शनिवार, 11 सितंबर 2021

👉 !! शब्दों की ताकत !!

एक नौजवान चीता पहली बार शिकार करने निकला। अभी वो कुछ ही आगे बढ़ा था कि एक लकड़बग्घा उसे रोकते हुए बोला, ” अरे छोटू, कहाँ जा रहे हो तुम ?” “मैं तो आज पहली बार खुद से शिकार करने निकला हूँ !”,

चीता रोमांचित होते हुए बोला। “हा-हा-हा-, लकड़बग्घा हंसा,” अभी तो तुम्हारे खेलने-कूदने के दिन हैं, तुम इतने छोटे हो, तुम्हे शिकार करने का कोई अनुभव भी नहीं है, तुम क्या शिकार करोगे !! लकड़बग्घे की बात सुनकर चीता उदास हो गया।

दिन भर शिकार के लिए वो बेमन इधर-उधर घूमता रहा, कुछ एक प्रयास भी किये पर सफलता नहीं मिली और उसे भूखे पेट ही घर लौटना पड़ा। अगली सुबह वो एक बार फिर शिकार के लिए निकला।

कुछ दूर जाने पर उसे एक बूढ़े बन्दर ने देखा और पुछा, ” कहाँ जा रहे हो बेटा ?” “बंदर मामा, मैं शिकार पर जा रहा हूँ। ” चीता बोला। बहुत अच्छे ” बन्दर बोला , ” तुम्हारी ताकत और गति के कारण तुम एक बेहद कुशल शिकारी बन सकते हो।

जाओ तुम्हे जल्द ही सफलता मिलेगी।” यह सुन चीता उत्साह से भर गया और कुछ ही समय में उसने के छोटे हिरन का शिकार कर लिया।

मित्रों, हमारी ज़िन्दगी में “शब्द” बहुत मायने रखते हैं। दोनों ही दिन चीता तो वही था, उसमे वही फूर्ति और वही ताकत थी पर जिस दिन उसे डिस्करेज किया गया वो असफल हो गया और जिस दिन एनकरेज किया गया वो सफल हो गया।

📚शिक्षा--:--
इस छोटी सी कहानी से हम तीन ज़रूरी बातें सीख सकते हैं । -:-

🌹 पहली, हमारा प्रयास होना चाहिए कि हम अपने “शब्दों” से किसी को Encourage करें, Discourage नहीं। Of Course, इसका ये मतलब नहीं कि हम उसे उसकी कमियों से अवगत न करायें, या बस झूठ में ही एन्करजे करें।

🌹 दूसरी  हम ऐसे लोगों से बचें जो हमेशा निगेटिव सोचते और बोलते हों, और उनका साथ करें जिनका Outlook Positive हो।

🌹 तीसरी और सबसे अहम बात,
हम खुद से क्या बात करते हैं, Self-Talk में हम कौन से शब्दों का प्रयोग करते हैं इसका सबसे ज्यादा ध्यान रखें, क्योंकि ये “शब्द” बहुत ताकतवर होते हैं।

क्योंकि ये “शब्द” ही हमारे विचार बन जाते हैं, और ये विचार ही हमारी ज़िन्दगी की हकीकत बन कर सामने आते हैं, इसलिए दोस्तों, Words की Power को पहचानिये, जहाँ तक हो सके पॉजिटिव वर्ड्स का प्रयोग करिये, इस बात को समझिए कि ये आपकी ज़िन्दगी बदल सकते हैं।

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग ६१)

तत्वदर्शन से आनन्द और मोक्ष

पेंगल तब महर्षि नहीं बने थे। उसके लिए आत्म-सिद्धि आवश्यक थी। पर पेंगल साधना करते-करते पदार्थों की विविधता में ही उलझ कर रह गये। पशु-पक्षी, अन्य जन्तु, मछलियां, सांप, कीड़े मकोड़ों में शरीरों और प्रवृत्तियों की भिन्नता होने पर भी शुद्ध अहंकार और चेतना की एकता तो समझ में आ गई पर विस्तृत पहाड़, टीले, जंगल, नदी, नाले, समुद्र, सूर्य, चन्द्रमा, तारे, प्रकाश और पृथ्वी पर पाये जाने वाले विविध खनिज, धातुयें, गैसें, ठोस आदि क्या हैं, क्यों हैं, और उनमें यह विविधता कहां से आई है—यह उनकी समझ में नहीं आया। इससे उनकी आत्म-दर्शन की आकांक्षा और बेचैन हो उठी।

