गुरुवार, 2 दिसंबर 2021

👉 मिलन का प्रतिफल

आत्मा को परमात्मा के निकट पहुँचने पर वही बात बनती है जो गरम लोहे और ठण्डे लोहे के एक साथ बाँधने पर होती है। गरम लोहे की गर्मी ठण्डे में जाने लगती है और थोड़ी देर में दोनों का तापमान एक सरीखा हो जाता है। दो तालाब जब तक अलग-अलग रहते हैं तब तक उनके पानी का स्तर नीचा-ऊँचा बना रहता है पर जब बीच में नाली निकालकर उन दोनों को आपस में संबन्धित कर दिया जाता है तो अधिक भरे हुए तालाब का पानी दूसरे कम पानी वाले तालाब में चलने लगता है और यह प्रक्रिया तब तक जारी रहती है जब तक कि दोनों का जल स्तर समान नहीं हो जाता।

दो जलाशयों का मिलना या गरम-ठण्डे लोहे का परस्पर मिलना जिस प्रकार एकरूपता की स्थिति उत्पन्न करता है उसी प्रकार उपासना द्वारा आत्मा और परमात्मा का मिलन होने पर जीव में दैवी गुणों की तीव्रगति से अभिवृद्धि होने लगती है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 मेरी इच्छा

मेरी केवल यह इच्छा है कि प्रतिवर्ष यथेष्ठ संख्या में हमारे नवयुवकों को चीन जापान में आना चाहिए। जापानी लोगों के लिए आज भारतवर्ष उच्च और श्रेष्ठ वस्तुओं का स्वप्नराज्य है। और तुम लोग क्या कर रहे हो? ... जीवन भर केवल बेकार बातें किया करते हो, व्यर्थ बकवाद करने वालो, तुम लोग क्या हो? आओ, इन लोगों को देखो और  उसके बाद जाकर लज्जा से मुँह छिपा लो। सठियाई बुध्दिवालो, तुम्हारी तो देश से बाहर निकलते ही जाति चली जायगी!

अपनी खोपडी में वर्षों के अन्धविश्वास का निरन्तर वृध्दिगत कूडा-कर्कट भरे बैठे, सैकडों वर्षों से केवल आहार की छुआछूत के विवाद में ही अपनी सारी शक्ति नष्ट करनेवाले, युगों के सामाजिक अत्याचार से अपनी सारी मानवता का गला घोटने वाले, भला बताओ तो सही, तुम कौन हो? और तुम इस समय कर ही क्या रहे हो? ...किताबें हाथ में लिए तुम केवल समुद्र के किनारे फिर रहे हो। तीस रुपये की मुंशी - गीरी के लिए अथवा बहुत हुआ, तो एक वकील बनने के लिए जी -जान से तडप रहे हो -- यही तो भारतवर्ष के नवयुवकों की सबसे बडी महत्वाकांक्षा है। तिस पर इन विद्यार्थियों के भी झुण्ड के झुण्द बच्चे पैदा हो जाते हैं, जो भूख से  तडपते हुए उन्हें घेरकर ' रोटी दो, रोटी दो ' चिल्लाते रहते हैं। क्या समुद्र में इतना पानी भी न रहा कि तुम उसमें विश्वविद्यालय के डिप्लोमा, गाउन और पुस्तकों के समेत डूब मरो?

आओ, मनुष्य बनो! उन पाखण्डी पुरोहितों को, जो सदैव उन्नत्ति के मार्ग में बाधक होते हैं, ठोकरें मारकर निकाल दो, क्योंकि उनका सुधार कभी न होगा, उन्के हृदय कभी विशाल न होंगे। उनकी उत्पत्ति तो सैकडों वर्षों के अन्धविश्वासों और अत्याचारों के फलस्वरूप हुई है। पहले पुरोहिती पाखंड को ज़ड – मूल से निकाल फेंको। आओ, मनुष्य बनो। कूपमंडूकता छोडो और बाहर दृष्टि डालो। देखो, अन्य देश किस तरह आगे बढ रहे हैं। क्या तुम्हे मनुष्य से प्रेम है? यदि 'हाँ' तो आओ,हम लोग उच्चता और उन्नति के मार्ग में प्रयत्नशील हों। पीछे मुडकर मत देखो; अत्यन्त निकट और प्रिय सम्बन्धी रोते हों, तो रोने दो, पिछे देखो ही मत। केवल आगे बढते जाओ। भारतमाता कम से कम एक हज़ार युवकों का बलिदान चाहती है -- मस्तिष्क-वाले युवकों का, पशुओं का नहीं। परमात्मा ने तुम्हारी इस निश्चेष्ट सभ्यता को तोडने के लिए ही अंग्रेज़ी राज्य को भारत में भेजा है...

