राग शमन करता है—वीतराग का ध्यान
वे जगद्गुरु हैं और सद्गुरु भी। उन्होंने आज के मानव जीवन को युग बोध दिया है। योग साधकों के अन्तर्चेतना को नयी ऊर्जा, नयी चेतनता दी है। उनका ध्यान योग पथ के पथिक को सभी द्वन्द्वों से परे ले जाता है। इन पंक्तियों को पढ़कर कोई जिज्ञासु पूछ सकता है, यह भला किस तरह? तो सच यह है कि जब हम ध्यान करते हैं उसका, जो आकांक्षाओं के पार जा चुका है, तो वह हमारे भीतर एक चुम्बकीय शक्ति बन जाता है। हम उसे अपने भीतर प्रवेश करने देते हैं। वह हमें हमारी वर्तमान अवस्था से बाहर खींचता है। यही बात हमें उसकी विराट् चेतना के प्रति खोलती है।
यदि हम लगातार उसका ध्यान करते रहें, उसकी वीतरागता में खोये रहें, तो देर-सबेर हम उसी की भाँति हो जायेंगे, क्योंकि ध्यान की प्रक्रिया ध्यान करने वाले को ध्यान की विषयवस्तु की भाँति बना देती है। यदि कोई ध्यान करता है धन पर, तो वह स्वयं धन हो जाता है। एक कंजूस आदमी स्वयं ही बैंक बैलेंस बनकर रह जाता है। उसके भीतर नोटों के सरकने और सिक्कों के खनकने की सिवा और कुछ नहीं बचता। यह बड़ी सावधानी की बात है कि हमें उसी के बारे में सोचना चाहिए, चिंतन करना चाहिए और उस पर ध्यान करना चाहिए, जैसे कि हम स्वयं होना चाहते हैं।
हम अपने जीवन में स्वयं ही नरक के बीज बोते हैं और जब वे वृक्ष बन जाते हैं, तब हम अचरज से पूछते हैं कि भला मैं इतना दुःखी क्यों हूँ? कारण केवल इतना ही है कि हम सदा गलत चीजों पर ध्यान लगाते हैं। हमेशा उसकी ओर देखते हैं, जो नकारात्मक है। हमेशा हम ध्यान लगाते हैं दोषों पर और स्वयं ही दोषों से भरते चले जाते हैं। यहाँ तक कि दोषों की सघन मूर्ति बन जाते हैं।
इसीलिए पतंजलि कहते हैं कि वीतराग का ध्यान करो। ध्यान करो अपने सद्गुरु का। अपने अन्तःकरण में अपने सद्गुरु के मूर्ति की स्थापना करो। देखते-देखते सारा का सारा दृश्य बदल जायेगा। जिसे हम ध्यान का विषय बनाते हैं, वही प्रकारान्तर से हमारे जीवन का लक्ष्य बन जाता है। द्रष्टा स्वयं दृश्य बन जाता है। यह बात परम वन्दनीया माताजी के जीवन के पृष्ठों को पढ़कर जानी जा सकती है। वे शिव की पार्वती की भाँति स्वयं शिव हो गयी थीं। गुरुदेव में उनके चित्त की सतत विलीनता ने उन्हें स्वयं गुरुदेव बना दिया था। मार्ग अभी भी है, प्रक्रिया यथावत् है। बस, केवल सघन श्रद्धा, सहजप्रेम एवं सम्पूर्ण समर्पण की दरकार है।
.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १४८
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या