सोमवार, 7 मई 2018

👉 आज का सद्चिंतन 7 May 2018


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 7 May 2018


👉 सत्य की शोध कीजिए (भाग 1)

🔶 यदि आप सचमुच सत्य के प्रेमी हैं, तो उसके समस्त असीम सौंदर्य और महत्व के साथ पूर्ण रूप में उसे खोजने का साहस कीजिए। किंतु रूढ़ियों की पत्थर की दीवालों के भीतर कंजूसों के समान एकान्त स्थान में उसके (सत्य के) व्यर्थ के संकेत चिन्हों का संग्रह करके ही संतोष न कर लीजिए। महात्माओं की आध्यात्मिक उच्चता के कारण जोकि उन सबसे समान रूप से पाई जाती है, हमें विनम्रतापूर्ण सादगी के साथ उनका आदर करना चाहिए।

🔷 यह आध्यात्मिक उच्चता उन में उस समय देखी जाती है जब वे अपनी विश्वजनीन उच्च विचारों के साथ मनुष्य की आत्मा को स्वयं उसके व्यक्तिगत उसकी जाति और उसके धर्म के अहं भाव के बन्धन से छुड़ाने के लिए एकत्रित होते हैं। किंतु परंपराओं की एक नीची भूमि में जहाँ धर्म एक दूसरे के दासों और अन्धविश्वासों को चुनौती देकर ललकारते हैं और उनका खण्डन करते हैं वहाँ पर एक बुद्धिमान मनुष्य निश्चय ही संदेह ओर आश्चर्य के साथ उनके पास से चला जायेगा।

🔶 मेरा मतलब इस बात का समर्थन करने का नहीं है कि समस्त मानव जाति के लिए कोई एक ही प्रकार का प्रार्थनागृह रखा जाय अथवा कोई एक ऐसा विश्वजनीन नमूना रखा जाए जिसका अनुकरण सभी पूजा के और सद्भावना के कार्यों के द्वारा किया जाय।

✍🏻 विश्व कवि श्री रवीन्द्रनाथ जी टैगोर
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर 1950 पृष्ठ 8

👉 Indian Culture

🔶 The publication of Sri Aurobindo’s renowned work “The foundation of Indian Culture” had sparked a new wave of interest in the multiple aspects of Indian Culture. His disciples and other residents of his Ashram also used to have prolonged discussion on the elements of this great legacy of the Vedic Age.

🔷 Once a disciple raised a query as to why the Indian Culture is reffered to as the “Divine Culture” while the cultures of all the other nations are known after their names only. He put this question to Nalinda, who was the seniormost sadhak in the Ashram and was considered very close to the master. Nalinda could not find a satisfactory answer to the query and said that he would approach Sri Aurobindo himself for a reply.One day, while discussing some related topic, Nalinda put the same query before Sri Aurobindo.

🔶 The latter replied-“ The principle objective of the Indian Culture is the awakening and expression of Divinity in human life. The Vedic Rishis, the founders of the Indian Culture, had developed the grand structure of this culture around this very central search. Because of the incorporation of divine values and elements in its genesis and expansion, the Indian Culture is also synonymous with Divine Culture.”

📖 From Pragya Puran

👉 चाहिए साहसी, जिम्मेदार

🔶 युग निर्माण योजना, शतसूत्री कार्यक्रमों में बँटी हुई है। वे यथास्थान, यथास्थिति, यथासंभव कार्यान्वित भी किए जा रहे हैं, पर एक कार्यक्रम अनिवार्य है और वह यह कि इस विचारधारा को जन-मानस में अधिकाधिक गहराई तक प्रविष्ट कराने, उसे अधिकाधिक व्यापक बनाने का कार्यक्रम पूरी तत्परता के साथ जारी रखा जाए। हम थोड़े व्यक्ति युग को बदल डालने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। धीरे-धीरे समस्त मानव समाज को सद्भावना सम्पन्न एवं सन्मार्ग मार्गी बनाना होगा और यह तभी संभव है जब यह विचारधारा गइराई तक जन-मानस में प्रविष्ट कराई जा सके। इसलिए अपने आस-पास के क्षेत्र में इस प्रकाश को व्यापक बनाए रखने का कार्य तो परिवार के प्रत्येक प्रबुद्ध व्यक्ति को करते ही रहना होगा।

