शुक्रवार, 16 अप्रैल 2021

👉 भक्तिगाथा (भाग ५)

वासनाओं के भावनाओं में रूपांतरण की कथा

महर्षि पुलह एवं क्रतु के इस कथन ने देवर्षि को किन्हीं स्मृतियों से भिगो दिया। उनकी आँखें छलक उठीं। वे विह्वल स्वर में बोले- ‘‘हे महर्षिजन! मुझे आप सबका आदेश शिरोधार्य है। मैं अब भक्ति की व्याख्या करूँगा-
    ‘अथातो भक्तिं व्याख्यास्यामः’॥ १॥

‘‘अब भक्ति की व्याख्या यही मेरे द्वारा रचित भक्ति दर्शन का पहला सूत्र है। मैंने इस क्रम में ८४ सूत्र रचे हैं। इन ८४ सूत्रों में ८४ लाख योनियों की भटकन से उबरने का उपाय है। भक्ति की इस अमृतधारा से अखण्ड ज्योति को प्रकाशित करने से मानव जीवन प्रकाशित होगा। आज परम पवित्र घड़ी है। हिमालय के इस आँगन में भक्ति के नवस्रोत का उद्गम हो, इसी में हमारे तप एवं ज्ञान की सार्थकता है।’’
    
देवर्षि के इस कथन से महर्षियों को अपना यह मिलन सार्थक लगने लगा। उन्हें अनुभव हुआ कि देवर्षि के ये वचन मनुष्य को उसकी भटकन से अवश्य बचायेंगे। सभी महर्षियों की इन मानसिक तरंगों को अनुभव करते हुए परम भागवत नारद ने कहा- ‘‘हे महर्षिजन! आज मैं अपनी अनुभवकथा कहता हूँ कि मैंने अपनी वासनाओं को भावनाओं में कैसे बदला। मेरी यह अनुभवगाथा ही भक्ति के इस प्रथम सूत्र की व्याख्या है।’’ देवर्षि नारद के इस कथन ने सब की उत्सुकता जाग्रत कर दी। कथाश्रवण की लालसा में सभी के मन निस्पन्द हो गये और साथ ही भक्ति की अमृत गंगा बहने लगी।
    
देवर्षि कह रहे थे, ‘‘हे ऋषिगण! पूर्वकल्प में मैं उपबर्हण नाम का गंधर्व था। मेरा शरीर जितना सुन्दर था, अंतस् उतना ही कुरूप। वासनाओं को ही भावना समझता था। प्रेम का अर्थ मेरे लिए कामुकता के सिवा और कुछ भी न था। अनेकों स्त्रियों से मेरे वासनात्मक सम्बन्ध थे। शृंगार एवं वासना भरी चेष्टाओं में मेरा जीवन बीत रहा था। इस क्रम में मेरी उन्मुत्तता यहाँ तक थी कि कथा-कीर्तन के अवसर पर भी मैं वासनाओं में मग्न रहता था। एक अवसर पर तो मैंने ब्रह्मा जी की उपस्थिति में भी भगवान के कीर्तन के समय जब अपनी वासना भरी चेष्टाएँ जारी रखी तो उन्होंने मुझे शाप दिया, जा तू शूद्र हो जा।
    
यह ब्रह्मकोप ही मेरे लिए कृपा बन गया। मैंने दासी माता की कोख से जन्म लिया। मेरी माँ दासी होते हुए भी सदाचारी, संयमी एवं भगवान की सच्ची भक्त थी। संतों एवं भक्तों की सेवा में उसका जीवन व्यतीत होता था। माँ के साथ साधुसंग के अवसर मुझे भी मिले। साधु सेवा एवं सत्संगति ने मुझे साधना सिखाई, और प्रारम्भ  हो गयी मेरे रूपान्तरण की प्रक्रिया। अपनी वासना भरी चाहतों पर मुझ ग्लानि होने लगी। साधु सेवा से जब भी मुझे विश्राम मिलता, मैं पीपल के वृक्ष के नीचे बैठकर ध्यान करने लगता। पास के सरोवर के जल का पान और पीपल के नीचे ध्यान। यही मेरी दिनचर्या बन गयी।
    
इसी बीच मेरी माँ चल बसीं। शरीर छोड़ते हुए उन्होंने मुझसे कहा- ‘‘पुत्र! भक्ति को ही अपनी माँ समझना। माँ के इन प्रेमपूर्ण वचनों ने मुझे भक्ति से भिगो दिया। जैसे-जैसे निर्मल होता गया-प्रभु की झाँकी मिलने लगी। परन्तु पूर्ण निर्मलता के अभाव में उस समय मुझे भगवान का साक्षात्कार न हो सका। परन्तु अगले कल्प में ब्रह्माजी के मन से फिर मेरा प्राकट्य हुआ। भक्ति के प्रभाव से रूपान्तरित हो गया मेरा जीवन। लीलामय प्रभु ने मुझे अपना पार्षद बना लिया। भक्ति ने मुझे भगवान का सान्निध्य एवं प्रेम का वरदान दिया। इस प्रेममय भक्ति की व्याख्या अगले सूत्र में कहेंगे।’’ ऐसा बोलकर नारद जी मौन हो गये। आकाश में अब अरुणोदय होने लगा था। महर्षियों के समुदाय ने भी इस अमृतवेला में नित्य कर्मों के साथ संध्या वन्दन का निश्चय किया।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १४

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग ५)