ये याज्ञवल्क्य के पास गये और उसकी बाहर वर्ष तक सेवा सुश्रुषा कर पदार्थ-विद्या का ज्ञान प्राप्त किया। इस अध्ययन से पेंगल का मस्तिष्क साफ हो गया कि जड़ पदार्थ भी एक ही मूल सत्ता के अंश हैं। सब कुछ एक ही तत्व से उपजा है। ‘एकोऽहं बहुस्यामः’, ‘एक नूर से सब जग उपजिआ’ वाली बात उन्हें पदार्थ विषम में भी अक्षरशः सत्य प्रतीत हुई। पेंगलोपनिषद् में इस कैवल्य का उपदेश मुनि याज्ञवलक्य ने इस प्रकार दिया है—

‘‘सदैव सोग्रयदमग्र आसीत् । तन्नित्यनुक्तमविक्रियं सत्य ज्ञानानन्द परिपूर्ण सनातनमेकवातीयं ब्रह्म ।। तस्मिन् मरुशुक्तिमस्थाणुस्फाटि कादो जल रौप्य पुरुष रेखाऽऽदिशल्लोहित शुक्ल कृष्ण गुणमयी गुण साम्या निर्वाच्या मूलप्रकृतिरासीत् । तत्प्रतिबिम्बितं यत्तद् साक्षि चैतन्यमासीत् ।।—’’
—पैंगलोपनिषद् 1।2-3

हे पैंगल! पहले केवल एक ही तत्व था। वह नित्य मुक्त, अविकारी, ज्ञानरूप चैतन्य और आनन्द से परिपूर्ण था, वही ब्रह्म है। उससे लाल, श्वेत, कृष्ण वर्ण की तीन प्रकाश किरणों या गुण वाली प्रकृति उत्पन्न हुई। यह ऐसा था जैसे सीपी में मोती, स्थाणु में पुरुष और मणि में रेखायें होती हैं। तीन गुणों से बना हुआ साक्षी भी चैतन्य हुआ। वह मूल प्रकृति फिर विकारयुक्त हुई तब वह सत्व गुण वाली आवरण शक्ति हुई, जिसे अवयक्त कहते हैं।.....उसी में समस्त विश्व लपेटे हुए वस्त्र के समान रहता है। ईश्वर में अधिष्ठित आवरण शक्ति से रजोगुणमयी विक्षेप शक्ति होती है, जिसे महत् कहते हैं। उसका जो प्रतिबिम्ब पड़ता है वह चैतन्य हिरण्य गर्भ कहा जाता है। वह महत्तत्व वाला कुछ स्पष्ट और कुछ अस्पष्ट आकार का होता है.....।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ ९९
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

👉 भक्तिगाथा (भाग ६१)

समस्त साधनाओं का सुफल है भक्ति

ब्रह्मर्षि वशिष्ठ की वाणी पर्वतीय प्रपात की भांति थी, जिससे अमृत झर-झर बह रहा था। इस अमृत प्रवाह से सभी के मन-अन्तःकरण भीगते रहे, हृदय सिंचित होते रहे। सभी ने अनोखी अनुभूति पायी। ऐसी तृप्ति किसी को कभी न मिली थी, जैसी कि वे सब आज अनुभव कर रहे थे। इन अनुभूति में देवों, ऋषियों, सिद्धों एवं दिव्य देही आत्माओं का वह समुदाय पता नहीं कब तक खोया रहता, लेकिन तभी गगन में महासूर्य के समान प्रचण्ड ज्योतिर्मय पुञ्ज का उदय हुआ। इसे देखकर अनेकों मुखों पर आश्चर्य की रेखाएँ गहरी हुईं, परन्तु ब्रह्मर्षि विश्वामित्र के अधरों पर स्मित रेखा झलकी और वह हल्के से मुस्करा दिए।
    
