गुरुवार, 3 जनवरी 2019

👉 सावित्रीबाई फुले

पूरा नाम    –   सावित्रीबाई ज्योतिराव फुले
जन्म        –   3 जनवरी 1831
जन्मस्थान   –  नायगांव, महाराष्ट
पिता        –   खंडोजी नावसे पाटिल
माता        –   लक्ष्मीबाई
विवाह       –   ज्योतिराव फुले

सावित्रीबाई फुले का जन्म महाराष्ट्र के नायगांव में 1831 को हुआ था. उनके परिवार में सभी खेती करते थे. 9 साल की आयु में ही उनका विवाह 1840 में 12 साल के ज्योतिराव फुले से हुआ. सावित्रीबाई और ज्योतिराव को दो संताने है. जिसमे से यशवंतराव को उन्होंने दत्तक लिया है जो एक विधवा ब्राह्मण का बेटा था।

सावित्रीबाई ज्योतिराव फुले भारतीय समाजसुधारक और कवियित्री थी. अपने पति, ज्योतिराव फुले के साथ उन्होंने भारत में महिलाओ के अधिकारो को बढ़ाने में महत्वपूर्ण काम किये है. उन्होंने 1848 में पुणे में देश की पहली महिला स्कूल की स्थापना की. सावित्रीबाई फुले जातिभेद, रंगभेद और लिंगभेद के सख्त विरोध में थी।

सावित्रीबाई एक शिक्षण सुधारक और समाज सुधारक दोनों ही तरह का काम करती थी. ये सभी काम वह विशेष रूप से ब्रिटिश कालीन भारत में महिलाओ के विकास के लिये करती थी. 19 वि शताब्दी में कम उम्र में ही विवाह करना हिन्दूओ की परंपरा थी. इसीलिये उस समय बहोत सी महिलाये अल्पायु में ही विधवा बन जाती थी, और धार्मिक परम्पराओ के अनुसार महिलाओ का पुनर्विवाह नही किया जाता था. 1881 में कोल्हापुर की गज़ेटि में ऐसा देखा गया की विधवा होने के बाद उस समय महिलाओ को अपने सर के बाल काटने पड़ते थे, और बहोत ही साधारण जीवन जीना पड़ता था।

सावित्रीबाई और ज्योतिराव ऐसी महिलाओ को उनका हक्क दिलवाना चाहते थे. इसे देखते हुए उन्होंने नाईयो के खिलाफ आंदोलन करना शुरू किया और विधवा महिलाओ को सर के बाल कटवाने से बचाया।

उस समय महिलाओ को सामाजिक सुरक्षा न होने की वजह से महिलाओ पर काफी अत्याचार किये जाते थे, जिसमे कही-कही तो घर के सदस्यों द्वारा ही महिलाओ पर शारीरिक शोषण किया जाता था. गर्भवती महिलाओ का कई बार गर्भपात किया जाता था, और बेटी पैदा होने के डर से बहोत सी महिलाये आत्महत्या करने लगती।

एक बार ज्योतिराव ने एक महिला को आत्महत्या करने से रोका, और उसे वादा करने लगाया बच्चे के जन्म होते ही वह उसे अपना नाम दे. सावित्रीबाई ने भी उस महिला और अपने घर रहने की आज्ञा दे दी और गर्भवती महिला की सेवा भी की. सावित्रीबाई और ज्योतिराव ने उस बच्चे को अपनाने के बाद उसे यशवंतराव नाम दिया. यशवंतराव बड़ा होकर डॉक्टर बना. महिलाओ पर हो रहे अत्याचारो को देखते हुए सावित्रीबाई और ज्योतिराव ने महिलाओ की सुरक्षा के लिये एक सेंटर की स्थापना की, और अपने सेंटर का नाम “बालहत्या प्रतिबंधक गृह” रखा. सावित्रीबाई महिलाओ की जी जान से सेवा करती थी और चाहती थी की सभी बच्चे उन्ही के घर में जन्म ले।

घर में सावित्रीबाई किसी प्रकार का रंगभेद या जातिभेद नही करती थी वह सभी गर्भवती महिलाओ का समान उपचार करती थी।
सावित्रीबाई फुले 19 वि शताब्दी की पहली भारतीय समाजसुधारक थी और भारत में महिलाओ के अधिकारो को विकसित करने में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा।