🔷 अन्य कोई कार्यक्रम कहीं चले या न चले, पर यह कार्य तो अनिवार्य है कि इस विचारधारा से अधिकाधिक लोगों को प्रभावित करने के लिए निरंतर समय, श्रम, तन एवं मन लगाया जाता रहे। जो ऐसा कर सकते हैं, जिनमें ऐसा करने की प्रवृत्ति उत्पन्न हो गई है, उन्हें हम अपना उत्तराधिकारी कह सकते हैं। धन नहीं, लक्ष्य हमारे हाथ में है, उसे पूरा करने का उत्तरदायित्व भी हमारे उत्तराधिकार में किसी को मिल सकता है। उसे लेने वाले भी कोई बिरले ही होंगे। इसलिए उनकी खोज तलाश आरंभ करनी पड़ रही है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति, दिसम्बर 1964 पृष्ठ 49-50   

👉 धर्म का तत्त्व

🔶 धर्म के विस्तार एवं विविधता की खोज अनावश्यक है। आवश्यक है धर्म के तत्त्व की खोज, इसकी अनेकता में एकता की खोज, इसके परम सार की खोज। यह खोज जितनी अनिवार्य एवं पवित्र है, इसकी विधि उतनी ही रहस्यमय और आश्चर्यपूर्ण है। इसे न समझने वाले जीवन की भँवरों की भटकन में भटकते रहते हैं। धर्म को खोजते हुए स्वयं को खो देते हैं। क्योंकि वे धर्म के तत्त्व को नहीं उसके विस्तार एवं विविधता को खोजते हैं।
  
🔷 धर्म के तत्त्व की खोज तो स्वयं की खोज में पूरी होती है। स्वयं का सत्य मिलने पर धर्म अपने-आप ही मिल जाता है। यह तत्त्व शास्त्रों में नहीं है। शास्त्रों में तो जो है, वह केवल संकेत है। धर्म-ग्रन्थों में जो लिखा है, वह तो बस चन्द्रमा की ओर इशारा करती हुई अंगुली भर है। जो इस अंगुली को चन्द्रमा समझने की भूल करता है, वह अंगुली को तो थाम लेता है, पर चन्द्रमा को हमेशा के लिए खो देता है।
  
🔶 शास्त्रों की ही भाँति सम्प्रदाय भी है। धर्म का तत्त्व इन सम्प्रदायों में भी नहीं है। सम्प्रदाय तो संगठन है। ये सुव्यवस्थित रीति से केवल अपने मत का प्रचार करते हैं। बहुत हुआ तो धर्म की ओर रुचि पैदा करते हैं। अधिक से अधिक उसकी ओर उन्मुख कर देते हैं। धर्म का तत्त्व तो निज की अत्यन्त निजता में है। उसके लिए स्वयं के बाहर नहीं, भीतर चलना आवश्यक है।
  
🔷 धर्म का तत्त्व तो स्वयं की श्वास-श्वास में है। बस उसे उघाड़ने की दृष्टि नहीं है। धर्म का तत्त्व स्वयं के रक्त की प्रत्येक बूंद में है। बस उसे खोजने का साहस और संकल्प नहीं है। धर्म का तत्त्व तो सूर्य की भांति स्पष्ट है, लेकिन उसे देखने के लिए आँख खोलने की हिम्मत तो जुटानी ही होगी।
  
🔶 धर्म का यही तत्त्व तो अपना सच्चा जीवन है। लेकिन इसकी अनुभूति तभी हो सकेगी, जब हम देह की कब्रों से बाहर निकल सकेंगे। दैहिक आसक्ति एवं भोग-विलास के आकर्षण से छुटकारा पा सकेंगे। यह परम सत्य है कि धर्म की यथार्थता जड़ता में नहीं चैतन्यता में है। इसलिए सोओ नहीं, जागो और चलो। परन्तु चलने की दिशा बाहर की ओर नहीं, अन्दर की ओर हो। अन्तर्गमन ही धर्म के तत्त्व को खोजने और पाने का राजमार्ग है।

✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ 106

👉 गुरुगीता (भाग 102)

