शुक्रवार, 21 दिसंबर 2018

👉 संन्यासी बड़ा या गृहस्थ

किसी नगर में एक राजा रहता था, उस नगर में जब कोई संन्यासी आता तो राजा उसे बुलाकर पूछता कि- ”भगवान! गृहस्थ बड़ा है या संन्यास?” अनेक साधु अनेक प्रकार से इसको उत्तर देते थे। कई संन्यासी को बड़ा तो बताते पर यदि वे अपना कथन सिद्ध न कर पाते तो राजा उन्हें गृहस्थ बनने की आज्ञा देता। जो गृहस्थ को उत्तम बताते उन्हें भी यही आज्ञा मिलती।

इस प्रकार होते-होते एक दिन एक संन्यासी उस नगर में आ निकला और राजा ने बुलाकर वही अपना पुराना प्रश्न पूछा। संन्यासी ने उत्तर दिया- “राजन। सच पूछें तो कोई आश्रम बड़ा नहीं है, किन्तु जो अपने नियत आश्रम को कठोर कर्तव्य धर्म की तरह पालता है वही बड़ा है।”

राजा ने कहा- “तो आप अपने कथन की सत्यता प्रमाणित कीजिये।“

संन्यासी ने राजा की यह बात स्वीकार कर ली और उसे साथ लेकर दूर देश की यात्रा को चल दिया।

घूमते-घूमते वे दोनों एक दूसरे बड़े राजा के नगर में पहुँचे, उस दिन वहाँ की राज कन्या का स्वयंवर था, उत्सव की बड़ी भारी धूम थी। कौतुक देखने के लिये वेष बदले हुए राजा और संन्यासी भी वहीं खड़े हो गये। जिस राजकन्या का स्वयंवर था, वह अत्यन्त रूपवती थी और उसके पिता के कोई अन्य सन्तान न होने के कारण उस राजा के बाद सम्पूर्ण राज्य भी उसके दामाद को ही मिलने वाला था।

राजकन्या सौंदर्य को चाहने वाली थी, इसलिये उसकी इच्छा थी कि मेरा पति, अतुल सौंदर्यवान हो, हजारों प्रतिष्ठित व्यक्ति और देश-देश के राजकुमार इस स्वयंवर में जमा हुए थे। राज-कन्या उस सभा मण्डली में अपनी सखी के साथ घूमने लगी। अनेक राजा-पुत्रों तथा अन्य लोगों को उसने देखा पर उसे कोई पसन्द न आया। वे राजकुमार जो बड़ी आशा से एकत्रित हुए थे, बिल्कुल हताश हो गये। अन्त में ऐसा जान पड़ने लगा कि मानो अब यह स्वयंवर बिना किसी निर्णय के अधूरा ही समाप्त हो जायगा।

इसी समय एक संन्यासी वहाँ आया, सूर्य के समान उज्ज्वल काँति उसके मुख पर दमक रही थी। उसे देखते ही राजकन्या ने उसके गले में माला डाल दी। परन्तु संन्यासी ने तत्क्षण ही वह माला गले से निकाल कर फेंक दी और कहा- ”राजकन्ये। क्या तू नहीं देखती कि मैं संन्यासी हूँ? मुझे विवाह करके क्या करना है?”

यह सुन कर राजकन्या के पिता ने समझा कि यह संन्यासी कदाचित भिखारी होने के कारण, विवाह करने से डरता होगा, इसलिये उसने संन्यासी से कहा- ”मेरी कन्या के साथ ही आधे राज्य के स्वामी तो आप अभी हो जायेंगे और पश्चात् सम्पूर्ण राज्य आपको ही मिलेगा।“

राजा के इस प्रकार कहते ही राजकन्या ने फिर वह माला उस साधु के गले में डाल दी, किन्तु संन्यासी ने फिर उसे निकाल पर फेंक दिया और बोला- ”राजन्! विवाह करना मेरा धर्म नहीं है।“

ऐसा कह कर वह तत्काल वहाँ से चला गया, परन्तु उसे देखकर राजकन्या अत्यन्त मोहित हो गई थी, अतएव वह बोली- ”विवाह करूंगी तो उसी से करूंगी, नहीं तो मर जाऊँगी।” ऐसा कह कर वह उसके पीछे चलने लगी।

हमारे राजा साहब और संन्यासी यह सब हाल वहाँ खड़े हुए देख रहे थे। संन्यासी ने राजा से कहा- ”राजन्! आओ, हम दोनों भी इनके पीछे चल कर देखें कि क्या परिणाम होता है।”