सावित्रीबाई फुले और दत्तक पुत्र यशवंतराव ने वैश्विक स्तर 1897 में मरीजो का इलाज करने के लिये अस्पताल खोल रखा था. उनका अस्पताल पुणे के हडपसर में सासने माला में स्थित है. उनका अस्पताल खुली प्राकृतिक जगह पर स्थित है. अपने अस्पताल में सावित्रीबाई खुद हर एक मरीज का ध्यान रखती, उन्हें विविध सुविधाये प्रदान करती. इस तरह मरीजो का इलाज करते-करते वह खुद एक दिन मरीज बन गयी. और इसी के चलते 10 मार्च 1897 को उनकी मृत्यु हो गयी।

सावित्रीबाई पूरे देश की महानायिका हैं. हर बिरादरी और धर्म के लिये उन्होंने काम किया. जब सावित्रीबाई कन्याओं को पढ़ाने के लिए जाती थीं तो रास्ते में लोग उन पर गंदगी, कीचड़, गोबर तक फैंका करते थे. सावित्रीबाई एक साड़ी अपने थैले में लेकर चलती थीं और स्कूल पहुँच कर गंदी कर दी गई साड़ी बदल लेती थीं. अपने पथ पर चलते रहने की प्रेरणा बहुत अच्छे से देती हैं।

उनका पूरा जीवन समाज में वंचित तबके खासकर महिलाओं और दलितों के अधिकारों के लिए संघर्ष में बीता. उनकी एक बहुत ही प्रसिद्ध कविता है जिसमें वह सबको पढ़ने लिखने की प्रेरणा देकर जाति तोड़ने की बात करती है:-

जाओ जाकर पढ़ो-लिखो, बनो आत्मनिर्भर,
बनो मेहनती
काम करो-ज्ञान और धन इकट्ठा करो
ज्ञान के बिना सब खो जाता है, ज्ञान के बिना हम जानवर बन जाते है
इसलिए, खाली ना बैठो, जाओ, जाकर शिक्षा लो
तुम्हारे पास सीखने का सुनहरा मौका है,
इसलिए सीखो और जाति के बंधन तोड़ दो.

👉 बोल तु मीठे बोल:-

दास प्रथा के दिनों में एक मालिक के पास अनेकों गुलाम हुआ करते थे। उन्हीं में से एक था लुक़मान। लुक़मान था तो सिर्फ एक गुलाम लेकिन वह बड़ा ही चतुर और बुद्धिमान था। उसकी ख्याति दूर दराज़ के इलाकों में फैलने लगी थी।

एक दिन इस बात की खबर उसके मालिक को लगी। मालिक ने लुक़मान को बुलाया और कहा- “सुनते हैं, कि तुम बहुत बुद्धिमान हो। मैं तुम्हारी बुद्धिमानी की परीक्षा लेना चाहता हूँ। अगर तुम इम्तिहान में पास हो गए तो तुम्हें गुलामी से छुट्टी दे दी जाएगी।

अच्छा जाओ, एक मरे हुए बकरे को काटो और उसका जो हिस्सा बढ़िया हो, उसे ले आओ।“ लुक़मान ने आदेश का पालन किया और मरे हुए बकरे की जीभ लाकर मालिक के सामने रख दी। कारण पूछने पर कि जीभ ही क्यों लाया ! लुक़मान ने कहा- “अगर शरीर में जीभ अच्छी हो तो सब कुछ अच्छा-ही-अच्छा होता है।“

मालिक ने आदेश देते हुए कहा- “अच्छा! इसे उठा ले जाओ और अब बकरे का जो हिस्सा बुरा हो उसे ले आओ।”

लुक़मान बाहर गया, थोड़ी ही देर में उसने उसी जीभ को लाकर मालिक के सामने फिर रख दिया। फिर से कारण पूछने पर लुक़मान ने कहा- “अगर शरीर में जीभ अच्छी नहीं तो सब बुरा-ही-बुरा है।"

