गुरुवार, 13 मई 2021

👉 भक्तिगाथा (भाग १६)

भक्ति से होती है भावों की निर्मलता

भगवान दत्तात्रेय के अंतर्ध्यान होते ही हिमालय के हिमशिखर मौन में डूब गये। एक गहन नीरव निःस्पन्दता वहाँ व्याप्त हो गयी। जब अंतः-बाह्य पवित्रता हो तो भावसमाधि बड़ी सहज होती है। देवात्मा हिमालय के इस आँगन में उपस्थित ऋषियों-देवों की अंतर्भूमि में सहज निष्कलुषता थी और देवात्मा हिमालय तो स्वयं में पवित्रता का सघन साकार रूप था। इस पर भी वहाँ बह रहा था भक्ति की अविरल स्रोतस्विनी का निर्मल प्रवाह। सभी एक साथ समाधि लीन हो गये। भक्ति-भागीरथी में स्नातचित्त अब समाधि में डूब गया। यह बड़ी अद्भुत स्थिति थी। कितनी देर रही यह भाव अवस्था, कौन जाने?
    
हाँ! जब समाधि से व्युत्थान हुआ तो निरभ्र आकाश में भगवान भुवन भास्कर के सारथि अरुण बड़े धीमे से आ रहे थे। आकाश में छायी अरुणिमा हिमशिखरों पर भी झरने लगी थी। इसी के साथ बड़े धीमे से सूर्यदेव अपनी सौम्यता के साथ प्रकट हुए। सहस्रांश सूर्यदेव ने अपनी सहस्रों किरणों से हिमालय के हिमशिखरों पर सुवर्ण वृष्टि सी शुरु कर दी। बड़ी मोहक प्रातः बेला थी यह। श्वेत हिमशिखर स्वर्णिम आभा से भर गये। हिम प्रपातों के स्वरों में भी आश्चर्यकारी मधुरता झर रही थी। प्रातः की इस मोहकता से सभी मुग्ध हो गये। सब तरफ से अनूठी अलौकिकता बरस रही थी। ऐसा लग रहा था मानो पर्वतपुत्री माता पार्वती ने सभी को अपनी गोद में बिठा रखा हो।
    
तभी महर्षि क्रतु ने आकाश की ओर निहारा और भगवान सूर्यदेव की अभ्यर्थना की। भक्ति की भावसमाधि से उबरकर भक्तिगाथा के श्रवण की ललक सभी में हो आयी थी। ऋषिश्रेष्ठ क्रतु ने देवर्षि नारद की ओर निहारा। उनका अंतर्बाह्य अपने नारायण में डूबा था। कुछ ऐसा था जैसे कि नारद के अस्तित्व से नारायण की वृष्टि हो रही हो। क्रतु ने कहा- ‘‘देवर्षि! भक्ति के नवसत्र एवं नवसूत्र का प्रारम्भ हो। भक्ति के सूत्र मानव चित्त को बींधे, बेंधे एवं बाँधे इसी में कल्याण है। भक्ति की भावना जब थमती है, तभी चित्त में विकृति एवं विक्षोभ होते हैं। तभी इसमें दरकने एवं दरारें पड़ती हैं।’’
    
‘‘आपका कथन सर्वथा उचित है ऋषिश्रेष्ठ! स्वार्थपरता का लोभ ही चित्त कलुषित करता है’’- देवर्षि नारद ने अपनी बात कहना प्रारम्भ की। स्वार्थीपन जितना बढ़ता है, मनुष्य उतना ही निष्ठुर-निर्मम हो जाता है। लोभ एवं लालच के कंटकों से बिंधकर उसका संवेदना स्रोत थम जाता है। कामनाओं की कीचड़ उसके अंतस् को गंदा करती है। कामनाओं की अधिकता ही उसे कुकर्म, कुसंस्कार एवं कुप्रवृत्ति की जंजीरों से जकड़ती है। इस सबसे उबरना तो तभी होता है, जब भक्ति का अंतःस्रोत फूटे। भक्ति से होती है भावों की निर्मलता और तभी गिरती हैं कामनाएँ और निरुद्ध होती हैं कृतियाँ।
    
महर्षिगण! मेरा अगला सूत्र भी यही कहता है। इस सूत्र में भक्ति के अंकुरण का चित्त में प्रभाव का दर्शन होता है-
‘सा न कामयमाना निरोध रूपत्वात्’॥ ७॥
वह भक्ति कामनायुक्त नहीं है, क्योंकि वह निरोधरूपा है।
    