राजा तैयार हो गया और वे उन दोनों के पीछे थोड़े अन्तर पर चलने लगे। चलते-चलते वह संन्यासी बहुत दूर एक घोर जंगल में पहुँचा, उसके पीछे राजकन्या भी उसी जंगल में पहुँची, आगे चलकर वह संन्यासी बिल्कुल अदृश्य हो गया। बेचारी राजकन्या बड़ी दुखी हुई और घोर अरण्य में भयभीत होकर रोने लगी।

इतने में राजा और संन्यासी दोनों उसके पास पहुँच गये और उससे बोले- ”राजकन्ये! डरो मत, इस जंगल में तेरी रक्षा करके हम तेरे पिता के पास तुझे कुशल पूर्वक पहुँचा देंगे। परन्तु अब अँधेरा होने लगा है, इसलिये पीछे लौटना भी ठीक नहीं, यह पास ही एक बड़ा वृक्ष है, इसके नीचे रात काट कर प्रातःकाल ही हम लोग चलेंगे।”

राजकन्या को उनका कथन उचित जान पड़ा और तीनों वृक्ष के नीचे रात बिताने लगे।
उस वृक्ष के कोटर में पक्षियों का एक छोटा सा घोंसला था, उसमें वह पक्षी, उसकी मादी और तीन बच्चे थे, एक छोटा सा कुटुम्ब था। नर ने स्वाभाविक ही घोंसले से जरा बाहर सिर निकाल कर देखा तो उसे यह तीन अतिथि दिखाई दिये।

इसलिये वह गृहस्थाश्रमी पक्षी अपनी पत्नी से बोला- “प्रिये! देखो हमारे यहाँ तीन अतिथि आये हुए हैं, जाड़ा बहुत है और घर में आग भी नहीं है।” इतना कह कर वह पक्षी उड़ गया और एक जलती हुई लकड़ी का टुकड़ा कहीं से अपनी चोंच में उठा लाया और उन तीनों के आगे डाल दिया। उसे लेकर उन तीनों ने आग जलाई।

परन्तु उस पक्षी को इतने से ही सन्तोष न हुआ, वह फिर बोला-”ये तो बेचारे दिनभर के भूखे जान पड़ते हैं, इनको खाने के लिये देने को हमारे घर में कुछ भी नहीं है। प्रिय, हम गृहस्थाश्रमी हैं और भूखे अतिथि को विमुख करना हमारा धर्म नहीं है, हमारे पास जो कुछ भी हो इन्हें देना चाहिये, मेरे पास तो सिर्फ मेरा देह है, यही मैं इन्हें अर्पण करता हूँ।”

इतना कह कर वह पक्षी जलती हुई आग में कूद पड़ा। यह देखकर उसकी स्त्री विचार करने लगी कि ‘इस छोटे से पक्षी को खाकर इन तीनों की तृप्ति कैसे होगी? अपने पति का अनुकरण करके इनकी तृप्ति करना मेरा कर्तव्य है।’ यह सोच कर वह भी आग में कूद पड़ी।

यह सब कार्य उस पक्षी के तीनों बच्चे देख रहे थे, वे भी अपने मन में विचार करने लगे कि- ”कदाचित अब भी हमारे इन अतिथियों की तृप्ति न हुई होगी, इसलिये अपने माँ बाप के पीछे इनका सत्कार हमको ही करना चाहिये।” यह कह कर वे तीनों भी आग में कूद पड़े।

यह सब हाल देख कर वे तीनों बड़े चकित हुए। सुबह होने पर वे सब जंगल से चल दिये। राजा और संन्यासी ने राजकन्या को उसके पिता के पास पहुँचाया।

इसके बाद संन्यासी राजा से बोला- ”राजन्!! अपने कर्तव्य का पालन करने वाला चाहे जिस परिस्थिति में हो श्रेष्ठ ही समझना चाहिये। यदि गृहस्थाश्रम स्वीकार करने की तेरी इच्छा हो, तो उस पक्षी की तरह परोपकार के लिये तुझे तैयार रहना चाहिये और यदि संन्यासी होना चाहता हो, तो उस उस यति की तरह राज लक्ष्मी और रति को भी लज्जित करने वाली सुन्दरी तक की उपेक्षा करने के लिये तुझे तैयार होना चाहिये। कठोर कर्तव्य धर्म को पालन करते हुए दोनों ही बड़े हैं।“

📖 अखण्ड ज्योति,जून-1941

👉 कर्म या पाखंड

कार्य को आरंभ न करने मात्र से व्यक्ति निष्कर्मावस्था का आनंद प्राप्त नहीं करता। शरीर के द्वारा निष्क्रिय हो गए, तो क्या लाभ, क्योंकि बंधन और मोक्ष का कारण तो मन है। मन के निष्क्रिय बनाना है। मन की निष्क्रियता है- कर्म और कर्मफल से अनासक्त रहना।