जो आश्चर्यचकित थे वे यह सोच रहे थे कि इस अरुणोदय काल में भगवान् भुवनभास्कर ने यह अपना दूसरा प्रचण्ड रूप क्यों धारण कर लिया। अभी तो प्रातः की अमृत बेला प्रारम्भ ही हुई थी। सूर्य की अरूण किरणों ने अभी हिमालय के श्वेत हिम शिखरों को छुआ ही था, पक्षियों ने प्रभाती के अपने प्रथम बोल गाए ही थे। इसी बीच यह असामान्य आकाशीय घटना चौंकाने वाली थी। जो चौंके थे, वे यह देखकर और भी चकित हुए कि वह सूर्यसम प्रकाशित प्रचण्ड तेजपुञ्ज उन्हीं की ओर आ रहा था। इस विस्मयकारी घटना से थकित-चकित जनों को सम्बोधित करते हुए तेजस्वी ऋषि विश्वामित्र ने कहा- ‘‘आप सब परेशान होने की जगह उन महान विभूति की अभ्यर्थना के लिए अपने स्थान पर खड़े हों, क्योंकि आज हम सबके बीच स्वयं अगस्त्य ऋषि पधार रहे हैं।’’
    
विश्वामित्र के इन वचनों ने सभी को आश्चर्यमिश्रित प्रसन्नता से पुलकित कर दिया क्योंकि ऋषि अगस्त्य के दर्शन पाना देवों एवं ऋषियों के लिए भी दुर्लभ था। जब से ऋषि अगस्त्य ने पंचभौतिक देह का त्याग कर दिव्य देह धारण की थी, वह सभी के लिए अगम्य हो गए थे। उन्होंने दिव्य देह से अपने लिए एक दिव्य लोक का निर्माण किया था। उनका यह लोक सब प्रकार से अपूर्व एवं अगम्य था। वहाँ विभूति सम्पन्न देवता एवं सिद्धियों से सम्पन्न ऋषि भी अपनी इच्छा से प्रवेश नहीं कर सकते थे। यहाँ स्वाभाविक प्रवेश केवल देवाधिदेव महादेव के लिए ही सम्भव था। भगवान विष्णु एवं परम पिता ब्रह्मा भी अगस्त्य के आह्वान पर ही पधारते थे। अपने इस अपूर्व लोक में ऋषि अगस्त्य अखिल सृष्टि के कल्याणकारी प्रयोगों में संलग्न रहते थे। हाँ! बीच-बीच में वह अपने यहाँ श्रीराम कथा का आयोजन अवश्य करते थे, जिसमें भगवान् भोलेनाथ अवश्य पधारते थे। कभी वे लीलामय प्रभु श्रोता बनते थे, कभी वक्ता।
    
भक्त-भगवान् की इस लीला का रहस्य वे दोनों ही जानते थे। वही समुद्रपान करने वाले ऋषि अगस्त्य के स्वयं पधारने की बात ने सभी को प्रसन्नता से पूरित कर दिया। सब के सब उनकी अभ्यर्थना के लिए खड़े हो गए। इस बीच सूर्यसम तेजस्वी ऋषि अगस्त्य उनके बीच प्रकट हो गए। आते हुए उन्होंने सबसे पहले ब्रह्मर्षि वसिष्ठ एवं ब्रह्मर्षि विश्वामित्र की ओर देखकर हाथ जोड़े। सप्तऋषियों का अभिवादन किया। इसी के साथ वहाँ उपस्थित सभी देवों एवं ऋषियों ने उन्हें प्रणाम किया। देवर्षि नारद को तो उन्होंने भावों के अतिरेक में छाती से चिपका लिया। वह कहने लगे- ‘‘देवर्षि! आपके इस भक्ति समागम की चर्चा सभी लोकों में व्याप्त हो रही है। भक्ति के इस अपूर्व भावप्रवाह से समस्त लोकों में नवचेतना प्रवाहित करने के लिए आप साधुवाद के पात्र हैं।’’
    
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १०९

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