बुधवार, 2 अगस्त 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 2 Aug 2023

‘अखण्ड ज्योति’ निर्माण का मिशन लेकर अग्रसर होती है। अपने परिवार के प्रत्येक सदस्य को इस ओर ध्यान देना होगा। हम अपने मनों को स्वच्छ करें, अपनी मलीनता को बुहारें और अपने समीपवर्ती संबंधित परिचित लोगों को भी वैसा ही प्रेरणा करें।
 
युग निर्माण का महान् कार्य आज की प्रचण्ड आवश्यकता है। जिस खंडहर स्थिति में हमारे शरीर, मन और समाज के भग्नावशेष पड़े हैं, उन्हें उसी दशा में पड़े रहने देने की उपेक्षा जिन्हें संतोष दे सकती हैं उन्हें जीवित मृत ही कहना पड़ेगा। आज बेशक ऐसे ही लोगों की संख्या अधिक है, जिन्हें अपने काम से काम, अपने मतलब से मतलब रखने की नीति पसंद है, पर ऐसे लोगों का बीज नष्ट नहीं हुआ है जो परमार्थ की महत्ता समझते हैं और लोकहित के लिए यदि उन्हें कुछ प्रयत्न या त्याग करना पड़े तो उसके लिए भी इंकार न करेंगे।

हमारे सान्निध्य और सत्संग की जिन्हें उपयोगिता प्रतीत होती हो उसे आदि से अंत तक अखण्ड ज्योति पढ़ते रहना चाहिए। एक महीने में हमने जो कुछ सोचा, विचारा, पढ़ा, मनन किया, समझा और चाहा है, उसका सारांश पत्रिका की पंक्तियों में मिल जाएगा। इस सत्संग की उपेक्षा को हम अपनी उपेक्षा ही समझते हैं और प्रत्येक प्रेमी से यह आशा करते हैं कि वह हमें हमारी भावना, आकाँक्षा और गतिविधियों को समझने के लिए पत्रिका को उसी मनोयोग से पढ़ें जैसे हमारे पास बैठकर हमारी बातों को सुना जाता है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 अहंकार अपने ही विनाश का एक कारण ( भाग १ )

दर्पण जल और र्स्फाटक में प्रकाशित सूर्य का प्रतिबिम्ब सभी ने देखा है। इस सत्य से भी कोई अनभिज्ञ नहीं है कि सूर्य के प्रतिबिम्ब का अस्तित्व सूर्य का कारण ही दिखलाई देता है। वस्तुतः प्रतिबिम्ब का अपना कोई अस्तित्व नहीं है अब ऐसी दशा में प्रतिबिम्ब अपने को सूर्य मान बैठे तो यह उसकी भूल ही होगी।

जीवात्मा का भी अपना अस्तित्व कुछ नहीं है। वह भी शरीर रूपी दर्पण में परमात्मा का प्रतिबिम्ब मात्र है। यदि मनुष्य स्वतः अपने अस्तित्व को अपनी विशेषता मान बैठे तो यह उसकी भी मूल होगी। किन्तु खेद है कि अज्ञान के कारण मनुष्य यह भूल करता है। उसे समझना तो यह चाहिए कि उसके अंतःकरण में जो परमात्म नाम का तत्व विराजमान है, उसी की विद्यमानता शरीर में चेतना उत्पन्न करती है, जिसके बल पर मनुष्य सारे विचार और व्यवहार करता है। परमात्म जब अपनी इस चेतना को अंतर्हित कर लेता है तब यह चलता फिरता चेतन शरीर जड़ होकर मिट्टी बन जाता है। किन्तु मनुष्य सोचता यह है कि उसका शरीर अपना है, उसको चेतना अपनी है, अपनी सत्ता से ही वह सारे कार्य व्यवहार करता है। यह मनुष्य का मिथ्या अहंकार है।

जीवन प्रगति में मनुष्य का अहंकार बहुत बड़ा बाधक है। इसके वशीभूत होकर चलने वाला मनुष्य प्रायः पतन की ओर ही जाता है। श्रेय पथ की यात्रा उसके लिये दुरूह एवं दुर्गम हो जाती है। अहंकार से भेद बुद्धि उत्पन्न होती है जो मनुष्य को मनुष्य से ही दूर नहीं कर देती, अपितु अपने मूलस्रोत परमात्मा से भी भिन्न कर देती है। परमात्मा से भिन्न होते ही मनुष्य में पाप प्रवृत्तियाँ प्रबल हो उठती है। वह न करने योग्य कार्य करने लगता है। अहंकार के दोष से मति विपरीत हो जाती है और मनुष्य को गलत कार्यों में ही सही का मान होने लगता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति 1969 जून पृष्ठ 58

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1969/June/v1.58


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👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...