आलसी बनकर बैठे मत रहो। फल में अपना अधिकार ही नहीं। उद्योग करने पर भी फल प्राप्त होगा, यह निश्चित नहीं। फल प्राप्त हो भी, तो वह प्रारब्ध से होता है, उद्योग उसका कारण नहीं, ऐसा समझकर उद्योग करना ही मत छोड़ दो। कर्म करना तुम्हारा कर्त्तव्य है, अत: तुम्हें कर्म तो करना ही चाहिए, क्योंकि तुम कर्म को छोड़ नहीं सकते, कर्म करने के लिए विवश हो।

``नकश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्म-कृत्। कार्यते ह्यवश: कर्म सर्व: प्रकृतिजैर्गुणै:।।
कोई उत्पन्न हुआ प्राणी एक क्षण भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता। प्रकृति के गुणों से विवश होकर गुणों द्वारा उससे कर्म कराया ही जाता है। सभी इस प्रकार प्रतिक्षण कर्म करते ही रहते हैं। चाहे हम इंद्रियों को रोककर कर्म करने से विरत भी रख सकें, पर मन तो मानने से रहा उसकी उधेड़बुन तो चला ही करेगी। फिर इस प्रकार इंद्रियों से कर्म न करना कोई अच्छा तो है नहीं। जो मूर्खबुद्धि पुरुष कर्मेंद्रियों को कर्मों से रोककर मन के द्वारा विषयों का चिंतन करता है, वह पाखंडी कहा जाता है।

📖 अखण्ड ज्योति-अगस्त 1940

👉 Renunciation of Karma is Self-Deception

Often people misinterpret the preaching of the holy Gita and Vedanta and regard the state of inaction as that of detachment and soul-realization. But this is mere delusion, idleness and escapism. Making the body inactive or renouncing the family and duties does not serve any purpose of spiritual ascent. What is important is the liberation of the mind from all ego, expectations and selfish attachments. You should perform all your duties, do all your work at your level best but be detached from the end-results.

Don’t expect the results of your actions to be as per your will or imagination. But don’t leave your actions (karmas) thinking that every thing will happen as per your destiny. You can’t live even for a single moment without any karma – be that physical or mental. You are born do transact your duties. This is what is implied in the following hymn:

“Na Kaschitksanamapi Jatu Tisthtyakarma-Krat ! Karyate Hyavasah Karma Sarvah Prakratijairgunaih !!”
The system of Nature is such that it triggers every being, every particle, to act as per its natural tendencies. We might prevent the actions of our body or the sense organs for sometime; but what about the flow of thoughts and the impulses of unconscious mind? Those who attempt such superficial renouncement and try to evade from duties, actions suffer more agility and turbulence of desires and intrinsic tendencies in the mind… They are fake and self-cheaters.

📖 Akhand Jyoti, Aug 1940

👉 आत्मोत्कर्ष के चार अनिवार्य चरण (भाग 4)

एक सज्जन, शालीन, सम्भ्रान्त, सुसंस्कृत नागरिक का स्वरूप क्या होना चाहिए? उसके गुण, कर्म, स्वभाव में किन शालीनताओं का समावेश होना चाहिए। इसका एक ढाँचा सर्वप्रथम अपने मस्तिष्क में खड़ा किया जाय। मानवी मर्यादा और स्थिति क्या होगी? इसका स्वरूप निर्धारण कुछ कठिन नहीं है। दिनचर्या की दृष्टि से सुव्यवस्थित, श्रम की दृष्टि से स्फूर्तिवान्, मानसिक दृष्टि से सक्षम, व्यवहार की दृष्टि से कुशल, चिन्तन की दृष्टि से दूरदर्शी विवेकवान् आत्मानुशासन की दृष्टि से प्रखर, व्यक्तित्व की दृष्टि से आत्मानुशासन की दृष्टि से आत्मावलम्बी और सम्मानित हर श्रेष्ठ मनुष्य में यह विशेषताएँ होनी चाहिए। चरित्र की दृष्टि से उदार और स्वभाव की दृष्टि से मृदुल एवं हँसते-हँसाते रहने वाला उसे होना चाहिए। सादगी और सज्जनता मिले जुले तत्त्व हैं। आन्तरिक विभूतियाँ और बाह्य साधन सम्पत्तियों का सुव्यवस्थित सदुपयोग कर सकने वालों को सुसंस्कृति कहते हैं। अपने कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों को समझने वाले और उनके पालन को प्रतिष्ठा का प्रश्न बना कर चलने वालों को सभ्य कहा जाता है।