स्वामी विवेकानन्द     
( वि.स.१/३९८-९९)

👉 भक्तिगाथा (भाग ८८)

भगवान और भक्त में भेद कैसा?

‘‘राम! राम!!’’ की मधुर ध्वनि के साथ कही गयी महर्षि वाल्मीकि की अनुभवकथा ने सभी को रोमांचित कर दिया। एक पुलकन, मीठी सी सिहरन के साथ सब महसूस करने लगे कि सन्त का सान्निध्य जीवन में सात्त्विकता की बाढ़ ला देता है और तब अनायास ही मनःस्थिति एवं परिस्थिति में सद्चिन्तन, सद्भाव एवं सत्कर्म के अंकुर फूटने लगते हैं। होने लगता है चहुँ ओर एक सुखद सात्त्विक परिवर्तन। रजस्-तमस् के अवरोधक स्वतः ही इसमें लय-विलय हो जाते हैं। इसलिए सन्त का मिलन जिन्दगी की सर्वाधिक पवित्र अनुभूति है। इस अनुभूति के सुखद स्पन्दन हिमवान के आंगन में सब तरफ व्याप रहे थे। इस भक्ति समागम में इनकी सर्वाधिक सघनता थी। क्योंकि इनमें तो सन्त, सिद्ध, ऋषि, देव इन्हीं का समूह एकत्रित था। इस उद्गम से प्रवाहित भक्तिगाथा की कथासरिता सभी लोकों को पावन बना रही थी।

अब तो यह सभी लोक-लोकान्तरों की चेतना का चैतन्य प्रवाह बन गया था। जहाँ कालक्रम से अनगिन लहरें उमगती-उफनती रहती थीं। न जाने कितनी दिव्य विभूतियाँ यहाँ स्वतः उपस्थित हो जाती थीं। उन्हें कोई और नहीं यहाँ के सात्त्विक वातावरण की सघनता स्नेहिल आमंत्रण सम्प्रेषित करती रहती थी। महर्षि विश्वसामः इसी आमंत्रण मंत्र से आकर्षित होकर पधारे थे। उनकी इस अचानक उपस्थिति ने सभी को चकित कर दिया। क्योंकि जो उन्हें जानते थे, उन्हें मालूम था कि महर्षि विश्वसामः कहीं आते-जाते नहीं। वह युगों से एकाकी रहते हुए आदिशक्ति भगवती महामाया की भक्ति करते हैं। हाँ, पहले किसी युग में वह गोमन्त जनपद में रहा करते थे। उनके इस सुखद आगमन ने सब को अत्यन्त सुख पहुँचाया। महर्षि वसिष्ठ एवं ऋषि विश्वामित्र तो उनको इस तरह अपने बीच पाकर आह्लादित हो गए। क्योंकि ये दोनों महान ऋषि इनसे पूर्व परिचित थे।

कुछ पल स्नेह-अभिवादन एवं अभिनन्दन में गुजरे। लेकिन महर्षि विश्वसामः देवर्षि के अगले सूत्र को सुनने के लिए उत्कंठित थे। इसके लिए उन्होंने मुखर आग्रह भी कर डाला। देवर्षि ने उन्हें नमन करते हुए अपना अगला सूत्र उच्चारित किया-

‘तसिं्मस्तज्जने भेदाभावात्’॥ ४१॥
क्योंकि भगवान और उनके भक्त में भेद का अभाव है। देवर्षि के इस सूत्र को सुनते ही महर्षि विश्वसामः उल्लसित होकर बोल उठे- ‘‘अहा! सत्य! सुन्दर!!! त्रिबार सत्य!!!!’’ इस भक्तिसूत्र पर इन लोक सम्मानित महर्षि की इस त्वरित प्रतिक्रिया से लगा कि उनकी कुछ स्मृतियाँ इस सूत्र में पिरोयी हैं। देवर्षि के अन्तर्भावों में महर्षि की यह प्रतिक्रिया कुछ विशेष ढंग से ध्वनित हुई। उन्होंने इसके उत्तर में महर्षि से अनुरोध किया कि वह इस सूत्र की व्याख्या करें। महर्षि विश्वसामः सम्भवतः इस आग्रह के लिए तैयार नहीं थे परन्तु फिर कुछ सोचते हुए उन्होंने हामी भर दी।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १६७

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