बुधवार, 30 अगस्त 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 30 Aug 2023

जिन लोगों को सामाजिक नव निर्माण की इच्छा है, उन्हें अपने परिवार में सादगी को सर्वप्रथम प्रतिष्ठित करना चाहिए। परिवार के सदस्यों को डण्डे और डाँट के बल पर नहीं, अपितु तथ्यों और सच्चाइयों से अवगत कराकर देश, समाज की वास्तविकताओं से परिचित कराकर सादगी भरे जीवनक्रम को अपनाने की प्रेरणा देनी चाहिए। प्रबुद्ध जनों का यही सर्वोपरि दायित्व है और ऐसा करना स्वयं अपना उदाहरण उपस्थित करके ही संभव है, मात्र उपदेश द्वारा नहीं।

जातीय पतन के दौर में उच्च आदर्शों को विकृत रूप दे दिया गया। समर्पण की व्याख्या स्वार्थी मनुष्यों ने इस प्रकार की कि भारतीय नारी के इस उच्च आदर्श को चरणदासी बनने के रूप में ढाल दिया, पर अब ऐसी धूर्ततापूर्ण चालबाजियों और शाब्दिक मायाजाल का युग नहीं रहा। अतः अब यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि पुरुष के प्रति नारी का समर्पण अंधा और अविवेकपूर्ण नहीं होना चाहिए। प्रत्येक पुरुष न तो ईश्वर है और न देवदूत। श्रेष्ठता के लिए उसे प्रयास करना होगा। समर्पण कोई विवेशता नहीं, व्यक्तित्व की उत्कृष्टता है। अतः वह पुरुष के लिए भी साध्य और इष्ट होनी चाहिए।

मांसलता के उभार-अश्लील अभि-व्यंजनाएँ और सम्मोहक विन्यास में ही नारी जीवन की कृतकृत्यता बताने वाला एक वातावरण मानव द्रोही बधिकों द्वारा तैयार किया जा रहा है। प्रत्यक्ष नारी निन्दा से उसे शिक्षा की अपात्र तथा अवगुणों की खान बताने से जब दानवी भोग-लालसा अधिक समय तक तृप्त होने की आशा नहीं रही तो पशुता की उसी पतित प्रवृत्ति ने नये पैतरे बदल लिए हैं। नारी देह के भोग्या स्वरूप की प्रतिष्ठा को ही नारी जीवन की सार्थकता के रूप में प्रचारित किया जा रहा है। जाग्रत् नारी को इस नये षड्यंत्र का निरीह शिकार बनना अस्वीकार करना होगा।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 परिवारिक संतुलन

कुटुम्ब में सब लोग एक प्रकृति के नहीं होते। जन्म-जन्मान्तरों से संग्रहीत उनके अपने स्वभाव-संस्कार होते हैं इसलिए अपनी रूचि के ढॉंचे में सबको मिट्टी के खिलौने की तरह नहीं ढाला जा सकता, अस्तु, बुद्धिमान लोग उस व्यक्ति को स्वीकार करते हैं जिससे अधिकाधिक सामंजस्य बना रहे। स्नेह-सदभाव और सहयोग की सौम्य-श्रृंखला में वे परस्पर बॅंधे-जकड़े रहें। अवांछनीय दोष-दुर्गुणों के निराकरण और सत्प्रवृत्तियों के सम्वर्धन का उत्तरदायित्व चतुर लोग इस प्रकार निबाहते हैं कि साँप मरे न लाठी टूटे। सुधार की उग्रता इतनी न हो कि जिससे स्नेह-सद्भाव का धागा टूटने और दाने बिखरने की ही स्थिति बन जाय। उतनी उपेक्षा भी न बरती जाय कि हर कोई अनियन्त्रित होकर मनमानी करने लगे और परिवार-संस्था का उद्देश्य ही नष्ट हो जाय।

कुटुम्ब के छोटे समूह को स्नेहसिक्त, संतुलित, प्रगतिशील, और सुसंस्कारी बनाने के लिए मध्यमार्गी किन्तु आदर्शवादी विधि-व्यवस्था अपनानी पड़ती है। जो इस सन्तुलन का अभ्यस्त है उसे परिवार सुख की कमी नहीं रहती। भले ही सम्बद्ध व्यक्ति उतने सुसंस्कारी एवं सुविकसित नहीं भी हों।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 युग निर्माण योजना - दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम-६६ (३.३५)


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 4 Jan 2025

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