उसने आगे कहते हुए कहा- “मालिक! वाणी तो सभी के पास जन्मजात होती है, परन्तु बोलना किसी-किसी को ही आता है…क्या बोलें? कैसे शब्द बोलें, कब बोलें.. इस एक कला को बहुत ही कम लोग जानते हैं। एक बात से प्रेम झरता है और दूसरी बात से झगड़ा होता है।

कड़वी बातों ने संसार में न जाने कितने झगड़े पैदा किए हैं। इस जीभ ने ही दुनिया में बड़े-बड़े कहर ढाए हैं। जीभ तीन इंच का वो हथियार है जिससे कोई छः फिट के आदमी को भी मार सकता है तो कोई मरते हुए इंसान में भी प्राण फूंक सकता है। संसार के सभी प्राणियों में वाणी का वरदान मात्र मानव को ही मिला है। उसके सदुपयोग से स्वर्ग पृथ्वी पर उतर सकता है और दुरूपयोग से स्वर्ग भी नरक में परिणत हो सकता है। भारत के विनाशकारी महाभारत का युद्ध वाणी के गलत प्रयोग का ही परिणाम था। “

मालिक, लुक़मान की बुद्धिमानी और चतुराई भरी बातों को सुनकर बहुत खुश हुए; आज उनके गुलाम ने उन्हें एक बहुत बड़ी सीख दी थी और उन्होंने उसे आजाद कर दिया।

मित्रों, मधुर वाणी एक वरदान है जो हमें लोकप्रिय बनाती है वहीँ कर्कश या तीखी बोली हमें अपयश दिलाती है और हमारी प्रतिष्ठा को कम करती है। आपकी वाणी कैसी है? यदि वो तीखी है या सामान्य भी है तो उसे मीठा बनाने का प्रयास करिये। आपकी वाणी आपके व्यत्कित्व का प्रतिबिम्ब है, उसे अच्छा होना ही चाहिए।

👉 आज का सद्चिंतन 3 Jan 2019

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 3 Jan 2019


👉 आत्मचिंतन के क्षण 3 Jan 2019

◾ किसी बात से तुम उत्साहहीन न होओ; जब तक ईश्वर की कृपा हमारे ऊपर है, कौन इस पृथ्वी पर हमारी उपेक्षा कर सकता है? यदि तुम अपनी अन्तिम साँस भी ले रहे हो तो भी न डरना। सिंह की शूरता और पुष्प की कोमलता के साथ काम करते रहो।

स्वामी विवेकानन्द

◾ आदर्श विहीन उस नाविक की तरह है जिसने बिना पतवार के गहन तूफान में अपनी नाव खोल दी हो। उसे यह ज्ञान नहीं कि किधर जाना है? लक्ष प्राप्त करने के लिए हमें किसी आध्यात्मिक गुरु की स्थापना अवश्य करनी चाहिए।

◾ कुछ व्यक्ति सोचते हैं, “हमें कौन पूछने वाला है? हम किस गणना में हैं? हमसे क्या होना जाना है?” इस प्रकार मनःस्थिति से वे अपनी तुच्छता तथा हीनता की कुत्सित ग्रन्थि को और सुदृढ़ करते हैं और कायरता दब्बूपन तथा घोर निराशा में निरत रहते हैं

◾ लेखों और भाषणों का युग अब बीत गया। गाल बजाकर लम्बी चौड़ी डींग हाँक कर या बड़े बड़े कागज काले करके संसार के सुधार की आधा करना व्यर्थ है। इन साधनों से थोड़ी मदद मिल सकती है, पर उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता। संसार को सुधारने का प्रधान साधन यही हो सकता है कि हम अपना मानसिक स्तर ऊँचा उठायें, चरित्रात्मक दृष्टि से अपेक्षाकृत उत्कृष्ट बनें। अपने आचरण से ही दूसरों को प्रभावशाली शिक्षा दी जा सकती है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 अपना मूल्याँकन, आप कीजिये (भाग 2)