👉 प्रत्यक्ष लगने पर भी सत्य कहां

स्थान की भांति गति की मात्रा भी भ्रामक है। दो रेलगाड़ियां समान पटरियों पर साथ-साथ दौड़ रही हों तो वे साथ-साथ हिलती-जुलती भर दिखाई पड़ेंगी दो मोटरें आमने सामने से आ रही हों और दोनों चालीस चालीस मील प्रति घण्टे की चाल से चल रही हों तो जब वे बराबर से गुजरेगी तो 80 मील की चाल का आभास होगा। जब कभी आमने सामने से आती हुई रेल गाड़ियां बराबर से गुजरती हैं तो दूना वेग मालूम पड़ता है, यद्यपि ये दोनों ही अपनी अपनी साधारण चाल से चल रही होती हैं। अपनी पृथ्वी जिस दिशा में जिस चाल से चल रही है वही गति और दिशा अन्य ग्रह नक्षत्रों की रही होती तो आकाश पूर्णतया स्थिर दीखता। सूर्य तारे कभी न उगते न चलते न डूबते। जो जहां हैं वहीं सदा बना रहता। तब पूर्ण स्थिरता की अनुभूति होते हुये भी सब की गतिशीलता यथावत् बनी रहती।

गति सापेक्ष है। अन्तर कितनी ही तरह निकाला जा सकता है। सौ में से नब्बे निकालने पर दस बचते हैं। तीस में से बीस निकालने पर भी—पचास में से चालीस निकालने पर भी दस ही बचेंगे। अन्तर एक ही निकले इसके लिये अनेकों अंकों का अनेक प्रकार से उपयोग हो सकता है। इतनी भिन्नता रहने पर भी परिणाम में अन्तर न पड़ेगा। एक हजार का जोड़ निकालना हो तो कितने ही अंकों का कितनी ही प्रकार से वही जोड़ बन सकता है। गति मापने के बारे में भी यही बात है। भूतकाल के खगोल वेत्ता सूर्य को स्थिर मान कर यह गणित करते हैं। चन्द्र-ग्रहण, सूर्य ग्रहण सौर मण्डल के ग्रह-उपग्रहों का उदय-अस्त दिन मान, रात्रि मान आदि इसी आधार पर निकाला जाता रहा है। फिर भी वह बिलकुल सही बैठता रहा है। यद्यपि सूर्य को स्थिर मानकर चलने की मान्यता सर्वथा मिथ्या है। मिथ्या आधार भी जब सत्य परिणाम प्रस्तुतः करते हैं तो फिर सत्य असत्य का भेद किस प्रकार किया जाय, यह सोचने पर बुद्धि थककर बैठ जाती है।

दिशा का निर्धारण भी लोक व्यवहार में आवश्यक है। इसके बिना भूगोल नक्शा, यातायात की कोई व्यवस्था ही न बनेगी। रेखा गणित में आड़ी, सीधी, तिरछी रेखाओं को ही आधार माना गया है। दिशा ज्ञान के बिना वायुयान और जलयानों के लिये निर्दिष्ट लक्ष्य तक पहुंच सकना ही सम्भव न होगा। पूर्व, पश्चिम आदि आठ और दो ऊपर नीचे की दशों दिशाएं लोक व्यवहार की दृष्टि से महत्वपूर्ण आधार हैं, पर ‘नितान्त सत्य’ का आश्रय लेने पर यह दिशा मान्यता भी लड़खड़ा कर भूमिसात् हो जाती है।

एक लम्बी नाली लगातार खोदते चले जायें तो प्रतीत होगा कि वह सीधी समतल जा रही है, पर वस्तुतः यह गोलाई में ही खुद रही है और वह क्रम चलता रहने पर खुदाई उसी स्थान पर आ पहुंचेगी जहां से वह आरम्भ हुई थी। रबड़ की गेंद पर बिलकुल सीधी रेखा खींचने पर भी वस्तुतः वह गोलाई में ही खिंच रही है, सीधी रेखा खींचने का मतलब उसके दोनों सिरों का अन्तर सदा बना रहना ही होना चाहिये, पर जब वे अन्ततः एक में आ मिलें तो फिर सीधी लकीर कहां हुई? कागज पर जमीन पर, या कहीं भी छोटी बड़ी सीधी लकीर खींची जाय वह कभी भी सीधी नहीं हो सकती। स्वल्प गोलाई अपने नाप साधनों से भले ही पकड़ में न आये, पर वस्तुतः वह गोल ही बन रही होगी। जिस भूमि को हम समतल समझते हैं वस्तुतः वह भी गोल है। समुद्र समतल दीखता है, पर उस पर चलने वाले जहाजों का मस्तूल ही पहले दीखता है इससे प्रतीत होता है कि पानी समतल प्रतीत होते हुये भी पृथ्वी के अनुपात में गोलाई लिये हुये है। जमीन पर खड़े होकर जमीन और आसमान मिलने वाला क्षितिज प्रायः 3 मील पर दिखाई पड़ता है पर यदि दो सौ फुट ऊंचाई पर चढ़ कर देखें तो वह बीस मील दूरी पर मिलता दिखाई देगा। यह बातें पृथ्वी की गोलाई सिद्ध करती हैं। फिर भी मोटी बुद्धि से उसे गोल देख पाने का कोई प्रत्यक्ष साधन अपने पास नहीं हैं। वह समतल या ऊंची नीची दीखती है गोल नहीं। ऐसी दशा में हमारा दिशाज्ञान भी अविश्वस्त ही ठहरता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ ८

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