🔷 उन्नति एवं विकास के लिए स्पर्धा तथा प्रतियोगिता की भावना एक प्रेरक तत्त्व है, किन्तु तब, जब उसमें ईर्ष्या अथवा द्वेष का दोष न आने दिया जाये और जीवन मंच पर अभिनेता की भावना रखी जाये। जलन के वशीभूत होकर दूसरों की टांग खींचने के लिए उनके दोष देखना अथवा निन्दा करना छोड़कर अपने से आगे बढ़े हुओं के उन गुणों की खोज करना और उन्हें अपने में विकसित करने का प्रयत्न करना चाहिए, जिनके बल पर अगला व्यक्ति आगे बढ़ा है।
🔶 रोध, अनुरोध एवं प्रतिरोध जैसे हेय शब्द कर्मवीरों के कोश में नहीं, निकम्मों की जीभ पर ही चढ़े होते हैं। यदि ऐसा होता तो सिकन्दर विश्व विजयी न होता, सीजर रोम साम्राज्य स्थापित न कर पाता, चाणक्य का ध्येय सफल न होता और एक लँगोटीबंद महात्मा गाँधी भारत में ब्रिटिश हुकूमत का तख्ता न उलट देता। ज्ञान के पिपासु फाह्यान एवं ह्वान्सांग का पथ सिन्धु अवश्य रोक लेता और बौद्ध भिक्षुओं को हिमालय आगे न बढ़ने देता, किन्तु अभियानशील को भला कौन कहाँ रोक पाया है।
🔷 जो अकर्मण्य, आलसी हैं वे अपने से पूछें कि बेकार पड़े खाते रहने से उन्हें कोई सुख है? क्या उनकी आत्मा उन्हें अपनी अकर्मण्यता के लिए नहीं धिक्कारती? क्या कभी उन्हें यह विचार नहीं आता-इस बात की ग्लानि नहीं होती कि जब संसार में और लोग परिश्रम कर रहे हैं-पसीना बहा रहे हैं, तब उनका निठल्ले पड़े रहना मूर्खतापूर्ण बेहयाई ही है और बेहयाई की जिन्दगी बिताना मनुष्यता नहीं।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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