बुधवार, 16 नवंबर 2016

👉 प्रेरणादायक प्रसंग Prernadayak Prasang 17 Nov 2016


👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 20)

🌹 युग-निर्माण योजना का शत-सूत्री कार्यक्रम

🔵 17. साप्ताहिक उपवास— साप्ताहिक छुट्टी पेट को भी मिलनी चाहिए। छह दिन काम करने के बाद एक दिन पेट को काम न करना पड़े, उपवास रखा जाया करे, तो पाचन क्रिया में कोई खराबी न आने पाये। विश्राम के दिन सप्ताह भर की जमा हुई कब्ज पच जाया करे और अगले सप्ताह अधिक अच्छी तरह काम करने के लिए पेट समर्थ हो जाया करे। देश में अन्न की वर्तमान कमी के कारण विदेशों से बहुत दुर्लभ विदेशी मुद्रा व्यय करके अन्न मंगाना पड़ता है। यदि सप्ताह में एक दिन उपवास का क्रम चल पड़े तो वह कमी सहज ही पूरी हो जाय। पूरे दिन न बन पड़े तो एक समय भोजन छोड़ने की व्यवस्था तो करनी ही चाहिए। जो लोग अधिक अशक्त होंवें, वे दूध, फल शाक आदि भले ही ले लिया करें, पर सप्ताह में एक समय अन्न छोड़ने—उपवास करने का तो प्रचलन किया जाय। उपवास का आध्यात्मिक लाभ तो स्पष्ट ही है, शारीरिक लाभ भी कम नहीं।

🔴 18. बड़ी दावतें और जूठन—ड़ी दावतों में अन्न का अपव्यय न होने देना चाहिए। प्रीतिभोजों, में खाने वालों की संख्या कम से कम रहे और खाने की वस्तुएं कम संख्या में ही परोसी जांय, जिससे अन्न की बर्बादी न हो।

🔵 थाली में जूठन छोड़ने की प्रथा बिलकुल ही बन्द की जाय। मेहतर या कुत्ते को भोजन देना हो तो अच्छा और स्वच्छ भोजन देना चाहिए। उच्छिष्ट भोजन कराने से तो उलटा पाप चढ़ता है। खाने वाले की भी शारीरिक और मानसिक हानि होती है। अन्न देवता का अपमान धार्मिक दृष्टि से भी पाप है। अन्न की बर्बादी तो प्रत्यक्ष ही है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 गृहस्थ-योग (भाग 6)

🌹 दृष्टिकोण का परिवर्तन

🔵 इस बात को भली प्रकार समझ रखना चाहिए कि योग का अर्थ अपनी तुच्छता संकीर्णता को महानता, उदारता और विश्वबन्धुत्व में जोड़ देना है। अर्थात् स्वार्थ को परिशोधन करके उसे परमार्थ बना लेना है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये असंख्य प्रकार के योगों की साधनायें की जाती हैं उन्हीं में से एक गृहस्थ योग ही साधना है। अन्य साधनाओं की अपेक्षा यह अधिक सुखद और स्वाभाविक है। इसलिये आचार्यों ने गृहस्थ योग का दूसरा नाम सहज योग भी रखा है। महात्मा कबीर ने अपने पदों में सहज योग की बहुत चर्चा और प्रशंसा की है।

🔴 किसी वस्तु को समुचित रीति से उपयोग करने पर वह साधारण होते हुए भी बहुत बड़ा लाभ दिखा देती है और कोई वस्तु उत्तम होते हुए भी यदि उसका दुरुपयोग किया जाय तो वह हानिकारक हो जाती है। दूध जैसे उत्तम पौष्टिक पदार्थ को भी यदि अवधि पूर्वक सेवन किया जाय तो वह रोग और मृत्यु का कारण बन सकता है। इसके विपरीत यदि जहर को भी उचित रीति से शोधन मारण करके काम में लाया जाय तो वह अमृत के समान रसायन का काम देता है। गृहस्थाश्रम के सम्बन्ध में भी यही बात है यदि उचित दृष्टिकोण के साथ आचरण किया तो गृहस्थाश्रम के रहते हुए भी ब्रह्म निर्वाण प्राप्त किया जा सकता है जैसा कि अनेक ऋषि महात्मा योगी और तपस्वी पूर्वकाल में प्राप्त कर चुके हैं।

🔵 आजकल गृहस्थों को दुख, चिन्ता, रोग, शोक, आधि व्याधि, पाप ताप में ग्रसित अधिक देखा जाता है इससे ऐसा अनुमान न लगाना चाहिए कि इसका कारण गृहस्थाश्रम है, यह तो मानसिक विकारों को कुविचार और कुसंस्कारों का फल है। दूषित मनोवृत्तियों के कारण हर एक आश्रम में, हर एक वर्ण में, हर एक देश में ऐसे ही संकट, दुख उपस्थित होंगे। इसके लिये बेचारे गृहस्थाश्रम को दोष देना बेकार है। यदि वह वास्तव में ही दूषित, त्याज्य तथा तुच्छ होता तो संसार के महापुरुषों, अवतारों और युग निर्माताओं ने इससे अपने को अलग रखा होता, किन्तु हम देखते हैं विश्व की महानता का करीब, करीब समस्त इतिहास गृहस्थाश्रम की धुरी पर केन्द्रीभूत हो रहा है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 सफल जीवन के कुछ स्वर्णिम सूत्र (भाग 7)

