मंगलवार, 15 मार्च 2016

 

इन सबका प्राण तो मैंने सिखाया भी नहीं था। मैं चाहता था कि चलते- चलते इनका प्राण सिखा जाऊँ ,, ताकि आपका अध्यात्म जीवंत हो सके ; ताकि आपकी उपासना जीवंत हो सके और जीवंत उपासना का जो लाभ आपको मिलना चाहिए, वह लाभ आपको मिलने मे समर्थ हो सके और आप अपनी जिंदगी में यह अनुभव कर सकें कि हमको कोई ऐसी चीज बताई गई थी। अगर हमने नहीं की तो ठीक है, लेकिन की तो उसका पूरे का पूरा फायदा उठाया। हम आपको ऐसा ही अध्यात्म सिखाने के इच्छुक हैं। आपको ऐसा अध्यात्म सीखना चाहिए और ऐसा अध्यात्म जानना चाहिए।

मित्रो ! अध्यात्म में आत्मशोधन पहली प्रकिया है। पंचमुखी गायत्री के पाँच मुखों को पाँच दिशाओं, पाँच धाराओं, गायत्री उपासना के पाँच टुकड़ों में बाँट दिया गया है। इसमें तीन चरण हैं, एक पर्व है। इसमें एक ‘ऊँ’ है। गायत्री पाँच हिस्सों में बँटी हुई है, जिसकी हम पाँच हिस्सों में व्याख्या कर सकते हैं। इसको हम पाँच कोशों का जागरण कह सकते हैं। इसके लिए हम आपको पाँच उपासनाएँ सिखा सकते हैं, जिसे आपको समझना चाहिए।

गायत्री माता का पहला वाला खंड वह है, जिसे हम प्रत्येक क्रियाकृत्य के साथ- साथ सबसे पहले सिखाते हैं और कहते हैं कि इसके बिना कोई कृत्य पूरा नहीं हो सकता। वह क्या हो सकता है? वह है- आत्मशोधन की प्रकिया। आत्मशोधन- प्रकिया के कौन- कौन से अंग हैं? आप उसके बिना जप नहीं कर सकते ; उसके बिना हवन नहीं कर सकते। उसके बिना कोई कर्मकांड नहीं कर सकते; यह तो हमारे कर्म का प्रारंभ है और यह हमारे अध्यात्म का प्रारंभ है, जिसको हम आत्मशोधन की प्रकिया कहते हैं।

क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Pravachaan/prachaavachanpart5/kihloneneaadhiyatmka.2

👉 शिष्य संजीवनी (भाग 25)



शिष्य संजीवनी का सीधा मतलब है शिष्यत्व का सम्वर्धन। जो शिष्य अपने शिष्यत्व के खरेपन के लिए सजग, सचेष्ट एवं सतर्क नहीं है, उनका मन रह-रहकर डगमगाता है। साधना पथ की दुष्कर परीक्षाएँ उनके साहस को कंपाती रहती हैं। उनका उत्साह एवं उल्लास कभी भी धराशाही हो जाता है। अन्तःकरण में उठने वाली अनेकों छद्म प्रवंचनाएँ उन्हें किन्हीं भी नाजुक क्षणों में बहकाने में समर्थ होती हैं। सन्देह एवं भ्रम के झोंके उनकी आस्थाओं को सूखे पत्तों की भांति कहीं भी किधर भी उड़ा ले जाते हैं।

ये विडम्बनाएँ हमारे अपने जीवन में न घटें इसके लिए एक ही सार्थक समाधान है कि अपना शिष्यत्व हरदम खरा बना रहे। अपने शिष्यत्व के परिपाक एवं निखार के लिए एक ही साधना व समाधान है। शिष्य संजीवनी का नियमित एवं निरन्तर सेवन। जो यह सेवनकर रहे हैं उन्हें इसके गुणों की अनुभूति भी हो रही है।

यह अनुभूति और भी अधिक स्पष्ट हो, अपना शिष्यत्व और भी अधिक प्रमाणिक हो, इसके लिए शिष्य संजीवनी का यह सातवां सूत्र बड़ा ही लाभकारी है। इसमें कहा गया है- मार्ग की शोध करो। थोड़ा ठहरो और सोचो कि तुम सचमुच ही गुरु भक्ति का मार्ग पाना चाहते हो या फिर तुम्हारे मन में ऊँची स्थिति प्राप्त करने के लिए, आगे बढ़ने और एक भव्य भविष्य निर्माण करने के लिए स्वपन हैं। सावधान! केवल और केवल गुरुभक्ति के लिए ही मार्ग को प्राप्त करना है। ध्यान रहे गुरुभक्ति किसी महत्त्वाकांक्षा पूर्ति का साधन बनकर कलंकित न होने पाए। इसके लिए कहीं बाहर भटकने की बजाय अपने अन्तःकरण में समाहित होकर मार्ग की शोध करो।

क्रमशः जारी
डॉ. प्रणव पण्डया
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Devo/sadg

जीवन अपने लिए एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। जिसके प्रत्येक पृष्ठ से एक से एक बढ़ कर काम शिक्षायें हमें पढ़ने को मिल सकती है।

कल क्या बीती और कल का दिन कैसे गुजरा इन पर गहराई से विचार करे तो उसमें अनेकों शिक्षाप्रद अनुभव ऐसे मिल सकते हैं जो दूसरों के उपदेश सुनने या विद्वानों को पुस्तकें पढ़ने से भी अधिक कारगर सिद्ध हो सकते है?

कल के समय का जिस प्रकार उपयोग किया गया, और उससे जो पाया गया उससे अच्छा उपयोग नहीं हो सकता था? जिन नासमझियों के कारण कल कई झंझटों में फँसना पड़ा क्या उनसे बचा नहीं जा सकता था? कल किस अवसर पर क्या ऐसे अदूरदर्शी कदम उठ गये जो समझदारी का समय रहते उपयोग करने से टल सकते थे और कुछ किया जा सकता था जो अधिक सुखद और श्रेयस्कर होता? इस प्रकार के प्रश्न यदि अपने आप से पूछे तो सहज ही वे उत्तर सामने आयेंगे जो आगे के लिए ध्यान में रखे जाने पर भावी उन्नति का पथ प्रशस्त कर सकते हैं।

जीवन का रसास्वादन वे लोग नहीं कर पाते जो अपने लिए ही जीते हैं। खुदगर्जी के तंग दायरे में जीना एक प्रकार की लानत है जो आदमी पर हर घड़ी आत्म ग्लानि की तरह बरसती रहती है। कई व्यक्ति खुदगर्जी की राह अपना कर अधिक सुख साधन इकट्ठे कर लेते हैं दूसरों की तुलना में ज्यादा मालदार लगते हैं। इतना होने पर भी ऐसे लोगों को एक ऐसे अभाव से दुखी रहना ही पड़ेगा जो सामूहिक और पारमार्थिक गतिविधियाँ अपनाये बिना मिल ही नहीं सकता। अपने लिए ही जीना अपनी सुख सुविधाओं की ही बात सोचना वस्तुतः मनुष्य का मानसिक बौनापन है। ओछे और उपहासास्पद ही गिने जाते रहेंगे जहाँ व्यक्तित्व की परख होगी वहाँ उन्हें फिसड्डी ही ठहराया जायेगा। जिन्दगी को प्यार करने वाले लोग अपनी सुव्यवस्था के साधन जुटाने के साथ-साथ यह भी करते हैं कि उन्हें दूसरों के लिए कुछ सोचने और करने का अवसर भी मिलता रहे।

क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति जनवरी 1973 पृष्ठ 34
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1973/January.34

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...