एक बगीचे में एक बाँस का झुरमुट था और पास ही आम का वृक्ष उगा खड़ा था।
ऊँचाई में बाँस ऊपर था और आम नीचा। बाँस ने आम से कहा- "देखते नहीं मैं तुमसे कितना ऊँचा हूँ। मेरी वरिष्ठता तुम्हें स्वीकार करनी चाहिए।"
आम कुछ बोला नहीं- चुप होकर रह गया।
गर्मी का ऋतु आई। आम फलों से लद गया। उसकी टहनियाँ फलों के भार से नीची झुक गई।
बाँस तना खड़ा था। वह आम से बोला- "तुम्हें तो इन फलों की फसल ने और भी अधिक नीचे गिरा दिया अब तुम मेरी तुलना में और भी अधिक छोटे हो गए हो।"
आम ने फिर भी कुछ नहीं कहा। सुनने के बाद उसने आंखें नीची कर ली।
उस दिन थके मुसाफिर उधर से गुजरे। कड़ाके की दुपहरी आग बरसा रही थी सो उन्हें छाया की तलाश थी। भूख-प्यास से बेचैन हो रहे थे अलग। पहले बाँस का झुरमुट था। वही बहुत दूर से ऊंचा दीख रहा था। चारों ओर घूमकर देखा उसके समीप छाया का नाम भी नहीं था। कंटीली झाड़ियां सूखकर इस तरह घिर गई थी कि किसी की समीप तक जाने की हिम्मत न पड़े।
निदान वे कुछ दूर पर उगे आम के नीचे पहुँचे। यहाँ दृश्य ही दूसरा था। सघन छाया की शीतलता और पककर नीचे गिरे हुए मीठे फलों का बिखराव। उन्होंने आम खाकर भूख बुझाई। समीप के झरने में पानी पिया और शीतल छाँह में संतोषपूर्वक सोये।
जब उठे तो बाँस और आम की तुलनात्मक चर्चा करने लगे।
उस खुसफुस की भनक बाँस के कान में पड़ी। उसने पहली बार उस समीक्षा के आधार पर जाना कि ऊँचा होने में और बड़प्पन में क्या कुछ अंतर होता है।
"दोस्तों..! हम सभी में अपने तरह की खूबियाँ और ख़ामियाँ मौजूद हैं...कुछ हमने अपनी मेहनत से पाईं हैं और कुछ हमें ईश्वर की देन हैं..। पर कोई भी पूरी तरह न सर्वश्रेष्ट है न निकृष्ट... इसलिए घमंड या निराशा का भी कोई कारण नहीं है..। हमें बस अपनी ख़ामियों/ख़ूबियों का जानने, स्वीकार करने और तराशने की आवश्यकता है..और यह तभी संभव है जब हम औरों की खूबियों से ईर्ष्या करने और खराबियों की आलोचना करने की बजाय खुद को जानने और तराशने में अपना वक्त और उर्जा लगाएं
हमें दुनिया से अपनी श्रेष्ठता स्वीकार करवाने की कोई आवश्यकता नहीं... आवश्यकता है तो खुद को 'कल जो हम थे' या 'आज जो हम हैं' उससे बेहतर बनाने का प्रयास करते रहने की..। समाज आपकी श्रेष्ठता तभी स्वीकार करेगा जब वो आपको दिन ब दिन निखरता देखेगा और आपकी खूबियों से लाभान्वित होगा..। तब आपको कुछ कहने की जरूरत न पडेगी आपके कर्म ही आपकी श्रेष्ठता का बयान होंगे...। कर्मों से बोला हुआ चरित्र ही देर तक याद रखा जाता है..॥"
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति, जुलाई-1975
ऊँचाई में बाँस ऊपर था और आम नीचा। बाँस ने आम से कहा- "देखते नहीं मैं तुमसे कितना ऊँचा हूँ। मेरी वरिष्ठता तुम्हें स्वीकार करनी चाहिए।"
आम कुछ बोला नहीं- चुप होकर रह गया।
गर्मी का ऋतु आई। आम फलों से लद गया। उसकी टहनियाँ फलों के भार से नीची झुक गई।
बाँस तना खड़ा था। वह आम से बोला- "तुम्हें तो इन फलों की फसल ने और भी अधिक नीचे गिरा दिया अब तुम मेरी तुलना में और भी अधिक छोटे हो गए हो।"
आम ने फिर भी कुछ नहीं कहा। सुनने के बाद उसने आंखें नीची कर ली।
उस दिन थके मुसाफिर उधर से गुजरे। कड़ाके की दुपहरी आग बरसा रही थी सो उन्हें छाया की तलाश थी। भूख-प्यास से बेचैन हो रहे थे अलग। पहले बाँस का झुरमुट था। वही बहुत दूर से ऊंचा दीख रहा था। चारों ओर घूमकर देखा उसके समीप छाया का नाम भी नहीं था। कंटीली झाड़ियां सूखकर इस तरह घिर गई थी कि किसी की समीप तक जाने की हिम्मत न पड़े।
निदान वे कुछ दूर पर उगे आम के नीचे पहुँचे। यहाँ दृश्य ही दूसरा था। सघन छाया की शीतलता और पककर नीचे गिरे हुए मीठे फलों का बिखराव। उन्होंने आम खाकर भूख बुझाई। समीप के झरने में पानी पिया और शीतल छाँह में संतोषपूर्वक सोये।
जब उठे तो बाँस और आम की तुलनात्मक चर्चा करने लगे।
उस खुसफुस की भनक बाँस के कान में पड़ी। उसने पहली बार उस समीक्षा के आधार पर जाना कि ऊँचा होने में और बड़प्पन में क्या कुछ अंतर होता है।
"दोस्तों..! हम सभी में अपने तरह की खूबियाँ और ख़ामियाँ मौजूद हैं...कुछ हमने अपनी मेहनत से पाईं हैं और कुछ हमें ईश्वर की देन हैं..। पर कोई भी पूरी तरह न सर्वश्रेष्ट है न निकृष्ट... इसलिए घमंड या निराशा का भी कोई कारण नहीं है..। हमें बस अपनी ख़ामियों/ख़ूबियों का जानने, स्वीकार करने और तराशने की आवश्यकता है..और यह तभी संभव है जब हम औरों की खूबियों से ईर्ष्या करने और खराबियों की आलोचना करने की बजाय खुद को जानने और तराशने में अपना वक्त और उर्जा लगाएं
हमें दुनिया से अपनी श्रेष्ठता स्वीकार करवाने की कोई आवश्यकता नहीं... आवश्यकता है तो खुद को 'कल जो हम थे' या 'आज जो हम हैं' उससे बेहतर बनाने का प्रयास करते रहने की..। समाज आपकी श्रेष्ठता तभी स्वीकार करेगा जब वो आपको दिन ब दिन निखरता देखेगा और आपकी खूबियों से लाभान्वित होगा..। तब आपको कुछ कहने की जरूरत न पडेगी आपके कर्म ही आपकी श्रेष्ठता का बयान होंगे...। कर्मों से बोला हुआ चरित्र ही देर तक याद रखा जाता है..॥"
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति, जुलाई-1975