👉 सच्चे शिष्य का एक ही स्वर- निष्काम कर्म

🔶 बात अनूठी है, सद्गुरू एवं सद्गुरू द्वारा प्रदर्शित मार्ग की उपयोगिता क्या है? संसार पाने के लिए अथवा संसार से मुक्त होने के लिए। इस सत्य पर शिष्य को बार- बार विचार करना चाहिए। यह विचार न करने पर शिष्य के लिए सद्गुरू मिलन व्यर्थ और अर्थहीन हो जाता है। क्योंकि वह सद्गुरू प्राप्ति को भी संसार से जोड़कर देखता है और इसी मापदण्ड पर सद्गुरू की सत्यता का मापन करता है। ऐसा व्यक्ति बार- बार इसी को सोचता है कि सद्गुरू से मिलने के बाद उसे कितनी सांसारिक सफलताएँ या विफलताएँ हासिल हुई। जबकि सोचा यह जाना चाहिए कि सद्गुरू प्राप्ति के बाद अपना अन्तःकरण कितना अनासक्त एवं निष्काम हुआ।

🔷 कथा महाभारत की है और जगविदित है, परन्तु फिर भी एक बार पुनः मनन करने योग्य है। माता कुन्ती भगवान् कृष्ण की सगी बुआ थी। श्रीकृष्ण को उन्होंने भगवान् के रूप में जाना भी था। उसके बाद भी उनके ऊपर सम्पूर्ण जीवन भर एक के बाद एक नये कष्ट आते रहे। उनके विवाह के बाद राजा पाण्डु को शाप मिला और वे अपने पति के वियोग, सखी एवं बहन जैसी माद्री के वियोग की कथा से उनके जीवन कार्यों का प्रारम्भ हुआ। बहुत दिनों तक वे पाँचो पाण्डवों के साथ वन का दुःख झेलती रही। अन्त में महात्मा भीष्म के बुलाने पर उनका हस्तिनापुर आना हुआ।

🔶 और यहीं से आरम्भ हुई कौरवों के कुचक्रों की शुरूआत। साथ ही जगद्गुरू कृष्ण का साहचर्य भी रहा। लाक्षागृह- वरणावत का अग्रिकाण्ड फिर उससे बच निकलना। बाद में पाण्डवों का द्रोपदी से विवाह, परन्तु साथ ही राज्य के बँटवारे में पुनः छल और पाण्डवों को खाण्डवप्रस्थ का बीहड़ वन दिया जाना, जिसे उन्होंने अपने बल और कौशल से इन्द्रप्रस्थ के रूप में सँवारा। पुनः कौरवों की ईर्ष्या और जुए के कुटिल खेल का प्रारम्भ। इसमें द्रोपदी का अपमान और पाण्डवों का पुनः वनवास।

🔷 वन में बाहर वर्षों तक निरन्तर कष्टों को सहन करना, फिर एक साल के अज्ञातवास में छिपे रहना। इसके बाद प्रारम्भ हुआ महाभारत का महासंग्राम। और इसके बाद कुन्ती का पुनः वनगमन और वहाँ उनकी मृत्यु। इतनी दुःसह व्यथा सहने वाली कुन्ती से जब श्रीकृष्ण ने पूछा- बुआ तुम्हें क्या वरदान चाहिए, तो उन्होंने बड़ी भक्ति से कहा- हे केशव! मैं दुःखों का वरदान चाहती हूँ।

🔶 चकित कृष्ण ने उनसे जानना चाहा -- इतने दुःखों की चाहत क्यूँ है? तो वे बोली- हे केशव! जीवन के दुःखों में तुम्हारी याद बहुत आती है। और हे भक्तवत्सल प्रभु! मैं तुम्हें कभी नहीं भूलना चाहती। सो हे जनार्दन! वे दुःख बहुत अच्छे लगते हैं, जो मुझे तुम्हारी याद दिलाते हैं। बस यही सच्चे शिष्य का स्वर है, जो वह गुरू से कहता है, उनसे माँगता है। जो इस तत्त्व को, सत्य को जानता है- वही शिष्य है और उसी ने गुरूगीता के मर्म को जाना है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 गुरुगीता पृष्ठ 155

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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