भक्ति के इस तत्त्व की समझ कम ही लोगों को हो पाती है अन्यथा ज्यादातर तो भक्ति के बारे में भी भ्रमित रहते हैं। वे तो भक्ति की निर्मलता में भी अपनी कामना की कीचड़ घोलने की चेष्टा करते हैं। भक्ति में सकामता असम्भव है। बल्कि सच तो कुछ यूँ है कि भक्ति के अंकुरण से चित्त से कामनाएँ गिरने लगती है और अंततः प्रकट होती है-एक निरोध की भावदशा।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ ३७

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग १६)

👉 समस्त दुखों का कारण अज्ञान

पादरी ने एक युक्ति से काम लिया। उसने थैले में से एक दर्पण निकाला और उसे आदिवासियों के सरदार के सामने कर दिया उसने जैसे ही अपनी आकृति देखी वह डर गया। दर्पण उन लोगों के लिये सर्वथा नई वस्तु थी। एक-एक करके पादरी ने दर्पण सभी को दिखाया। वे सभी बहुत डरे और समझने लगे कि यह आदमी कोई जादूगर है इसे मारने से कोई विपत्ति आ सकती है। अस्तु वे अपने-अपने भाले फेंक कर उसके इर्द-गिर्द आशीर्वाद पाने के लिये सिर झुकाकर बैठ गये। पादरी ने एक और दूसरा चमत्कार प्रकट किया। उसके पोपले मुंह में दोनों जबड़े नकली दांतों के लगे थे। उन बैठे हुए दर्शकों को सम्बोधित कर अब उसने एक नया जादू दिखाया। मुंह में से दांतों की बत्तीसी निकाली, दांत उन्हें दिखाये, पोपला मुंह दिखाया और फिर दांतों को मुंह में ठूंस कर पहले जैसा मुंह बना लिया। आदिवासी इस चमत्कार को देखकर दंग रह गये और उन्होंने पूरा भरोसा कर लिया कि यह कोई जादुई पुरुष है इतनी मान्यता बना देने से पादरी का काम बहुत सरल हो गया और निश्चिंतता पूर्वक अपना काम उस क्षेत्र में करने लगे। काम चलाऊ टूटी-फूटी आदिवासी भाषा तो उन्होंने पहले ही सीख ली थी।

पादरी ने लिखा है कि न्यूगिनी के यह आदिवासी योद्धा, निर्दयी, क्रूर, कष्ट सहिष्णु और भारी अनुदार होते हैं। एक कबीले का अधिकार जिस क्षेत्र पर है, उसमें घुसकर यदि किसी दूसरे कबीले का कोई सदस्य भूल से या जान बूझकर कोई पेड़ काट ले तो इतने से ही वे लोग आग बबूला हो जाते और रात को छिप कर उस पर हमला बोल देते। एक बार के हमले का जिक्र करते हुए उन्होंने लिखा है कि कांगना मन कबीले के लोगों ने अपने पड़ौसी करारन कबीले की झोपड़ियों पर चढ़ाई करके सोते हुए लोगों को पकड़ लिया और उनमें तीस के सिर काट कर ले आये। इस विजयोपहार में से एक सिर भेंट करने के लिए वे पादरी के पास भी आये थे।

कबीले का मुखिया तथा योद्धा बनने के लिये वे लोग पूरी तैयारी करते हैं। प्रायः 16 वर्ष की आयु में उसे इसकी परीक्षा में उत्तीर्ण होने के लिये एक जीवित मनुष्य का सिर काटना पड़ता है। अक्सर इस कार्य के लिये अपने ही कबीले की या किसी अन्य कबीले से खरीदी हुई औरत प्रयुक्त की जाती है। थोड़े पालतू पशु, चमड़ा, पक्षियों के पंख आदि देकर औरतें आसानी से खरीदी भी जा सकती हैं। वध उत्सव पर उस अभागी महिला को देव ग्रह में लाया जाता है, जहां वह नव योद्धा भाले छेद-छेद कर उस स्त्री का काम तमाम कर देता है और फिर उसका सिर काटकर सरदार को भेंट करता है। इतना कर लेने पर उसकी गणना कबीले के योद्धा के रूप में होने लगती है। इन्हीं में से पीछे कोई मुखिया भी चुन लिया जाता है।

एक बार तो पादरी के यहां ठहरे हुए गोरों को घेर लिया और प्रस्ताव किया कि दल की एक गोरी महिला उन्हें वध करने के लिये दे दी जाय इसके बदले बीस आदिवासी युवतियां उन्हें दें देंगे। इस धर्म संकट को भी बड़ी चतुरता पूर्वक ही टाला जा सका।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ २४
परम पूज्य गुरुदेव ने ये पुस्तक 1979 में लिखी थी

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