👉 वातावरण की दिव्य आध्यात्किम प्रेरणाएँ
दक्षिणेश्वर की पावन मिट्टी को अपने माथे पर लगाकर, यहाँ के पेड़ों के नीचे बैठकर हम सभी के मन का अवसाद दूर होता था। वारीन्द्र इस कथा को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि स्वाधीनता संघर्ष का वह दौर हममें से किसी के लिए आसान नहीं था। विपरीतताएँ- विपन्नताएँ भयावह थी। कदम- कदम पर भारी संकट थे। कब क्या हो जाय कोई ठिकाना नहीं। ऐसे में अच्छा खासा व्यक्ति भी मनोरोगी हो जाए। जीवन शैली ऐसी कि खाना- सोना यहाँ तक कि जीना भी हराम। ऐसे में देह का रोगों से घिर जाना कोई आश्चर्य की बात न थी। पर हम सभी को दक्षिणेश्वर की मिट्टी पर गहरी आस्था थी। इस मिट्टी से तिलक कर हम ऊर्जावान होते थे। यह भूमि हमारी सब प्रकार से चिकित्सा करती थी।
इस आश्चर्यजनक किन्तु सत्य का मर्म आस्थावान समझ सकते हैं। यह अनुभव कर सकते हैं कि वातावरण की आध्यात्मिक प्रेरणाएँ किस तरह से व्यक्तित्व को प्रेरित, प्रभावित व परिवर्तित करती हैं। वारीन्द्र की इस अनुभूति कथा की अगली कड़ी का सच यह है कि महर्षि श्री अरविन्द को जब अंग्रेज पुलिस कप्तान गिरफ्तार करने उनके कमरे में आया तो उसे एक डिबिया मिली। इस डिबिया में दक्षिणेश्वर की मिट्टी थी। साधारण सी मिट्टी इतने जतन से रखी गई थी, अंग्रेज कप्तान को इस पर बिल्कुल भरोसा न हुआ। उसने कई ढंग से पूछ- ताछ की, जाँच- पड़ताल की, पर कोई उसके मन- मुताबिक निष्कर्ष न निकला। क्योंकि उस मिट्टी को वह बम बनाने का रसायन समझ रहा था। उसने उसे प्रयोगशाला में परीक्षण के लिए भेज दिया।
प्रयोगशाला के निष्कर्षों ने भी उसे बेचैन कर दिया। क्योंक ये निष्कर्ष भी उसे मिट्टी बता रहे थे। पर वह मानने के लिए तैयार नहीं था कि यह मिट्टी हो सकती है। सभी क्रान्तिकारियों ने इस पर उसका खूब मजाक बनाया। वारीन्द्र ने इस घटना पर अपनी टिप्पणी करते हुए लिखा था कि वह अंग्रेज कप्तान एक अर्थो में सही था। वह मिट्टी साधारण थी भी नहीं। वह एकदम असाधारण थी, क्योंकि उसमें दक्षिणेश्वर के परमहंस देव की चेतना समायी थी, जो हम सभी के जीवन की औषधि थी। अध्यात्मिक वातावरण के इस सच के दिव्य प्रभाव बहुत सघन है किन्तु इन्हें वही अनुभव कर सकता है, जो संयम व सदाचार के प्रयोगों में संलग्र हो।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ ९७
दक्षिणेश्वर की पावन मिट्टी को अपने माथे पर लगाकर, यहाँ के पेड़ों के नीचे बैठकर हम सभी के मन का अवसाद दूर होता था। वारीन्द्र इस कथा को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि स्वाधीनता संघर्ष का वह दौर हममें से किसी के लिए आसान नहीं था। विपरीतताएँ- विपन्नताएँ भयावह थी। कदम- कदम पर भारी संकट थे। कब क्या हो जाय कोई ठिकाना नहीं। ऐसे में अच्छा खासा व्यक्ति भी मनोरोगी हो जाए। जीवन शैली ऐसी कि खाना- सोना यहाँ तक कि जीना भी हराम। ऐसे में देह का रोगों से घिर जाना कोई आश्चर्य की बात न थी। पर हम सभी को दक्षिणेश्वर की मिट्टी पर गहरी आस्था थी। इस मिट्टी से तिलक कर हम ऊर्जावान होते थे। यह भूमि हमारी सब प्रकार से चिकित्सा करती थी।
इस आश्चर्यजनक किन्तु सत्य का मर्म आस्थावान समझ सकते हैं। यह अनुभव कर सकते हैं कि वातावरण की आध्यात्मिक प्रेरणाएँ किस तरह से व्यक्तित्व को प्रेरित, प्रभावित व परिवर्तित करती हैं। वारीन्द्र की इस अनुभूति कथा की अगली कड़ी का सच यह है कि महर्षि श्री अरविन्द को जब अंग्रेज पुलिस कप्तान गिरफ्तार करने उनके कमरे में आया तो उसे एक डिबिया मिली। इस डिबिया में दक्षिणेश्वर की मिट्टी थी। साधारण सी मिट्टी इतने जतन से रखी गई थी, अंग्रेज कप्तान को इस पर बिल्कुल भरोसा न हुआ। उसने कई ढंग से पूछ- ताछ की, जाँच- पड़ताल की, पर कोई उसके मन- मुताबिक निष्कर्ष न निकला। क्योंकि उस मिट्टी को वह बम बनाने का रसायन समझ रहा था। उसने उसे प्रयोगशाला में परीक्षण के लिए भेज दिया।
प्रयोगशाला के निष्कर्षों ने भी उसे बेचैन कर दिया। क्योंक ये निष्कर्ष भी उसे मिट्टी बता रहे थे। पर वह मानने के लिए तैयार नहीं था कि यह मिट्टी हो सकती है। सभी क्रान्तिकारियों ने इस पर उसका खूब मजाक बनाया। वारीन्द्र ने इस घटना पर अपनी टिप्पणी करते हुए लिखा था कि वह अंग्रेज कप्तान एक अर्थो में सही था। वह मिट्टी साधारण थी भी नहीं। वह एकदम असाधारण थी, क्योंकि उसमें दक्षिणेश्वर के परमहंस देव की चेतना समायी थी, जो हम सभी के जीवन की औषधि थी। अध्यात्मिक वातावरण के इस सच के दिव्य प्रभाव बहुत सघन है किन्तु इन्हें वही अनुभव कर सकता है, जो संयम व सदाचार के प्रयोगों में संलग्र हो।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ ९७