमी नहीं रहने दी गई हैं। यह सारा उत्पात उन आसुरी तत्वों हैं जो अवांछनियताओं की सड़ी कीचड़ में ही डाँस, मच्छरों की तरह अपनी जिन्दगी देखते हैं। कुछ ईर्ष्यालु हैं, जिन्हें अपने अतिरिक्त किसी अन्य का यश वर्चस्व सहन ही नहीं होता। इसके अतिरिक्त सड़े टिमाटरों का भी एक वर्ग हैं जो पेट में रहने वाले कीड़ों की-चारपाई पर साथ सोने वाले खटमलों की-आस्तीन में पलने वाले साँपों की तरह आश्रय पाते हैं वहीं खोखला भी करते हैं। बिच्छू अपनी माँ के पेट का माँस खाकर ही बढ़ते और पलते हैं, माता का प्राण हरण करने के उपरान्त ही जन्म धारण करते हैं। कृतघ्नों और विश्वासघातियों का वर्ग इस युग में जिस तेजी से पनपा हैं उतना संभवतः इतिहास भी इससे पहले कभी भी नहीं देखा गया।
अवाँछनीयता हर क्षेत्र में अड्डा डाले और जड़ जमाये बैठी हैं। युग परिवर्तन की प्रक्रिया भी उसे उखाड़ने की उसी क्रम अनुपात से चलेगी जिससे कि सृजनात्मक सत्प्रवृत्तियों का संवर्धन। ऐसी दिशा में दुष्प्रवृत्तियों के सामने जीवन-मरण का प्रश्न उपस्थित होगा। अभियान को जब तक दुर्बल समझा जायगा तब तक उसे उपहास उपेक्षा का पात्र बने रहने दिया जायगा। व्यंग तिरस्कार बरसते रहेंगे। किन्तु जब उसकी समर्थता और सफलता का आभास होने लगेगा तो विरोध एवं आक्रमण का सिलसिला चल पड़ेगा। अन्ततः वह देवासुर संग्राम उतना ही प्रचण्ड हो जायगा जितना कि सृजन प्रत्यावर्तन। इसके लिए प्रत्येक सृजन शिल्पी को पहले से ही तैयार रहना होगा। किसान का मुख्य काम अन्न उपजाना है, विभुक्षा का समाधान करना हैं। तो भी उसे इस कार्य क्षेत्र में आये दिन सर्प, बिच्छुओं, दीमकों, सुअर, भेड़ियों से मुठभेड़ के साधन सँजोकर रखने होते हैं। स्वयं श्रेष्ठ कर्म से निरत हैं। यह इस बात की गारंटी नहीं कि दुष्ट दुरात्माओं के आक्रमण होंगे ही नहीं। सज्जनता सामने से ही अनाक्रम दीखती है, पर परोक्ष रूप से उसमें भी दुष्टता की विघातक सामर्थ्य परिणाम में भरी पड़ी है। असुर वस्तुस्थिति को समझता हैं इसलिए देव पर कुछ प्रत्यक्ष कारण न रहने पर भी आक्रमण करने से चूकता नहीं। प्रकाश के उदय में अन्धकार की मृत्यु है। इसलिए सूर्योदय से पूर्व एक बार सघन तमिस्रा जमा होती है और प्रकाश से जूझने का उपक्रम करती हैं, भले ही उसे अन्ततः मुँह की ही क्यों न खानी पड़े।
युग निर्माण अभियान की प्रज्ञावतार प्रक्रिया उन समस्त सम्भावनाओं से भरी हुई है। सहयोग उसे प्रचुर परिणाम में मिलना हैं किन्तु ऐसी घटनाएँ भी कम नहीं होंगी जा प्रत्यक्ष आक्रमण में कठिनाई और परोक्ष दुरभिसन्धि रचने में सरलता देखकर उसी मार्ग को अपनाये। अन्तः क्षेत्र से उभरने वाले और बाहरी क्षेत्र से आक्रमण करने वाली दोनों ही स्तर की दुरभिसन्धियों से अभियान की सुरक्षा का प्रबन्ध करना चाहिए। इस संदर्भ में बरती जाने वाली जागरूकता, साहसिकता एवं शूर-वीरता उतनी ही आवश्यक हैं जितनी कि सृजन प्रयोजनों के लिए बरती जाने वाली उदार सेवा-साधना एवं भाव भरी परमार्थ परायणता।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति अगस्त 1979 पृष्ठ 55