🔴 हमें यह बात किसी भी तरह कदापि नहीं भूलना चाहिए कि ‘नारी’ अर्थात् ‘माँ’ इस जगती का सबसे सुकोमल, संवेदनशील एवं श्रेष्ठतम तत्त्व है। यह उन्हीं जगन्माता की अभिव्यक्ति का सबसे सार्थक माध्यम है, जिनकी उपासना हम नवरात्रि के दिनों में कर रहे हैं। यदि हमें अपना स्वत्व प्राप्त करना है अपने संकल्प को सिद्ध करना है तो हमें इस सत्य को पहचानना होगा। जो तरल प्रेम, वात्सल्य, ममता और परमेश्वरीय करुणा का विग्रह है, उस माँ को और उसके मातृत्व भाव को दूषित, प्रदूषित करने की प्रक्रिया, आधुनिकता के नाम से जानी जाने वाली परम्परा नहीं रुकी, तो पशुवत् मनुष्य ही जन्मेंगे, मनुष्यवत् देवता नहीं।
🔵 मातृत्व का सम्यक् बोध, माँ के सही स्वरूप की पहचान नवरात्रि की साधना का सार ही नहीं, हमारी संस्कृति का निष्कर्ष भी है। वेदों की घोषा, अपाला, लोपामुद्रा आदि मंत्रदृष्टाओं में अभ्भृण ऋषि की कन्या ‘वाक्’ का स्थान महिमामय है। उसके द्वारा रचित देवीसूक्त में भावी युगों की शक्ति उपासना का अंकुरण मिलता है। ‘अहं राष्ट्रीय संगमनी वसूनाँ’ एवं ‘अहं रुद्राय धनुरातनोमि’ आदि मंत्रों में वह कहती है कि ‘मैं राष्ट्र को बाँधने वाली शक्ति हूँ। मैं ही उसे ऐश्वर्यों से सम्पन्न करती हूँ। मैं ही ब्रह्मद्वेषियों के संहार के लिए रुद्र का धनुष चढ़ाती हूँ। मैं ही आकाश और पृथ्वी में व्याप्त होकर मनुष्य के लिए संहार करती हूँ।’ स्पष्ट ही इस सूक्त में महालक्ष्मी, महासरस्वती एवं महाकाली के विविध आयाम प्रकट हुए हैं।
🔴 यही है हमारे देश में व्याप्त होने वाला मातृभाव। यही है नवरात्रि के दिनों में सारे देश में होने वाला प्रेम, करुणा, ममता, वात्सल्य, सृजन एवं पालन, संरक्षण का मातृरूप अवतरण। इस दिव्य भावाभिव्यक्ति को प्रकट करना ही नवरात्रि के नौ दिनों में की जाने वाली साधना का सार है। इसी में निहित है मातृत्व की सम्यक् पहचान। जिसे हम अपनी मानसिक एवं सामाजिक बुराइयों को दूर करके ही पा सकते हैं। नवरात्रि के दिनों में गायत्री महामंत्र के 24 हजार अक्षरों वाले मंत्र के 24,000 जप का अनुष्ठान तो करें ही, पर साथ ही अपने संवेदनशून्य मन को माँ के प्रेम से भी संवेदित करें। अपनी माँ को सच्ची और सम्यक् प्रतिष्ठ प्रदान करने के अधिकारी बनने का अनुष्ठान भी करें। नारी के जीवन में- देश की व्यापकता में, धरती के कण-कण में व्याप्त माँ को यदि हम पहचान सके, उसकी भावभरी पूजा कर सके, तभी हमें सुख-समृद्धि एवं भक्ति-शक्ति के सारे सुफल मिल सकेंगे। माँ की अपार करुणा हम पर बरसेगी और देश ही नहीं हमारा अपना जीवन भी मातृमय हो सकेगा।
🌹 अखण्ड ज्योति- अप्रैल 2002 पृष्ठ 14
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/2002/April/v1.14
🔵 मातृत्व का सम्यक् बोध, माँ के सही स्वरूप की पहचान नवरात्रि की साधना का सार ही नहीं, हमारी संस्कृति का निष्कर्ष भी है। वेदों की घोषा, अपाला, लोपामुद्रा आदि मंत्रदृष्टाओं में अभ्भृण ऋषि की कन्या ‘वाक्’ का स्थान महिमामय है। उसके द्वारा रचित देवीसूक्त में भावी युगों की शक्ति उपासना का अंकुरण मिलता है। ‘अहं राष्ट्रीय संगमनी वसूनाँ’ एवं ‘अहं रुद्राय धनुरातनोमि’ आदि मंत्रों में वह कहती है कि ‘मैं राष्ट्र को बाँधने वाली शक्ति हूँ। मैं ही उसे ऐश्वर्यों से सम्पन्न करती हूँ। मैं ही ब्रह्मद्वेषियों के संहार के लिए रुद्र का धनुष चढ़ाती हूँ। मैं ही आकाश और पृथ्वी में व्याप्त होकर मनुष्य के लिए संहार करती हूँ।’ स्पष्ट ही इस सूक्त में महालक्ष्मी, महासरस्वती एवं महाकाली के विविध आयाम प्रकट हुए हैं।
🔴 यही है हमारे देश में व्याप्त होने वाला मातृभाव। यही है नवरात्रि के दिनों में सारे देश में होने वाला प्रेम, करुणा, ममता, वात्सल्य, सृजन एवं पालन, संरक्षण का मातृरूप अवतरण। इस दिव्य भावाभिव्यक्ति को प्रकट करना ही नवरात्रि के नौ दिनों में की जाने वाली साधना का सार है। इसी में निहित है मातृत्व की सम्यक् पहचान। जिसे हम अपनी मानसिक एवं सामाजिक बुराइयों को दूर करके ही पा सकते हैं। नवरात्रि के दिनों में गायत्री महामंत्र के 24 हजार अक्षरों वाले मंत्र के 24,000 जप का अनुष्ठान तो करें ही, पर साथ ही अपने संवेदनशून्य मन को माँ के प्रेम से भी संवेदित करें। अपनी माँ को सच्ची और सम्यक् प्रतिष्ठ प्रदान करने के अधिकारी बनने का अनुष्ठान भी करें। नारी के जीवन में- देश की व्यापकता में, धरती के कण-कण में व्याप्त माँ को यदि हम पहचान सके, उसकी भावभरी पूजा कर सके, तभी हमें सुख-समृद्धि एवं भक्ति-शक्ति के सारे सुफल मिल सकेंगे। माँ की अपार करुणा हम पर बरसेगी और देश ही नहीं हमारा अपना जीवन भी मातृमय हो सकेगा।
🌹 अखण्ड ज्योति- अप्रैल 2002 पृष्ठ 14
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/2002/April/v1.14