🌹 काम को टालिये नहीं:

🔵 यदि यह आदत डाल ली जाय तो जो काम सबसे कठिन दिखाई पड़ते हैं वे बहुत आसान लगने लगते हैं। वास्तव में कोई भी कार्य असाध्य व कठिन नहीं है। उन्हें हम ही कठिन बनाते हैं, अपनी टालने की वृत्ति से। इस वृत्ति के कारण आसान और सहज साध्य कार्य भी धीरे-धीरे कठिन लगने लग जाते हैं।

🔴 कम कठिनाई का कार्य पहले करने की आदत मनुष्य को प्रकृति का दास बना लेती है। जबकि वह अपने स्वभाव का, आदतों का दास नहीं स्वामी है। बहुत से व्यक्ति जो अपने जीवन में कोई महत्वपूर्ण कार्य नहीं कर पाते हैं, इसी आदत के दास होते हैं। ऐसी प्रकृति के हारे हुए व्यक्ति फिर कठिन कार्यों से ही नहीं, थोड़ी-सी कठिन परिस्थितियों में भी घबरा उठते हैं।

🔵 वे सरल कार्य पहले चुन-चुन कर लेते हैं। उनका सारा श्रम और कार्यक्षमता इन सरल कामों में लग जाती है। जब थक जाते हैं तब कार्य दीर्घ सूत्रता के शिकार हो जाते हैं। फिर करेंगे की भावना समस्या बन जाती है और काम का बोझ हमेशा खटकने लगता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 मैं क्या हूँ? What Am I? (भाग 30)

🌞 तीसरा अध्याय

🔴 शरीर और आत्मा के बीच की चेतना मन है। साधकों की सुविधा के लिए मन को तीन भागों में बाँटा जाता है। मन के पहिले भाग का नाम प्रवृत्त मानस है। यह पशु-पक्षी आदि अविकसित जीवों और मनुष्यों में समान रूप से पाया जाता है। गुप्त मन और सुप्त मानस भी उसे कहते हैं। शरीर को स्वाभाविक और जीवन्त बनाये रखना इसी के हाथ में है। हमारी जानकारी के बिना भी शरीर का व्यापार अपने आप चलता रहता है। भोजन की पाचन क्रिया, रक्त का घूमना, क्रमशः रस, रक्त, माँस, मेदा, अस्थि, वीर्य का बनना, मल त्याग, श्वाँस-प्रश्वाँस, पलकें खुलना, बन्द होना आदि कार्य अपने आप होते रहते हैं।

🔵 आदतें पड़ जाने का कार्य इसी मन के द्वारा होता है। यह मन देर में किसी बात को ग्रहण करता है पर जिसे ग्रहण कर लेता है, उसे आसानी से छोड़ता नहीं। हमारे पूर्वजों के अनुभव और हमारे वे अनुभव जो पाशविक जीवन से उठकर इस अवस्था में आने तक प्राप्त हुए हैं, इसी में जमा हैं। मनुष्य एक अल्प बुद्घि साधारण प्राणी था। उस समय की ईर्ष्या, द्वेष, युद्घ-प्रवृत्ति, स्वार्थ, चिन्ता आदि साधारण वृत्तियाँ इसी के एक कोने में पड़ी रहती हैं। पिछले अनेक जन्मों के नीच स्वभाव जिन्हें प्रबल प्रयत्नों द्वारा काटा नहीं गया है, इसी विभाग में इकट्ठे रहते हैं।

🔴 यह एक अद्भुत अजाएबघर है, जिसमें सभी तरह की चीजें जमा हैं। कुछ अच्छी और बहुमूल्य हैं, तो कुछ सड़ी-गली, भद्दी तथा भयानक भी हैं। जंगली मनुष्यों, पशुओं तथा दुष्टों में जो लोभ, हिंसा, क्रूरता, आवेश, अधीरता आदि वृत्तियाँ होती हैं, वह भी सूक्ष्म रूपों में इसमें जमा हैं। यह बात दूसरी है कि कहीं उच्च मन द्वारा पूरी तरह से वे वश में रखी जाती हैं कहीं कम। राजस और तामसी लालसाएँ इसी मन से सम्बन्ध रखती हैं। इन्द्रियों के भोग, घमण्ड, क्रोध, भूख, मैथुनेच्छा, निद्रा आदि प्रवृत्त मानस के रूप है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/mai_kya_hun/part3

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...