जीवन में कई बार अनपेक्षित परिस्थितियाँ आती हैं, जिनके कारण अपने प्रति विश्वास डगमगाने लगता है और व्यक्ति उन परिस्थितियों में किंकर्तव्य विमूढ़ होकर उपलब्ध साधनों का उपयोग करने में संकोच करने लगता है अथवा यह सोचने लगता है कि वह इन साधनों के योग्य नहीं है। एक घटना नैपोलियन के सम्बन्ध में विख्यात है, उसका एक सैनिक अपने सेनापति के पास कोई महत्वपूर्ण सन्देश लेकर भेजा गया था। सन्देश इतना महत्वपूर्ण था कि जितना जल्दी हो सके उसे पहुँचाना और उसका उत्तर लेकर तुरन्त वापस आना आवश्यक था। सौंपे गये दायित्व को तत्परता से पूरा करने के लिए उस सैनिक ने अपना घोड़ा इतनी तेजी से दौड़ाया कि गंतव्य स्थल पर पहुँचते ही उसने दम तोड़ दिया।

नैपोलियन ने उसकी कर्तव्यनिष्ठा को सराहा तथा पत्र का उत्तर लेकर उसी शीघ्रता से जाने के लिए कहा लेकिन सैनिक का घोड़ा तो मर चुका था। नैपोलियन को यह मालूम था। सैनिक को असमंजस में देखकर वह बोला, यह लो मेरा घोड़ा और जल्दी से यह उत्तर ले जाओ।’ सैनिक भौंचक्का होकर अपने सेनापति की ओर देखने लगा। उसने कहा, ‘लेकिन श्रीमान्...........’ सैनिक ने यह दो शब्द ही कहे थे कि नैपोलियन बीच में टोकते हुए बोला, ‘मैं जानता हूँ तुम क्या कहना चाहते हो? पर याद रखो कि दुनिया का कोई भी घोड़ा ऐसा नहीं है, जिसकी सवारी तुम न कर सको।

घटना छोटी-सी है, पर उन सभी लोगों के लिए लागू होती है जो स्वयं को किसी महत्वपूर्ण उपलब्धि के लिए अयोग्य समझते हैं। दुनिया उस सिपाही जैसे असंख्य लोगों से भरी पड़ी है जो यह सोचते हैं कि अधिकांश सुख उनकी पहुँच से बाहर है। इस सम्बन्ध में एक विचारक का कथन है कि, ‘दुनिया के कई लोग अपने आपको उन सौभाग्यशाली लोगों से अलग समझते हैं जो महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ प्राप्त कर चुके हैं। ऐसा सोचना कितना हानिकारक है, इसका अनुमान सिर्फ इसी बात से लगाया जा सकता है कि ऐसे विचार मात्र व्यक्ति को कई ऊँचाइयों पर पहुँचने से रोक देते हैं। अपने आपको बौना समझने वाला व्यक्ति देवता कैसे बन सकता है?”

.....क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1981 पृष्ठ 13
http://literature.awgp.org/hindi/akhandjyoti/1981/January/v1.13

👉 माला की जरूरत है।

अक्सर यह कहा जाता है कि- ’माला जपने की क्या जरूरत है? मन से जप करना ही पर्याप्त है।’ यह ठीक है, कि जप का सीधा सम्बन्ध मन से ही है, यदि मन में जप की एकाग्र भावनाएं न हों तो केवल माला के मनके सरकाना कुछ अर्थ नहीं रखता। सिर खुजलाते रहना या ऐसा जप करते रहना, बराबर ही कहा जायगा।

लेकिन जो लोग सच्चे मन से जप करना चाहते हैं, उनके लिये माला एक उपयोगी और आवश्यक साधन है! घास खोदने वाला यदि चाहे तो उंगलियों से भी घास उखाड़ता रह सकता है, पर उसे अपना काम सुव्यवस्थित, जल्दी और सुविधापूर्वक करना है तो हंसिया या खुरपी की सहायता लेनी पड़ेगी। ठीक इसी प्रकार माला की जरूरत है। सब कोई जानते हैं कि चित्त का स्वभाव चंचल है स्वभावतः वह एक जगह पर नहीं टिकता। अभी यहाँ है तो अभी उड़कर कहीं दूसरी जगह चला जायगा। उसे एक जगह पर बराबर जोते रहने के लिये एक भौतिक प्रक्रिया की आवश्यकता है और वह प्रक्रिया माला के रूप में हम लोग प्रयोग करते हैं।