ऐसी ही विशेषताओं से सम्पन्न व्यक्ति की सच्चे अर्थों में ‘मनुष्य’ कहा जा सकता है। ‘मनुष्यता’ से मानवी सद्गुणों से विभूषित व्यक्ति ही, मानव समाज का सभ्य सदस्य कहला सकता है। ऐसे सद्गुण सम्पन्न मनुष्य को मापदण्ड मान कर उसके साथ तुलना की जाय तो जो कुछ हम हैं वह भी आत्मिक श्रेष्ठता की अनुभूति होगी और यदि अत्यधिक उच्च स्थिति के महामानवों से तुलना की जाय तो सामान्य स्थिति रहते हुए भी अपनी स्थिति असंतोषजनक और गई-गुजरी प्रतीत होती रहेगी। नाप-तोल को बाँटा, गज, मीटर आदि की जरूरत पड़ती है। तुलनात्मक आधार अपनाने पर ही समीक्षा सम्भव होती हैं अन्यथा वस्तुस्थिति कितना रहना चाहिए, यह विदित रहने पर ही बुखार चढ़ने या शीत का ज्ञान रहने नर ही नापने वाला यह बता सकता है कि ब्लड प्रेशर’ घटा हुआ है या बढ़ा हुआ। इसी प्रकार एक सज्जनता एवं मानवतावादी मनुष्य का जीवन स्तर निर्धारित करने और उसके साथ अपने को तोलने में ही अपनी हेय, मध्यम एवं उत्तम स्थिति का विवेचन, विश्लेषण, निर्धारण सम्भव हो सकेगा।

हम जिन दुष्प्रवृत्तियों के लिए दूसरों की निन्दा करते हैं उनमें से कोई अपने स्वभाव में सम्मिलित तो नहीं हैं, जिनके लिए हम दूसरों से घृणा करते हैं वैसी दुष्प्रवृत्तियाँ अपने में तो नहीं हैं? जैसा व्यवहार हम दूसरों से अपने लिए नहीं चाहते वैसा व्यवहार हम दूसरों के साथ तो नहीं करते? जैसे उपदेश हम आये दिन दूसरों को करते रहते हैं वैसे आचरण अपने हैं या नहीं? जैसी कि हम प्रशंसा एवं प्रतिष्ठा चाहते हैं वैसी विशेषताएँ अपने में है या नहीं? ऐसे प्रश्न अपने आप से पूछने और सही उत्तर पाने की चेष्टा की जाय तो अपने गुण, दोषों का वर्गीकरण ठीक तरह हो सकना सम्भव हो जाएगा।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी पृष्ठ 8

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1977/January/v1.8

👉 आत्मचिंतन के क्षण 21 Dec 2018

परस्पर प्रोत्साहन न देना हमारे व्यक्तिगत सामाजिक जीवन की एक बहुत बड़ी कमजोरी है। किसी को प्रोत्साहन भरे दो शब्द कहने के बजाय लोग उसे खरी-खोटी असफलता की बातें कर निरुत्साहित करते हैं, हिम्मत तोड़ते हैं, जिससे दूसरों को निराशा, असंभावनाओं का निर्देश मिलता है और हमारे सामाजिक विकास में गतिरोध पैदा हो जाता है।

असंख्यों बार यह परीक्षण हो चुके हैं कि दुष्टता किसी के लिए भी लाभदायक सिद्ध नहीं हुई। जिसने भी उसे अपनाया वह घाटे में रहा और वातावरण दूषित बना। अब यह परीक्षण आगे भी चलते रहने से कोई लाभ नहीं। हम अपना जीवन इसी पिसे को पीसने में-परखे को परखने में न गँवायें तो ही ठीक है। अनीति को अपनाकर सुख की आकाँक्षा पूर्ण करना किसी के लिए भी संभव नहीं हो सकता तो हमारे लिए ही अनहोनी बात संभव कैसे होगी?

इस संसार में अच्छाइयों की कमी नहीं। श्रेष्ठ और सज्जन व्यक्ति भी सर्वत्र भरे पड़े हैं, फिर हर व्यक्ति में कुछ अच्छाई तो होती ही है। यदि छिन्द्रान्वेषण छोड़कर हम गुण अन्वेषण करने का अपना स्वभा बना लें, तो घृणा और द्वेष के स्थान हमें प्रसन्नता प्राप्त करने लायक भी बहुत कुछ इस संसार में मिल जायेगा।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 आज का सद्चिंतन 21 Dec 2018


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 21 Dec 2018


👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...