शरीर की बाह्य क्रियाओं पर मन का कुछ न कुछ भाग अवश्य लगा रहता है। जैसे चाकू से कलम बनावे तो उसे मन किसी दूसरी कल्पना में जा सकता है, पर उसका अधिक भाग कलम बनाने की क्रिया में अवश्य उलझा रहेगा। इसी प्रकार केवल मन ही मन में जप करने पर चित्त दूसरी जगह उड़ जा सकता है। पर मुख से मन्त्र उच्चारण करने एवं हाथ से माला जपने की शक्ति न होने मन का कुछ न कुछ भाग भजन में जरूर उलझा रहेगा। पूर्ण अभ्यासियों को समाधि आनन्द लेते समय भले ही उसकी आवश्यकता न हो, परन्तु निश्चय ही आरम्भिक साधकों के लिये तो माला जपना आवश्यक है।

📖 अखण्ड ज्योति अप्रैल 1943 पृष्ठ 14

👉 Enrich Your Heart

Great personalities do not accumulate wealth, neither do they desire for it; because, they have a generous heart full of a treasure that is bigger than that of Kuber (the God of wealth). It is said that there is no place for the one who is poor (miser) at heart; if there is no compassion in one’s heart, he will have no abode (of peace) – neither in this world, nor in the sublime world beyond… A materialistically poor man may have many chances of getting wealthy but the one whose heart is merciless will remain a beggar who will get scorn from everywhere.

Who can be a follower of truth and sainthood? Who is worthy of seeing God? The one, whose heart pulsates with generosity and love… Harsh, dry-hearted, cruel ones are infirm, they are impaired despite having healthy body, mind and resourceful life; they won’t be able to enjoy even the nectar kept in their closed vicinity. ‘O’ tyrants, just think before terrorizing others! What will happen the day when you will be in the place of your victims? Why be blinded by selfish passions, ego and follow apathy? You will have to bear the painful retribution life after life…Mother earth is a witness to this law of eternity; sooner or later the sinners have to face the dreadful punishments of the hell right here. Therefore, be gentle, sensitive, kind and helpful to others.

Those who possess the light of compassion in their hearts will never wander in the dark. So open your eyes to look inside and illumine your heart with the glow of kindness. Be considerate and compassionate to every one around you.

📖 Akhand Jyoti, Feb. 1942

👉 दूसरों पर दया करो

महान् पुरुषों के पास पैसा नहीं होता और न वे उसकी इच्छा करते हैं, क्योंकि दया से लबालब भरा हुआ हृदय उनके पास कुबेर के भंडार की तरह मौजूद रहता है। कहते हैं कि इस दुनिया में गरीब का कोई ठिकाना नहीं। निश्चय समझो, परलोक में उनका कोई ठिकाना न होगा, जिनके मन में दया नहीं है। दरिद्र मनुष्य एक दिन संपन्न हो सकता है, परंतु वह भिखमंगा इसी तरह दर-दर पर दुत्कार खाता फिरेगा, जिसका हृदय दया से रहित है। सत्य को कौन प्राप्त करेगा?

ईश्वर के दर्शन कौन करेगा? वह, जिसके हृदय में दया है। निर्दयी मनुष्य तो अपाहिज हैं, वे अपनी बगल में रखे हुए उत्तमोत्तम पदार्थों को भी न ले सकेंगे। अरे ओ निर्दयी मनुष्यों, ठहरो! दूसरों को सताने से पहले जरा सोचो तो सही कि जब इसी तरह तुम भी सताए जाओगे तब तुम्हारी क्या दशा होगी! दया का परित्याग करके क्रूरता और पाप के पथ पर आरूढ़ क्यों होते हो? क्या तुम इतना भी नहीं जानते कि इन दुष्ट कर्मों का फल तुम्हें जन्म-जन्मांतरों तक घुट-घुट कर भुगतना पड़ेगा? धरती माता साक्षी हैं कि नारकीय यंत्रणाएँ पापियों के लिए ही हैं, दयालुओं के लिए नहीं।

जिनके हृदय में दया है, वे अंधकार में न भटकेंगे। इसलिए ऐ आँख वाले! देखो और अपने मन में दया को स्थान दो। दूसरों के साथ दयालुता का व्यवहार करो।

📖 अखण्ड ज्योति -फरवरी 1942 पृष्ठ 19

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